शिया इस्लाम

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अरबी लिपि में लिखा शब्द-युग्म "मुहम्मद अली" इस शिया विश्वास को दिखाता है कि मुहम्मद और अली में निष्ठा दिखाना एक समान ही है। इसको उलटा घुमा देने पर यह "अली मुहम्मद" बन जाता है।

शिया एक मुसलमान सम्प्रदाय है। सुन्नी सम्प्रदाय के बाद यह इस्लाम का दूसरा सबसे बड़ा सम्प्रदाय है जो पूरी मुस्लिम आबादी का केवल १०-१५% है।[१] सन् ६३२ में हजरत मुहम्मद की मृत्यु के पश्चात जिन लोगों ने ग़दीर की पैग़म्बर मुहम्मद की वसीयत के मुताबिक अपनी भावना से हज़रत अली को अपना इमाम (धर्मगुरु) और ख़लीफा (नेता) चुना वो लोग शियाने अली (अली की टोली वाले) कहलाए जो आज शिया कहलाते हैं। लेकिन बहोत से सुन्नी इन्हें "शिया" या "शियाने अली" नहीं बल्कि "राफज़ी" (अस्वीकृत लोग) नाम से बुलाते हैं ! वहीं शिया सम्प्रदाय के लोग भी प्रसिद्ध हदीस "अकमलतो लकुम दिनोकुम" की पूरी व्याख्या के आधार पर उन लोगों को पथभ्रष्ट और अल्लाह का नाफरमान मानते हैं , जो पैग़म्बर मुहम्मद के तुरंत पश्चात अली को इमाम यानी खलीफा या प्रमुख ना मानें !

इस धार्मिक विचारधारा के अनुसार हज़रत अली, जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई और दामाद दोनों थे, ही हजरत मुहम्मद साहब के असली उत्तराधिकारी थे और उन्हें ही पहला ख़लीफ़ा (राजनैतिक प्रमुख) बनना चाहिए था। यद्यपि ऐसा हुआ नहीं और उनको तीन और लोगों के बाद ख़लीफ़ा, यानि प्रधान नेता, बनाया गया। अली और उनके बाद उनके वंशजों को इस्लाम का प्रमुख बनना चाहिए था, ऐसा विशवास रखने वाले शिया हैं। सुन्नी मुसलमान मानते हैं कि हज़रत अली सहित पहले चार खलीफ़ा (अबु बक़र, उमर, उस्मान तथा हज़रत अली) सतपथी (राशिदुन) थे जबकि शिया मुसलमानों का मानना है कि पहले तीन खलीफ़ा इस्लाम के अवैध तरीके से चुने हुए और ग़लत प्रधान थे और वे हज़रत अली से ही इमामों की गिनती आरंभ करते हैं और इस गिनती में ख़लीफ़ा शब्द का प्रयोग नहीं करते। सुन्नी मुस्लिम अली को (चौथा) ख़लीफ़ा भी मानते है और उनके पुत्र हुसैन को मरवाने वाले यज़ीद को कई जगहों पर पथभ्रष्ट मुस्लिम कहते हैं।

इस सम्प्रदाय के अनुयायियों का बहुमत मुख्य रूप से इरान,इराक़,बहरीन और अज़रबैजान में रहते हैं। इसके अलावा सीरिया, कुवैत, तुर्की, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, ओमान, यमन तथा भारत में भी शिया आबादी एक प्रमुख अल्पसंख्यक के रूप में है। शिया इस्लाम के विश्वास के तीन उपखंड हैं - बारहवारी, इस्माइली और ज़ैदी। एक मशहूर हदीस मन्कुनतो मौला फ़ हा जा अली उन मौला, जो मुहम्मद साहब ने गदीर नामक जगह पर अपने आखरी हज पर खुत्बा दिया था,

