खड़ीबोली

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
2409:4063:2203:6ded:a21:5760:8265:5d7d (चर्चा) द्वारा परिवर्तित ०७:३७, २५ मार्च २०२२ का अवतरण
(अन्तर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अन्तर) | नया अवतरण → (अन्तर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

खड़ी बोली हिन्दी का वह रूप है जिसमें संस्कृत के शब्दों की बहुलता करके वर्तमान हिन्दी भाषा की सृष्टि हुई, इसी तरह उसमें फ़ारसी तथा अरबी के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि की गई है। खड़ी बोली से एक तात्पर्य उस बोली से है जिसपर ब्रजभाषा या अवधी आदि की छाप न हो। ठेठ हिन्दी, परिनिष्ठित पश्चिमी हिन्दी का एक रूप।

खड़ी बोली निम्नलिखित स्थानों के ग्रामीण क्षेत्रों में बोली जाती है- मेरठ, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग, अम्बाला, कलसिया और पटियाला के पूर्वी भाग, रामपुर और मुरादाबाद। खड़ी बोली क्षेत्र के पूर्व में ब्रजभाषा, दक्षिण-पूर्व में मेवाती, दक्षिण-पश्चिम में पश्चिमी राजस्थानी, पश्चिम में पूर्वी पंजाबी और उत्तर में पहाड़ी बोलियों का क्षेत्र है। मेरठ की खड़ी बोली आदर्श खडी बोली मानी जाती है जिससे आधुनिक हिन्दी भाषा का जन्म हुआ, वही दूसरी और मुजफ्फरनगरसहारनपुर बागपत में खड़ी बोली में हरयाणवी की झलक देखने को मिलती है। बाँगरू, जाटकी या हरियाणवी एक प्रकार से पंजाबी और राजस्थानी मिश्रित खड़ी बोली ही हैं जो दिल्ली, करनाल, रोहतक, हिसार और पटियाला, नाभा, झींद के ग्रामीण क्षेत्रों में बोली जाती है।

खड़ी से 'खरी' का अर्थ लगाया जाता है, अर्थात् शुद्ध अथवा ठेठ हिन्दी बोली। उस समय जबकि हिन्दुस्तान में अरबी-फारसी या हिन्दुस्तानी शब्द मिश्रित उर्दू भाषा का चलन था, या अवधी या ब्रज भाषा का। ठेठ या शुद्ध हिन्दी का चलन नहीं था। लगभग 18वीं शताब्दी के आरम्भ के समय कुछ हिन्दी गद्यकारों ने ठेठ हिन्दी बोली में लिखना शुरू किया। इसी ठेठ हिन्दी को'खरी हिन्दी' या 'खड़ी हिन्दी' कहा गया। शुद्ध अथवा ठेठ हिन्दी बोली या भाषा को उस समय साहित्यकारों द्वारा खरी या खड़ी बोली के नाम से सम्बोधित किया गया था।

खड़ी बोली वह बोली है जिसपर ब्रजभाषा या अवधी आदि की छाप न हो। ठेठ हिन्दी। आज की राष्ट्रभाषा हिन्दी का पूर्व रूप। इसका इतिहास शताब्दियों से चला आ रहा है। यह परिनिष्ठित पश्चिमी हिन्दी का एक रूप है।

परिचय

'खड़ी बोली' (या खरी बोली) वर्तमान हिन्दी का एक रूप है जिसमें संस्कृत के शब्दों की बहुलता करके वर्तमान हिन्दी भाषा की सृष्टि की गई और फारसी तथा अरबी के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि की गई है। दूसरे शब्दों में, वह बोली जिसपर ब्रजभाषा या अवधी आदि की छाप न हो, ठेठ हिन्दी। खड़ी बोली आज की राष्ट्रभाषा हिन्दी का पूर्व रूप है। यह परिनिष्ठित पश्चिमी हिन्दी का एक रूप है। इसका इतिहास शताब्दियों से चला आ रहा है।

