जैसलमेर दुर्ग

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जैसलमेर दुर्ग का एक दृश्य

जैसलमेर दुर्ग स्थापत्य कला की दृष्टि से उच्चकोटि की विशुद्ध स्थानीय दुर्ग रचना है। ये दुर्ग २५० फीट तिकोनाकार पहाडी पर स्थित है। इस पहाडी की लंबाई १५० फीट व चौडाई ७५० फीट है।

रावल जैसल ने अपनी स्वतंत्र राजधानी स्थापित की थी। स्थानीय स्रोतों के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण ११५६ ई. में प्रारंभ हुआ था। परंतु समकालीन साक्ष्यों के अध्ययन से पता चलता है कि इसका निर्माण कार्य ११७८ ई. के लगभग प्रारंभ हुआ था। ५ वर्ष के अल्प निर्माण कार्य के उपरांत रावल जैसल की मृत्यु हो गयी, इसके द्वारा प्रारंभ कराए गए निमार्ण कार्य को उसके उत्तराधिकारी शालीवाहन द्वारा जारी रखकर दुर्ग को मूर्त रूप दिया गया। रावल जैसल व शालीवाहन द्वारा कराए गए कार्यो का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है। मात्र ख्यातों व तवारीखों से वर्णन मिलता है।

शैली

जैसलमेर दुर्ग मुस्लिम शैली विशेषतः मुगल स्थापत्य से पृथक है। यहाँ मुगलकालीन किलों की तंक-भंक, बाग-बगीचे, नहरें-फव्वारें आदि का पूर्ण अभाव है, चित्तौड़ के दुर्ग की भांति यहां महल, मंदिर, प्रशासकों व जन-साधारण हेतु मकान बने हुए हैं, जो आज भी जन-साधारण के निवास स्थल है। कहा जाता है कि विश्व में इस दुर्ग के अतिरिक्त अन्य किसी भी दुर्ग पर जीवन यापन हेतु लोग नहीं रहते हैं !

स्थापत्य

जैसलमेर दुर्ग पीले पत्थरों के विशाल खण्डों से निर्मित है। पूरे दुर्ग में कहीं भी चूना या गारे का इस्तेमाल नहीं किया गया है। मात्र पत्थर पर पत्थर जमाकर फंसाकर या खांचा देकर रखा हुआ है। दुर्ग की पहांी की तलहटी में चारों ओर १५ से २० फीट ऊँचा घाघरानुमा परकोट खिचा हुआ है, इसके बाद २०० फीट की ऊँचाई पर एक परकोट है, जो १० से १५६ फीट ऊँचा है। इस परकोट में गोल बुर्ज व तोप व बंदूक चलाने हेतु कंगूरों के मध्य बेलनाकार विशाल पत्थर रखा है। गोल व बेलनाकार पत्थरों का प्रयोग निचली दीवार से चढ़कर ऊपर आने वाले शत्रुओं के ऊपर लुढ़का कर उन्हें हताहत करने में बडें ही कारीगर होते थे, युद्ध उपरांत उन्हें पुनः अपने स्थान पर लाकर रख दिया जाता था। इस कोट के ५ से १० फीट ऊँची पूर्व दीवार के अनुरुप ही अन्य दीवार है। इस दीवार में ९९ बुर्ज बने है। इन बुर्जो को काफी बाद में महारावल भीम और मोहनदास ने बनवाया था। बुर्ज के खुले ऊपरी भाग में तोप तथा बंदुक चलाने हेतु विशाल कंगूरे बने हैं। बुर्ज के नीचे कमरे बने हैं, जो युद्ध के समय में सैनिकों का अस्थाई आवास तथा अस्र-शस्रों के भंडारण के काम आते थे।

इन कमरों के बाहर की ओर झूलते हुए छज्जे बने हैं, इनका उपयोग युद्ध-काल में शत्रु की गतिविधियों को छिपकर देखने तथा निगरानी रखने के काम आते थे। इन ९९ बुर्जो का निर्माण कार्य रावल जैसल के समय में आरंभ किया गया था, इसके उत्तराधिकारियों द्वारा सतत् रुपेण जारी रखते हुए शालीवाहन (११९० से १२०० ई.) जैत सिंह (१५०० से १५२७ ई.) भीम (१५७७ से १६१३ ई.) मनोहर दास (१६२७ से १६५० ई.) के समय पूरा किया गया। इस प्रकार हमें दुर्ग के निर्माण में कई शताब्दियों के निर्माण कार्य की शैली दृष्टिगोचर होती है।

