अल-जुमुआ

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सूरा अल-जुमुआ (इंग्लिश: Al-Jumu'ah) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 62 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 11 आयतें हैं।

नाम

इस सूरा के अरबी भाषा के नाम को क़ुरआन के प्रमुख हिंदी अनुवाद में सूरा अल-जुमुआ़ [१]और प्रसिद्ध किंग फ़हद प्रेस के अनुवाद में सूरा अल्-जुमुआ[२] नाम दिया गया है।

नाम आयत 9 के वाक्यांश “जब पुकारा जाए नमाज़ के लिए जुमुआ (जुमा) के दिन" से उद्धृत है। यद्यपि सूरा में जुमा की नमाज़ के नियम सम्बन्ध आदेश दिया गए हैं , किन्तु समग्र रूप से जुमा इसकी वार्ताओं का शीर्षक नहीं है , बल्कि अन्य सूरतों की तरह यह नाम भी चिह्न ही की तरह है।

अवतरणकाल

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। मदनी सूरा अर्थात पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत के पश्चात अवतरित हुई।

आयत 1-8 तक का अवतरणकाल सन् 7 हिजरी है, और सम्भवतः ये खैबर की विजय के अवसर पर या उसके निकटवर्ती समय में अवतरित हुई हैं। आयत 10 से सूरा के अन्त तक हिजरत के पश्चात् निकटवर्ती समय ही में अवतरित हुईहैं , क्योंकि नबी (सल्ल.) ने मदीना तैबा पहुँचते ही पाँचवे दिन जुमा क़ायम कर दिया था और सूरा की अन्तिम आयत में जिस घटना की ओर संकेत किया गया है वह साफ़ बता रहा है कि वह जुमा की स्थापना का क्रम आरम्भ होने के पश्चात अनिवार्यतः किसी ऐसे ही समय में घटित हुई होगी जब लोगों को धार्मिक सम्मेलनों के शिष्टाचार का पूर्ण प्रशिक्षण अभी प्राप्त नहीं हुआ था।

विषय और वार्ताएँ

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि जैसा कि हम ऊपर बयान कर चुके हैं , इस सूरा के दो भाग अलग-अलग समयों में अवतरित हुए हैं। इसी लिए दोनों के विषय अलग हैं और जिनसे सम्बोधन है वे भी अलग हैं। पहला भाग उस समय अवतरित हुआ जब यहूदियों के समस्त प्रयास असफल हो चुके थे जो इस्लाम के आह्वान का रास्ता रोकने के लिए विगत वर्षों के अन्तराल में उन्होंने किए थे। इन आयतों के अवतरण के समय (उनका सबसे बड़ा गढ़ खैबर) भी बिना किसी असाधारण अवरोध के विजित हो गया। इस अन्तिम पराजय के पश्चात् अरब में यहूदी शक्ति बिलकुल समाप्त हो गई। वादि-उल-कुरआ, फ़दक, तैमा, तबूक सब एक-एक करके हथियार डालते चले गए, यहाँ तक कि अरब के सभी यहूदी इस्लामी राज्य की प्रजा बनकर रह गए। यह अवसर था जब अल्लाह ने इस सूरा में एक बार फिर उनको सम्बोधित किया और सम्भवतः यह अन्तिम सम्बोधन था जो कुरआन मजीद में उनसे किया गया। इसमें उन्हें सम्बोधित करके तीन बातें कही गई हैं:

(1) तुमने इस रसूल को इसलिए मानने से इनकार कर दिया कि यह उस जाति में भेजा गया था जिसे तुम हेयता के साथ “उम्मी" कहते हो। तुम्हारा असत्य प्रमादपूर्ण दावा यह था कि रसूल अनिवार्यतः तुम्हारी अपनी जाति ही का होना चाहिए और (यह कि) "उम्मियों" में कभी कोई रसूल नहीं आ सकता। लेकिन अल्लाह ने उन्हीं “उम्मियों" में से एक मूल उठाया है, तुम्हारी आँखों के सामने उसकी किताब सुना रहा है, आत्माओं को विकसित कर रहा है, और उन लोगों को सत्य मार्ग दिखा रहा है जिनकी पथभ्रष्टता का हाल तुम स्वयं जानते हो। यह अल्लाह की उदार कृपा है, जिसे चाहे उसे सम्पन्न करे।

(2) तुमको तो तौरात का वाहक बनाया था , किन्तु तुमने उसके उत्तरदायित्व को न समझा , न निबाहा (यहाँ तक कि) तुम जानते - बूझते अल्लाह की आयतों को झुठलाने से भी बाज़ नहीं रहते। इस पर भी तुम्हारा दावा यह है कि तुम अल्लाह के प्रिय हो और ईशदूतत्व (पैग़म्बरी) का वरदान सदैव के लिए तुम्हारे नाम लिख दिया गया है।