शिया सुन्नी विवाद

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सन् ६३२ में मुहम्म्द साहब ने अपने आखिरी हज में ग़दीर के ख़ुम नामक मैदान के निकट अपने साथियों को संबोधित किया था। पैग़म्बर ने वहां आदेश दिया कि पीछे छूट गए सभी लोगों को आने दिया जाए और आगे निकल गए लोगों को वापस बुला लिया जाए , इस तरह इतिहासकारों के अनुसार वहां 125,000 (सवा लाख) लोग एकत्रित हुए , इसके पश्चात पैग़म्बर ने ऊंट के कजावे से एक मिम्बर बनाने की आज्ञा दी और उसपर अली का हाथ अपने हाथ में लेकर ऊपर उठाते हुए कहा "मन कुंतो मौला हो फहाज़ा अलीयून मौला " अर्थात " जिस जिस का मैं मौला (स्वामी) हूँ उस उस के मौला (स्वामी) अली हैं" इसके पश्चात पैग़म्बर मुहम्मद ने प्रसिद्ध हदीस "अकमलतो लकुम दिनोकुम" अर्थात "आज धर्म पूर्ण हो गया " (धर्म पूरी तरह से समझा दिया गया ) ऐसा कहा ! इसी समय एक व्यक्ति ने पैग़म्बर से सवाल किया कि ये आप अपनी तरफ से कह रहे हैं या अल्लाह का पैगाम पहुंचा रहें है ? जिसके जवाब में पैग़म्बर ने कहा "ये अल्लाह की आज्ञा है जो मुझसे कहते हैं कि अगर ये (अली के उत्तराधिकार की घोषणा) ना पहुंचाया (किया) तो जैसे मैने कोई पैग़म्बरी का कार्य ही नहीं किया " शिया विश्वास के अनुसार इस ख़िताब में उन्होंने अपने दामाद अली को अपना वारिस बनाया था। सुन्नी इस घटना को अली (अल्०) की प्रशंसा मात्र मानते है और विश्वास रखते हैं कि उन्होंने हज़रत अली को ख़लीफ़ा नियुक्त नहीं किया। इसी बात को लेकर दोनो पक्षों में मतभेद शुरु होता है। हालांकि उक्त घटना का लगभग सटीक वर्णन सुन्नी इस्लाम की बहुधा किताबों में मिलता है जो शिया सम्प्रदाय के दावे को बल देता है !

हज के बाद मुहम्मद साहब (स्०) बीमार रहने लगे। उन्होंने सभी बड़े सहाबियों को बुला कर कहा कि मुझे कलम दावात दे दो कि में तुमको एसा नविश्ता (दस्तावेज) लिख दूँ कि तुम भटको नहीं तो उमर ने कहा कि ये हिजयान (बीमारी की हालत में ) कह रहे हे और नहीं देने दिया (देखे बुखारी, मुस्लिम)। शिया इतिहास के अनुसार जब पैग़म्बर साहब की मृत्यु का समाचार मिला तो जहां अली एवं अन्य कुटुम्बी बनी हाशिम उनकी अंत्येष्टि का प्रबंध करने लगे वहीं उमर , अबूबकर और उनके अन्य साथी भी वहां ना आकर सकिफा में सभा करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। जिस समय हज़रत मुहम्मद (स्०) की मृत्यु हुई, अली और उनके कुछ और मित्र मुहम्मद साहब (स्०) को दफ़नाने में लगे थे, अबु बक़र मदीना में जाकर ख़िलाफ़त के लिए विमर्श कर रहे थे। मदीना के कई लोग (मुख्यत: बनी ओमैया, बनी असद इत्यादि कबीले) अबु बकर को खलीफा बनाने प‍र सहमत हो गये। शिया मान्यताओं के अनुसार मोहम्मद साहेब एवम अली के कबीले वाले यानि बनी हाशिम अली को ही खलीफा बनाना चाहते थे। पर इस्लाम के अब तक के सबसे बड़े साम्राज्य (उस समय तक संपूर्ण अरबी प्रायद्वीप में फैला) के वारिस के लिए मुसलमानों में एकजुटता नहीं रही। कई लोगों के अनुसार अली, जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई थे और दामाद भी (क्योंकि उन्होंने मुहम्मद साहब की संतान फ़ातिमा से शादी की थी) ही मुहम्मद साहब के असली वारिस थे। परन्तु अबु बक़र पहले खलीफा बनाये गये और उनके मरने के बाद उमर को ख़लीफ़ा बनाया गया। इससे अली (अल्०) के समर्थक लोगों में और भी रोष फैला परन्तु अली मुसलमानों की भलाई के लिये चुप रहे। ये बात ध्यान देने योग्य है कि उमर का पुत्र अब्दुल्लाह बिन उमर ने अपने बाप के उलट अली को ही पैग़म्बर का वारिस माना और अबुबकर के बेटे मुहम्मद बिन अबुबकर ने भी अपने दादा यानी कहाफ़ा की तरह अली का ही साथ दिया!

