सहारनपुर
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![]() सहारानपुर से शिवालिक पर्वतों की आरम्भिक श्रेणियाँ दिखती हैं | |
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निर्देशांक: साँचा:coord | |
देश | साँचा:flag/core |
प्रान्त | उत्तर प्रदेश |
ज़िला | सहारनपुर ज़िला |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | ७,०५,४७८ |
• घनत्व | साँचा:infobox settlement/densdisp |
भाषाएँ | |
• प्रचलित | हिन्दी |
समय मण्डल | भामस (यूटीसी+5:30) |
पिनकोड | 247001, 24700102 |
दूरभाष कोड | 0132 |
वाहन पंजीकरण | UP-11 |
लिंगानुपात | 1000/898 ♂/♀ |
वेबसाइट | saharanpur |
सहारनपुर (Saharanpur) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के सहारनपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।[१][२]
इतिहास
सहारनपुर की स्थापना 1340 के आसपास हुई और इसका नाम एक राजा शाह रणवीर के नाम पर पड़ा, बाद में मुगलों द्वारा इसको सहारनपुर किया गया। सहारनपुर की काष्ठ कला और दारुल उलूम देवबंद विश्वपटल पर सहारनपुर को अलग पहचान दिलाते हैं। ऐसा भी माना जा सकता है कि इस नगर का नाम सहारनपुर शाकंभरी देवी के मंदिर के कारण पड़ा हो। क्योंकि इस जिले में माता शाकंभरी देवी का प्रमुख शक्तिपीठ है जिसका वर्णन प्राचीन वेद पुराणों में होता है।
उद्योग
शहर के उद्योगों में रेलवे, मधुमक्खी पालन, कार्यशालाएं, सूती वस्त्र और चीनी प्रसंस्करण, काग़ज़ ,गत्ता निर्माण,सिगरेट उद्योग और अन्य उद्यम शामिल हैं। यहाँ दफ़्ती और मोटा काग़ज़, कपड़ा बुनने, चमड़े का सामान बनाने और लकड़ी पर नक़्क़ाशी का काम अधिक किया जाता है।
कृषि
सहारनपुर कृषि उत्पादों का एक सक्रिय केन्द्र भी है। आसपास के क्षेत्र की प्रमुख फ़सलें आम, गन्ना, गेंहू, चावल और कपास हैं।
शिक्षा
शहर में एक केंद्रीय फल शोध संस्थान, राजकीय वानस्पतिक उद्यान एक विमानचालन प्रशिक्षण केन्द्र और कई कई तकनीकी और प्रबंधन संस्थान और महाविद्यालय स्थित है।
परिवहन
यह प्रसिद्ध रेलवे स्टेशन है। यहाँ से निकटवर्ती स्थानों हरिद्वार,देहरादून,ऋषिकेश,विकाश नगर, पोंटासाहिब, चंडीगढ़,अंबाला,कुरुक्षेत्र, दिल्ली, यमुनोत्री को सड़कें गई हैं।
जनसंख्या
2011 की जनगणना के अनंतिम आंकड़ो के अनुसार सहारनपुर नगर निगम क्षेत्र की जनसंख्या 7,03,345 और सहारनपुर जिले की जनसंख्या कुल 34,64,228 है।
प्रसिद्ध स्थल
सहारनपुर में प्राचीन शाकम्भरी देवी सिद्धपीठ मंदिर, इस्लामिक शिक्षा का केन्द्र देवबन्द दारुल उलूम, देवबंद का मां बाला सुंदरी मंदिर, नगर में भूतेश्वर महादेव मंदिर, कम्पनी बाग आदि प्रसिद्ध स्थल हैं। शाकुम्भरी देवी मंदिर, सहारनपुर से 40 किमी. की दूरी पर स्थित है जो शहर के शाकुम्भरी क्षेत्र में आता है।सामान्य रूप से माना जाता है कि यह मंदिर काफी प्राचीन है। स्कंद पुराण के अनुसार इस मंदिर की स्थापना महाभारत काल से पूर्व हुई थी। इस मंदिर की मूर्तियां काफी प्राचीन हैं लेकिन सिंदूर और अन्य तत्वों से लिप्त होने के कारण मुर्तियों का मूल रूप स्पष्ट नही हो पाता कुछ लोगों का तो मानना है कि मराठा काल के दौरान मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था जबकि अन्य विद्वानों का मानना है कि आदि शंकराचार्य ने अपनी तपस्या को यहीं किया था। इन सभी मतों के अलावा, इस मंदिर में साल भर में लाखों श्रद्धालु आते हैं और दर्शन करते हैं। इस मंदिर में माता की पूजा की जाती है और माना जाता है कि मां शाकम्भरी देवी ने दुर्गम महादैत्य को मारा था और लगभग 100 साल तक तपस्या की थी जबकि वह महीने में केवल एक बार अंत में शाकाहारी भोजन ग्रहण किया करती थी। स्कंद पुराण, महाभारत, शिव पुराण,देवी पुराण, मारकंडे पुराण और ब्रह्म पुराण मे इस पीठ की महिमा का वर्णन है Darul Uloom and Indian freedom इस्लामी दुनिया में दारुल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारुल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचारधारा है, जो काफ़िरों के विरुद्ध इस्लाम को अपने मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करता है। इसलिए मुसलमानों में इस विचाधारा से प्रभावित मुसलमानों को ”देवबन्दी “ कहा जाता है।
देवबन्द उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो जनसंख्या के हिसाब से तो एक लाख से कुछ अधिक जनसंख्या का एक छोटा सा नगर है। लेकिन दारुल उलूम ने इस नगर को बड़े-बड़े नगरों से भारी व सम्मानजनक बना दिया है, जो न केवल अपने गर्भ में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रखता है।
