अन-नम्ल
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क़ुरआन |
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सूरा अन-नम्ल (इंग्लिश: An-Naml) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 27 वां सूरा या अध्याय है। इसमें 93 आयतें हैं।
नाम
सूरा अन-नम्ल[१] या अन्-नम्ल' [२] का नाम सूरा की आयत 18 में नम्ल (चींटी) की घाटी का उल्लेख है। सूरा का नाम इसी से उद्धृत है ।
अवतरणकाल
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मक्कन सूरा अर्थात पैग़म्बर मुहम्मद के मक्का के निवास के समय अवतरित हुई।
विषय-वस्तु और वर्णन-शैली मक्का के मध्यकाल की सूरतों से पूर्णतः मिलती जुलती है और उल्लेखों से भी इसकी पुष्टि होती है। इब्ने अब्बास (रजि.) और जाबिर बिन-ज़ैद का बयान है कि “पहले सूरा 26 (शुअरा) अवतरित हुई , फिर सूरा 27 (अन-नम्ल), फिर 28 (अल-क़सस)।"
विषय और वार्ताएँ
मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी इस सूरा के विषय में लिखते हैं कि यह सूरा दो अभिभाषणों पर आधारित है। पहला अभिभाषण सूरा के आरंभ से आयत 58 तक चला गया है और दूसरा अभिभाषण आयत 59 से सूरा के अन्त तक। पहले अभिभाषण में बताया गया है कि कुरआन के मार्गदर्शन से केवल वही लोग लाभ उठा सकते हैं जो उन सच्चाइयों को स्वीकार करें जिन्हें यह किताब इस विश्व की मौलिक सच्चाइयों के रूप में प्रस्तुत करती है, और फिर मान लेने के पश्चात् अपने व्यावहारिक जीवन में भी आज्ञापालन और अनुपालन की नीति अपनाएँ किन्तु इस राह पर आने और चलने में जो चीज़ सबसे बढ़कर रुकावट सिद्ध होती है वह आख़िरत (परलोक) का इनकार है। इस भूमिका के पश्चात् तीन प्रकार के चरित्रों के दृष्टान्त प्रस्तुत किए गए हैं ।
एक नमूना फ़िरऔन और समूद जाति के सरदारों और लूत (अलै.) की क़ौम के सरकशों का है , जिनका चरित्र परलोक - चिन्तन से बेपरवाही और परिणामतः मन की दासता से निर्मित हुआ था। ये लोग किसी निशानी को देखकर भी ईमान लाने को तैयार न हुए। ये उलटे उन लोगों के शत्रु हो गए जिन्होंने उनको भलाई और सुधार की ओर बुलाया।
दूसरा नमूना हज़रत सुलैमान (अलै.) का है जिनको अल्लाह ने धन , राज्य , वैभव और प्रताप से बड़े पैमाने पर सम्पन्न किया था, किन्तु इस सबसके बावजूद क्योंकि वे अपने आपको अल्लाह के समक्ष उत्तरदायी समझते थे इसलिए उनका सिर सदैव वास्तविक उपकारकर्ता (ईश्वर) के आगे झुका रहता था। तीसरा नमूना सबा की रानी का है जो अरब-इतिहास की अत्यन्त प्रसिद्ध धनवान जाति की शासिका थी। उसके पास वे सभी संसाधन संचित थे जो किसी व्यक्ति को अहंकारी बना सकते हैं। फिर उसका सम्बन्ध एक बहुदेववादी जाति से था। पूर्वजों के अनुसरण के कारण भी और अपनी जाति में अपनी सरदारी क़ायम रखने के लिए भी, उसके लिए बहुदेववादी धर्म को त्याग कर एकेश्वरवादी धर्म ग्रहण करना बहुत दुष्कर था। लेकिन जब उसपर सत्य प्रकट हो गया तो कोई चीज़ उसे सत्य को स्वीकार करने से न रोक सकी , क्योंकि उसकी गुमराही केवल एक बहुदेववादी वातावरण में आँखें खोलने के कारण थी। अपनी दासता और इच्छाओं की गुलामी के रोग में वह ग्रस्त न थी। दूसरे अभिभाषण में सबसे पहले विश्व के कुछ अत्यन्त स्पष्ट तथ्यों की ओर संकेत करके मक्का के काफ़िरों से निरन्तर प्रश्न किया गया है कि बताओ ये तथ्य बहुदेववाद के साक्षी है या एकेश्वरवाद (के ?)