उस्मान की ख़िलाफ़त

उमर के बाद तीसरे खलीफ़ा उस्मान बने। उस्मान ने पैग़म्बर के समय के बद्र की लड़ाई और कई अन्य कई मार्को पर जारी किए हुए वृत्तियाँ अर्थात वज़ीफ़े जो तत्कालीन इस्लामी योद्धाओं को युद्ध में अपंगता या शहीद हो जाने के एवज में दिए जाते थे, बन्द कर दिए और सरकारी खजाने से बहुत अधिक खर्च अपनी इच्छा से करना शुरू कर दिया ! अपने संबंधियों को उच्च पद और गवर्नर नियुक्त कर दिया ! ये सब देख कर लोगों ने उनके खिलाफ बग़ावत की और उन्हें "नासिल" अर्थात गया"गबन करने वाला" घोषित करके उनके खिलाफ जंग छेड़ दी ! उस्मान ने बचने का बहुत प्रयत्न किया प‍रन्तु इनके समय में बाग़ियों लोगों ने मिस्र तथा इराक़ व अन्य स्थानो से आकर मदीना में आकर उस्मान के घर को घेर लिया ४० दिन तक उस्मान के घर को घेराव किया अन्त में उस्मान को मार डाला। उस्मान बिन अफ्फान को जब शहीद किया गया तब उनकी उम्र ७९(79) थी, उन्हें सर में बार बार वार कर के मारा गया उनकी पत्नी उनको बचाने बीच आयी इससे उनकी ऊँगली कट गयी, बागी उनके घर में पीछे की तरफ से अन्दर आये , जब उस्मान को विश्वास हो गया कि ये उन्हें मार कर छोड़ेंगे तो उन्होंने अली से रक्षा का अनुमोदन किया और अली की आज्ञानुसार "दारुल अमारा" यानी खलीफा के घर में उनके दोनों बेटों ने रसद पहुंचाई और सामने की तरफ़ से हज़रत अली के दोनों बेटे हुसैन इब्ने अली और हसन इब्ने अली ,रखवाली कर रहे थे ! उस्मान ने इनसे निवेदन किया कि किसी हालात में वो उनके घर के सामने के दरवाजे से ना हटें वरना बागी उन्हें मार डालेंगे , इसपर बागियों ने हुसैन और हसन से उलझना ठीक नहीं समझा और घर के पीछे से दाखिल होकर चुपचाप उस्मान को मार डाला !

