तैत्तिरीयोपनिषद

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तैत्तिरीयोपनिषद  
चित्र:उपनिषद.gif
लेखक वेदव्यास
चित्र रचनाकार अन्य पौराणिक ऋषि
देश भारत
भाषा संस्कृत
श्रृंखला कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद
विषय ज्ञान योग, द्वैत अद्वैत सिद्धान्त
प्रकार हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ

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तैत्तिरीयोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राचीनतम दस उपनिषदों में से एक है। यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है - कुल ५३ मंत्र हैं जो ४० अनुवाकों में व्यवस्थित है। शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या विद्या भी कहते हैं। तैत्तरीय उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तरीय आरण्यक का ७, ८, ९वाँ प्रपाठक है।

इस उपनिषद् के बहुत से भाष्यों, टीकाओं और वृत्तियों में शांकरभाष्य प्रधान है जिसपर आनंद तीर्थ और रंगरामानुज की टीकाएँ प्रसिद्ध हैं एवं सायणाचार्य और आनंदतीर्थ के पृथक्‌ भाष्य भी सुंदर हैं।

ऐसा माना जाता है कि तैत्तिरीय संहितातैत्तिरीय उपनिषद की रचना वर्तमान में हरियाणा के कैथल जिले में स्थित गाँव तितरम के आसपास हुई थी।[१][२]

परिचय

तैत्तरीय उपनिषद् अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राचीनतम दस उपनिषदों में सप्तम उपनिषद् है तथा शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है। यह कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तरीय आरण्यक का 7, 8, 9वाँ प्रपाठक है। शिक्षा वल्ली में १२ अनुवाक और २५ मंत्र, ब्रह्मानंदवल्ली में ९ अनुवाक और १३ मंत्र तथा भृगुवल्ली में १९ अनुवाक और १५ मंत्र हैं। शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या विद्या भी कहते हैं।

वारुणी उपनिषद् में विशुद्ध ब्रह्मज्ञान का निरूपण है जिसकी उपलब्धि के लिये प्रथम शिक्षावल्ली में साधनरूप में ऋत और सत्य, स्वाध्याय और प्रवचन, शम और दम, अग्निहोत्र, अतिथिसेवा श्रद्धामय दान, मातापिता और गुरुजन सेवा और प्रजोत्पादन इत्यादि कर्मानुष्ठान की शिक्षा प्रधानतया दी गई है। इस में त्रिशंकु ऋषि के इस मत का समावेश है कि संसाररूपी वृक्ष का प्रेरक ब्रह्म है तथा रथीतर के पुत्र सत्यवचा के सत्यप्रधान, पौरुशिष्ट के तप:प्रधान एवं मुद्गलपुत्र नाक के स्वाध्याय प्रवचनात्मक तप विषयक मतों का समर्थन हुआ है। 11वें अनुवाक मे समावर्तन संस्कार के अवसर पर सत्य भाषण, गुरुजनों के सत्याचरण के अनुकरण और असदाचरण के परित्याग इत्यादि नैतिक धर्मों की शिष्य को आचार्य द्वारा दी गई शिक्षाएँ शाश्वत मूल्य रखती हैं।

ब्रह्मानंद और भृगुवल्लियों का आरंभ ब्रह्मविद्या के सारभूत 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌' मंत्र से होता है। ब्रह्म का लक्षण सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप बतलाकर उसे मन और वाणी से परे अचिंत्य कहा गया है। इस निर्गुण ब्रह्म का बोध उसके अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद इत्यादि सगुण प्रतीकों के क्रमश: चिंतन द्वारा वरुण ने भृगु को करा दिया है। इस उपनिषद् के मत से ब्रह्म से ही नामरूपात्मक सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और उसी के आधार से उसकी स्थिति है तथा उसी में वह अंत में विलीन हो जाती है। प्रजोत्पत्ति द्वारा बहुत होने की अपनी ईश्वरींय इच्छा से सृष्टि की रचना कर ब्रह्म उसमें जीवरूप से अनुप्रविष्ट होता है। ब्रह्मानंदवल्ली के सप्तम अनुवाक में जगत्‌ की उत्पत्ति असत्‌ से बतलाई गई है, किंतु 'असत्‌' इस उपनिषद् का पारिभाषिक शब्द है जो अभावसूचक न होकर अव्याकृत ब्रह्म का बोधक है, एवं जगत्‌ को सत्‌ नाम देकर उसे ब्रह्म का व्याकृत रूप बतलाया है। ब्रह्म रस अथवा आनंद स्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर समस्त सृष्टि पर्यंत जितना आनंद है उससे निरतिशय आनंद को वह श्रोत्रिय प्राप्त कर लेता है जिसकी समस्त कामनाएँ उपहत हो गई हैं और वह अभय हो जाता है।