आज देवबन्द इस्लामी शिक्षा के प्रचार व प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो समन्वय आज हिन्दुस्तान में देखने को मिलता है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबन्द दारुल उलूम को जाता है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केन्द्र बिन्दु है। दारुल उलूम ने न केवल इस्लामी सहित्य के सम्बन्ध में विशेष भूमिका निभाई है, बल्कि भारतीय समाज में इस्लामी सोच व संस्कृति को नवीन आयाम तथा अनुकूलन दिया है।
दारुल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना क़ासिम नानौतवी द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारत के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेजो के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई॰) की असफलता के बादल छट भी न पाये थे और अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज़ कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रेजों ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति से स्वतन्त्रता आन्दोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आन्दोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतन्त्रता सेनानियों पर निराशाओं के प्रहार होने लगे थे। चारो ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जाये, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्षा की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज उस समय तक विशाल एवं जालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुकाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवश्यकता थी जो धर्म व जाति से ऊपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।
इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संस्थानों ने इस्लाम का पाठ पढ़ाया उनमें दारुल उलूम देवबन्द के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीय मौलाना महमूद अल-हसन (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारुल उलूम देवबन्द) उन सैनानियों में से एक थे जिनके क़लम, ज्ञान, आचार व व्यवहार से एक बड़ा समुदाय प्रभावित था, इन्हीं विशेषताओं के कारण इन्हें शैखुल हिन्द (भारतीय विद्वान) की उपाधि से विभूषित किया गया था, उन्होंने न केवल भारत में वरन विदेशों (अफ़गानिस्तान , ईरान , तुर्की , सऊदी अरब व मिश्र ) में जाकर भारत व ब्रिटिश साम्राज्य की भत्र्सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेजी शासक वर्ग के विरुद्ध बात की।
शेखुल हिन्द ने अपने सुप्रिम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के मध्यम से अंग्रेज़ के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल कर दिया। इनके प्रमुख शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी , मौलाना उबैदुल्ला सिंधी थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाओं पर चलते रहे और अपने इस्लामी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के मुसलमान स्वतन्त्रता सेनानियों व आन्दोलनकारियों में एक भारी स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं।
सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिन्धी ने अफगानिस्तान जाकर अंग्रेजो के विरुद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की स्वंतत्र सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बना गया। यहीं पर रहकर उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक शाख कायम की जो बाद में (1922 ई. में) मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी। शेखुल हिन्द 1915 ई. में हिजाज़ (सऊदी अरब का पहला नाम था) चले गये, उन्होने वहाँ रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से सम्पर्क बना कर सैनिक सहायता की माँग की।
सन 1916 ई. में इसी सम्बन्ध में शेखुल हिन्द इस्तानबुल जाना चहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब पाशा तैनात था उसने शेखुल हिन्द को इस्तमबूल के बजाये तुर्की जाने की लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री अनवर पाशा हिजाज़ पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाक़ात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने भातियों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज़ से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिस्तान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार चलता रहा। यह गुप्त सिलसिला ”तहरीक ए रेशमी रूमाल“ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि “ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्का थी“।