। इसके पश्चात् काफ़िरों के वास्तविक रोग पर उँगली रख दी गई है कि जिस चीज़ ने उनको अन्धा - बहरा बना रखा है , वह वास्तव में परलोक का इनकार। इस वाद-संवाद से अभीष्ट सोनेवालों को झकझोर कर जगाना है। इसी लिए आयत 67 से सूरा के अन्त तक निरन्तर वे बातें कही गई हैं जो लोगों में आख़िरत के एहसास को जगा दें। वार्ता को समाप्त करते हुए कुरआन का मूल आमंत्रण अर्थात् अकेले ख़ुदा की बन्दगी का आमंत्रण अत्यन्त संक्षिप्त , किन्तु अत्यन्त प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत करके लोगों को सावधान किया गया है कि उसे स्वीकार करना तुम्हारे अपने लिए लाभदायक और उसे रद्द करना तुम्हारे अपने लिए ही हानिकारक है।
सुरह अन्-नम्ल का अनुवाद
अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
27|1|ता॰ सीन॰। ये आयतें है क़ुरआन और एक स्पष्ट किताब की [३]
27|2|मार्गदर्शन है और शुभ-सूचना उन ईमानवालों के लिए,
27|3|जो नमाज़ का आयोजन करते है और ज़कात देते है और वही है जो आख़िरत पर विश्वास रखते है
27|4|रहे वे लोग जो आख़िरत को नहीं मानते, उनके लिए हमने उनकी करतूतों को शोभायमान बना दिया है। अतः वे भटकते फिरते है
27|5|वही लोग है, जिनके लिए बुरी यातना है और वही है जो आख़िरत में अत्यन्त घाटे में रहेंगे
27|6|निश्चय ही तुम यह क़ुरआन एक बड़े तत्वदर्शी, ज्ञानवान (प्रभु) की ओर से पा रहे हो
27|7|याद करो जब मूसा ने अपने घरवालों से कहा कि "मैंने एक आग-सी देखी है। मैं अभी वहाँ से तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आता हूँ या तुम्हारे पास कोई दहकता अंगार लाता हूँ, ताकि तुम तापो।"
27|8|फिर जब वह उसके पास पहुँचा तो उसे आवाज़ आई कि "मुबारक है वह जो इस आग में है और जो इसके आस-पास है। महान और उच्च है अल्लाह, सारे संसार का रब!
27|9|ऐ मूसा! वह तो मैं अल्लाह हूँ, अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी!
27|10|तू अपनी लाठी डाल दे।" जब मूसा ने देखा कि वह बल खा रहा है जैसे वह कोई साँप हो, तो वह पीठ फेरकर भागा और पीछे मुड़कर न देखा। "ऐ मूसा! डर मत। निस्संदेह रसूल मेरे पास डरा नहीं करते,
27|11|सिवाय उसके जिसने कोई ज़्यादती की हो। फिर बुराई के पश्चात उसे भलाई से बदल दिया, तो मैं भी बड़ा क्षमाशील, अत्यन्त दयावान हूँ
27|12|अपना हाथ गिरेबान में डाल। वह बिना किसी ख़राबी के उज्जवल चमकता निकलेगा। ये नौ निशानियों में से है फ़िरऔन और उसकी क़ौम की ओर भेजने के लिए। निश्चय ही वे अवज्ञाकारी लोग है।"
27|13|किन्तु जब आँखें खोल देनेवाली हमारी निशानियाँ उनके पास आई तो उन्होंने कहा, "यह तो खुला हुआ जादू है।"
27|14|उन्होंने ज़ुल्म और सरकशी से उनका इनकार कर दिया, हालाँकि उनके जी को उनका विश्वास हो चुका था। अब देख लो इन बिगाड़ पैदा करनेवालों का क्या परिणाम हुआ?
