अल-मुद्दस्सिर

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सूरा अल-मुद्दस्सिर (इंग्लिश: Al-Muddaththir) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 74 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 56 आयतें हैं।

नाम

इस सूरा के अरबी भाषा के नाम को क़ुरआन के प्रमुख हिंदी अनुवाद में सूरा अल-मुद्दस्सिर [१]और प्रसिद्ध किंग फ़हद प्रेस के अनुवाद में भी सूरा अल्-मुद्दस्सिर[२] नाम दिया गया है।

नाम पहली ही आयत के शब्द अल-मुद्दस्सिर” (ओढ़-लपेटकर लेटने वाले) को इस सूरा का नाम दिया गया है। यह भी केवल नाम है , विषय-वस्तु की दृष्टि से वार्ताओं का शीर्षक नहीं।

अवतरणकाल

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। मक्की सूरा अर्थात पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत से पहले अवतरित हुई।

इसकी पहली सात आयतें मक्का मुअज़्ज़मा के बिलकुल आरम्भिक काल में अवतरित हुई हैं। पहली 'वह्य' (वही, प्रकाशना) जो नबी (सल्ल.) पर अवतरित हुई वह “पढ़ो (ऐ नबी), अपने रब के नाम के साथ , जिसने पैदा किया, से लेकर “जिसे वह न जनता था” सूरा 96 (अल-अलक़), तक है। इस पहली वह्य के बाद कुछ समय तक नबी (सल्ल.) पर कोई वह्य अवतरित नहीं हुई। (इस) फ़तरतुल-वह्य (वह्य के बन्द रहने के समय) का उल्लेख करते हुए (अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने स्वयं कहा है कि “एक दिन मैं रास्ते से गुज़र रहा था। अचानक मैंने आसमान से एक आवाज़ सुनी। सिर उठाया तो वही फ़रश्तिा जो हिरा की गुफा में मेरे पास आया था, आकाश और धरती के मध्य एक कुर्सी पर पैठा हुआ है। मैं यह देखकर अत्यन्त भयभीत हो गया और घर पहुँचकर मैंने कहा , “मुझे ओढ़ाओ , मुझ ओढ़ाओ।" अतएव घरवालों ने मुझपर लिहाफ़ (या कम्बल) ओढ़ा दिया। उस समय अल्लाह ने वह्य अवतरित की , “ऐ ओढ़ लपेटकर लेटनेवाले ...।" फिर निरन्तर मुझपर वह्य अवतरति होनी प्रारम्भ हो गई।" ( हदीस : बुख़ारी , मुस्लिम , मुस्नद अहमद , इब्ने जरीर ) सूरा का शेष भाग आयत 8 से अन्त तक उस समय अवतरित हुआ जब इस्लाम का खुल्लम - खुल्ला प्रचार हो जाने के पश्चात् मक्का में पहली बार हज का अवसर आया।

