वैश्य

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चित्र:Sage Jajali is honoured by the Vaishya Tuladhara.jpg
ऋषि जाजली और वैश्य तुलधारा

वैश्य हिंदु धर्म की एक जाति है। हिंदुओं की जाति व्यवस्था के अन्तर्गत वैश्य वर्णाश्रम का तीसरा महत्वपूर्ण स्तंभ है। वैश्य समुदाय को लक्ष्मी पुत्र कहा जाता हैं. इनकी कुलदेवी माता लक्ष्मी होती हैं. भगवान् विष्णु वैश्य समुदाय के परम पिता होते हैं. वैश्य शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है जिसका मूल अर्थ "बसना" होता है। मनु के मनुस्मृति के अनुसार वैश्यों की उत्पत्ति ब्रम्हा के उदर यानि पेट से हुई है।यह प्रतीकात्मक लाक्षणिकता मे दार्शनिक अभिगृहीत सिद्धांतों की भावाभिव्यक्ति है। कर्म सिद्धांत वर्गीकरण मे पोषण के कार्यों से जुड़े गतिविधियों के व्युत्पत्ति को पेट से उत्पन्न होना कला के रूप प्रतीक का समावेशन ऐसा सरलीकरण है जिसका बोध सभी को आसानी से हो जाता है। वर्ण का वर्गीकरण कर्म का वर्गीकरण है,न कि मनुष्य का वर्गीकरण।वसुधैव कुटुम्बकम् मे परिवार के दूसरी तीसरी अथवा किसी भी ईकाई को मनुष्य की लक्ष्य तक के उद्विकास से वंचित करने की धारणा हिन्दुत्व मे वर्जित है।विश से सामान्य जन समुदाय,और इसी से वैश्य।

की दृष्टि से इस शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है जिसका मूल अर्थ "बसना" होता है। मनु के मनुस्मृति के अनुसार वैश्यों की उत्पत्ति ब्रम्हा के उदर यानि पेट से हुई है।यह प्रतीकात्मक लाक्षणिकता मे दार्शनिक अभिगृहीत सिद्धांतों की भावाभिव्यक्ति है। कर्म सिद्धांत वर्गीकरण मे पोषण के कार्यों से जुड़े गतिविधियों के व्युत्पत्ति को पेट से उत्पन्न होना कला के रूप प्रतीक का समावेशन ऐसा सरलीकरण है जिसका बोध सभी को आसानी से हो जाता है। वर्ण का वर्गीकरण कर्म का वर्गीकरण है,न कि मनुष्य का वर्गीकरण।वसुधैव कुटुम्बकम् मे परिवार के दूसरी तीसरी अथवा किसी भी ईकाई को मनुष्य की लक्ष्य तक के उद्विकास से वंचित करने की धारणा हिन्दुत्व मे वर्जित है।विश से सामान्य जन समुदाय,और इसी से वैश्य।

