अर-रूम

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सूरा अर-रुम (इंग्लिश: Ar-Rum) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 30 वां सूरा या अध्याय है। इसमें 60 आयतें हैं।

नाम

सूरा अर-रुम[१]या सूरा अर्-रूम[२]का नाम पहली ही आयत के शब्द “रूमी पराजित हो गए हैं" से उद्धृत है।

अवतरणकाल

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। मक्कन सूरा अर्थात पैग़म्बर मुहम्मद के मक्का के निवास के समय अवतरित हुई।

आरम्भ ही में कहा गया है , “रूमी क़रीब के भू-भाग में पराजित हो गए हैं।” उस समय अरब से मिले हुए सभी अधिकृत भू-भाग पर ईरानियों का प्रभुत्व सन् 615 ई. में अपनी पूर्णता को पहुंचा था। इसलिए विशुद्ध रूप से यह कहा जा सकता है कि यह सूरा उसी वर्ष अवतरित हुई थी और यह वही वर्ष था जिसमें हबशा की हिजरत की गई थी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि जो भविष्यवाणी इस सूरा की आरम्भिक आयतों में की गई है, वह कुरआन मजीद के ईश्वरीय वाणी होने और मुहम्मद (सल्ल.) के सच्चे रसूल होने का अत्यन्त स्पष्ट साक्ष्यों में से एक है इसे समझने के लिए आवश्यक है कि उन ऐतिहासिक घटनाओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाली जाए जो इन आयतों से संबंध रखती हैं । नबी (सल्ल.) की नुबूवत (पैग़म्बरी) से आठ वर्ष पूर्व की घटना है कि कैसरे-रूम मॉरीस (Maurice) के विरुद्ध विद्रोह हुआ और एक व्यक्ति फ़ोकास (Phocas) ने राजसिंहासन पर अधिकार जमा लिया, (और कैसर को उसके बाल - बच्चों सहित क़त्ल कर दिया।) इस घटना से ईरान के सम्राट खुसरू परवेज़ को रूम पर आक्रमण करने के लिए बहुत ही अच्छा नैतिक बहाना मिल गया क्योंकि कैसर मॉरीस उसका उपकारकर्ता था।

अतएव सन् 603 ई . में उसने रूम राज्य के विरुद्ध युद्ध आरम्भ कर दिया और कुछ ही वर्षों में वह फ़ोकास की सेनाओं को निरन्तर पराजित करता हुआ (बहुत भीतर घुस गया।) रूम के राजदरबारियों ने यह देखकर कि फ़ोकास देश को नहीं बचा सकता , अफ़्रीक़ा के गवर्नर से सहायता की माँग की। उसने अपने बेटे हिरक़्ल ( Heraclius ) को एख शक्तिशाली बेड़े के साथ कुस्तुनतीनिया भेज दिया । उसके पहुँचते ही फ़ोकास पदच्युत् कर दिया गया , उसके स्थान पर हिरपल कैसर बनाया गया।

यह सन् 610 ई . की घटना है। और यह वही वर्ष है जिसमें नबी (सल्ल.) अल्लाह की ओर से नुबूवत के पद पर आसीन हुए। ख़ुसरू परवेज़ ने फ़ोकास की पदच्युति और वध के बाद भी लड़ाई जारी रखी और अब इस युद्ध को उसने मजूसियत और मसीहियत ( पारसी धर्म तथा ईसाई धर्म ) के युद्ध का रंग दे दिया (वह विजेता के रूप ने आगे बढ़ता रहा । यहाँ तक कि ) सन् 614 ई. में बैतुल मदिस पर अधिकार जमाकर ईरानियों में ईसाई दुनिया पर क़ियामत ढा दी। इस विजय के बाद एक वर्ष के भीतर ही ईरानी सेनाएँ उर्दुन , फ़िलीस्तीन और प्रायद्वीप सीना के पूरे क्षेत्र पर अधिकार जमाकर मिस्र की सीमाओं तक पहुँच गई। यह वह समय था जब मक्का मुअज़्ज़मा में एक और उससे कई दर्जा अधिक ऐतिहासिक महत्व रखनेवाला युद्ध (कुन और इस्लाम का युद्ध) छिड़ गया था। और नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि सन् 615 ई. में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या को अपना घर-बार छोड़कर हबशा के ईसाई राज्य में (जिससे रूम की शपथ-मित्रता थी ) शरण लेनी पड़ी। उस समय ईसाई रूम पर (अग्नि-पूजक) ईरान के प्रभुत्व की चर्चा हर ज़बान पर थी। मक्के के बहुदेववादी ख़ुशियाँ मना रहे थे और इसे मुसलमानों (के विरुद्ध उसकी सफलता की एक मिसाल और शगुन ठहरा रहे थे।) इन परिस्थितियों में कुरआन मजीद की यह सूरा अवतरित हुई और इसमें वह भविष्यवाणी की गई (जो इसकी आरम्भिक आयतों में उल्लिखित है।) इसमें एक के बदले दो भविष्यवाणियाँ थी।

