विदिशा का इतिहास

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विदिशा भारतवर्ष के प्रमुख प्राचीन नगरों में एक है, जो हिंदू तथा जैन धर्म के समृद्ध केन्द्र के रूप में जानी जाती है। जीर्ण अवस्था में बिखरे पड़े कई खंडहरनुमा इमारतें यह बताती है कि यह क्षेत्र ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक दृष्टि कोण से मध्य प्रदेश का सबसे धनी क्षेत्र है। धार्मिक महत्व के कई भवनों को मुस्लिम आक्रमणकारियों ने या तो नष्ट कर दिया या मस्जिद में बदल दिया। महिष्मती (महेश्वर) के बाद विदिशा ही इस क्षेत्र का सबसे पुराना नगर माना जाता है। महिष्मती नगरी के ह्रास होने के बाद विदिशा को ही पूर्वी मालवा की राजधानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसकी चर्चा वैदिक साहित्यों में कई बार मिलती है।

प्राचीन इतिहास

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प्राचीनकाल में यहाँ यदुवंशी रहे है। आमीरों का अधिपत्य था, वे बड़े सशक्त व बलशाली थे। मान्यता है कि वैदिक काल में किसी आर्यदेवी ने यहाँ के महिष नामक राजा को पराजित किया था, अतः आज भी यहाँ के सभी गाँवों में महिषासुर या भैंसासुर की पूजा होती है। श्रीमद देवी भागवत पुराण के अनुसार, वह देवी ही दुर्गा। महिषासुर मर्दनी कहलायी। सूर्यवंशी राजा सगर और श्रीराम के समय से वहाँ इक्ष्वाकु वंश के अधिपत्य का पता चलता है। कहा जाता है कि श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न ने अश्वमेघ यज्ञ के दौरान हराकर यह क्षेत्र अपने पुत्र शत्रुघाती या यूपकेतु (कहीं- कहीं सुबाहु) को सौप दिया।

स्कंद पुराण के अनुसार वाल्मिकी ॠषि, जो अग्नि शर्मा के नाम से बताये गये हैं, इसी क्षेत्र के निवासी थे। वही शंख ॠषियों के सानिध्य में रहकर वे प्रसिद्ध महर्षि बने।

बौद्ध काल

ई. पू. ५ वीं - ६ वीं सदी में महात्मा बुद्ध के समय विदिशा का विकास चरमोत्कर्ष पर था। भारत मध्य में स्थित होने के कारण यह चारों तरफ से अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्रों को जोड़ता था। जहाँ पुरब की तरफ यह कौशाम्बी, काशी तथा पाटलिपुत्र जैसे नगरों से जुड़ा था, वहीं पश्चिम की ओर से भरुकच्छ (भरुच) व सुर्पारक (सोपारा) जैसे बंदरगाहों से संबद्ध था। दक्षिण की तरफ से यह तत्कालीन प्रतिष्ठित नगर पैठ से जुड़ा था। यहाँ के समृद्ध व्यापारियों ने भी यहाँ के स्तुप व अन्य छोटे- बड़े भवनों के निर्माण में अपना योगदान दिया।

हिन्दू साम्राज्य

ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार मौर्य वंश के शासक अशोक ने यहीं की व्यापारी की पुत्री से विवाह किया। उसके हृदय में इस नगर के प्रति विशेष सम्मान था। मौर्यों के बाद शुंग वंश के शासकों ने इस पर अधिपत्य किया। उनकी एक शाखा ने विदिशा पर राज किया। इसके बाद नाग वंशसातवाहन वंश ने इस पर शासन चलाया। उनके काल में भी यह शुगों की तरह हिंदू धर्म का केंद्र रहा। विदिशा जिले के ही एक गांव जिसका नाम रावन है रावण के नाम पर रखा गया है ये गांव जिला मुख्यालय से 40km दूर स्थित है यहाँ पर रावण की मूर्ती है जो कि प्राचीन समय से यहाँ पर स्थित है यहाँ रावण को ईष्ट देवता के रूप में पूजा जाता है इस गांव में अधिकांश कान्यकुब्ज ब्राम्हण (रावण ले वंशज) है पूरे विश्व मे रावण की इस तरह से पूजा और कही नही की जाती है,देश की विभिन्न शहरों से लोग रावण बाबा के दर्शन करने आते है,यहाँ एक तालाब है जिसकी मिट्टी से सभी चर्म रोग नष्ट हो जाते है इसलिए इस मिट्टी को सभी लोग ले जाया करते है,

पतन

गुप्त काल तक विदिशा का महत्व बना रहा, लेकिन उसके बाद इसका पतन शुरु हो गया। कहा जाता है कि कुछ प्राकृतिक कारणों से नगर के समीप बहती नदी बेतवा सूख गई या फिर कुछ राजनैतिक समस्या पैदा हो गई, जिससे वहाँ की आबादी नदी के दक्षिणी किनारे की तरफ बस गयी, जो बाद में भीलसा के नाम से जानी जाने लगी।

मुस्लिम शासन

सल्तनत काल में भेलसा राज्य के एक सूर्ब का केन्द्र था, जहाँ सुबेदार रहता था। मुगलों के समय इस नगर का कोई खास राजनैतिक महत्व नहीं था। यह एक छोटे से प्रशासनिक इकाई का केंद्र था। औरंगजेब द्वारा अपने नाम पर रखा गया शहर का नाम "आलमगीरपुर' भी सामान्य लोगों के बीच प्रसिद्ध नहीं हो पाया। १८ वीं सदी में यह स्थान मराठों के अधिपत्य में आ गया और अंग्रजों के समय तक उन्हीं के अधिपत्य में रहा।

इस प्रकार यहाँ इतिहास ने अनेक पीढियों तक अपने चिह्न छोड़े। आज संपूर्ण विदिशा- मंडल पर्यटकों एवं दर्शकों की रुचि के ऐतिहासिक एवं दर्शनीय प्राचीन स्मारकों से भरा पड़ा है।

नामकरण

जहाँ प्राचीन संस्कृत- साहित्य में विदिशा का नाम वैदिस, वेदिश या वेदिसा मिलता है, वहीं पाली ग्रंथों में इसे वेसनगर, वैस्सनगर, वैस्यनगर या विश्वनगर कहा गया है। कुछ विद्धानों का मानना है कि विविध दिशाओं को यहाँ से मार्ग जाने के कारण ही इस नगर का नाम विदिशा पड़ा।

""विविधा दिशा अन्यत्र इति विदिशा

पुराणों में इसकी चर्चा भद्रावती या भद्रावतीपुरम् के रूप में है। जैन- ग्रंथों में इसका नाम भड्डलपुर या भद्दिलपुर मिलता है। मध्ययुग आते- आते इसका नाम सूर्य (भैलास्वामीन) के नाम पर भेल्लि स्वामिन, भेलसानी या भेलसा हो गया। संभवतः पढ़ने के क्रम में हुई किसी गलतफहमी के कारण ११ शताब्दी में अलबरुनी ने इसे "महावलिस्तान' के नाम से संबोधित किया है। १७ वीं सदी में औरंगजेब के शासन काल में इसका नाम आलमगीरपुर रखा गया। सन् १९४७ ई. तक सरकारी रिकॉडाç में इसे "परगणे आलमगीरपुर' लिखा जाता रहा। परंतु ब्रिटिश काल में लोगों में भेलस्वामी या भेलसा नाम ही प्रचलित रहा। बाद में सन् १९५२ ई. में जनआग्रह पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा इस स्थान का तत्कालीन पुराना नाम विदिशा घोषित कर दिया।



इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