27|15|हमने दाऊद और सुलैमान को बड़ा ज्ञान प्रदान किया था, (उन्होंने उसके महत्व को जाना) और उन दोनों ने कहा, "सारी प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जिसने हमें अपने बहुत-से ईमानवाले बन्दों के मुक़ाबले में श्रेष्ठता प्रदान की।"
27|16|दाऊद का उत्तराधिकारी सुलैमान हुआ औऱ उसने कहा, "ऐ लोगों! हमें पक्षियों की बोली सिखाई गई है और हमें हर चीज़ दी गई है। निस्संदेह वह स्पष्ट बड़ाई है।"
27|17|सुलैमान के लिए जिन्न और मनुष्य और पक्षियों मे से उसकी सेनाएँ एकत्र कर गई फिर उनकी दर्जाबन्दी की जा रही थी
27|18|यहाँ तक कि जब वे चींटियों की घाटी में पहुँचे तो एक चींटी ने कहा, "ऐ चींटियों! अपने घरों में प्रवेश कर जाओ। कहीं सुलैमान और उसकी सेनाएँ तुम्हें कुचल न डालें और उन्हें एहसास भी न हो।"
27|19|तो वह उसकी बात पर प्रसन्न होकर मुस्कराया और कहा, "मेरे रब! मुझे संभाले रख कि मैं तेरी उस कृपा पर कृतज्ञता दिखाता रहूँ जो तूने मुझपर और मेरे माँ-बाप पर की है। और यह कि अच्छा कर्म करूँ जो तुझे पसन्द आए और अपनी दयालुता से मुझे अपने अच्छे बन्दों में दाखिल कर।"
27|20|उसने पक्षियों की जाँच-पड़ताल की तो कहा, "क्या बात है कि मैं हुदहुद को नहीं देख रहा हूँ, (वह यहीं कहीं है) या ग़ायब हो गया है?
27|21|मैं उसे कठोर दंड दूँगा या उसे ज़बह ही कर डालूँगा या फिर वह मेरे सामने कोई स्पष्ट॥ कारण प्रस्तुत करे।"
27|22|फिर कुछ अधिक देर नहीं ठहरा कि उसने आकर कहा, "मैंने वह जानकारी प्राप्त की है जो आपको मालूम नहीं है। मैं सबा से आपके पास एक विश्वसनीय सूचना लेकर आया हूँ
27|23|मैंने एक स्त्री को उनपर शासन करते पाया है। उसे हर चीज़ प्राप्त है औऱ उसका एक बड़ा सिंहासन है
27|24|मैंने उसे और उसकी क़ौम के लोगों को अल्लाह से इतर सूर्य को सजदा करते हुए पाया। शैतान ने उनके कर्मों को उनके लिए शोभायमान बना दिया है और उन्हें मार्ग से रोक दिया है - अतः वे सीधा मार्ग नहीं पा रहे है। -
27|25|खि अल्लाह को सजदा न करें जो आकाशों और धरती की छिपी चीज़ें निकालता है, और जानता है जो कुछ भी तुम छिपाते हो और जो कुछ प्रकट करते हो
27|26|अल्लाह कि उसके सिवा कोई इष्ट -पूज्य नहीं, वह महान सिंहासन का रब है।"
27|27|उसने कहा, "अभी हम देख लेते है कि तूने सच कहा या तू झूठा है
27|28|मेरा यह पत्र लेकर जा, और इसे उन लोगों की ओर डाल दे। फिर उनके पास से अलग हटकर देख कि वे क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करते है।"
27|29|वह बोली, "ऐ सरदारों! मेरी ओर एक प्रतिष्ठित पत्र डाला गया है
27|30|वह सुलैमान की ओर से है और वह यह है कि अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है
27|31|यह कि मेरे मुक़ाबले में सरकशी न करो और आज्ञाकारी बनकर मेरे पास आओ।"
