अल-अलक़
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क़ुरआन |
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सूरा अल-अलक़ (इंग्लिश: Al-Alaq) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 96 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 19 आयतें हैं।
नाम
इस सूरा के अरबी भाषा के नाम को क़ुरआन के प्रमुख हिंदी अनुवाद में सूरा अल-अलक़ [१]और प्रसिद्ध किंग फ़हद प्रेस के अनुवाद में सूरा अल्-अ़लक़ [२] नाम दिया गया है।
नाम दूसरी आयत के “अलक़ " (खून का लोथड़ा) शब्द को इस सूरा का नाम दिया गया है।
अवतरणकाल
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
मक्की सूरा अर्थात पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत से पहले अवतरित हुई।
इस सूरा के दो भाग हैं। पहला आरम्भ से लेकर पाँचवीं आयत के वाक्यांश "जिसे वह न जानता था" पर समाप्त होता है और
दूसरा भाग आयत 6 से शुरू होकर सूरा | के अन्त तक चलात है। पहले भाग के सम्बन्ध में मुस्लिम समुदाय के विद्वानों की बड़ी संख्या इस बात पर सहमत है कि यह सबसे पहली वही (प्रकाशना) है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल.) पर अवतरित हुई। दूसरा भाग बाद में उस समय अवतरित हुआ जब अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने हरम (काबा की मस्जिद) में नमाज़ पढ़नी शुरू की और अबू जहल ने आपको धमकियाँ देकर इससे रोकने की कोशिश की।
वह्य (वही, प्रकाशना) का आरम्भ
इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि हज़रत आइशा (रजि.) कहती हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) पर वही (प्रकाशना) का आरम्भ सच्चे (और कुछ उल्लेखों में हैं अच्छे) सपनों के रूप में हुआ। आप जो स्वप्न भी देखते, वह ऐसा होता कि जैसे आप दिन के प्रकाश में देख रहे हैं। फिर आप एकान्त प्रिय हो गए और कई-कई रात 'हिरा ' की गुफा में रहकर उपासना करने लगे। हज़रत आइशा (रजि.) ने “तहन्नुस” का शब्द प्रयोग किया है, जिसे इमाम ज़ोहरी ने तअब्बुद (इबादत, उपासना) व्याख्यायित किया है। यह किसी प्रकार की उपासना थी जो आप करते थे, क्योंकि उस वक्त तक अल्लाह की ओर से आपको उपासना की विधि नहीं बताई गई थी। एक दिन जब आप हिरा की गुफा में थे, सहसा आप पर प्रकाशना का अवतरण हुआ और फ़रिश्ते ने आकर आपसे कहा : “पढ़ो।" इसके बाद हज़रत आइशा (रजि.) स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के कथन का उल्लेख करती हैं कि "मैंने कहा, मैं तो पढ़ा हुआ नहीं हूँ। इसपर फ़रिश्ते ने मुझे पकड़कर भींचा, यहाँ तक कि मेरी सहनशक्ति जवाब देने लगी। फिर उसने मुझे छोड दिया।" (ऐसा तीन बार हुआ, तीसरी बार जब फ़रिश्ते ने मुझे छोड़ा तो कहा, पढ़ो। अपने प्रभु के नाम के साथ , जिसने पैदा किया। "यहाँ तक कि “मालम-यालम” (जिसे वह न जानता था) तक पहुँच गया। हज़रत आइशा (रजि.) कहती हैं कि इसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल.) काँपते - लरज़ते वहाँ से पलटे और हज़रत ख़दीजा (रजि.) के पास पहुँचकर कहा , “ मुझे ओढ़ाओ , मुझो ओढ़ाओ।" अतएव आपको ओढ़ा दिया गया। जब आपपर से भय की हालत दूर हो गई तो आपने कहा, “मुझे अपने प्राण का भय है।" उन्होंने कहा , "कदापि नही, आप प्रसन्न हो जाइए, आपको अल्लाह कभी रुसवा न करेगा; आप नातेदारों से अच्छा व्यवहार करते हैं ; सत्य बोलते हैं (एक उल्लेख में इतना और है कि अमानतें अदा करते हैं) बेसहारा लोगों का बोझ उठाते हैं; निर्धन लोगों को कमाकर देते हैं; अतिथि सत्कार करते हैं और अच्छे कामों में सहायता करते हैं । "फिर वे नबी (सल्ल.) को साथ लेकर वरक़ा बिन नौफ़ल के पास गईं, जो उनके चचेरे भाई थे, अज्ञानकाल में ईसाई हो गए थे; अरबी और इबरानी ज़बान में इंजील लिखते थे; बहुत बूढ़े और नेत्रहीन हो गए थे। हज़रत ख़दीजा (रजि.) ने उनसे कहा , “भाईजान! तनिक अपने भतीजे का क़िस्सा सुनिए।” वरक़ा ने नबी (सल्ल.) से कहा , " भतीजे तुमको क्या दिखाई दिया? "अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने जो कुछ देखा था , वह बयान किया। वरका ने कहा , “यह वही नामूस (वह्य लानेवाला फ़रिश्ता) है जिसे अल्लाह ने मूसा (अलै.) के पास भेजा था। काश! मैं आपकी नुबूवत के समय में बलशाली युवा होता; काश! मैं उस वक्त जीवित रहूँ जब आपकी क़ौम आपको निकालेगी।" अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने कहा , “ये लोग मुझे निकाल देंगे?" वरक़ा ने कहा , "हाँ , कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई व्यक्ति वह चीज़ लेकर आया हो, जो आप लाए हैं और उससे दुश्मनी न की गई हो। यदि मैंने आपका समय पाया तो मैं आपकी ज़ोरदार मदद करूँगा।" किन्तु अधिक समय नहीं व्यतीत हुआ था कि वरका का देहान्त हो गया। यह क़िस्सा स्वयं अपने मुँह से बोल रहा है कि फ़रिश्ते के आगमन से एक क्षण पहले तक भी अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के मस्तिष्क में यह बात नहीं थी कि आप नबी बनाए जानेवाले हैं। इस चीज़ का इच्छुक या आशावान होना तो अलग रहा, आपकी कल्पना में भी यह नहीं था कि ऐसा कोई मामला आपके सामने पेश आएगा। वह्य (प्रकाशना) का अवतरण और फ़रिश्ते का इस तरह सामने आना आपके लिए अचानक एक घटना थी, जिसका प्रथम प्रभाव आपके ऊपर वही हुआ जो एक बेख़बर मनुष्य पर इतनी बड़ी एक घटना के घटित होने से स्वभावतः हो सकता है। यही कारण है कि जब आप इस्लाम का आह्वान लेकर उठे तो मक्का के लोगों ने आपपर हर प्रकार के आक्षेप किए। किन्तु उनमें से कोई यह कहनेवाला न था कि हमको तो पहले ही यह आशंका थी कि आप कोई दावा करनेवाले हैं, क्योंकि आप एक समय से नबी बनने की तैयारियां कर रहे थे। इस क़िस्से से यह बात भी मालूम होती है कि नुबूवत से पहले आपका जीवन कैसा पवित्र था और आपका चरित्र कितना उच्च था । हज़रत ख़दीजा (रजि.) ने अपने दीर्घ दाम्पत्य जीवन में आपको इतने उच्च श्रेणी का मनुष्य पाया था कि जब नबी (सल्ल.) ने ' हिरा ' नामक गुफा में घटित होने वाली घटना का वर्णन किया तो निस्संकोच उन्होंने स्वीकार कर लिया कि वास्तव में अल्लाह का फ़रिश्ता ही आपके पास वह्य (प्रकाशना) लेकर आया था। इसी तरह वरक़ा बिन नैफ़ल ने भी जब इस घटना के विषय में सुना तो इसको कोई वस्वसा (भ्रम) नहीं समझा, बल्कि सुनते ही कह दिया कि यह वही नामूस (फ़रिश्ता) मूसा (अलै.) के पास आया था। इसका अर्थ यह है कि उनकी दृष्टि में भी आप इतने उच्च श्रेणी के मनुष्य थे कि आपका नुबूवत के पद पर आसीन होना कोई आश्चर्यकारक बात नहीं थी।
सूरा के दूसरे भाग के अवतरण का परिप्रेक्ष्य
इस सूरा का दूसरा भाग उस समय अवतरित हुआ जब अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने हरम (काबा की मस्जिद) में इस्लामी तरीके पर नमाज़ पढ़नी शुरू की और अबू जल ने आपको डरा - धमकाकर इससे रोकना चाहा। अतएव इस सम्बन्ध में कई हदीसें हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि.) और हज़रत अबू हुरैरा से उल्लिखित हैं , जिनमें अबू जल के इन अभद्र व्यवहारों का उल्लेख किया गया है। हज़रत अबू हुरैरा (रजि.) का बयान है कि अबू जल ने क़ुरेश के लोगों से पूछा , “क्या मुहम्मद (सल्ल.) तुम्हारे सामने धरती