एक यह कि रूमियों को विजय प्राप्त होगी, दूसरी यह कि मुसलमानों की भी उसी समय विजय होगी। देखने में दूर - दूर तक कहीं इसके लक्षण पाए नहीं जाते थे कि इनमें से कोई एक भविष्यवाणी भी कुछ थोड़े वर्षों में पूरी हो जाएगी। अतएव कुरआन की ये आयतें जब अवतरित हुई तो मक्का के काफ़िरों ने इसकी खूब हँसी उड़ाई । (किन्तु सात-आठ वर्ष के पश्चात् ही परिस्थितियाँ बिलकुल बदल गई।) सन् 622 ई . में इधर नबी (सल्ल.) हिजरत करके मदीना तैबा पदार्पण कर गए और उधर कैसर हिरल्ल ( ईरान पर जवाबी हमला करने के लिए) चुपके से कुस्तुनतीनिया से कालासागर के मार्ग से तराबजून की ओर चल पड़ा। सन् 623 ई . में आर्मीनिया से (अपना हमला) शुरू करके दूसरे वर्ष सन् 624 ई. में उसने आज़रबाइजान में घुसकर ज़रतुश्त के जन्म स्थान अर्मीया (Clorumia) को तबाह कर दिया और ईरानियों के सबसे बड़े अग्निकुण्ड की ईंट-से-ईंट बजा दी। ईश्वरीय शक्ति का चमत्कार देखिए कि यही वह वर्ष था जिसमें मुसलमानों को बद्र के स्थान पर पहली बार बहुदेववादियों के मुकाबले में निर्णायक विजय प्राप्त हुई। इस प्रकार वे दोनों भविष्यवाणियाँ जो सूरा रूम में की गई थीं, दस वर्ष की अवधि समाप्त होने से पहले एक साथ पूरी हो गई।

विषय और वार्ता

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि इस सूरा में वार्ता का आरम्भ इस बात से किया गया है कि आज रूमी पराजित हो गए हैं , किन्तु थोड़े वर्ष न बीतने पाएँगे कि पासा पलट जाएगा और जो पराजित है वह - विजयी हो जाएगा। इस भूमिका से इस भाव की अभिव्यक्ति हुई कि मानव अपनी बाह्य दृष्टि के कारण वही कुछ देखता है जो बाह्य रूप से उसकी आँखों के सामने होता है , किन्तु इस बाह्य के आवरण के पीछे जो कुछ है उसकी उसे ख़बर नहीं होती । जब दुनिया के ज़रा-ज़रा - से मामलों में (मनुष्य अपनी बाह्य दृष्टि के कारण ) ग़लत अनुमान लगा बैठता है तो फिर समग्र जीवन के मामले में सांसारिक जीवन के बाह्य पर भरोसा कर बैठना कितनी बड़ी भूल है। इस प्रकार रूम और ईरान के मामले से अभिभाषण का रूख़ परलोक के विषय की ओर फिर जाता है और निरन्तर 27 आयत तक विभिन्न ढंग से यह समझाने की कोशिश की जाती है कि परलोक संभव भी है , बुद्धिसंगत भी है और आवश्यक भी है। इस सिलसिले में परलोक को प्रमाणित करते हुए जगत् के जिन लक्षणों को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है वे ठीक वही लक्षण हैं जो एकेश्वरवाद को प्रमाणित करते हैं। इस लिए आयत 41 के आरंभ से अभिभाषण का रुख़ एकेश्वरवाद की पुष्टि और बहुदेववाद के खण्डन की ओर फिर जाता है और बताया गया है कि बहुदेववाद जगत् की प्रकृति और मानव की प्रकृति के विरुद्ध है। इसलिए जहाँ भी मनुष्य ने इस गुमराही को अपनाया है वहीं बिगाड़ और उपद्रव खड़ा हुआ है। इस अवसर पर फिर उस महाबिगाड़ की ओर, जो उस समय संसार के दो सबसे बड़े राज्यों के मध्य युद्ध के कारण पैदा हो गया था , संकेत किया गया है और यह बताया गया है कि यह बिगाड़ भी बहुदेववाद के परिणामों में से है। वार्ता के समापन पर मिसाल के रूप में लोगों को समझाया गया है कि जिस प्रकार निर्जीव पड़ी हुई भूमि अल्लाह की भेजी हुई वर्षा से सहसा जी उठती है , उसी प्रकार अल्लाह की भेजी हुई प्रकाशना और नुबूवत भी निर्जीव पड़ी हुई मानवता के हित में एक दयालुता-वृष्टि है। इस अवसर से लाभ उठाओगे तो यही अरब की सूनी भूमि ईश्वरीय दया से लहलहा उठेगी। लाभ न उठाओगे तो अपने ही को हानि पहुँचाओगे ।