27|32|उसने कहा, "ऐ सरदारों! मेरे मामलें में मुझे परामर्श दो। मैं किसी मामले का फ़ैसला नहीं करती, जब तक कि तुम मेरे पास मौजूद न हो।"
27|33|उन्होंने कहा, "हम शक्तिशाली है और हमें बड़ी युद्ध-क्षमता प्राप्त है। आगे मामले का अधिकार आपको है, अतः आप देख लें कि आपको क्या आदेश देना है।"
27|34|उसने कहा, "सम्राट जब किसी बस्ती में प्रवेश करते है, तो उसे ख़राब कर देते है और वहाँ के प्रभावशाली लोगों को अपमानित करके रहते है। और वे ऐसा ही करेंगे
27|35|मैं उनके पास एक उपहार भेजती हूँ; फिर देखती हूँ कि दूत क्या उत्तर लेकर लौटते है।"
27|36|फिर जब वह सुलैमान के पास पहुँचा तो उसने (सुलैमान ने) कहा, "क्या तुम माल से मेरी सहायता करोगे, तो जो कुछ अल्लाह ने मुझे दिया है वह उससे कहीं उत्तम है, जो उसने तुम्हें दिया है? बल्कि तुम्ही लोग हो जो अपने उपहार से प्रसन्न होते हो!
27|37|उनके पास वापस जाओ। हम उनपर ऐसी सेनाएँ लेकर आएँगे, जिनका मुक़ाबला वे न कर सकेंगे और हम उन्हें अपमानित करके वहाँ से निकाल देंगे कि वे पस्त होकर रहेंगे।"
27|38|उसने (सुलैमान ने) कहा, "ऐ सरदारो! तुममें कौन उसका सिंहासन लेकर मेरे पास आता है, इससे पहले कि वे लोग आज्ञाकारी होकर मेरे पास आएँ?"
27|39|जिन्नों में से एक बलिष्ठ निर्भीक ने कहा, "मैं उसे आपके पास ले आऊँगा। इससे पहले कि आप अपने स्थान से उठे। मुझे इसकी शक्ति प्राप्त है और मैं अमानतदार भी हूँ।"
27|40|जिस व्यक्ति के पास किताब का ज्ञान था, उसने कहा, "मैं आपकी पलक झपकने से पहले उसे आपके पास लाए देता हूँ।" फिर जब उसने उसे अपने पास रखा हुआ देखा तो कहा, "यह मेरे रब का उदार अनुग्रह है, ताकि वह मेरी परीक्षा करे कि मैं कृतज्ञता दिखाता हूँ या कृतघ्न बनता हूँ। जो कृतज्ञता दिखलाता है तो वह अपने लिए ही कृतज्ञता दिखलाता है और वह जिसने कृतघ्नता दिखाई, तो मेरा रब निश्चय ही निस्पृह, बड़ा उदार है।"
27|41|उसने कहा, "उसके पास उसके सिंहासन का रूप बदल दो। देंखे वह वास्तविकता को पा लेती है या उन लोगों में से होकर रह जाती है, जो वास्तविकता को पा लेती है या उन लोगों में से होकर जाती है, जो वास्तविकता को पा लेती है या उन लोगों में से होकर रह जाती है, जो वास्तविकता को नहीं पाते।"
27|42|जब वह आई तो कहा गया, "क्या तुम्हारा सिंहासन ऐसा ही है?" उसने कहा, "यह तो जैसे वही है, और हमें तो इससे पहले ही ज्ञान प्राप्त हो चुका था; और हम आज्ञाकारी हो गए थे।"
27|43|अल्लाह से हटकर वह दूसरे को पूजती थी। इसी चीज़ ने उसे रोक रखा था। निस्संदेह वह एक इनकार करनेवाली क़ौम में से थी
27|44|उससे कहा गया कि "महल में प्रवेश करो।" तो जब उसने उसे देखा तो उसने उसको गहरा पानी समझा और उसने अपनी दोनों पिंडलियाँ खोल दी। उसने कहा, "यह तो शीशे से निर्मित महल है।" बोली, "ऐ मेरे रब! निश्चय ही मैंने अपने आपपर ज़ुल्म किया। अब मैंने सुलैमान के साथ अपने आपको अल्लाह के समर्पित कर दिया, जो सारे संसार का रब है।"