माना जाता है कि वैश्य समुदाय की ९०% जातिया पहले क्षत्रिय थी।

प्रकार

  1. स्वर्णकार :- इनकी उत्पति महाराजा आजमीढ से हुई और कुछ की माता हिंगलाज और कुछ का विश्वकर्मा जी से जो दैवज्ञ वैश्य सुनार कहलाये ये ब्राह्मण राजपूत की तरह कई प्रकार के वर्ग मे विभक्त है ये भी द्विज होते है।
  2. महेश्वरी:- माहेश्वरियो की उत्पत्ति भगवन शिव से हुईं.
  3. बरनवाल:- महाराजा अहिबरन.
  4. अग्रवाल:- महाराजा अग्रसेन
  5. गहोई :- राजा दशरथ जी के मंत्री सुमंत जी के वंशज ।
  6. खंडेलवाल:- इनकी उत्पत्ति रजा खंडेल सेन से हुईं हैं.
  7. पोडवाल:- राजा पुरु से.
  8. वार्ष्णेय:- राजा अक्रूर जी से, जो की भगवान श्री कृष्ण के चाचा थे.
  9. माहोर:- राजा भामाशाह के वंशज
  10. तेली वैश्य:- इनकी उत्पत्ति भी भामाशाह से मानी जाती हैं। पौराणिक संदर्भों के अनुसार इनकी उत्पत्ति भगवान शिव से भी मानी जाती हैं।
  11. श्री अयोध्यावासी वैश्य :भगवान श्री राम के परम भक्त मणि कुंडल महाराज के वंशज|
  12. केशरवानी ओर केशरी:-इनकी उत्पत्ति महर्षि कश्यप जी से हुई है तथा इनकी उत्पत्ति कश्मीर में हुई है।
  13. कसौधन:-इनकी उत्पत्ति महर्षि कश्यप जी से हुई है तथा इनकी उत्पत्ति कश्मीर में हुई है।
  14. गंधबनिक गौड़ वैश्य:पूर्वी भारत के चंद्रधर सौदागर के वंशज
  15. कान्यकुब्ज वैश्य:- भगवान मोदनसेन के वंसज, कान्यकुब्ज वैश्य हलवाई
  16. मद्धेशिया कानू:— बाबा गणिनाथ गोविंद महराज के वंशज
  17. जायसवाल:- इनकी उत्पत्ति सहस्त्रबाहु से हुई। ये चंद्रवंशी क्षत्रिय राजा थे।

वैश्य सम्राट और राजा

  1. राजा श्रीगुप्त
  2. राजा घटोत्कच गुप्त
  3. सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
  4. सम्राट समुद्र गुप्त
  5. राजा कुमार गुप्त
  6. सम्राट स्कन्द गुप्त
  7. सम्राट यशो वर्धन
  8. सम्राट हर्षवर्धन
  9. सम्राट हेमू विक्रमादित्य(भारत के आखिरी हिन्दू सम्राट)
  10. चालुक्य पुलकेशिन-२
  11. पल्लव नरसिंह वर्मन-१
  12. सम्राट राजाराज चोल
  13. सम्राट राजेंद्र चोल
  14. चालुक्य विक्रमादित्य-६
  15. जटावर्मन सुन्दर पांडय
  16. राजा भामाशाह
  17. हेमचन्द्र-(हेमू) विक्रमादित्य
  18. बालादित्य तेलाधक गुप्त
  19. चंद्रधर सौदागर
  20. राज कुमार उदयन (उज्जैन)
  21. सम्राट भृतहरी
  22. परवर्ती गुप्त राजवंश
  23. महाराजा आज़मीढ(मैढवंश सुनार)

वैश्यों के लिए प्रयुक्त होने वाले  कुछ नाम

बनिया -: व्यापार,वाणिज्य करने के कारण ।

सेठ -: अपने अच्छे आचरण और धनी व्यवसायियों सुनार, स्वर्णकार खत्री होने के कारण, समाज में सर्वोच्च स्थान के कारण ।


महाजन -: सभी जानो के लिए महान कार्य एवं अच्छा व्यवहार करने के कारण।

साहूकार -: बुद्धि में तीव्र होने के कारण, ब्याज बट्टा एवं कर्मठ व्यापारी होने के कारण।

