दिगम्बर साधु
दिगम्बर साधु जिन्हें मुनि भी कहा जाता है सभी परिग्रहों का त्याग कर कठिन साधना करते है। दिगम्बर मुनि अगर विधि मिले तो दिन में एक बार भोजन और तरल पदार्थ ग्रहण करते है। वह केवल पिच्छि, कमण्डल और शास्त्र रखते है। इन्हें निर्ग्रंथ भी कहा जाता है जिसका अर्थ है " बिना किसी बंधन के"।
अवलोकन
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम दिगम्बर मुनि थे।साँचा:sfn जैन धर्म में मोक्ष की अभीलाषा रखने वाले व्रती दो प्रकार के बताय गए हैं— महाव्रती और अणुव्रति। महाव्रत अंगीकार करने वाले को महाव्रती और अणुव्रत (छोटे व्रत) धारण करने वालों को श्रावक (ग्रहस्त) कहा जाता है।
दिगम्बर साधुओं को निर्ग्रंथ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "बिना किसी बंधन के"।[4] इस शब्द का मूल रूप से लागू उनके लिए किया जाता था जो साधु सर्वज्ञता (केवल ज्ञान) को प्राप्त करने के निकट हो और प्राप्ति पर वह मुनि कहलाते थे।[5]
मूल गुण
सभी दिगम्बर साधुओं के लिए २८ मूल गुणों का पालन अनिवार्य है। इन्हें मूल-गुण कहा जाता है क्योंकि इनकी अनुपस्थिति में अन्य गुण हासिल नहीं किए जा सकते।[6] यह २८ मूल गुण हैं: पांच 'महाव्रत'; पांच समिति; पांच इंद्रियों पर नियंत्रण ('पंचइन्द्रिय निरोध'); छह आवश्यक कर्तव्यों; सात नियम या प्रतिबंध।
व्रत | नाम | अर्थ |
---|---|---|
महाव्रत-
तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है |
१. अहिंसा | किसी भी जीव को मन, वचन, काय से पीड़ा नहीं पहुँचाना।
करित- वह किसी और से ऐसा कोई कार्य करने के लिए नहीं कहते या पूछते। अनुमोदना- वह किसी भी तरह (वचन और किर्या) से ऐसे किसी कार्य के लिए प्रोत्साहित नहीं करते जिसमें हिंसा हो। |
२. सत्य | हित, मित, प्रिय वचन बोलना। | |
३. अस्तेय | जो वस्तु नहीं दी जाई उसे ग्रहण नहीं करना। | |
४. ब्रह्मचर्य | मन, वचन, काय से मैथुन कर्म का पूर्ण त्याग करना। | |
५. अपरिग्रह | पदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का पूर्ण त्याग | |
समिति-
प्रवृत्तिगत सावधानी साँचा:sfn |
६.ईर्यासमिति | सावधानी पूर्वक चार हाथ (2 गज) जमीन देखकर चलना |
७.भाषा समिति | निन्दा व दूषित भाषाओं का त्याग | |
८.एषणा समिति | श्रावक के यहाँ छियालीस दोषों से रहित आहार लेना | |
९.आदान निक्षेप | धार्मिक उपकरण उठाने रखने में सावधानी | |
१०.प्रतिष्ठापन | निर्जन्तुक स्थान पर मल-मूत्र का त्याग | |
पाँचेंद्रियनिरोध | ११.१५ | पाँचों इंद्रियों पर नियंत्रण |
छः आवश्यकआवश्यक करने योग्य क्रियाएँ | १६. सामायिक (समता) | समता धारण कर आत्मकेन्द्रित होना-दिन में तीन बार — सुबह, दोपहर, और शाम छह घड़ी (एक घड़ी = 24 मिनट) के लिए सामयिक। |
१७. स्तुति | २४ तीर्थंकरों का स्तवन | |
१८. वंदन | अरिहन्त, सिद्ध और आचार्य भगवान का वंदन | |
१९.प्रतिक्रमण | आत्म-निंदा, पश्चाताप; ड्राइव करने के लिए अपने आप से दूर भीड़ के कर्म, पुण्य या दुष्ट, अतीत में किया है। | |
२०.प्रत्याख्यान | त्याग | |
२१.कायोत्सर्ग | देह के ममत्व को त्यागकर आत्म स्वरूप में लीन होना | |
सात नियम या प्रतिबंध | २२. अस्नान | स्नान नहीं करना |
२३. अदंतधावन | दातौन नहीं करना | |
