अल-फ़लक़
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क़ुरआन |
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सूरा अल-फ़लक़ (इंग्लिश: Al-Falaq) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 113 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 5 आयतें हैं।
नाम
इस सूरा के अरबी भाषा के नाम को क़ुरआन के प्रमुख हिंदी अनुवाद में सूरा अल-फ़लक़ [१]और प्रसिद्ध किंग फ़हद प्रेस के अनुवाद में भी सूरा अल्-फ़लक़ [२] नाम दिया गया है।
यद्यपि कुरआन मजीद की ये दोनों अन्तिम सूरतें (अल-फ़लक़) और अगली सूरा 114 वां (अन-नास) अपनी जगह पर अलग-अलग हैं और मूल ग्रंथ में अलग नामों ही से लिखी हुई हैं , किन्तु इनके मध्य परस्पर इतना गहरा सम्बन्ध है और इनकी विषय-वस्तुएँ एक-दूसरे से इतना निकटतम साम्य रखती है कि इनका एक संयुक्त नाम 'मुअ़व्विज़तैन' (पनाह माँगने वाली दो सूरतें) रखा गया है। इमाम बैहक़ी ने 'दलायले-नुबूवत' में लिखा है कि ये अवतरित भी एक साथ ही हुई हैं। इसी कारण इसका संयुक्त नाम 'मुअविज़तैन' है।
अवतरणकाल
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। मक्की सूरा अर्थात पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत से पहले अवतरित हुई।
हज़रत हसन बसरी, इक्रमा , अता और जाबिर बिन ज़ैद (रह.) कहते हैं कि ये दोनों सूरतें मक्की हैं। हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर (रजि.) और (क़तादा (रह.) कहते हैं कि ये मदनी हैं। लेकिन इसकी विषय-वस्तु साफ़ बता रही है कि ये प्रारम्भ में मक्का में उस समय अवतरित हुई होंगी जब वहाँ नबी (सल्ल.) का विरोध उग्र रूप धारण कर चुका था। तदन्तर जब मदीना तैयबा के कपटाचारी, यहूदी और बहुदेववादियों के विरोध के तूफ़ान उठे तो नबी (सल्ल.) को फिर इन्हीं दोनों सूरतों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया गया।
विषय और वार्ता
विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि मक्का मुअज्जमा में दोनों सूरतें जिन परिस्थितियों में अवतरित हुई थीं वे ये थीं कि इस्लाम का आह्वान प्रारम्भ होते ही ऐसा प्रतीत होने लगा कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने मानो भिड़ों के छत्ते में हाथ डाल दिया है। जैसे-जैसे आपके आह्वान का विस्तार होता गया, कुरैश के काफ़िरों का विरोध भी उग्र रूप धारण करता चला गया। जब तक उन्हें यह आशा रही कि शायद वे किसी तरह सौदेबाज़ी करके या बहला फुसलाकर आपको इस काम से रोक सकेंगे, उस समय तक तो फिर भी वैर-भाव की तीव्रता में कुछ कमी रही। किन्तु जब नबी (सल्ल.) ने उनको इस ओर से बिलकुल निराश कर दिया तो काफ़िरों (इन्कार करने वालों) की दुश्मनी अपने चरम पर पहुँच गई। विशेष रूप से जिन घरानों के व्यक्तियों (पुरुषों या स्त्रियों, लड़कों या लड़कियों) ने इस्लाम क़बूल कर लिया उनके दिलों में तो नबी (सल्ल.) के विरूद्ध निरन्तर क्रोध की भट्टियाँ सुलगती रहती थीं। घर-घर आपको कोसा जा रहा था। गुप्त परामर्श किए जा रहे थे, ताकि आपकी या तो मृत्यु हो जाए या आप अत्यन्त रोगग्रस्त या विक्षिप्त हो जाएँ। इस्लामी मान्यता अनुसार जिन्न और मनुष्य दोनों प्रकार के शैतान हर तरफ़ फैला गए थे, ताकि जनसामान्य के विरूद्ध और आपके लाए हुए धर्म और कुरआन के विरूद्ध कोई -न- कोई भ्रम और संशय डाल दें जिससे लोग बदगुमान होकर आपसे दूर भागने लगें। बहुत-से लोगों के दिलों में ईर्ष्या की अग्नि धधक रही थी, क्योंकि वे अपने सिवा या अपने क़बीले के किसी आदमी के सिवा दूसरे