बोहरा -: एक और वैश्य उपाधि

गुप्ता -: व्यापारिक गूढता के कारण, कुशल व्यापारी होने के कारण ।

भगवान विष्णु का एक नाम गुप्त भी हैं, उनका वंशज होने के कारण

वैश्य -: भगवान् विष्णु के गुणों को धारण करने के कारण

लक्ष्मीपुत्र -: भगवान् विष्णु व माता लक्ष्मी के वंशज होने के कारण


वैश्य वर्ण(वर्ण शब्द का अर्थे है-"जिसको वरण किया जाय" वो समुदाय ) का इतिहास जानने के पहले हमे यह जानना होगा की वैश्य शब्द कहा से आया है। वैश्य शब्द विश से आया है,विश का अर्थे है प्रजा,प्राचीन काल मे प्रजा(समाज) को विश नाम से पुकारा जाता था। विश के प्रधान संरक्षक को विशपति (राजा) कहते थे,जो निर्वाचन से चुना जता था। विश शब्द से  भगवान विष्णु (" विश प्रवेशने " तथा " वि+अश " ) नाम कि सिद्धि होती है। विष्णु सृष्टि के संचालक हैं, वे हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति करते हैं,वैश्य भी समाज मे व्यापार से रोजगार के अवसर प्रदान करता है, तथा अन्य सामाजिक कार्य मे दान से समाज कि आवश्यकता कि पुर्ती कर्ता है। विष्णु भगवान दुनियादारी या गृहस्थी के भगवान हैं,वैश्य वर्ण को गृहस्थी का वर्ण कहाँ जता है। इस सृष्टि के तीन प्रमुख भगवान हैं, ब्रह्मा, विष्णु और शिव। ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं,विष्णु उसका संचालन और पालन और शिव संहार। वास्तव मे सृष्टि के तीन प्रमुख भगवान हैं, ब्रह्मा, विष्णु और शिव एक हि परमेश्वर का विभिन्न नाम है, तथा उनके कार्य है रचना करना,संचालन और पालन करना,और संहार करना। अब हम वैश्य वर्ण पर आते है,सिन्धु- घाटी की सभ्यता का निर्माण तथा प्रशार दुर के देशो तक वैश्यो से हुआ है। सिन्धु- घाटी की सभ्यता मे जो विशालकाय बन्दरगाह थे वे उत्तरी अमेरिका तथा दक्षिणी अमेरिका,युरोप के अलग-अलग भाग तथा एशिया (जम्बोदीप) आदि से जहाज़ द्वारा व्यापार तथा आगमन का केन्द्र थे।

विशेष—'वैश्य' शब्द वैदिक विश् से निकला है । वैदिक काल में प्रजा मात्र को विश् कहते थे । पर बाद में जब वर्ण व्यवस्था हुई, तब वाणिज्य व्यवसाय और गोपालन आदि करने वाले लोग वैश्य कहलाने लगे । इनका धर्म यजन, अध्ययन और पशुपालन तथा वृति कृषि और वाणिज्य है । आजकल अधिकांश वैश्य प्रायः वाणिज्य व्यवसाय करके ही जीवन का निर्वाह करते हैं ।अर्थ की दृष्टि से इस "वैश्य" शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है जिसका मूलअर्थ "बसना" होता है।

वैश्य वणिक कुल

यह मुख्‍यत: सूर्य और चंद्र वंशों के अलावा ऋषि वंश में विभाजित हैं। इनमें मुख्‍यत: केशरी, कसौधन, महेश्‍वरी, अग्रवाल, गहोई , बरनवाल, गुप्ता,साह/शाह(तेली),ओसवाल, पोरवाल, खंडेलवाल, सेठिया, सोनी, आदि का जिक्र होता है।

महेश्वरी समाज का संबंध शिव के रूप महेश्वर से है। यह सभी क्षत्रिय कुल से हैं। शापग्रस्त 72 क्षत्रियों के नाम से ही महेश्वरी के कुल गोत्र का नाम चला। माहेश्वरियों के प्रमुख आठ गुरु हैं- 1. पारीक, 2. दाधीच, 3.गुर्जर गौड़, 4.खंडेलवाल, 5.सिखवाल, 6.सारस्वत, 7.पालीवाल और 8.पुष्करणा।

ये 72 उप कुल : आगीवाल, अगसूर, अजमेरा, आसावा, अटल, बाहेती, बिरला, बजाज, बदली, बागरी, बलदेवा, बांदर, बंग, बांगड़, भैय्या, भंडारी, भंसाली, भट्टड़, भट्टानी, भूतरा, भूतड़ा, भूतारिया, बिंदाड़ा, बिहानी, बियानी, चाण्‍डक, चौखारा, चेचानी, छपरवाल, चितलंगिया, दाल्या, दलिया, दाद, डागा, दम्माणी, डांगरा, दारक, दरगर, देवपूरा, धूपर, धूत, दूधानी, फलोद, गादिया, गट्टानी, गांधी, गिलदा, गोदानी, हेडा, हुरकत, ईनानी, जाजू, जखोतिया, झंवर, काबरा, कचौलिया, काहल्या, कलानी, कललंत्री, कंकानी, करमानी, करवा, कसत, खटोड़, कोठारी, लड्ढा, लाहोटी, लखोटिया, लोहिया, मालानी, माल, मालपानी, मालू, मंधाना, मंडोवरा, मनियान, मंत्री, मरदा, मारु, मिमानी, मेहता, मेहाता, मुंदड़ा, नागरानी, ननवाधर, नथानी, नवलखाम, नवल या नुवल, न्याती, पचीसिया, परतानी, पलोड़, पटवा, पनपालिया, पेड़ियावाल, परमाल, फूमरा, राठी, साबू, सनवाल, सारड़ा, शाह, सिकाची, सिंघई, सोडानी, सोमानी, सोनी, तपरिया, ताओरी, तेला, तेनानी, थिरानी, तोशनीवाल, तोतला, तुवानी और जवर।