सुरह अर-रुम का अनुवाद

अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है। स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।

29|1|30|1|अलिफ़॰ लाम॰ मीम॰[३]

30|2|रूमी निकटवर्ती क्षेत्र में पराभूत हो गए हैं।

30|3|और वे अपने पराभव के पश्चात शीघ्र ही कुछ वर्षों में प्रभावी हो जाएँगे।

30|4|हुक्म तो अल्लाह ही का है पहले भी और उसके बाद भी। और उस दिन ईमानवाले अल्लाह की सहायता से प्रसन्न होंगे।

30|5|वह जिसकी चाहता है, सहायता करता है। वह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, दयावान है

30|6|यह अल्लाह का वादा है! अल्लाह अपने वादे का उल्लंघन नहीं करता। किन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं

30|7|वे सांसारिक जीवन के केवल वाह्य रूप को जानते है। किन्तु आख़िरत की ओर से वे बिलकुल असावधान है

30|8|क्या उन्होंने अपने आप में सोच-विचार नहीं किया? अल्लाह ने आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके बीच है सत्य के साथ और एक नियत अवधि ही के लिए पैदा किया है। किन्तु बहुत-से लोग अपने प्रभु के मिलन का इनकार करते है

30|9|क्या वे धरती में चले-फिरे नहीं कि देखते कि उन लोगों का कैसा परिणाम हुआ जो उनसे पहले थे? वे शक्ति में उनसे अधिक बलवान थे और उन्होंने धरती को उपजाया और उससे कहीं अधिक उसे आबाद किया जितना उन्होंने आबाद किया था। और उनके पास उनके रसूल प्रत्यक्ष प्रमाण लेकर आए। फिर अल्लाह ऐसा न था कि उनपर ज़ुल्म करता। किन्तु वे स्वयं ही अपने आप पर ज़ुल्म करते थे

30|10|फिर जिन लोगों ने बुरा किया था उनका परिणाम बुरा हुआ, क्योंकि उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया और उनका उपहास करते रहे

30|11|अल्लाह की सृष्टि का आरम्भ करता है। फिर वही उसकी पुनरावृति करता है। फिर उसी की ओर तुम पलटोगे

30|12|जिस दिन वह घड़ी आ खड़ी होगी, उस दिन अपराधी एकदम निराश होकर रह जाएँगे

30|13|उनके ठहराए हुए साझीदारों में से कोई उनका सिफ़ारिश करनेवाला न होगा और वे स्वयं भी अपने साझीदारों का इनकार करेंगे

30|14|और जिस दिन वह घड़ी आ खड़ी होगी, उस दिन वे सब अलग-अलग हो जाएँगे

30|15|अतः जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, वे एक बाग़ में प्रसन्नतापूर्वक रखे जाएँगे