(3) तुम यदि वास्तव में अल्लाह के प्रिय होते और तुम्हें यदि विश्वास होता कि उसके यहाँ बड़े आदर और सम्मान एवं प्रतिष्ठा का स्थान सुरक्षित है, तो तुम्हें मृत्यु का ऐसा भय न होता है कि अपमानजनक जीवन स्वीकार है, किन्तु मृत्यु किसी तरह स्वीकार नहीं। तुम्हारी यह हालत स्वयं इस बात का प्रमाण है कि अपनी करतूतों से तुम स्वयं परिचित हो और तुम्हारी अन्तरात्मा भली-भाँति जानती है कि इन करतूतों के साथ मरोगे तो अल्लाह के यहाँ इससे अधिक अपमानित होगे, जितने दुनिया में हो रहे हो। दूसरा भाग इस सूरा में लाकर इसलिए शामिल किया गया है कि अल्लाह ने यहूदियों के ‘सब्त' के मुक़ाबले में मुसलमानों को जुमा प्रदान किया है, और अल्लाह मुसलमानों को सावधान करना चाहता है कि वे अपने जुमा के साथ वह मामला न करें जो यहूदियों ने ‘सब्त' के साथ किया था।

सुरह "अल-जुमुआ़ का अनुवाद

सूरए जुमुअह मदीना में नाजि़ल हुआ और इसकी ग्यारह (11) आयतें हैं

ख़ुदा के नाम से (शुरू करता हूँ) जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है

जो चीज़ आसमानों में है और जो चीज़ ज़मीन में है (सब) ख़ुदा की तस्बीह करती हैं जो (हक़ीक़ी) बादशाह पाक ज़ात ग़ालिब हिकमत वाला है (1)

वही तो जिसने जाहिलों में उन्हीं में का एक रसूल (मोहम्मद) भेजा जो उनके सामने उसकी आयतें पढ़ते और उनको पाक करते और उनको किताब और अक़्ल की बातें सिखाते हैं अगरचे इसके पहले तो ये लोग सरीही गुमराही में (पड़े हुए) थे (2)

और उनमें से उन लोगों की तरफ़ (भेजा) जो अभी तक उनसे मुलहिक़ नहीं हुए और वह तो ग़ालिब हिकमत वाला है (3)

ख़ुदा का फज़ल है जिसको चाहता है अता फ़रमाता है और ख़ुदा तो बड़े फज़ल (व करम) का मालिक है (4)

जिन लोगों (के सरों) पर तौरेत लदवायी गयी है उन्होने उस (के बार) को न उठाया उनकी मिसाल गधे की सी है जिस पर बड़ी बड़ी किताबें लदी हों जिन लोगों ने ख़ुदा की आयतों को झुठलाया उनकी भी क्या बुरी मिसाल है और ख़ुदा ज़ालिम लोगों को मंजि़ल मकसूद तक नहीं पहुँचाया करता (5)

(ऐ रसूल) तुम कह दो कि ऐ यहूदियों अगर तुम ये ख़्याल करते हो कि तुम ही ख़ुदा के दोस्त हो और लोग नहीं तो अगर तुम (अपने दावे में) सच्चे हो तो मौत की तमन्ना करो (6)

और ये लोग उन आमाल के सबब जो ये पहले कर चुके हैं कभी उसकी आरज़ू न करेंगे और ख़ुदा तो ज़ालिमों को जानता है (7)

(ऐ रसूल) तुम कह दो कि मौत जिससे तुम लोग भागते हो वह तो ज़रूर तुम्हारे सामने आएगी फिर तुम पोशीदा और ज़ाहिर के जानने वाले (ख़ुदा) की तरफ़ लौटा दिए जाओगे फिर जो कुछ भी तुम करते थे वह तुम्हें बता देगा (8)

ऐ ईमानदारों जब जुमा का दिन नमाज़ (जुमा) के लिए अज़ान दी जाए तो ख़ुदा की याद (नमाज़) की तरफ़ दौड़ पड़ो और (ख़रीद) व फरोख़्त छोड़ दो अगर तुम समझते हो तो यही तुम्हारे हक़ में बेहतर है (9)

फिर जब नमाज़ हो चुके तो ज़मीन में (जहाँ चाहो) जाओ और ख़ुदा के फज़ल (अपनी रोज़ी) की तलाश करो और ख़ुदा को बहुत याद करते रहो ताकि तुम दिली मुरादें पाओ (10)

और (उनकी हालत तो ये है कि) जब ये लोग सौदा बिकता या तमाशा होता देखें तो उसकी तरफ़ टूट पड़े और तुमको खड़ा हुआ छोड़ दें (ऐ रसूल) तुम कह दो कि जो चीज़ ख़ुदा के यहाँ है वह तमाशे और सौदे से कहीं बेहतर है और ख़ुदा सबसे बेहतर रिज़्क़ देने वाला है (11)

सूरए जुमुअह ख़त्म

बाहरी कडियाँ

इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें Al-Jumu'ah 62:1

पिछला सूरा:
अस-साफ़्फ़ा
क़ुरआन अगला सूरा:
अल-मुनाफ़िक़ून
सूरा 62 - अल-जुमुआ

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सन्दर्भ

इन्हें भी देखें