वर्ण्य विषय

शिक्षावल्ली

शिक्षावल्ली में १२ अनुवाक हैं । उनमें वर्णित विषय निम्नलिखित हैं-

अनुवाक प्रस्तुत विषय
अनुवाक १ शान्तिमन्त्र
अनुवाक २ वर्ण-स्वर-मात्रा-बल-साम-सन्तान आदि क्रम से वर्णित हैं।
अनुवाक ३ विश्व-ज्योति-विद्या-प्रजा-देह आदि किन तत्त्वों के संयोग से क्या उत्पन्न होता है।
अनुवाकः ४ बुद्धिबलयोः अधिष्ठातृदेवतायाः इन्द्रदेवतायाः वर्णनं प्रार्थना च विद्यते । सम्पदः यशः च सम्प्रार्थ्य अधिकाः ब्रह्मचारिणः अध्ययनाय आगच्छेयुः इति वरं प्रार्थयते
अनुवाकः ५ भूः भुवः स्वः महः इत्येतेषां चतुर्णां मन्त्राणाम् अर्थः उपासनाक्रमः च विवृतम्
अनुवाकः ६ अन्तर्हृदये स्थितस्य पुरुषस्य उल्लेखपूर्वकम् आनन्दः नाम किम् ? अमृतं किमिति संक्षेपेण विवृतम्
अनुवाकः ७ भूतेषु पञ्च भागाः देहे अपि पञ्च भागाः इति निरूप्य शरीरं पञ्चभूतैः एव निर्मितम् इति वर्णितम्
अनुवाकः ८ ओङ्कारस्य विभिन्नेषु अवसरेषु दश उपयोगाः वर्णिताः
अनुवाकः ९ स्वाध्याय-प्रवचनयोः आवश्यकता निरूपिता
अनुवाकः १० त्रिशङ्कुना कृतस्य आत्मस्वरूपस्य वर्णनं विद्यते
अनुवाक ११ अध्ययन समाप्त करके घर जाने के लिये उद्यत शिष्य को गुरु का उपदेश
अनुवाक १२ शान्तिमन्त्र

ब्रह्मानन्दवल्ली

ब्रह्मानन्दवल्ली में ९ अनुवाक हैं। उनमें विषयप्रस्तुति कुछ इस प्रकार है-

अनुवाक प्रस्तुत विषय
अनुवाक १ ब्रह्मा से ही विश्व की उत्पत्ति हुई है।
अनुवाक २ अन्न से ही सभी वस्तुओं की उत्पत्ति हुई है।
अनुवाक ३ प्राण से ही सभी जीवित हैं।
अनुवाकः ४ ब्रह्म इन्द्रियातीतम् । श्रद्धा, ऋतं, सत्यं, योगः, बुद्धिश्च विज्ञानमयपुरुषस्य अवयवानि
अनुवाकः ५ विज्ञानेन यज्ञ-कर्मयोः विस्तारः भविष्यति । प्रिय-मोद-प्रमोद-आनन्द-ब्रह्म एते आनन्दमयस्य आत्मनः अवयवानि
अनुवाकः ६ असत् तन्नाम इन्द्रियातीतं सत्यं पूर्वम् एकमेव आसीत् । स्वसङ्कल्पेन मूर्तामूर्तवस्तुरूपेण परिणतम्
अनुवाकः ७ असता सत् जातम् । वस्तुनः आनन्ददायकं तत्त्वम् असतः रूपम् । असतः साक्षात्कारतः पुरुषः निर्भयः भवति ।
अनुवाकः ८ ब्रह्मानन्दः कीदृशः इति निरूपितः । निष्कामिना वेदज्ञेन ब्रह्मानन्दः प्राप्यते ।
अनुवाक ९ आत्मज्ञानी पाप और पुण्य से परे होता है - यह निरूपण।

भृगुवल्ली

भृगुवल्ली में १० अनुवाक हैं जिनमें प्रस्तुत विषय निम्नलिखित हैं-

अनुवाक प्रस्तुत विषय
अनुवाक १ भृगु ने अपने पिता से ब्रह्मज्ञान की याचना की । भूत (प्राणी) कैसे उत्पन्न होते हैं? केन आधार से वे जीवित रहते हैं ? किसमें मिल जाते हैं- ये तप द्वारा जानो, ऐसा पिता ने समझाया।
अनुवाक २ अन्न ही ब्रह्म है- ऐसा पिता ने बताया । पिता पुनः तप करने को कहा।
अनुवाकः ३ प्राणः एव ब्रह्म इति पितरं वदति । पिता पुनः तपसः आचरणाय प्रेषयति ।
अनुवाकः ४ मनः एव ब्रह्म इति पितरं वदति । पिता पुनः तपसः आचरणाय प्रेषयति ।
अनुवाकः ५ विज्ञानमेव ब्रह्म इति पितरं वदति । पिता पुनः तपसः आचरणाय प्रेषयति ।
अनुवाकः ६ आनन्दः एव ब्रह्म इति पितरं वदति । अस्य ज्ञानमेव भार्गवीवारुणीविद्या । अस्य ज्ञाता महिमावान् भवति ।
अनुवाकः ७ अन्नं न निन्दितव्यम् । अन्नप्राणयोः अन्योन्याश्रयः विद्यते । अस्य ज्ञाता महिमावान् भवति ।
अनुवाकः ८ आपतेजसोः अन्योन्याश्रयः विद्यते । उभौ अपि अन्नरूपौ एव । अस्य ज्ञाता महिमावान् भवति ।
अनुवाकः ९ पृथ्व्याकाशयोः अन्योन्याश्रयः विद्यते । उभौ अपि अन्नरूपौ एव । अस्य ज्ञाता महिमावान् भवति ।
अनुवाक १० अतिथिसत्कार करना चाहिये । शरीरदेवता की उपासना करनी चाहिये। तृप्तिबलतेज की प्राप्ति के लिये दैव्योपासन करना चाहिये, ऐसा कहा गया है।

सन्दर्भ

  1. डा बलदेव उपाध्याय- वैदिक साहित्य एवं संस्कृति -पृ १३२-१३३
  2. साँचा:cite web

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

मूल ग्रन्थ

अनुवाद