किसी व्यक्ति का चिराग़ जलते न देख सकते थे । इन परिस्थितियों में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को (अल्लाह की पनाह माँगने का आदेश दिया गया है , जो इन दोनों सूरतों में उल्लिखित है।) यह उसी तरह की बात है जैसे हज़रत मूसा (अलै.) ने उस समय कही थी जब फ़िरऔन ने भरे दरबार में उनके क़त्ल का इरादा व्यक्त किया कि "मैंने हर अहंकारी के मुक़ाबले में, जो हिसाब के दिन पर ईमान नहीं रखता, अपने रब और तुम्हारे रब की शरण ले ली है।" (कुरआन , 40 : 27)
और “ मैं अपने प्रभु प्रभु की शरण ले चुका हूँ , इससे कि तुम मुझपर आक्रमण करो , ' (कुरआन , 44 : 20)। दोनों अवसरों पर अल्लाह के इन महानुभाव पैग़म्बरों का मुक़ाबला अत्यन्त साधनहीनता की दशा में बड़े उपकरण, सामग्री और संसाधन और बल - वैभव रखनेवालों से था। दोनों अवसरों पर वे शक्ति और शत्रुओं के आगे अपने सत्य के आह्वान पर डट गए। उन्होंने दुश्मनों की धमकियों और भयंकर उपायों और वैमनस्यपूर्ण चालों की यह कहकर उपेक्षा कर दी कि तुम्हारे मुक़ाबले में हमने जगत् के की शरण ले ली है। सूरा फ़ातिहा और इन सूरतों (मुव्विज़तैन ) के मध्य एकात्मकता आख़िरी चीज़ जो पनाह माँगने वाली इन दो सूरतों के विषय में ध्यान देने योग्य है , वह कुरआन के आरम्भ और अन्त के मध्य पाया जानेवाला पारम्परिक साम्य और एकात्मकता है। कुरआन का आरम्भ सूरा फ़ातिहा से होता है और अन्त पनाह माँगने वाली दो सूरतों पर। अब तनिक दोनों पर एक दृष्टि डालिए। आरम्भ में अल्लाह की जो , अखिल जगत् का प्रभु है और अत्यन्त करुणामय , दयावान और बदला दिए जाने के दिन का मालिक है , प्रशंसा एवं स्तुति करके बन्दा कहता है कि आप ही की मैं बन्दगी करता हूँ और आप ही से सहायता चाहता हूँ और सबसे बड़ी सहायता जिसकी मुझे आवश्यकता है, वह यह है कि मुझे सीधा मार्ग बताइए। प्रत्युत्तर में अल्लाह की ओर से सीधा मार्ग दिखाने के लिए उसे पूरा कुरआन दिया जाता है और उसको समाप्त इस पालनकर्ता प्रभु की इस बात पर किया जाता है कि बन्दा सर्वोच्च अल्लाह से , जो प्रातः काल का प्रभु , लोगों का पालनकर्ता प्रभु और लोगों का सम्राट और लोगों का पूज्य है , निवेदन करता है कि मैं प्रत्येक सृष्ट प्राणी की हर आपदा और बुराई से सुरक्षित रहने के लिए आप की शरण लेता हूँ और विशेष रूप से शैतानों के वसवसों (बुरे विचारों ) से चाहे वे जिन्न हो या मनुष्य, आपकी पनाह माँगता हूँ क्योंकि सीधे मार्ग के अनुगमन में वही सबसे अधिक बाधक होते हैं। इस शुभारम्भ और इस समाप्ति के मध्य जो अनुकूलता एवं एकात्मकता पाई जाती है, वह किसी दृष्टिवान से छुपी नहीं रह सकती।
सुरह "अल-फ़लक़ का अनुवाद
बिस्मिल्लाह हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:
क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी [३]"मुहम्मद अहमद" ने किया:
بسم الله الرحمن الرحيم
कहो, "मैं शरण लेता हूँ, प्रकट करनेवाले रब की, (113:1)
जो कुछ भी उसने पैदा किया उसकी बुराई से, (113:2)
और अँधेरे की बुराई से जबकि वह घुस आए, (113:3)
और गाँठो में फूँक मारने-वालों की बुराई से, (113:4)
और ईर्ष्यालु की बुराई से, जब वह ईर्ष्या करे।" (113:5)
पिछला सूरा: अल-इख़लास |
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बाहरी कड़ियाँ
इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें
- साँचा:gutenberg author
- The Holy Qur'an, translated by अब्दुल्लाह यूसुफ़ अली
- Three translations at Project Gutenberg
- साँचा:gutenberg author
सन्दर्भ