द्वार

दुर्ग के मुख्य द्वारा का नाम अखैपोला है, जो महारवल अखैसिंह (१७२२ से १७६२ ई.) द्वारा निर्मित कराया गया था। यह दुर्ग के पूर्व में स्थित मुख्य द्वार के बाहर बहुत बङा दालान छोंकर बनाया गया है। इसके कारण दुर्ग के मुख्य द्वार पर यकायक हमला नहीं किया जा सकता था। दुर्ग के दूसरे मुख्य द्वार का पुनः निर्माण कार्य रावल भीम द्वारा कराया गया था। इसके अतिरिक्त इस दरवाजे के आगे स्थित बैरीशाल बुर्ज है, इसे इस प्रकार बनाया गया है कि दुर्ग का मुख्य द्वारा इसकी ओट में आ गया व दरवाजे के सामने का स्थान इतना संकरा हो गया कि यकायक बहुत बंी संख्या में शत्रुदल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता था व न ही हाथियो की सहायता से दुर्ग के द्वार को तोङा जा सकता था। इसके अलावा भीम ने सात अन्य बुर्ज भी दुर्ग में निर्मित कराए थे। इन समस्त निर्माण कार्यो में रावल भीम ने उस समय ५० लाख रुपया खर्च किया था। अपने द्वारा सामरिक दृष्टि से दुर्ग की व्यवस्था के संबंध में रावल भीम का कथन था कि दूसरा आवे तो मैदान में बैठा जबाव दे सकता है और दिल्ली का धनी आवे तो कैसा ही गढ़ हो रह नहीं सकता।

दुर्ग के तीसरे दरवाजे के गणेश पोल व चौथे दरवाजे को रंगपोल के नाम से जाना जाता है। सभी दरवाजे रावल भीम द्वारा पुनः निर्मित है। सूरज पोल की तरु बढ़ने पर हमें रणछो मंदिर मिलता है, जिसका निर्माण १७६१ ई. में महारावल अखैसिंह की माता द्वारा करावाया गया था। सूरज-पोल द्वारा का निर्माण महारावल भीम के द्वारा करवाया गया है। इस दरवाजे के मेहराबनुमा तोरण के ऊपर में सूर्य की आकृति बनी हुई है।

दुर्ग में विभिन्न राजाओं द्वारा निर्मित कई महल, मंदिर व अन्य विभिन्न उपयोग में आने वाले भवन हुए हैं। जैसलमेर दुर्ग में ७०० के करीब  • हजूरी समाज व  • ब्राह्मण समाज के पीले पत्थरों से निर्मित मकान हैं, जो तीन मंजिलें तक हैं। इन मकानों के सामने के भाग में सुंदर नक्काशी युक्त झरोखें व खिड़कियां हैं। दुर्ग की सुरक्षा को और मजबूत करने के लिए भाटी शासकों ने इस दुर्ग के चारो ओर एक दीवार का निर्माण करवाया और चारो दिशाओं में अग्रलिखित चार प्रोल  • अमरसागर प्रोल  • गड़ीसर प्रोल  • किशनघाट प्रोल • मलका प्रोल बनवाई जो कि आज भी शहर को बाहरी क्षेत्रों से जोडने का कार्य करती है।

महल

दुर्ग के स्थित महलों में हरराज का मालिया सर्वोत्तम विलास, रंगमहल, मोतीमहल तथा गजविलास आदि प्रमुख है। सर्वोत्तम विलास एक अत्यंत सुंदर व भव्य इमारत है, जिसमें मध्य एशिया की नीली चीनी मिट्टी की टाइलों व यूरोपीय आयातित कांचों का बहुत सुंदर जड़ाऊ काम किया गया है। इस भवन का निर्माण महारावल अखैसिंह (१७२२-६२) द्वारा करवाया गया था। इसे वर्तमान में शीशमहल के नाम से जाना जाता है। इस महल को "अखैविलास" के नाम से भी जाना जाता है। महारावल मूलराज द्वितीय (१७६२-१८२० ई.) द्वारा हवापोल के ऊपरी भाग में एक महल का निमार्ण कराया गया था। इसमें एक विशाल हॉल व दालान है। इनकी दीवारों पर बहुत ही सुंदर नक्काशी व काँच के जड़ाऊ काम का उत्तम प्रतीक है। यह तीन मंजिला है, जिसमें प्रथम तल पर राज सभा का विशाल कक्ष है। द्वितीय मंजिल पर खुली छत, कुछ कमरे व सुंदर झरोखों से युक्त कटावदार बारादरियाँ हैं। जैसलमेर दुर्ग की रचना व स्थापत्य तथा वहाँ निर्मित भव्य महल, भवन, मंदिर आदि इसे और भी अधिक भव्यता प्रदान करते हैं। पीले पत्थरों से निर्मित यह दुर्ग दूर से स्वर्ण दुर्ग का आभास कराता है।