30|16|किन्तु जिन लोगों ने इनकार किया और हमारी आयतों और आख़िरत की मुलाक़ात को झुठलाया, वे लाकर यातनाग्रस्त किए जाएँगे

30|17|अतः अब अल्लाह की तसबीह करो, जबकि तुम शाम करो और जब सुबह करो।

30|18|- और उसी के लिए प्रशंसा है आकाशों और धरती में - और पिछले पहर और जब तुमपर दोपहर हो

30|19|वह जीवित को मृत से निकालता है और मृत को जीवित से, और धरती को उसकी मृत्यु के पश्चात जीवन प्रदान करता है। इसी प्रकार तुम भी निकाले जाओगे

30|20|और यह उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया। फिर क्या देखते है कि तुम मानव हो, फैलते जा रहे हो

30|21|और यह भी उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हारी ही सहजाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए, ताकि तुम उसके पास शान्ति प्राप्त करो। और उसने तुम्हारे बीच प्रेंम और दयालुता पैदा की। और निश्चय ही इसमें बहुत-सी निशानियाँ है उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते है

30|22|और उसकी निशानियों में से आकाशों और धरती का सृजन और तुम्हारी भाषाओं और तुम्हारे रंगों की विविधता भी है। निस्संदेह इसमें ज्ञानवानों के लिए बहुत-सी निशानियाँ है

30|23|और उसकी निशानियों में से तुम्हारा रात और दिन का सोना और तुम्हारा उसके अनुग्रह की तलाश करना भी है। निश्चय ही इसमें निशानियाँ है उन लोगों के लिए जो सुनते है

30|24|और उसकी निशानियों में से यह भी है कि वह तुम्हें बिजली की चमक भय और आशा उत्पन्न करने के लिए दिखाता है। और वह आकाश से पानी बरसाता है। फिर उसके द्वारा धरती को उसके निर्जीव हो जाने के पश्चात जीवन प्रदान करता है। निस्संदेह इसमें बहुत-सी निशानियाँ है उन लोगों के लिए जो बुद्धि से काम लेते है

30|25|और उसकी निशानियों में से यह भी है कि आकाश और धरती उसके आदेश से क़ायम है। फिर जब वह तुम्हे एक बार पुकारकर धरती में से बुलाएगा, तो क्या देखेंगे कि सहसा तुम निकल पड़े

30|26|आकाशों और धरती में जो कोई भी उसी का है। प्रत्येक उसी के निष्ठावान आज्ञाकारी है

30|27|वही है जो सृष्टि का आरम्भ करता है। फिर वही उसकी पुनरावृत्ति करेगा। और यह उसके लिए अधिक सरल है। आकाशों और धरती में उसी मिसाल (गुण) सर्वोच्च है। और वह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी हैं

30|28|उसने तुम्हारे लिए स्वयं तुम्हीं में से एक मिसाल पेश की है। क्या जो रोज़ी हमने तुम्हें दी है, उसमें तुम्हारे अधीनस्थों में से, कुछ तुम्हारे साझीदार है कि तुम सब उसमें बराबर के हो, तुम उनका ऐसा डर रखते हो जैसा अपने लोगों का डर रखते हो? - इसप्रकार हम उन लोगों के लिए आयतें खोल-खोलकर प्रस्तुत करते है जो बुद्धि से काम लेते है। -

30|29|नहीं, बल्कि ये ज़ालिम तो बिना ज्ञान के अपनी इच्छाओं के पीछे चल पड़े। तो अब कौन उसे मार्ग दिखाएगा जिसे अल्लाह ने भटका दिया हो? ऐसे लोगो का तो कोई सहायक नहीं

30|30|अतः एक ओर का होकर अपने रुख़ को 'दीन' (धर्म) की ओर जमा दो, अल्लाह की उस प्रकृति का अनुसरण करो जिसपर उसने लोगों को पैदा किया। अल्लाह की बनाई हुई संरचना बदली नहीं जा सकती। यही सीधा और ठीक धर्म है, किन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं।

30|31|उसकी ओर रुजू करनेवाले (प्रवृत्त होनेवाले) रहो। और उसका डर रखो और नमाज़ का आयोजन करो और (अल्लाह का) साझी ठहरानेवालों में से न होना,