27|45|और समूद की ओर हमने उनके भाई सालेह को भेजा कि "अल्लाह की बन्दगी करो।" तो क्या देखते है कि वे दो गिरोह होकर आपस में झगड़ने लगे
27|46|उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगों, तुम भलाई से पहले बुराई के लिए क्यों जल्दी मचा रहे हो? तुम अल्लाह से क्षमा याचना क्यों नहीं करते? कदाचित तुमपर दया की जाए।"
27|47|उन्होंने कहा, "हमने तुम्हें और तुम्हारे साथवालों को अपशकुन पाया है।" उसने कहा, "तुम्हारा शकुन-अपशकुन तो अल्लाह के पास है, बल्कि बात यह है कि तुम लोग आज़माए जा रहे हो।"
27|48|नगर में नौ जत्थेदार थे जो धरती में बिगाड़ पैदा करते थे, सुधार का काम नहीं करते थे
27|49|वे आपस में अल्लाह की क़समें खाकर बोले, "हम अवश्य उसपर और उसके घरवालों पर रात को छापा मारेंगे। फिर उसके वली (परिजन) से कह देंगे कि हम उसके घरवालों के विनाश के अवसर पर मौजूद न थे। और हम बिलकुल सच्चे है।"
27|50|वे एक चाल चले और हमने भी एक चाल चली और उन्हें ख़बर तक न हुई
27|51|अब देख लो, उनकी चाल का कैसा परिणाम हुआ! हमने उन्हें और उनकी क़ौम - सबको विनष्ट करके रख दिया
27|52|अब ये उनके घर उनके ज़ुल्म के कारण उजडें पड़े हुए है। निश्चय ही इसमें एक बड़ी निशानी है उन लोगों के लिए जो जानना चाहें
27|53|और हमने उन लोगों को बचा लिया, जो ईमान लाए और डर रखते थे
27|54|और लूत को भी भेजा, जब उसने अपनी क़ौम के लोगों से कहा, "क्या तुम आँखों देखते हुए अश्लील कर्म करते हो?
27|55|क्या तुम स्त्रियों को छोड़कर अपनी काम-तृप्ति के लिए पुरुषों के पास जाते हो? बल्कि बात यह है कि तुम बड़े ही जाहिल लोग हो।"
27|56|परन्तु उसकी क़ौम के लोगों का उत्तर इसके सिवा कुछ न था कि उन्होंने कहा, "निकाल बाहर करो लूत के घरवालों को अपनी बस्ती से। ये लोग सुथराई को बहुत पसन्द करते है!"
27|57|अन्ततः हमने उसे और उसके घरवालों को बचा लिया सिवाय उसकी स्त्री के। उसके लिए हमने नियत कर दिया था कि वह पीछे रह जानेवालों में से होगी
27|58|और हमने उनपर एक बरसात बरसाई और वह बहुत ही बुरी बरसात था उन लोगों के हक़ में, जिन्हें सचेत किया जा चुका था
27|59|कहो, "प्रशंसा अल्लाह के लिए है और सलाम है उनके उन बन्दों पर जिन्हें उसने चुन लिया। क्या अल्लाह अच्छा है या वे जिन्हें वे साझी ठहरा रहे है?
27|60|(तुम्हारे पूज्य अच्छे है) या वह जिसने आकाशों और धरती को पैदा किया और तुम्हारे लिए आकाश से पानी बरसाया; उसके द्वारा हमने रमणीय उद्यान उगाए? तुम्हारे लिए सम्भव न था कि तुम उनके वृक्षों को उगाते। - क्या अल्लाह के साथ कोई और प्रभु-पूज्य है? नहीं, बल्कि वही लोग मार्ग से हटकर चले जा रहे है!