२४. भूशयन | चटाई, जमीन पर विश्राम करना | |
२५. एकभुक्ति | दिन में एक बार भोजन | |
२६. स्थितिभोजन | खड़े रहकर दोनो हाथो से आहार लेना | |
२७. केश लोंच | सिर और दाड़ी के बाल हाथों से उखाड़ना | |
२८. नग्नता | जन्म समय की अवस्था में अर्थात नग्न दिगम्बर रहना। |
धर्म
साँचा:sidebar with collapsible lists जैन ग्रन्थों के अनुसार मुनि का धर्म (आचरण) दस प्रकार का है, जिसमें दस गुण है। [20]
- उत्तम क्षमा - साधु में गुस्से का अभाव, जब शरीर के संरक्षण के लिए भोजन लेने जाते समय उन्हें दुर्ज़न लोगों के ढीठ शब्द, या उपहास, अपमान, शारीरिक पीड़ा आदि का सामना करना पड़ता है।
- शील (विनम्रता) - अहंकार का आभाव या उच्च जन्म, रैंक आदि के कारण होने वाले अहंकार का त्याग।
- सीधापन या आचरण में छल कपट का पूर्ण अभाव।
- पवित्रता- लालच से स्वतंत्रता
- उत्तम सत्य - सच तो यह है कि उक्ति पवित्र शब्द की उपस्थिति में महान व्यक्तियों.
- आत्म-संयम - जीवों के घात और कामुक व्यवहार से दूरी।
- तपस्या - के दौर से गुजर तपस्या नष्ट करने के क्रम में संचित कर्मों का फल है, तपस्या है। तपस्या के बारह प्रकार है।
- उत्तम दान- उपयुक्त ज्ञान का दान देना।
- शरीर अलंकरण का त्याग और यह नहीं सोचना कि 'यह मेरा है'।
- उत्तम ब्रह्मचर्य - खुशी का आनंद लिया, पूर्व में, नहीं करने के लिए सुनने की कहानियों में यौन जुनून (कामुक साहित्य का त्याग), और महिलाओं द्वारा इस्तेमाल में लिए जाने वाले बिस्तर और स्थानों का त्याग।
हर एक के साथ 'उत्तम' शब्द जोड़ा गया है संकेत करने के लिए क्रम में परिहार के लौकिक उद्देश्य है।
बाईस परिषह
जैन ग्रंथों में बाईस परिषह जय बतलाए गए हैं। यह मोक्ष (मुक्ति) के अभिलाषी मुनियों के सहने योग्य होते है। [21][22]
१-भूख,२-प्यास,३-सर्दी,४-गर्मीं,५-दशंमशक,६-किसी अनिष्ट वस्तु से अरुचि,७-नग्नता,८-भोगों का आभाव,९-स्त्री — स्त्री की मीठी आवाज़, सौंदर्य, धीमी चाल आदि का मुनि पर कोई असर नहीं पड़ता, यह एक परिषह हैं। जैसे कछुआ कवछ से अपनी रक्षा करता हैं, उसी प्रकार मुनि भी अपने धर्म की रक्षा, मन और इन्द्रियों को वश में करके करता हैं। १०-चर्या,११-अलाभ,१२-रोग,१३-याचना,१४-आक्रोश,१५-वध,१६-मल,१७-सत्कार-पुरस्कार,१८-जमीन पर सोना१९-प्रज्ञा,२०-अज्ञान,२१-अदर्शन,२२-बैठने की स्थिति,
बाहरी तपस्या
सर्वार्थसिद्धि जैन ग्रन्थ के अनुसार "परिषह अपने आप से होते है, बाह्य तप ख़ुद इच्छा से किया जाता है। इने बाह्य कहते है क्योंकि यह बाहरी चीजों पर निर्भर होते हैं और दूसरों के द्वारा देखने में आते है।"[24]
तत्त्वार्थ सूत्र आदि जैन ग्रंथों में उल्लेखित है कि छह बाह्य तप होते है:[25]
- 'उपवास' - आत्म नियंत्रण और अनुशासन को बढ़ावा देने के लिए और मूर्छा के विनाश के लिए।
- अल्प आहार का उद्देश्य है बुराइयों का दमन, सतर्कता और आत्म-नियंत्रण विकसित करना, संतोष और अध्ययन में एकाग्रता।
- 'विशेष प्रतिबंध' में शामिल है आहार लेने के लिए घरों की संख्या सीमित करना आदि। इच्छाओं के शमन के लिए ऐसा किया जाता है।
- उत्तेजक और स्वादिष्ट भोजन जैसे घी, क्रम में करने के लिए पर अंकुश लगाने के उत्साह की वजह से इंद्रियों पर काबू पाने, नींद, और अध्ययन की सुविधा.