पर अपना मुँह टिकाते हैं?" लोगों ने कहा , “ हाँ !” उसने कहा , “ लात और उज़्ज़ा की सौगन्ध , अगर मैंने उनको इस प्रकार नमाज़ पढ़ते हुए देख लिया, तो उनकी गर्दन पर पाँव रख दूंगा और उनका मुँह ज़मीन पर रगड़ दूंगा।" फिर ऐसा हुआ कि नबी (सल्ल.) को नमाज़ पढ़ते देखकर वह आगे बढ़ा, ताकि आपकी गर्दन पर पाँव रखे, किन्तु अचानक लोगों ने देखा कि वह पीछे हट रहा है और अपना मुँह किसी चीज़ से बचाने की कोशिश कर रहा है। उससे पूछा गया कि यह तुझे क्या हो गया? उसने कहा , "मेरे और उनके मध्य आग की क खंदक (खाई) और एक भयावह चीज़ थी और कुछ पंख थे।" अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने कहा कि “यदि वह मेरे निकट आता तो फ़रिश्ते उसके चिथड़े उड़ा देते।” (हदीस : अहमद , मुस्लिम , नसई )
इब्ने - अब्बास (रजि.) का एक और उल्लेख है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) मक़ामे-इबराहीम (हरम में एक विशेष स्थल) पर नमाज़ पढ़ रहे थे। अबू जह्ल का उधर से जाना हुआ तो उसने कहा , “ ऐ मुहम्मद ! क्या मैंने तुमको इससे रोका नहीं था?"और उसने आपको धमकियाँ देनी शुरू की। इसके उत्तर में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने उसको सख़्ती के साथ झिड़क दिया। इसपर उसने कहा, “ऐ मुहम्मद, तुम किस बल पर मुझे डराते हो? अल्लाह की क़सम, इस घाटी में मेरे समर्थक एवं सहायक सबसे अधिक हैं।” ( हदीस : अहमद , तिरमिज़ी , नसई )।
इन्हीं घटनाओं पर इस सूरा का वह भाग अवतरित हुआ जो "कदापि नहीं, मनुष्य उद्दण्डता से काम लेता है" से आरम्भ होता है। स्वभावतः इस भाग का स्थान वही नहीं होना चाहिए था जो क़ुरआन की इस सूरा में रखा गया है, क्योंकि प्रथम वह्य (प्रकाशना) के अवतरित होने के पश्चात् इस्लाम का सर्वप्रथम प्रदर्शन नबी (सल्ल.) ने नमाज़ ही से किया था और काफ़िरों (इनकार करनेवालों) से आपकी मुठभेड़ का आरम्भ भी इसी घटना से हुआ था।
सुरह "अल-अलक़ का अनुवाद
बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:
क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी [३]"मुहम्मद अहमद" ने किया।
96|1|पढ़ो, अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया,
96|2|पैदा किया मनुष्य को जमे हुए ख़ून के एक लोथड़े से
96|3|पढ़ो, हाल यह है कि तुम्हारा रब बड़ा ही उदार है,
96|4|जिसने क़लम के द्वारा शिक्षा दी,
96|5|मनुष्य को वह ज्ञान प्रदान किया जिस वह न जानता था
96|6|कदापि नहीं, मनुष्य सरकशी करता है,
96|7|इसलिए कि वह अपने आपको आत्मनिर्भर देखता है
96|8|निश्चय ही तुम्हारे रब ही की ओर पलटना है
96|9|क्या तुमने देखा उस व्यक्ति को
96|10|जो एक बन्दे को रोकता है, जब वह नमाज़ अदा करता है? -
96|11|तुम्हारा क्या विचार है? यदि वह सीधे मार्ग पर हो,
96|12|या परहेज़गारी का हुक्म दे (उसके अच्छा होने में क्या संदेह है)
96|13|तुम्हारा क्या विचार है? यदि उस (रोकनेवाले) ने झुठलाया और मुँह मोड़ा (तो उसके बुरा होने में क्या संदेह है) -
96|14|क्या उसने नहीं जाना कि अल्लाह देख रहा है?
96|15|कदापि नहीं, यदि वह बाज़ न आया तो हम चोटी पकड़कर घसीटेंगे,
96|16|झूठी, ख़ताकार चोटी
96|17|अब बुला ले वह अपनी मजलिस को!
96|18|हम भी बुलाए लेते है सिपाहियों को
96|19|कदापि नहीं, उसकी बात न मानो और सजदे करते और क़रीब होते रहो
बाहरी कडियाँ
इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें
यह भी देखें
पिछला सूरा: अत-तीन |
क़ुरआन | अगला सूरा: अल-क़द्र |
सूरा 96 - अल-अलक़ | ||
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सन्दर्भ