अन-नज्म

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सूरा अन-नज्म (इंग्लिश: An-Najm) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 53 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 62 आयतें हैं।

नाम

सूरा अन-नज्म[१]या सूरा अन्-नज्म[२] पहले ही शब्द ' वन-नज्म' (क़सम है तारे की) से उद्धृत है और केवल चिह्न के रूप में इसे इस सूरा का नाम दिया गया है।

अवतरणकाल

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। मक्की सूरा अर्थात पैग़म्बर मुहम्मद के मक्का के निवास के समय हिजरत से पहले अवतरित हुई।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि.) से उल्लिखित है कि “पहली सूरा जिसमें सजदा की आयत अवतरित हुई अन-नज्म है। और यह भी कि यह कुरआन मजीद की वह पहली सूरा है जिसे अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने कुरैश के एक जन समूह में (और इब्ने मरदोया के उल्लेख के अनुसार हरम में) सुनाया था। जन समूह में इनकार करने वाले और ईमानवाले सब मौजूद थे। अन्त में जब आपने सजदा की आयत पढ़कर सजदा किया तो सभी उपस्थित लोग आपके साथ सजदे मे गिर गए और बहुदेववादियों के वे बड़े-बड़े सरदार तक जो विरोध में आगे-आगे थे, सजदा किए बिना न रह सके। इब्ने सॉद का बयान है कि इससे पहले रजब सन् 5 नबवी में सहाबा की एक छोटी-सी जमाअत हबशा की ओर हिजरत कर चुकी थी। फिर जब उसी वर्ष रमज़ान में यह घटना घटी तो हबशा के मुहाजिरों तक यह क़िस्सा इस रूप में पहुँचा कि मक्का के काफ़िर मुसलमान हो गए हैं। इस ख़बर को सुनकर उनमें से कुछ लोग शव्वाल सन् 5 नबवी में मक्का वापस आ गए। मगर यहाँ आकर मामूल हुआ कि जुल्म की चक्की उसी तरह चल रही है जिस तरह पहले चल रही थी। अन्ततः हबशा की दूसरी हिजरत घटित हुई जिसमें पहली हिजरत से भी अधिक लोग मक्का छोड़कर चले गए। इस तरह यह बात लगभग निश्चयात्मक रूप से हो जाती है कि यह सूरा रमज़ान सन् 5 हिजरी में अवतरित हुई है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि अवतरणकाल के उपरोक्त विस्तार से मालूम हो जाता है कि वे परिस्थितियाँ क्या थीं, जिनमें यह सूरा अवतरित हुई। (मक्का के काफ़िरों की निरन्तर यह कोशिश रहती थी कि) ईश्वरीय वाणी को न स्वयं सुनें न किसी को सुनने दें , और उसके विरुद्ध तरह-तरह की भ्रामक बातें फैलाकर केवल अपने झूठे परोपगंडे के बल पर आपके आह्वान को दबा दें। इन्हीं परिस्थितियों में एक दिन पवित्र हरम में जब यह घटना घटी कि नबी (सल्ल.) के मुख से इस सूरा नज्म को सुनकर आपके साथ कुरैश के काफ़िर भी सजदे में गिर गए, तो बाद में उन्हें बड़ी परेशानी हुई कि यह हमसे क्या कमज़ोरी ज़ाहिर हुई। और लोगों ने भी इसके कारण उनपर चोट करना शुरू कर दी कि दूसरों को तो इस वाणी को सुनने से रोकते थे , आज स्वयं उसे न केवल यह कि कान लगाकर सुना , बल्कि मुहम्मद (सल्ल.) के साथ सजदा भी कर गुज़रे। आख़िरकार उन्होंने यह बात बनाकर अपना पीछा छुड़ाया कि साहब, हमारे कानों ने तो “अब तनिक बताओ , तुमने कभी इस 'लात' और इस 'उज़्ज़ा' और तीसरी एक देवी ‘मनात' की वास्तविकता पर कुछ विचार भी किया है?' के पश्चात् मुहम्मद के मुख से ये शब्द सुने थे, “ ये उच्चकोटि की देवियाँ हैं और इनकी सिफ़ारिश की अवश्य आशा की जा सकती है। " इसलिए हमने समझा कि मुहम्मद हमारे तरीके पर वापस आ गए हैं। हालाँकि कोई पागल आदमी ही यह सोच सकता था, कि इस पूरी सूरा के सन्दर्भ में उन वाक्यों की भी कोई जगह हो सकती है, जो उनका दावा था कि उनके कानों ने सुनी हैं।