खापें का गोत्र कुल : इसके अलावा सोनी (धुम्रांस), सोमानी (लियांस), जाखेटिया (सीलांस), सोढानी (सोढास), हुरकुट (कश्यप), न्याती (नागसैण), हेडा (धनांस), करवा (करवास), कांकाणी (गौतम), मालूदा (खलांस), सारडा (थोम्बरास), काहल्या (कागायंस), गिरडा (गौत्रम), जाजू (वलांस), बाहेती (गौकलांस), बिदादा (गजांस), बिहाणी (वालांस), बजाज (भंसाली), कलंत्री (कश्यप), चावड़ा (चावड़ा माता), कासट (अचलांस), कलाणी (धौलांस), झंवर (धुम्रक्ष), मनमंस (गायल माता), काबरा (अचित्रांस), डाड़ (अमरांस), डागा (राजहंस), गट्टानी (ढालांस), राठी (कपिलांस), बिड़ला (वालांस), दरक (हरिद्रास), तोषनीवाल (कौशिक), अजमेरा (मानांस), भंडारी (कौशिक), भूतड़ा (अचलांस), बंग (सौढ़ास), अटल (गौतम), इन्नाणी (शैषांश), भराडिया (अचित्र), भंसाली (भंसाली), लड्ढा (सीलांस), सिकची (कश्यप), लाहोटी (कांगास), गदहया गोयल (गौरांस), गगराणी (कश्यप), खटोड (मूगांस), लखोटिया (फफडांस), आसवा (बालांस), चेचाणी (सीलांस), मनधन (जेसलाणी, माणधनी माता), मूंधड़ा (गोवांस), चांडक (चंद्रास), बलदेवा (बालांस), बाल्दी (लौरस), बूब (मूसाइंस), बांगड़ (चूडांस), मंडोवर (बछांस), तोतला (कपिलांस), आगीवाल (चंद्रास), आगसूंड (कश्‍यप), परतानी (कश्यप), नावंधर (बुग्दालिभ), नवाल (नानणांस), तापडिया (पीपलांस), मणियार (कौशिक), धूत (फाफडांस), धूपड़ (सिरसेस), मोदाणक्ष (सांडास), देवपुरा (पारस), मंत्री (कंवलांस), पोरवाल/परवाल (नानांस), नौलखा (कश्‍यप गावंस), टावरी (माकरण), दरगढ़ (गोवंस), कालिया (झुमरंस), खावड (मूंगास), लोहिया, रांदड (कश्यप) आदि। इसके अलावा महेश्वरी समाज की और भी खापें और खन्ने हैं जैसे दम्माणी, करनाणी, सुरजन, धूरया, गांधी, राईवाल, कोठारी, मालाणी, मूथा, मोदी, मोह्त्ता, फाफट, ओझा, दायमा आदि। नभागाजी माहेश्वरी वैश्यों के प्राचीन पुरुष हैं।


