द्विघात समीकरण
गणित मे द्विघात समीकरण द्वितीय घात का एक बहुपद समीकरण होता है जिसका मानक समीकरण
- <math>ax^2+bx+c=0,\,\!</math>--यह होता है
जहाँ अनिवार्यतः a ≠ 0(अन्यथा यह एक घातीय रेखीय समी० हो जायेगा)
वर्ण a, b और c गुणांक कहलाते हैं।
द्विघात समीकरण के मूल
किसी द्विघात समीकरण के दो (अलग होना आवश्यक नही) हल होते हैं जिन्हे द्विघात समीकरण के मूल या हल कह्ते हैं जिन्हे समी- <math>x = \frac{-b \pm \sqrt {b^2-4ac}}{2a},</math> के द्वारा दिया जाता है जहां चिन्ह ± यह दर्शाता है कि
<math>x_+ = \frac{-b + \sqrt {b^2-4ac}}{2a}</math> और <math>\ x_- = \frac{-b - \sqrt {b^2-4ac}}{2a}</math>
दो हल हैं।
विविक्तकर
उपरोक्त हल में वर्गमूल के अन्दर की राशि :<math>\Delta = b^2 - 4ac, \,\!</math>
को द्विघात समीकरण का विविक्तकर (Discriminant) कहते हैं।
यह प्राप्त मूलों की प्रकृति के बारे मे जानकरी देता है
जो कि :<math>\Delta</=/>0</math> के अनुसार होती है।
भारतीय गणित के इतिहास में द्विघात समीकरण
भारत के कई गणितज्ञों ने द्विघात सूत्र से मिलते-जुलते नियम बताए हैं। सम्भव है कि ५०० ईसापूर्व कुछ यज्ञवेदियों के निर्माण में द्विघात समीकरण का हल निहित है। किन्तु हल की विधि के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। (स्मिथ 1953, पृष्ट 444)। भारत के महान गणितज्ञ आर्यभट (475 या 476-550) ने गुणोत्तर श्रेणी के योग का एक नियम बताया है जिससे प्रदर्शित होता है कि उनको द्विघात समीकरण तथा उसके दोनों मूलों का ज्ञान था (स्मिथ 1951, पृष्ट 159; स्मिथ 1953, पृष्ट 444)। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मगुप्त ( 628 ई) ने दो मूलों में से केवल एक ही मूल पर विचार किया है। (स्मिथ 1951, पृष्ट 159; स्मिथ 1953, पृष्ट 444-445)। इसी तरह महावीराचार्य ( 850 ई) ने तो वह नियम दिया है जो आधुनिक काल में द्विघात समीकरण के धनात्मक मूल को निकालने के लिए प्रयुक्त होता है। श्रीधराचार्य (1025 ई) ने द्विघात समीकरण के धनात्मक मूल निकालने का नियम दिया जिसे भास्कराचार्य ने बताया था। (1150 ई; स्मिथ 1953, पृष्ट 445-446)।
फारस के गणितज्ञ अल ख्वारिज्मी (825 ई) और उमर खैय्याम (1100 ई) ने भी धनात्मक मूल निकालने की विधि बतायी है। (किन्तु ध्यातव्य है कि दोनो ही भारत आये थे और बहुत दिनों तक यहाँ रहे थे।)