विषय और वार्ता

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि पहली वह्य (वही, प्रकाशना) में जो सूरा 96 ( अलक़ ) की आरम्भिक 5 आयतों पर आधारित थी , आप (सल्ल.) को यह नहीं बताया गया था कि आप किस महान् कार्य पर नियुक्त हुए हैं और आगे क्या कुछ आपको करना है, बल्कि केवल एक प्रारम्भिक परिचय कराकर आपको कुछ समय के लिए छोड़ दिया गया था, ताकि आपके मन पर जो बड़ा बोझ इस पहले अनुभव से पड़ा है, उसका प्रभाव दूर हो जाए और आप मानसिक रूप से आगे वह्य प्रापत करने और नुबूवत के कर्तव्यों के सम्भालने के लिए तैयार हो जाएँ। इस अन्तराल के पश्चात् जब पुनः वह्य के अवतरण का सिलसिला शुरू, हुआ तो इस सूरा की आरम्भिक 7 आयतें अवतरित की गई और इनमें पहली बार आपको यह आदेश दिया गया कि आप उठे और ईश्वर के सृष्ट जीवों को उस नीति के परिणाम से डराएँ जिस पर वे चल रहे हैं और इस दुनिया में ईश्वर की महानता की उद्घोषणा करें। इसके साथ आपको आदेश दिया गया कि अब जो कार्य आपको करना है , उसे यह अपेक्षित है कि आपका जीवन हर दृष्टि से ( अत्यन्त पवित्र , पूर्ण निष्ठा और पूर्ण धैर्य और ईश्वरीय निर्णय पर राज़ी रहने का नमूना हो।) इस ईश्वरीय आदेश के अनुपालन स्वरूप जब अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने इस्लाम का प्रचार आरम्भ किया तो मक्का में खलबली मच गई और विरोधों का एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। कुछ महीने इसी दशा में व्यतीत हुए थे कि हज का समय आग गया। कुरैश के सरदारों ने (इस भय से कि कहीं बाहर से आनेवाले हाजी इस्लाम के प्रचार से प्रभावित न हो जाएँ) एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें यह निश्चय किया कि हाजियों के आते ही उनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के विरुद्ध प्रपगंडा शुरू कर दिया जाए। इसपर सहमति के पश्चात् वलीद बिन मुग़ीरा ने उपस्थित लोगों से कहा कि “यदि आप लोगों ने मुहम्मद (सल्ल.) के सम्बन्ध में विभिन्न बातें लोगों से कही तो हम सबका विश्वास जाता रहेगा। इसलिए कोई एक बात निर्धारित कर लीजिए जिसे सब एकमत होकर कहें।" ( इसपर किसी ने आपको काहिन, किसी ने दीवाना और उन्मादी , किसी ने कवि और किसी ने जादूगर कहने का प्रस्ताव रखा। लेकिन वलीद इनमें से हर प्रस्ताव को रद्द करता गया। फिर उस ने कहा कि इन बातों में से जो बात भी तुम करोगे, लोग उसे अनुचित आरोप समझेंगे। अल्लाह की क़सम , उस वाणी में बड़ा माधुर्य है ; उसकी जड़ें बड़ी गहरी और उसकी डालियाँ बहुत फलदार हैं। (अन्त में अबू जहल के आग्रह पर वह स्वयं) सोचकर बोला, “सर्वाधिक अनुकूल बात जो कही जा सकती है वह यह कि यह व्यक्ति जादूगर है। यह ऐसी वाणी प्रस्तुत कर रहा है जो आदमी को उसके बाप, भाई , पत्नी, बच्चों और सारे परिवार से विलग कर देती है।" वलीद की इस बात को सबने स्वीकार कर लिया। (और हज के अवसर पर इसके अनुसार भरपूर प्रोपगंडा किया गया।) किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि कुरैश ने अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का नाम स्वयं ही सम्पूर्ण अरब में प्रसिद्ध कर दिया, ( सीरत इब्ने हिशाम , प्रथम भाग , पृ. 288-89)। यही घटना है जिसकी इस सूरा के दूसरे भाग में समीक्षा की गई है। इसकी वार्ताओं का क्रम यह है:

आयत 8 से 10 तक सत्य का इनकार करनेवालों को (उनके बुरे परिणाम से) सावधान किया गया है।

आयत 11 से 26 तक वलीद -बिन- मुग़ीरा का नाम लिए बिना यह बताया गया है कि अल्लाह ने इस व्यक्ति को क्या कुछ सुख-सामग्रियाँ प्रदान की थी और उनका प्रत्युत्तर उसने सत्य के विरोध के रूप में दिया है। अपनी इस करतूत के पश्चात् भी यह व्यक्ति चाहता है कि इसे तदधिक प्रसादों से अनुग्रहीत किया जाएगा, जबकि अब यह अनुग्रह का नहीं, बल्कि नरक का भागी हो चुका है।

तदनन्तर आयत 27 से 48 तक नरक की भयावहताओं का उल्लेख किया गया है और यह बताया गया है कि किस नैतिक आधार और चरित्र के लोग उसके भागी हैं।

फिर आयत 49 से 53 में काफ़िरों के रोग की मौलिक जड़ बता दी गई है कि वे चूँकि परलोक से निर्भय हैं इसलिए वे कुरआन से भागते हैं और ईमान के लिए तरह-तरह की अनुचित शर्ते पेश करते हैं। अन्त में साफ़-साफ़ कह दिया गया है कि ख़ुदा को किसी के ईमान की कोई ऐसी आवश्यकता नहीं पड़ गई है कि वह उसकी शर्ते पूरी करता फिरे। कुरआन सामान्यजन के लिए एक उपदेश है, जो सबके समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया है। अब जिसका जी चाहे उसको स्वीकार कर ले ।

सुरह "अल-मुद्दस्सिर का अनुवाद

बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:

क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी [३]"मुहम्मद अहमद" ने किया।

बाहरी कडियाँ

इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें


पिछला सूरा:
अल-मुज़्ज़म्मिल
क़ुरआन अगला सूरा:
अल-क़ियामह
सूरा 74 - अल-मुद्दस्सिर

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सन्दर्भ

इन्हें भी देखें