खलीफा अली और परवर्ती विवाद

अब फिर से ख़लीफा का पद खाली था और इस्लामी साम्राज्य बड़ा हो रहा था। मुसलमानों को हज़रत अली के अलावा कोई न दिखा पर अली खलीफ़ा बनने को न माने। कइ दिन शुरा के लोग खलीफा के पद को न भर सके। अन्त में अली को विवश किया गया तो आप ने कहा कि मेरे खिलाफत में इलाही निजाम (ईश्वर शासन) चलेगा। उन्हें चौथा खलीफ़ा नियुक्त किया गया। अली अपने इन्साफ़ के लिये मशहूर थे ,अली के खलीफा बनने पर पूर्व खलीफा उस्मान के कातिलो का बदला लेने और उनको सजा देने की मांग उठने लगी लेकिन वख्त और मुसलमानों के हालात देख कर अली ने उस वख्त कोई कदम नहीं उठाया पर उस्मान के समर्थक लोगो को ये न रास आया तो उन्होंने उस्मान के कातिलो को सजा दिलवाने के फौज़ इक्क्ठी की। असल में ये फौज शाम के शासक माविया के भड़काने पर एकत्र हुए थी क्योंकि उस्मान के पश्चात वो खलीफा का अपने अपने लिए चाहता था, पर मुसलमानों का बहुमत उसके विपक्ष और अली के पक्ष में था ! अली ने कहा उस्मान के कतिलो को सजा जरुर मिलेगी, पर जब अली को इस फौज के असली मकसद का पता चला, जो बिना अली की आज्ञा के अवैध रूप से और अली को पद से हटाने के लिए एकत्र हुए थी, तो अली ने इन्हें मदीने से पहले ही रोक दिया, यहीं पर जमल नामक जंग हुई, और विद्रोही बुरी तरह हर गए ! मुआविया सीरिया वापस भाग गया और पैग़म्बर की पत्नी आयेशा को अली ने अपनी रक्षा में ले लिया ! कुछ समय बाद सीरिया के सूबेदार मुआविया ने फिर अली का विरोध किया। मुआविया तीसरे खलीफ़ा उस्मान का रिश्तेदार था, और उसी हजरत उस्मान के कतिलो के सजा की मांग से सिफ्फीन में जंग हुई जिसमेंख़्वारेज नामक फ़ितने का जन्म हुआऔर लड़ाई जितने के बावजूद विद्रोह की वजह से अली को काफी दुःख हुआ और वो वापस कूफ़ा चले गए !मुआविया बार बार अली से उलझता रहा और उनके शासित प्रदेशों में लूट मार करता रहा ! सन् ६६१ में कूफ़ा में एक मस्जिद में इमाम अली को धोके से शहीद कर दिया गया। इसके बाद मुआविया ने अपने को इस्लाम का ख़लीफ़ा घोषित कर दिया, जबकि मदीने के और अली के समर्थकों ने अली के ज्येष्ठ पुत्र हसनबिन अली के हाथ पर बैयत की और उन्हें खलीफा बनाया ! हसन पैग़म्बर के सीधे वंशज थे !

