अल-इंसान

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सूरा अल-इंसान (इंग्लिश: Al-Insān) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 76 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 31 आयतें हैं।

नाम

इस सूरा के अरबी भाषा के नाम को क़ुरआन के प्रमुख हिंदी अनुवाद में सूरा अद-दह् र (अद-दह्र) [१]और प्रसिद्ध किंग फ़हद प्रेस के अनुवाद में सूरा अल्-इन्सान[२] नाम दिया गया है।

नाम इस सूरा का नाम “अद-दह् र" (काल) भी है और “अल-इनसान" भी। दोनों नाम पहली ही आयत “क्या इनसान पर अनन्त काल का एक ऐसा समय भी बीता है" से उद्धृत है।

अवतरणकाल

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। मक्की सूरा अर्थात पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत से पहले अवतरित हुई।

अधिकतर टीकाकार इसको मक्की ठहराते है, किन्तु कुछ अन्य टीकाकारों ने पूरी सूरा को मदनी कहा है और कुछ लोगों का कथन यह है कि सूरा है तो मक्की, किन्तु आयत 8 से 10 तक मदीना में अवतरित हुई हैं। जहाँ तक कि सूरा की वार्ताओं और वर्णन-शैली का सम्बन्ध है, मदनी सूरतों की वार्ताओं और वर्णन-शैली से अधिक भिन्न है, बल्कि उसपर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह न केवल मक्की है, बल्कि मक्का मुअज़्ज़मा के भी उस कालखण्ड में अवतरित है जो सूरा 74 (अल मुद्दस्सिर) की आरम्भिक 7 आयतों के बाद शुरू हुआ था।

विषय और वार्ता

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि

इस सूरा का विषय मनुष्य को संसार में उसकी वास्तविक हैसियत से अवगत कराना है और यह बताना है कि यदि वह अपनी इस हैसियत को ठीक-ठीक समझकर कृतज्ञता की नीति ग्रहण करे तो उसका परिणाम क्या होगा और कुफ्र (अकृतज्ञता) के मार्ग पर चले तो उसे किस परिणाम का सामना करना होगा। इसमें सबसे पहले मनुष्य को याद दिलाया गया है कि एक समय ऐसा था, जब वह कुछ न था। फिर एक मिश्रित वीर्य से उसका हीन-सा प्रारम्भ किया गया, जो आगे चलकर इस धरती पर सर्वश्रेष्ठ प्राणी बना। इसके बाद मनुष्य को सावधान किया गया कि हम (तुझे) संसार में रखकर तेरी परीक्षा लेना चाहते हैं। इसलिए दूसरे सृष्ट जीवों के विपरीत तुझे विवेकवान और श्रवण - शक्तिवाला बनाया गया और तेरे सामने कृतज्ञता और अकृतज्ञता के दोनों मार्ग खोलकर रख दिए गए, ताकि यहाँ कार्य करने का जो समय तुझे दिया गया है उसमें तू दिखा दे कि इस परीक्षा में तू कृतज्ञ बन्दा बनकर निकला है या अकृतज्ञ (काफ़िर) बन्दा बनकर। फिर केवल एक आयत में दो-टूक तरीके से बता दिया गया है कि जो इस परीक्षा से अकृतज्ञ (काफ़िर) बनकर निकलेंगे उन्हें परलोक में किस परिणाम का सामना करना पड़ेगा। इसके बाद आयत 5 से 22 तक निरन्तर उन सुख-सामग्रियों का विस्तृत वर्णन है जिनसे वे लोग अपने रब के यहाँ अनुग्रहीत होंगे, जिन्होंने यहाँ बन्दगी का हक़ अदा किया है। इन आयतों में केवल उनके उत्तम प्रतिदानों को बताने पर बस नहीं किया गया है , बल्कि संक्षेप में यह भी बता दिया गया है कि उनके वे कौन-कौन-से कर्म हैं जिनके कारण वे इस प्रतिदान के अधिकारी होंगे। इसके बाद आयत 23 से सूरा के अनत तक अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को सम्बोधित करके तीन बातें कही गई हैं:

एक यह कि वास्तव में यह हम ही हैं जो इस कुरआन को थोड़ा-थोड़ा करके उनपर अवतरित कर रहे हैं, और इसका उद्देश्य नबी (सल्ल.) को नहीं, बल्कि काफ़िरों सावधान करना है कि यह कुरआन मुहम्मद (सल्ल.) स्वयं अपने मन से नहीं गढ़ रहे हैं, बल्कि इसके अवतरित करनेवाले “हम” हैं और हमारी तत्त्वदर्शिता ही को वह अपेक्षित है कि इसे एक बार में नहीं, बल्कि थोड़ा-थोड़ा करके अवतरित करें।

दूसरी बात यह कि धैर्य के साथ पैग़म्बरी के अपने कर्तव्य को पूरा करते चले जाओ और कभी इन दुष्कर्मी और सत्य को नकारनेवाले लोगों में से किसी के भी दबाव में न आओ।

तीसरी बात यह कि रात-दिन अल्लाह को याद करो; नमाज़ पढ़ो और रातें अल्लाह की उपासना में गुज़ारो, क्योंकि यही वह चीज़ है जिससे कुफ्त (अधर्म) के अतिक्रमण के मुक़ाबले में अल्लाह की ओर बुलानेवालों को सुदृढ़ता प्राप्त होती है। फिर एक वाक्य में काफ़िरों की ग़लत नीति का वास्तविक कारण बताया गया है कि वे परलोक को भूलकर संसार पर मोहित हो गए हैं, और दूसरे वाक्य में उनको सचेत किया गया है कि तुम स्वयं नहीं बन गए हो, हमने तुम्हें बनाया है और यह बात हर समय हमारी सामर्थ्य में है कि जो कुछ हम तुम्हारे साथ करना चाहें, कर सकते हैं। अन्त में वार्ता इसपर समाप्त की गई है कि यह एक उपदेश-वचन है। अब जिसका जी चाहे इसे स्वीकार करके अपने प्रभु का मार्ग अपना ले। किन्तु दुनिया में मनुष्य की चाहत पूरी नहीं हो सकती, जब तक अल्लाह न चाहे, और अल्लाह की चाहत अन्धाधुन्ध नहीं है। वह जो कुछ भी चाहता है अपने ज्ञान और अपनी तत्त्वदर्शिता के आधार पर चाहता है। इस ज्ञान और तत्त्वदर्शिता के आधार पर जिसे वह अपनी दयालुता का पात्र समझता है, उसे अपनी दयालुता में प्रविष्ट कर लेता है और जिसे वह ज़ालिम पाता है उसके लिए दुखदायिनी यातना की व्यवस्था उसने कर रखी है।

सुरह "अल-इंसान का अनुवाद

बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:

क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी [३]"मुहम्मद अहमद" ने किया।

बाहरी कडियाँ

इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें


पिछला सूरा:
अल-क़ियामह
क़ुरआन अगला सूरा:
अल-मुर्सलात
सूरा 76 - अल-इंसान

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सन्दर्भ

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