27|61|या वह जिसने धरती को ठहरने का स्थान बनाया और उसके बीच-बीच में नदियाँ बहाई और उसके लिए मज़बूत पहाड़ बनाए और दो समुद्रों के बीच एक रोक लगा दी। क्या अल्लाह के साथ कोई और प्रभु पूज्य है? नहीं, उनमें से अधिकतर लोग जानते ही नही!
27|62|या वह जो व्यग्र की पुकार सुनता है, जब वह उसे पुकारे और तकलीफ़ दूर कर देता है और तुम्हें धरती में अधिकारी बनाता है? क्या अल्लाह के साथ कोई और पूज्य-प्रभु है? तुम ध्यान थोड़े ही देते हो
27|63|या वह जो थल और जल के अँधेरों में तुम्हारा मार्गदर्शन करता है और जो अपनी दयालुता के आगे हवाओं को शुभ-सूचना बनाकर भेजता है? क्या अल्लाह के साथ कोई और प्रभु पूज्य है? उच्च है अल्लाह, उस शिर्क से जो वे करते है
27|64|या वह जो सृष्टि का आरम्भ करता है, फिर उसकी पुनरावृत्ति भी करता है, और जो तुमको आकाश और धरती से रोज़ी देता है? क्या अल्लाह के साथ कोई और प्रभ पूज्य है? कहो, "लाओ अपना प्रमाण, यदि तुम सच्चे हो।"
27|65|कहो, "आकाशों और धरती में जो भी है, अल्लाह के सिवा किसी को भी परोक्ष का ज्ञान नहीं है। और न उन्हें इसकी चेतना प्राप्त है कि वे कब उठाए जाएँगे।"
27|66|बल्कि आख़िरत के विषय में उनका ज्ञान पक्का हो गया है, बल्कि ये उसकी ओर से कुछ संदेह में है, बल्कि वे उससे अंधे है
27|67|जिन लोगों ने इनकार किया वे कहते है कि "क्या जब हम मिट्टी हो जाएँगे और हमारे बाप-दादा भी, तो क्या वास्तव में हम (जीवित करके) निकाले जाएँगे?
27|68|इसका वादा तो इससे पहले भी किया जा चुका है, हमसे भी और हमारे बाप-दादा से भी। ये तो बस पहले लोगो की कहानियाँ है।"
27|69|कहो कि "धरती में चलो-फिरो और देखो कि अपराधियों का कैसा परिणाम हुआ।"
27|70|उनके प्रति शोकाकुल न हो और न उस चाल से दिल तंग हो, जो वे चल रहे है।
27|71|वे कहते है, "यह वादा कब पूरा होगा, यदि तुम सच्चे हो?"
27|72|कहो, "जिसकी तुम जल्दी मचा रहे हो बहुत सम्भव है कि उसका कोई हिस्सा तुम्हारे पीछे ही लगा हो।"
27|73|निश्चय ही तुम्हारा रब तो लोगों पर उदार अनुग्रह करनेवाला है, किन्तु उनमें से अधिकतर लोग कृतज्ञता नहीं दिखाते
27|74|निश्चय ही तुम्हारा रह भली-भाँति जानता है, जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए है और जो कुछ वे प्रकट करते है।
27|75|आकाश और धरती में छिपी कोई भी चीज़ ऐसी नहीं जो एक स्पष्ट किताब में मौजूद न हो
27|76|निस्संदेह यह क़ुरआन इसराईल की सन्तान को अधिकतर ऐसी बाते खोलकर सुनाता है जिनके विषय में उनसे मतभेद है
27|77|और निस्संदह यह तो ईमानवालों के लिए मार्गदर्शन और दयालुता है
27|78|निश्चय ही तुम्हारा रब उनके बीच अपने हुक्म से फ़ैसला कर देगा। वह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, सर्वज्ञ है
27|79|अतः अल्लाह पर भरोसा रखो। निश्चय ही तुम स्पष्ट सत्य पर हो
27|80|तुम मुर्दों को नहीं सुना सकते और न बहरों को अपनी पुकार सुना सकते हो, जबकि वे पीठ देकर फिरे भी जा रहें हो।
27|81|और न तुम अंधों को उनकी गुमराही से हटाकर राह पर ला सकते हो। तुम तो बस उन्हीं को सुना सकते हो, जो हमारी आयतों पर ईमान लाना चाहें। अतः वही आज्ञाकारी होते है
27|82|और जब उनपर बात पूरी हो जाएगी, तो हम उनके लिए धरती का प्राणी सामने लाएँगे जो उनसे बातें करेगा कि "लोग हमारी आयतों पर विश्वास नहीं करते थे"
27|83|और जिस दिन हम प्रत्येक समुदाय में से एक गिरोह, ऐसे लोगों का जो हमारी आयतों को झुठलाते है, घेर लाएँगे। फिर उनकी दर्जाबन्दी की जाएगी
27|84|यहाँ तक कि जब वे आ जाएँगे तो वह कहेगा, "क्या तुमने मेरी आयतों को झुठलाया, हालाँकि अपने ज्ञान से तुम उनपर हावी न थे या फिर तुम क्या करते थे?"