इमाम हसन और इमाम हुसैन

इराक़ के नजफ़ में इमाम अली की मजार

हज़रत अली और सैद्धांतिक रूप से मुहम्मद सo साहब के रिश्तेदारों के समर्थकों ने उनके पुत्र हसन के प्रति निष्ठा दिखाई, लेकिन कुछ उनका साथ छोड़ गए। हसन इब्ने अली ने जंग न की बल्कि मुआविया के साथ सन्धि कर ली। असल में अली के समय में सिफ्फीन की लड़ाई के पश्चात माविया ने खुद को बिना किसी शूरा के खलीफा घोषित कर दिया था एवं दमिश्क को अपनी राजधानी घोषित कर रखी थी। वो सीरिया का गवर्नर पिछ्ले खलीफाओं के कारण बना था अब वो अपनी एक बड़ी सेना तैयार कर रहे थे अब उसने वही सवाल इमाम हसन के सामने रखा: या तो युद्ध या फिर अधीनता। इमाम हसन ने अधीनता नहीं स्वीकार की परन्तु वो मुसलमानों का खून भी नहीं बहाना चाहते थे इस कारण वो युद्ध से दूर रहे। मुआविया भी किसी भी तरह सत्ता चाहता था तो इमाम हसन से सन्धि करने पर मजबूर हो गया। हसन से सीधे उलझना या उनका खून बहाना कितना मंहगा साबित हो सकता है ये मुआविया भांप गया था, पर उसका पुत्र यज़ीद इतना भी समझदार ना निकला और वो हसन के पश्चात हुसैन से सीधे उलझ गया जिसके कारण उसका पतन हो गया ! असल में हसन इमाम का पद अपने पिता के पश्चात पहले ही पा चुके थे और इस पद के अंतर्गत वो धार्मिक कार्यों के सर्वोच्च अधिकारी थे, जिसे किसी तरह जंग से नहीं बदला नही जा सकता था बल्कि शास्त्रार्थ (हदीस, शरीयत , क़ुरआन एवं परमेश्वर के विधान की सम्पूर्ण व्याख्या ) के ज़रिए ही पाया जा सकता था ! मुआविया धर्म और विधि का इतना ज्ञानी नहीं था को वो शास्त्रार्थ करके इमाम हसन को हरा सके ! वहीं इमाम हसन पैग़म्बर की एकमात्र पुत्री फातिमा के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते "इब्ने रसूलल्लाह" (पैग़म्बर के पुत्र /वारिस) कहलाये जाते थे और इस विषय में मुआविया कुछ नहीं कर सकता था ! मुआविया का मकसद केवल अपने पिता अबूसूफियान की बद्र खंदक और अन्य कई जंगों की हार का बदला मुहम्मद और अली के वंशजों से लेना मात्र था ! इमाम हसन ने अपनी शर्तो पर उसको सि‍र्फ सत्ता सौंपी। इन शर्तो में से कुछ ये हैं: -

  • वो सिर्फ सत्ता के कामों तक सीमित रहेगा यानि धर्म में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा।
  • वो अपने जीवन तक ही सत्ता में रहेगा म‍रने से पहले किसी को उत्तराधिकारी न बना सके
  • वो सिर्फ इस्लाम के कानूनों का पालन करेगा।

इस सुलहनामे को हुदैबिया नामक स्थान पर होने के कारण हुदैबिया की संधि के नाम से जाना जाता है ! इस प्रकार की शर्तो के द्वारा मुआविया सिर्फ नाम मात्र का शासक रह गया। वो सिर्फ इस्लामी मुल्कों से भारी मात्रा में टैक्स वसूलकर उसे मनमाने तरीके से खर्च करता था ! इस्लामी शिक्षा का केंद्र हसन और उनके बाद बनके भाई हुसैन और बाद के वंशजों के ही पास बना रहा ! प्रसिध्द सूफी विचारधारा पूर्णरूप से अहलेबैत अर्थात अल्लाह , मुहम्मद और इसके पश्चात अली और उनके वंशजो से प्रेरित है और उनकी विचारधारा में अन्य किसी विचारधारा का कोई स्थान नहीं है ! मुआविया के वंश का शासन ७५० इस्वी तक रहा और उन्हें उमय्यद कहा गया।

शिया सम्प्रदाय के विभाग

शिया मुसलमानों की सभी तहरीक हजरत मुहम्मद साहब के बाद अली के छोटे पुत्र व उनकी ११ पुत्रों को सिलसिलेवार सन्तानों को इस्लाम का उत्तराधिकारी मानते हैं। इनमे सबसे पहले इमाम हसन अल्य्हिस्सलाम का नाम आता है, आप इमाम अली (इब्ने अबुतलिब) के ज्येष्ठ पुत्र थे और आप ने इमाम अली के बाद ४७ साल की आयु में खिलाफत सम्भाली। आप केवल ६ माह तक ही खलीफा रहे जिसके पाश्चात आपने मविया से सन्धि के पश्चात राजनैतिक शासन से त्याग पत्र दे दिया मगर आप अपने अनुनाइयओ का मार्ग दर्शन इमाम के सम्मानित पद के अन्तर्गत करते रहे जो आपके पास इमाम अली अo के पश्चात आया था। शिया इतिहास के अनुसार आपको मविया ने साजिश करके शहीद कर दिया। आपके वसीयत के अनुसार आपके पश्चात इमाम हुसैन ने आपके पश्चात इमाम के पद को सम्भला। आपसे ही कर्बला की महान कथा सम्बन्धित है। आपने जब मविया के दुराचारी पुत्र यज़ीद का समर्थन करने से जब स्पष्ट रूप से मना कर दिया तब आपको अपने परिवार एवम मित्रों सहित, जो कुल ७२ की सन्ख्या में थे, ३०,००० या अधिक की फौज द्वारा घेर कर शहीद कर दिया गया। आप पर और आपके परिवार पर पानी ३ दिन पहले से ही बन्द था। इसी की याद में हर साल आपके अनुयायी मुहर्रम का विश्व प्रसिद्ध एवं पवित्र त्योहार मनाते है। इस त्यहार में धर्म सभायें एवम शोक सभाओं इत्यदि का अयोजन होता है!