- अकेला बस्ती - तपस्वी गया है करने के लिए 'बनाने के अपने निवास में अकेला स्थानों' या घरों, जो कर रहे हैं से मुक्त कीट वेदनाओं, क्रम में बनाए रखने के लिए अशांति के बिना ब्रह्मचर्य, अध्ययन, ध्यान और इतने पर।
- धूप में खड़े, निवास के पेड़ के नीचे, सोने में एक खुली जगह के बिना किसी भी कवर, के विभिन्न आसन – इन सभी का गठन छठे तपस्या, अर्थात् 'वैराग्य का शरीर'है।
आचार्य
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। आचार्य मुनि संघ के मुखिया को कहते है। आचार्य छत्तीस मूल गुणों के धारक होते है:[26]
- बारह प्रकार की तपस्या (तपस);
- दस गुण (दस लक्षण धर्म);
- पांच प्रकार के पालन के संबंध में विश्वास, ज्ञान, आचरण, तपस्या, और वीर्य.:[27]
- छह आवश्यक कर्तव्यों (षट्आवश्यक');
- गुप्ति - गतिविधि को नियंत्रित करने के तीन गुना की :[13]
- शरीर;
- भाषण का अंग है; और
- मन है।
सर्वज्ञता
जैन दर्शन के अनुसार, केवल दिगम्बर साधु को ही केवल ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। इसके पश्चात साधु १८ दोषों से रहित हो जाता है और केवली पद को प्राप्त कर लेता है। अरिहन्त भगवान के शरीर में मलमूत्र की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए कमण्डल की आवश्यकता भी नहीं होती। जैन ग्रंथों के अनुसार जब सर्वज्ञता प्राप्त करने के बाद शेष दो संयम उपकरण (मोरपंख की पिच्छिका और शस्त्र) की भी आवश्यकता नहीं रहती क्यूँकि सर्वज्ञ जमीन पर ना ही बैठते और ना ही चलते है। केवल ज्ञान के बाद शास्त्र की भी ज़रूरत नहीं रहती। केवली भगवान के शरीर में कई शुभ और अद्भुत लक्षण प्रकट हो जाते है।साँचा:reflist
सन्दर्भ
सूत्रों
- Jain, Babu Kamtaprasad (2013), दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, Bharatiya Jnanpith, ISBN 81-263-5122-5
- Jain, Champat Rai (1926), Sannyasa Dharma,
This article incorporates text from this source, which is in the public domain.
- Jain, S.A. (1992), Reality (Second ed.), Jwalamalini Trust,
This article incorporates text from this source, which is in the public domain.
- Jain, Vijay K. (2013), Ācārya Nemichandra's Dravyasaṃgraha, Vikalp Printers, ISBN 9788190363952,
Non-copyright
- Jain, Vijay K. (2012), Acharya Amritchandra's Purushartha Siddhyupaya: Realization of the Pure Self, With Hindi and English Translation, Vikalp Printers, ISBN 978-81-903639-4-5,
This article incorporates text from this source, which is in the public domain.
- Jain, Vijay K. (2011), Acharya Umasvami's Tattvarthsutra (1st ed.), Uttarakhand: Vikalp Printers, ISBN 81-903639-2-1,
This article incorporates text from this source, which is in the public domain.
- Zimmer, Heinrich (1953) [April 1952], Campbell, Joseph, ed., Philosophies Of India, London, E.C. 4: Routledge & Kegan Paul Ltd, ISBN 978-81-208-0739-6,
This article incorporates text from this source, which is in the public domain.