30|32|उन लोगों में से जिन्होंने अपनी दीन (धर्म) को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गिरोहों में बँट गए। हर गिरोह के पास जो कुछ है, उसी में मग्न है

30|33|और जब लोगों को कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो वे अपने रब को, उसकी ओर रुजू (प्रवृत) होकर पुकारते है। फिर जब वह उन्हें अपनी दयालुता का रसास्वादन करा देता है, तो क्या देखते है कि उनमें से कुछ लोग अपने रब का साझी ठहराने लगे;

30|34|ताकि इस प्रकार वे उसके प्रति अकृतज्ञता दिखलाएँ जो कुछ हमने उन्हें दिया है। "अच्छा तो मज़े उड़ा लो, शीघ्र ही तुम जान लोगे।"

30|35|(क्या उनके देवताओं ने उनकी सहायता की थी) या हमने उनपर ऐसा कोई प्रमाण उतारा है कि वह उसके हक़ में बोलता हो, जो वे उसके साथ साझी ठहराते है

30|36|और जब हम लोगों को दयालुता का रसास्वादन कराते है तो वे उसपर इतराने लगते है; परन्तु जो कुछ उनके हाथों ने आगे भेजा है यदि उसके कारण उनपर कोई विपत्ति आ जाए, तो क्या देखते है कि वे निराश हो रहे है

30|37|क्या उन्होंने विचार नहीं किया कि अल्लाह जिसके लिए चाहता है रोज़ी कुशादा कर देता है और जिसके लिए चाहता है नपी-तुली कर देता है? निस्संदेह इसमें उन लोगों के लिए निशानियाँ है, जो ईमान लाएँ

30|38|अतः नातेदार को उसका हक़ दो और मुहताज और मुसाफ़िर को भी। यह अच्छा है उनके लिए जो अल्लाह की प्रसन्नता के इच्छुक हों और वही सफल है

30|39|तुम जो कुछ ब्याज पर देते हो, ताकि वह लोगों के मालों में सम्मिलित होकर बढ़ जाए, तो वह अल्लाह के यहाँ नहीं बढ़ता। किन्तु जो ज़कात तुमने अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए दी, तो ऐसे ही लोग (अल्लाह के यहाँ) अपना माल बढ़ाते है

30|40|अल्लाह ही है जिसने तुम्हें पैदा किया, फिर तुम्हें रोज़ी दी; फिर वह तुम्हें मृत्यु देता है; फिर तुम्हें जीवित करेगा। क्या तुम्हारे ठहराए हुए साझीदारों में भी कोई है, जो इन कामों में से कुछ कर सके? महान और उच्च है वह उसमें जो साझी वे ठहराते है

30|41|थल और जल में बिगाड़ फैल गया स्वयं लोगों ही के हाथों की कमाई के कारण, ताकि वह उन्हें उनकी कुछ करतूतों का मज़ा चखाए, कदाचित वे बाज़ आ जाएँ

30|42|कहो, "धरती में चल-फिरकर देखो कि उन लोगों का कैसा परिणाम हुआ जो पहले गुज़रे है। उनमें अधिकतर बहुदेववादी ही थे।"

30|43|अतः तुम अपना रुख़ सीधे व ठीक धर्म की ओर जमा दो, इससे पहले कि अल्लाह की ओर से वह दिन आ जाए जिसके लिए वापसी नहीं। उस दिन लोग अलग-अलग हो जाएँगे

30|44|जिस किसी ने इनकार किया तो उसका इनकार उसी के लिए घातक सिद्ध होगा, और जिन लोगों ने अच्छा कर्म किया वे अपने ही लिए आराम का साधन जुटा रहे है

30|45|ताकि वह अपने उदार अनुग्रह से उन लोगों को बदला दे जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए। निश्चय ही वह इनकार करनेवालों को पसन्द नहीं करता। -

30|46|और उसकी निशानियों में से यह भी है कि शुभ सूचना देनेवाली हवाएँ भेजता है (ताकि उनके द्वारा तुम्हें वर्षा की शुभ सूचना मिले) और ताकि वह तुम्हें अपनी दयालुता का रसास्वादन कराए और ताकि उसके आदेश से नौकाएँ चलें और ताकि तुम उसका अनुग्रह (रोज़ी) तलाश करो और कदाचित तुम कृतज्ञता दिखलाओ