विषय और वार्ताएँ

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि अभिभाषण का विषय मक्का के काफ़िरों को उस नीति की ग़लती पर सावधान करना है जो वे कुरआन और मुहम्मद (सल्ल.) के सिलसिले में अपनाए हुए थे। वार्ता का आरम्भ इस तरह किया गया है कि मुहम्मद (सल्ल.) बहके और भटके हुए आदमी नहीं हैं , जैसा कि तुम उनके विषय में प्रचार करते फिर रहे हो, और न इस्लाम की यह शिक्षा और आमंत्रण उन्होंने स्वयं अपने मन में गढ़ लिया है, जैसा कि तुम अपनी दृष्टि में समझे बैठे हो। बल्कि जो कुछ वे प्रस्तुत कर रहे हैं वह विशुद्ध प्रकाशना है, जो उनपर अवतरित की जाती है। जिन सच्चाइयों को तुम्हारे सामने बयान करते हैं वे उनकी कल्पना और अटकल की उपज नहीं है, बल्कि उनकी आँखों देखी सच्चाइयाँ हैं । इसके बाद क्रमशः तीन विषय लिए गए हैं :

प्रथम, सुननेवालों को समझाया गया है कि जिस धर्म का तुम अनुसरण कर रहे हो उसका आधार केवल अटकल और मनमानी कल्पनाओं पर स्थिर है । तुमने जिन धारणाओं को अपना रखा है, उनमें से कोई धारणा भी किसी ज्ञान और प्रमाण पर आधारित नहीं है, बल्कि कुछ इच्छाएँ हैं जिनके लिए तुम कतिपय अन्धविश्वास को यथार्थ समझ बैठे हो। यह एक बहुत बड़ी बुनियादी ग़लती है जिसमें तुम हो। इस ग़लती में तुम्हारे पड़ने का वास्तविक कारण यह है कि तुम्हें परलोक की कोई चिन्ता नहीं है। बस, संसार ही तुम्हारा अभीष्ट बना हुआ है। इसलिए तुम्हें सत्य के ज्ञान की कोई चाह नहीं है।

द्वितीय, लोगों को यह बताया गया है कि अल्लाह ही सम्पूर्ण जगत् का मालिक और सर्वाधिकारी है। सीधी राह पर वह है जो उसके रास्ते पर हो और गुराह वह है जो उसकी राह से हटा हुआ हो। हरेक के कर्म को वह जानता है और उसके यहाँ अवश्य ही बुराई का बदला बुरा और भलाई का बदला भला मिलकर रहना है ।

तृतीय, , लोग पड़े हुए सत्यधर्म की उन कुछ आधारभूत चीज़ों को लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया है जो कुरआन मजीद के अवतरण से सैकड़ों वर्ष पूर्व हज़रत इबराहीम (अलै.) और हज़रत मूसा (अलै.) पर अवतरित धर्मग्रंथों में बयान हो चुकी थीं , ताकि उनको मालूम हो जाए कि ये वे आधारभूत सच्चाइयाँ हैं जो हमेशा से अल्लाह के नबी बयान करते चले आए हैं। इन वार्ताओं के पश्चात् अभिभाषण को इस बात पर समाप्त किया गया है कि फैसले कि घड़ी निकट आ लगी है, जिसे कोई टालनेवाला नहीं है। उस घड़ी के आने से पहले मुहम्मद (सल्ल.) और कुरआन के द्वारा तुम लोगों को उसी तरह सावधान किया जा रहा है, जिस तरह पहले लोगों को सावधान किया गया था। अब क्या यही वह बात है जो तुम्हें अनोखी लगी है? जिसकी तुम हँसी उड़ाते हो?

सुरह "अन-नज्म का अनुवाद

बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:

क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी "मुहम्मद अहमद" [३] ने किया।

बाहरी कडियाँ

इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें An-Najm 53:1

पिछला सूरा:
अत-तूर
क़ुरआन अगला सूरा:
अल-क़मर
सूरा 53 - अन-नज्म

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सन्दर्भ:

इन्हें भी देखें