शिया सम्प्रदाय के इमामो के नाम क्रमवार् निम्न लिखित है।-

  1. इमाम - हजरत अली इब्न अबी तालिब
  2. इमाम - हजरत हसन इब्न अली
  3. इमाम - हजरत हुसैन इब्न अली
  4. इमाम - हजरत अली इब्ने हुसैन (अल जैनुल आबेदीन्, अल्- सज्जाद)
  5. इमाम - हजरत मोहम्मद इब्ने अली (अल्- बाकिर्)
  6. इमाम - हजरत जाफर इब्ने मोहम्मद (अल्-सादिक)
  7. इमाम - हजरत मूसा इब्ने जाफर (अल्-काजिम)
  8. इमाम - हजरत अली इब्ने मुसा (अल्-रजा, अल्-जामिन ओ सामिन्)
  9. इमाम - हजरत् मोहम्मद इब्ने अली (अल्-तकी)
  10. इमाम - हजरत अली इब्ने मोहम्मद (अल्-नकी)
  11. इमाम - हजरत हसन इब्ने अली (अल्-अस्करी)
  12. इमाम - हजरत मोहम्मद इब्ने हसन (अल्-महदी, अल्-कायम, इमाम ए वक्त्, अल्-हुज्जत्) (अन्तिम एवम जीवित इमाम)
  • बारहवारी-इस उपसम्प्रदाय के अनुयायी १२वे इमाम को जीवित एवम वर्तमान समय के इमाम मानते हैं ! इस विश्वास के अनुसार ये अल्लाह की आज्ञा से अन्तर्धयान है और एक निश्चित समय पर प्रकट् होगे, ऐसा विश्वास है!
  • ज़ैदी -
  • इस्माइली

शिया जनसंख्या का वितरण

शिया जनसंख्या का मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया में वितरण
देश कुल मुस्लिम जनसंख्या शिया जनसंख्या शिया जनसंख्या का प्रतिशत संदर्भ
इरान 68,700,000 66,800,000 96.98
पाकिस्तान 165,800,800 33,200,000 20.02
ईराक 26,000,000 17,400,000 66.92
तुर्की 71,517,100 15,000,000 20.97 [२],[३]
भारत 180,000,000 11,000,000 10.09
अज़रबैजान 9,000,000 7,600,000 85.00
अफ़ग़ानिस्तान 31,000,000 5,900,000 19.03
सउदी अरब 27,000,000 4,000,000 14.81
लेबनान 3,900,000 1,700,000 43.59
कुवैत 2,400,000 730,000 30.42
बहरीन 700,000 520,000 74.29
सीरिया 20,178,485 3,228,557 16.0 [४]
सं.अ.अमी. 2,600,000 160,000 6.15
क़तर 890,000 140,000 15.73
ओमान 3,100,000 31,000 1.00
स्रोत: कई विद्वतापूर्ण संदर्भ और मध्य पूर्व और पश्चिम के सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के आँकड़ों के आधार पर

सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

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