जिस समय मुसलमान इस देश में आकर बस गए, उस समय उन्हें यहाँ की कोई एक भाषा ग्रहण करने की आवश्यकता हुई। वे प्रायः दिल्ली और उसके पूर्वी प्रान्तों में ही अधिकता से बसे थे और ब्रजभाषा तथा अवधी भाषाएँ, क्लिष्ट होने के कारण अपना नहीं सकते थे, इसलिये उन्होंने मेरठ और उसके आसपास की बोली ग्रहण की और उसका नाम खड़ी (खरी?) बोली रखा। इसी खड़ी बोली में वे धीरे-धीरे फारसी और अरबी शब्द मिलाते गए जिससे अन्त में वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि हुई। विक्रमी १४वीं शताब्दी में पहले-पहल अमीर खुसरो ने इस प्रान्तीयता बोली का प्रयोग करना आरम्भ किया और उसमें बहुत कुछ कविता की, जो सरल तथा सरस होने के कारण शीघ्र ही प्रचलित हो गई। बहुत दिनों तक मुसलमान ही इस बोली का बोलचाल और साहित्य में व्यवहार करते रहे, पर पीछे हिन्दुओं में भी इसका प्रचार होने लगा। १५वीं और १६वीं शताब्दी में कोई कोई हिन्दी के कवि भी अपनी कविता में कहीं कहीं इसका प्रयोग करने लगे थे, पर उनकी संख्या प्रायः नहीं के समान थी। अधिकांश कविता अवधी और व्रजभाषा में ही होती रही। १८वीं शताब्दी में हिन्दू भी साहित्य में इसका व्यवहार करने लगे, पर पद्य में नहीं, केवल गद्य में; और तभी से मानों वर्तमान हिन्दी गद्य का जन्म हुआ, जिसके आचार्य मुंशी सदासुखलाल, लल्लू लाल और सदल मिश्र माने जाते हैं। जिस प्रकार मुसलमानों ने इसमें फारसी तथा अरबी आदि के शब्द भरकर वर्तमान उर्दू भाषा बनाई, उसी प्रकार हिन्दुओं ने भी उसमें संस्कृत के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान हिन्दी प्रस्तुत की। इधर थोड़े दिनों से कुछ लोग संस्कृतप्रचुर वर्तमान हिन्दी में भी कविता करने लग गए हैं और कविता के काम के लिये उसी को खड़ी बोली कहते हैं।

वर्तमान हिन्दी का एक रूप जिसमें संस्कृत के शब्दों की बहुलता करके वर्तमान हिन्दी भाषा की और फारसी तथा अरबी के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि की गई है।

साहित्यिक सन्दर्भ में ब्रजभाषा, अवधी आदि बोलियों में साहित्य का पार्थक्य करने के लिए आधुनिक हिन्दी साहित्य को 'खड़ी बोली साहित्य' के नाम से अभिहित किया जाता है।

नामकरण

खड़ी बोली अनेक नामों से अभिहित की गई है यथा- हिन्दुई, हिन्दवी, दक्खिनी, दखनी या दकनी, रेखता, हिन्दोस्तानी, हिन्दुस्तानी आदि। डॉ॰ ग्रियर्सन ने इसे 'वर्नाक्युलर हिन्दुस्तानी' तथा डॉ॰ सुनीति कुमार चटर्जी ने इसे 'जनपदीय हिन्दुस्तानी' का नाम दिया है। डॉ॰ चटर्जी खड़ी बोली के साहित्यिक रूप को 'साधु हिन्दी' या 'नागरी हिन्दी' के नाम से अभिहित करते हैं। परन्तु डॉ॰ ग्रियर्सन ने इसे 'हाई हिन्दी' कहा है। इसकी व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न रूप से की है। इन विद्वानों के मतों की निम्नांकित श्रेणियाँ है-

  • (1) कुछ विद्वान खड़ी बोली नाम को ब्रजभाषा सापेक्ष मानते हैं और यह प्रतिपादन करते हैं कि लल्लू जी लाल (1803 ई.) के बहुत पूर्व यह नाम ब्रजभाषा की मधुरता तथा कोमलता की तुलना में उस बोली को दिया गया था जिससे कालान्तर में आदर्श हिन्दी तथा उर्दू का विकास हुआ। ये विद्वान खड़ी शब्द से कर्कशता, कटुता, खरापन, खड़ापन आदि ग्रहण करते हैं।
  • (2) कुछ लोग इसे उर्दू सापेक्ष मानकर उसकी अपेक्षा इसे प्रकृत शुद्ध, ग्रामीण ठेठ बोली मानते हैं।
  • (3) अनेक विद्वान खड़ी का अर्थ सुस्थित, प्रचलित, सुसंस्कृत, परिष्कृत या परिपक्व ग्रहण करते हैं।
  • (4) अन्य विद्वान् उत्तरी भारत की ओकारान्त प्रधान ब्रज आदि बोलियों को 'पड़ी बोली' और इसके विपरीत इसे 'खड़ी बोली' के नाम से अभिहित करते हैं, जबकि कुछ लोग रेखता शैली को पड़ी और इसे खड़ी मानते हैं। खड़ी बोली को खरी बोली भी कहा गया है। सम्भवत: खड़ी बोली शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग लल्लू लाल द्वारा प्रेमसागर में किया गया है। किन्तु इस ग्रन्थ के मुखपृष्ठ पर खरी शब्द ही मुद्रित है।