30|47|हम तुमसे पहले कितने ही रसूलों को उनकी क़ौम की ओर भेज चुके है और वे उनके पास खुली निशानियाँ लेकर आए। फिर हम उन लोगों से बदला लेकर रहे जिन्होंने अपराध किया, और ईमानवालों की सहायता करना तो हमपर एक हक़ है

30|48|अल्लाह ही है जो हवाओं को भेजता है। फिर वे बादलों को उठाती हैं; फिर जिस तरह चाहता है उन्हें आकाश में फैला देता है और उन्हें परतों और टुकड़ियों का रूप दे देता है। फिर तुम देखते हो कि उनके बीच से वर्षा की बूँदें टपकी चली आती है। फिर जब वह अपने बन्दों में से जिनपर चाहता है, उसे बरसाता है। तो क्या देखते है कि वे हर्षित हो उठे

30|49|जबकि इससे पूर्व, इससे पहले कि वह उनपर उतरे, वे बिलकुल निराश थे

30|50|अतः देखों अल्लाह की दयालुता के चिन्ह! वह किस प्रकार धरती को उसके मृत हो जाने के पश्चात जीवन प्रदान करता है। निश्चय ही वह मुर्दों को जीवत करनेवाला है, और उसे हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्ती है

30|51|किन्तु यदि हम एक दूसरी हवा भेज दें, जिसके प्रभाव से वे उस (खेती) को पीली पड़ी हुई देखें तो इसके पश्चात वे कुफ़्र करने लग जाएँ

30|52|अतः तुम मुर्दों को नहीं सुना सकते और न बहरों को अपनी पुकार सुना सकते हो, जबकि वे पीठ फेरे चले जो रहे हों

30|53|और न तुम अंधों को उनकी गुमराही से फेरकर मार्ग पर ला सकते हो। तुम तो केवल उन्हीं को सुना सकते हो जो हमारी आयतों पर ईमान लाएँ। तो वही आज्ञाकारी हैं

30|54|अल्लाह ही है जिसनें तुम्हें निर्बल पैदा किया, फिर निर्बलता के पश्चात शक्ति प्रदान की; फिर शक्ति के पश्चात निर्बलता औऱ बुढापा दिया। वह जो कुछ चाहता है पैदा करता है। वह जाननेवाला, सामर्थ्यवान है

30|55|जिस दिन वह घड़ी आ खड़ी होगी अपराधी क़सम खाएँगे कि वे घड़ी भर से अधिक नहीं ठहरें। इसी प्रकार वे उलटे फिरे चले जाते थे

30|56|किन्तु जिन लोगों को ज्ञान और ईमान प्रदान हुआ, वे कहते, "अल्लाह के लेख में तो तुम जीवित होकर उठने के दिन ठहरे रहे हो। तो यही जीवित हो उठाने का दिन है। किन्तु तुम जानते न थे।"

30|57|अतः उस दिन ज़ुल्म करनेवालों को उनका कोई उज़्र (सफाई पेश करना) काम न आएगा और न उनसे यह चाहा जाएगा कि वे किसी यत्न से (अल्लाह के) प्रकोप को टाल सकें

30|58|हमने इस क़ुरआन में लोगों के लिए प्रत्येक मिसाल पेश कर दी है। यदि तुम कोई भी निशानी उनके पास ले आओ, जिन लोगों ने इनकार किया है, वे तो यही कहेंगे, "तुम तो बस झूठ घड़ते हो।"

30|59|इस प्रकार अल्लाह उन लोगों के दिलों पर ठप्पा लगा देता है जो अज्ञानी है

30|60|अतः धैर्य से काम लो निश्चय ही अल्लाह का वादा सच्चा है और जिन्हें विश्वास नहीं, वे तुम्हें कदापि हल्का न पाएँ

पिछला सूरा:
अल-अनकबूत
क़ुरआन अगला सूरा:
लुक़मान
सूरा 30 - अर-रूम

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इन्हें भी देखें

सन्दर्भ:

  1. साँचा:cite book
  2. साँचा:cite web
  3. Ar-Rum सूरा का हिंदी अनुवाद http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/30:1 स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।