इसके अलावा मधेशिया, मधेशी, रोनियार, दौसर, कलवार, भंडारी, पटेल, गनिया तेली (कर्नाटक), साहू तेली, मोध घांची, गनिया गान्दला कर्नाटक, पटवा, माहेश्वरी, चौरसिया, पुरवाल (पोरवाल), सरावगी, ओसवाल, कांदु, माहुरी, सिंदुरिया या कायस्थ बनिया, वाणी महाराष्ट्र और कर्नाटक, ओमर, उनई साहू, कपाली बंगाल, गंध बनिया बंगाल, माथुर, वानिया चेट्टियार तमिलनाडु, केसरवानी, खत्री, बोहरा, कपोल, मोढ्ह, तेलगु, आर्य आंध्र तमिल और कर्नाटक, असाती, रस्तोगी, विजयवर्गी, खंडेलवाल, साहू तेली, अग्रोहा, अग्रसेन, अग्रवाल, लोहाना, हिमाचल, जम्मू, पंजाब के महाजन, अरोरा, खत्री, सिन्धी भाईबंद, अग्रहरी, सोनवाल सिहारे, कमलापुरी, घांची, कानू, कोंकणी, गुप्त, गदहया (गोयल) गुजराती पटेल आदि सभी वर्तमान में वैश्य से संबंध रखते हैं। तेली समाज -: महाभारत के अंदर तेली‌ नामक तत्वदर्शी का उल्लेख किया गया। जो तेल का व्यापार करते थे उन्हें तेली नहीं कहा जाता था बल्कि वैश्य कहा जाता था। और इस समाज का एक मंदिर ग्वालियर मध्य प्रदेश में स्थित है। इस व्यापारी समाज की कुछ उपजातियां-साहू, राठौर, मोदी, गांधी, जयसवाल, चैट्टियार, मेहता, शाह, साहा, साव, वनियार, सेठ, रंगास्वामी, वैथिलिंगम, येदियुरप्पा, रेड्डियार, रेड्डी, दास, साहूकार, चौधरी, नायकर, मुकेरी, महाजन, गुप्ता, सावरकर, पाटिल, चेट्टी, सेठ, सेठिया, माहोर, जगनाडे आदि।

इसके अलवा कालांतार में व्यापार के आधार पर यह उपनाम रखें गए- अठबरिया, अनवरिया, अरबहरया, अलापुरिया, ओहावार, औरिया, अवध, अधरखी तथा अगराहरी, कसेरे, पैंगोरिया, पचाधरी, पनबरिया, पन्नीवार, पिपरैया, सुरैया, सुढ़ी, सोनी, संवासित, सुदैसक, सेंकड़ा, साडिल्य, समासिन साकरीवार, शनिचरा, शल्या, शिरोइया, रैपुरिया, रैनगुरिया, रमपुरिया, रैदेहुआ, रामबेरिया, रेवाड़ी, बगुला, बरैया, बगबुलार, बलाईवार, बंसलवार, बारीवार, बासोरिया, बाबरपुरिया, बन्देसिया, बादलस, बामनियां, बादउआ, विरेहुआ, विरथरिया, विरोरिया, गजपुरिया, गिंदौलिया, गांगलस, गुलिया, गणपति, गुटेरिया, गोतनलस, गोलस, जटुआ, जबरेवा, जिगारिया, जिरौलिया, जिगरवार, कठैरिया, काशीवार, केशरवानी, कुटेरिया, कुतवरिया, कच्छलस, कतरौलिया, कनकतिया, कातस, कोठिया, गुन्पुरिया, ठठैरा, पंसारी, निबौरिया, नौगैया, निरजावार, मोहनियॉं, मोदी, मैरोठिया, माठेसुरिया, मुरवारिया महामनियॉं, महावार, माडलस, महुरी, भेसनवार, भतरकोठिया, भभालपुरिया, भदरौलिया, चॉदलस, चौदहराना, चौसिया, लघउआ, तैरहमनिया, तैनगुरिया, घाघरवार, खोबड़िया, खुटैटिया, फंजोलिया, फरसैया, हलवाई, हतकतिया, जयदेवा, दोनेरिया, सिंदुरिया आदि