सन 1916 ई. में अंग्रेज़ों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज़ से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथयों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उज़ैर गुल हकीम नुसरत , मौलाना वहीद अहमद सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की बामुशक्कत सजा दी गयी। सन 1920 में इन महान सैनानियों की रिहाई हुई।
शेखुल हिन्द की अंग्रेजों के विरूद्ध रेशमी पत्र आन्दोलन (तहरीके-रेशमी रूमाल) , मौलाना मदनी की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजै़रगुल, हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद का माल्टा जेल की पीड़ा झेलना, मौलाना सिंधी की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारुल उलूम ने स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका निभाई है। इस संस्था ने ऐसे अनमोल रत्न पैदा किये जिन्होंने अपनी मात्र भूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया। ए. डब्ल्यू मायर सियर पुलिस अधीक्षक (सीआई़डी राजनैतिक) पंजाब ने अपनी रिपोर्ट नं. 122 में लिखा था जो आज भी इंडिया आफिस लंदन में सुरक्षित है कि ”मौलाना महमूद हसन (शेखुल हिन्द) जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज़ चले गये थे, रेशमी ख़तूत की साजिश में जो मौलवी सम्मिलित हैं, वह लगभग सभी देवबन्द स्कूल से संबंधित हैं।
गुलाम रसूल मेहर ने अपनी पुस्तक ”सरगुज़स्त ए मुजाहिदीन“ (उर्दू) के पृष्ठ नं. 552 पर लिखा है कि ”मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हज़रत शेखुल हिन्द अपनी जि़न्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का ख़ाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाममात्र थी“।
उड़ीसा के गवर्नर श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे ने एक लेख में लिखा है कि दारुल उलूम देवबन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम में केंद्र बिन्दु जैसा ही था, जिसकी शाखायें दिल्ली , दीनापुर , अमरोत , कराची , खेड़ा और चकवाल में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पशिमी सीमा पर छोटी सी स्वतंत्र रियासत ”यागि़स्तान “ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का न था बल्कि पंजाब के सिक्खों व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसमें शामिल किया था।
इसी प्रकार असंख्यक तथ्य ऐसे हैं। परन्तु दारुल उलूम की विचारधारा टस से मस न हुई। इसने डट कर इन सबका विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रेस के संविधान में ही अपना विश्वास व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया। आज भी दारुल उलूम अपने देशप्रेम की विचार धारा के लिए सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।
दारुल उलूम देवबन्द में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपनी स्थापना से आज (हिजरी 1283 से 1424) सन 2002 तक लगभग 95 हजार महान विद्वान, लेखक आदि पैदा किये हैं। दारुल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताबत (हाथ से लिखने की कला) दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंग्रेजी, हिन्दी में कम्प्यूटर तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारुल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुज़रना पड़ता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफ्त दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपने दार्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई चेतना पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महादीप पर गहरा है।
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ "Uttar Pradesh in Statistics," Kripa Shankar, APH Publishing, 1987, ISBN 9788170240716
- ↑ "Political Process in Uttar Pradesh: Identity, Economic Reforms, and Governance स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।," Sudha Pai (editor), Centre for Political Studies, Jawaharlal Nehru University, Pearson Education India, 2007, ISBN 9788131707975