27|85|और बात उनपर पूरी होकर रहेगी, इसलिए कि उन्होंने ज़ुल्म किया। अतः वे कुछ बोल न सकेंगे
27|86|क्या उन्होंने देखा नहीं कि हमने रात को (अँधेरी) बनाया, ताकि वे उसमें शान्ति और चैन प्राप्त करें। और दिन को प्रकाशमान बनाया (कि उसमें काम करें)? निश्चय ही इसमें उन लोगों के लिए निशानियाँ है, जो ईमान ले आएँ
27|87|और ख़याल करो जिस दिन सूर (नरसिंघा) में फूँक मारी जाएगी और जो आकाशों और धरती में है, घबरा उठेंगे, सिवाय उनके जिन्हें अल्लाह चाहे - और सब कान दबाए उसके समक्ष उपस्थित हो जाएँगे
27|88|और तुम पहाड़ों को देखकर समझते हो कि वे जमे हुए है, हालाँकि वे चल रहे होंगे, जिस प्रकार बादल चलते है। यह अल्लाह की कारीगरी है, जिसने हर चीज़ को सुदृढ़ किया। निस्संदेह वह उसकी ख़बर रखता है, जो कुछ तुम करते हो
27|89|जो कोई सुचरित लेकर आया उसको उससे भी अच्छा प्राप्त होगा; और ऐसे लोग घबराहट से उस दिन निश्चिन्त होंगे
27|90|और जो कुचरित लेकर आया तो ऐसे लोगों के मुँह आग में औधे होंगे। (और उनसे कहा जाएगा) "क्या तुम उसके सिवा किसी और चीज़ का बदला पा रहे हो, जो तुम करते रहे हो?"
27|91|मुझे तो बस यही आदेश मिला है कि इस नगर (मक्का) के रब की बन्दगी करूँ, जिसने इस आदरणीय ठहराया और उसी की हर चीज़ है। और मुझे आदेश मिला है कि मैं आज्ञाकारी बनकर रहूँ
27|92|और यह कि क़ुरआन पढ़कर सुनाऊँ। अब जिस किसी ने संमार्ग ग्रहण किया वह अपने ही लिए संमार्ग ग्रहण करेगा। और जो पथभ्रष्टि रहा तो कह दो, "मैं तो बस एक सचेत करनेवाला ही हूँ।"
27|93|और कहो, "सारी प्रशंसा अल्लाह के लिए है। जल्द ही वह तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखा देगा और तुम उन्हें पहचान लोगे। और तेरा रब उससे बेख़बर नहीं है, जो कुछ तुम सब कर रहे हो।"
पिछला सूरा: अश-शुअरा |
क़ुरआन | अगला सूरा: अल-क़सस |
सूरा 27 - अन-नम्ल | ||
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इन्हें भी देखें
सन्दर्भ:
- ↑ साँचा:cite book
- ↑ साँचा:cite web
- ↑ An-Naml सूरा का हिंदी अनुवाद http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/27:1 स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।