  1. सुनार या स्वर्णकार वैश्य :- मुख्यतः सोने और चांदी के आभूषण उद्योग और व्यापार करते है इनकी उत्पति महाराजा आजमीढ जी कुछ कि माता हिंगलाज और कुछ कि विश्वकर्मा देव और कुछ का श्रीमली ब्राह्मण स्वर्णकार से उत्पति हुई इनमे ब्राह्मण राजपूत की तरह वर्ग भेद गोत्र होते है ये क्षत्रीय और ब्राह्मण के समकक्ष होते है पीढ़ी दर पीढ़ी व्यापार करने से ये स्वर्णवणिक यानी सोने के व्यापारी उद्योगपति कहलाये ये क्षत्रीय जाती से वैश्य हुवे और अपने को वैश्य समाज के अभिन्न हिस्सा मानते है ये व्यापार मे बहोत चालक और बुद्धिमान होते है गहनों को गिरवी रख के बदले व्याज पर पैसे देते है ये व्याज और गहनों का धंधा बहोत पुराना है जिससे समाज मे इन्हें साहूकार, सेठ, सर्राफा सोनी जी नामों से संबोधित किया जाता है या इंका सरनेम है राजा राजवादों के समय कोष के खजांची, स्वर्णअध्यक्ष, स्वर्ण विशेषज्ञ, और राजाओ के गहने बनाना बेचना इनका काम रहा है जिससे सबसे कीमती रत्न जेवर और धातु के व्यवसायी और कलाकार होने से ये सेठ पद को प्राप्त है ये बहोत ही धनवान हुआ करते थे अपना क्षत्रीय धर्म त्याग के सबसे क़ीमती धातु और रत्न के कारोबार को करने लगे जिससे ये वैश्य हो गए ये बड़े वैश्य के रूप मे जाने जाते है इनमे मारवाड़ी सुनार, अयोध्यापूरी, तंजानिया, अयोध्यावासी, हार्डीवाल हेमकार, जौहरी, सेठी, दैवज्ञ ( ये विश्वकर्मा के वंश के माने जाते है ये ज्यादा तर जेवर उद्योग/ निर्माण कला का कार्य करते है अब इस धंधे को अन्य बिरादरी के लोग भी धरना कर चुके है पर उनकी पहचान हँसो मे बैठे कौवा की तरह होती है ये लोग पारम्परिक व्यवसायी नहीं थे ।

अग्रोहा : अग्रवाल समाज के संस्थापक महाराज अग्रसेन एक क्षत्रिय सूर्यवंशी राजा थे। सूर्यवंश के बारे में हम पहले ही लिख आएं हैं अत: यह समाज भी सूर्यवंश से ही संबंध रखता है। वैवस्वत मनु से ही सूर्यवंश की स्थापना हुई थी। महाराजा अग्रसेन ने प्रजा की भलाई के लिए कार्य किया था। इनका जन्म द्वापर युग के अंतिम भाग में महाभारत काल में हुआ था। ये प्रतापनगर के राजा बल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। वर्तमान 2016 के अनुसार उनका जन्म आज से करीब 5187 साल पहले हुआ था।

अपने नए राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह शेर तथा भेड़िए के बच्चे एक साथ खेलते मिले। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। वह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास थी। उसका नाम अग्रोहा रखा गया। आज भी यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए तीर्थ के समान है। यहां महाराज अग्रसेन और मां वैष्णव देवी का भव्य मंदिर है।

महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे।

अग्रवाल कुल गोत्र:- गर्ग, गोयल, गोयन, बंसल, कंसल, सिंहल, मंगल, जिंदल, तिंगल,

ऐरण, धारण, मधुकुल, बिंदल, मित्तल, तायल, भन्दल, नागल और कुच्छ्ल।

बरनवाल समाज एक क्षत्रिय बनिया है जो महाराजा अहिबरन के वंश है। महाराजा अहिबरन सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा थे जो बरन (बुलन्दशहर) पे राज करते थे। बरनवाल समाज इन्हीं के वंश है। बरनवाल समाज प्राचीन समय में बरन (बुलंदशहर) पर राज कर चुकी एक क्षत्रिय राजवंश है। जो उस समय काफी विकसित राज्य था।

राजाअहिबरन सूर्यवंशी राजपूत क्षत्रिय थे जिन्हें राजा अग्रसेन का वंशज भी मन जाता है।