खड़ी बोली की उत्पत्ति व क्षेत्र बताते हुए उनकी पृमुख विषेशताऔ पर प्रकाश डालिए

अत्यन्त प्राचीन काल से ही हिमालय तथा विन्ध्य पर्वत के बीच की भूमि आर्यावर्त के नाम से प्रख्यात है। इसी के बीच के प्रदेश को मध्य प्रदेश कहा जाता है जो भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता का केन्द्र-बिन्दु है। संस्कृत, पालि तथा शौरसेनी प्राकृत विभिन्न युगों में इस मध्यदेश की भाषा थी। कालक्रम से शौरसेनी प्राकृत के पश्चात् इस प्रदेश में शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचार हुआ। यह कथ्य (बोलचाल की) शौरसेनी अपभ्रंश भाषा ही कालान्तर में कदाचित् खड़ी बोली (हिन्दी) के रूप में पारिणत हुई है। इस प्रकार खड़ी बोली की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से मानी जाती है, यद्यपि इस अपभ्रंश का विकास साहित्यक रूप में नहीं पाया जाता। भोज और हम्मीरदेव के समय से अपभ्रंश काव्यों की जो परम्परा चलती रही उसके भीतर खड़ी बोली के प्राचीन रूप की झलक दिखाई पड़ती है। इसके उपरान्त भक्तिकाल के आरम्भ में निर्गुण धारा के सन्त कवि खड़ी बोली का व्यवहार अपनी सधुक्कड़ी भाषा में किया करते थे।

कुछ विद्वानों का मत है कि मुसलमानों के द्वारा ही खड़ी बोली अस्तित्व में लाई गई और उसका मूलरूप उर्दू है, जिससे आधुनिक हिन्दी की भाषा अरबी फारसी शब्दों को निकालकर गढ़ ली गई। सुप्रसिद्ध भाषाशास्त्री, डॉ॰ ग्रियर्सन के मतानुसार खड़ी बोली अंग्रेजों की देन है। मुगल साम्राज्य के ध्वंस से खड़ी बोली के प्रचार में सहायता पहुँची। जिस प्रकार उजड़ती हुई दिल्ली को छोड़कर मीर, इंशा आदि उर्दू के अनेक शायर पूरब की ओर आने लगे उसी प्रकार दिल्ली के आसपास के हिन्दू व्यापारी जीविका के लिये लखनऊ, फैजाबाद, प्रयाग, काशी, पटना, आदि पूरबी शहरों में फैलने लगे। इनके साथ ही साथ उनकी बोलचाल की भाषा खड़ी बोली भी लगी चलती थी। इस प्रकार बड़े शहरों के बाजार की भाषा भी खड़ी बोली हो गई। यह खड़ी बोली असली और स्वाभाविक भाषा थी, मौलवियों और मुंशियों की उर्दू-ए-मुअल्ला नहीं। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के संबंध में ग्रियर्सन लिखते हैं कि यह समय हिन्दी (खड़ीबोली) भाषा के जन्म का समय था जिसका अविष्कार अंग्रेजों ने किया था और इसका साहित्यिक गद्य के रूप में सर्वप्रथम प्रयोग गिलक्राइस्ट की आज्ञा से लल्लू जी लाल ने अपने प्रेमसागर में किया।

लल्लू लाल और सदल मिश्र को खड़ी बोली के उन्नायक अथवा इसको प्रगति प्रदान करनेवाला तो माना जा सकता है, परन्तु इन्हें खड़ी बोली का जन्मदाता कहना सत्य से युक्त तथा तथ्यों से प्रमाणित नहीं है। खड़ी बोली की प्राचीन परम्परा के सम्बन्ध में ध्यानपूर्वक विचार करने पर इस कथन की अयथार्थता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है।

मुसलमानों के द्वारा इसके प्रसार में सहायता अवश्य प्राप्त हुई। उर्दू कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं बल्कि खड़ी बोली की ही एक शैली मात्र है जिसमें फारसी और अरबी के शब्दों की अधिकता पाई जाती है तथा जो फारसी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू साहित्य के इतिहास पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट प्रमाणित है। अनेक मुसलमान कवियों ने फारसी मिश्रित खड़ी बोली में, जिसे वे 'रेख्ता' कहते थे, कविता की है। यह परम्परा 18वीं 19वीं शती में दिल्ली के अंतिम बादशाह बहादुरशाह तथा लखनऊ के अंतिम नवाब वाजिदअली शाह तक चलती रही।

साधारणत: लल्लू जी लाल, सदल मिश्र, इंशाअल्ला खाँ तथा मुंशी सदासुखलाल खड़ी बोली गद्य के प्रतिष्ठापक कहे जाते हैं परन्तु इनमें से किसी को भी इसकी परम्परा को प्रतिष्ठित करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। आधुनिक खड़ी बोली गद्य की परम्परा की प्रतिष्ठा का श्रेय भारतेंदु बाबू हरिशचंद्र एवं राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद को प्राप्त है जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा एक सरल सर्वसम्मत गद्यशैली का प्रवर्तन किया। कालान्तर में लोगों ने भारतेन्दु की शैली अधिक अपनाई।

वस्तुत: आधुनिक हिन्दी साहित्य खड़ी बोली का ही साहित्य है जिसके लिए देवनागरी लिपि का सामान्यतः व्यवहार किया जाता है और जिसमें संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि के शब्दों और प्रकृतियों के साथ देश में प्रचलित अनेक भाषाओं और जनबोलियों की छाया अपने तद्भव रूप में वर्तमान है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