बरनवाल समाज में ३६ गोत्र होते हैं: गर्ग, वत्सिल, गोयल, गोहिल, करव, देवल, कश्यप, वत्स, अत्रि, वामदेव, कपिल, गालब, सिंहल, आरण्य, काशील, उपमन्यु, यामिनी, पाराशर, कौशिक, मुनास, कत्यापन, कौन्डिल्य, पुलिश, भृगु, सर्वे, अंगीरा, क्रिश्नाभी, उद्धालक, आश्वलायन, भारद्वाज, कनखल, मुद्गल, यमद्गिरी, च्यवण, वेदप्रमिति और सान्स्कृ


पोरवाल समाज : माना जाता है कि राजा पुरु के वंशज पोरवाल कहलाए। राजा पुरु के चार भाई कुरु, यदु, अनु और द्रुहु थे। यह सभी अत्रिवंशी है क्योंकि राजा पुरु भी अत्रिवंशी थे। बीकानेर तथा जोधपुरा राज्य (प्राग्वाट प्रदेश) के उत्तरी भाग जिसमें नागौर आदि परगने हैं, जांगल प्रदेश कहलाता था। जांगल प्रदेश में पोरवालों का बहुत अधिक वर्चस्व था। विदेशी आक्रमणों से, अकाल, अनावृष्टि और प्लेग जैसी महामारियों के फैलने के कारण अपने बचाव के लिए एवं आजीविका हेतू जांगल प्रदेश से पलायन करना प्रारंभ कर दिया। अनेक पोरवाल अयोध्या और दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए। मध्यकाल में राजा टोडरमल ने पोरवाज जाति के उत्थान और सहयोग के लिए बहुत सराहनीय कार्य किया था जिसके चलते पोरवालों में उनकी ‍कीर्ति है।

दिल्ली में रहने वाले पोरवाल 'पुरवाल' कहलाए जबकि अयोध्या के आसपास रहने वाले 'पुरवार' कहलाए। इसी प्रकार सैकड़ों परिवार वर्तमान मध्यप्रदेश के दक्षिण-प्रश्चिम क्षेत्र (मालवांचल) में आकर बस गए। यहां ये पोरवाल व्यवसाय/व्यापार और कृषि के आधार पर अलग-अलग समूहों में रहने लगे। इन समूह विशेष को एक समूह नाम (गौत्र) दिया जाने लगा और ये जांगल प्रदेश से आने वाले जांगडा पोरवाल कहलाए। राजस्थान के रामपुरा के आसपास का क्षेत्र और पठार आमद कहलाता था। आमदगढ़ में रहने के कारण इस क्षेत्र के पोरवाल आज भी आमद पोरवाल कहलाते हैं।

श्रीजांगडा पोरवाल समाज में उपनाम के रुप में लगाई जाने वाली 24 गोत्रें किसी न किसी कारण विशेष के द्वारा उत्पन्न हुई और प्रचलन में आ गई। जांगलप्रदेश छोड़ने के पश्चात् पोरवाल समाज अपने-अपने समूहों में अपनी मानमर्यादा और कुल परम्परा की पहचान को बनाए रखने के लिए आगे चलकर गोत्र का उपयोग करने लगे।

जैसे किसी समूह विशेष में जो पोरवाल लोग अगवानी करने लगे वे चौधरी नाम से सम्बोधित होने लगे। जो लोग हिसाब-किताब, लेखा-जोखा, आदि व्यावसायिक कार्यों में दक्ष थे वे मेहता कहलाए। यात्रा आदि सामूहिक भ्रमण, कार्यक्रमों के अवसर पर जो लोग अगुवाई करते और अपने संघ-साथियों की सुख-सुविधा का ध्यान रखते थे वे संघवी कहलाए। मुक्त हस्त से दान देने वाले दानगढ़ कहलाए। असामियों से लेन-देन करने वाले, धन उपार्जन और संचय में दक्ष परिवार सेठिया और धन वाले धनोतिया पुकारे जाने लगे। कलाकार्य में निपुण परिवार काला कहलाए, राजा पुरु के वंशज्पोरवाल और अर्थ व्यवस्थाओं को गोपनीय रखने वाले गुप्त या गुप्ता कहलाए। कुछ गौत्रें अपने निवास स्थान (मूल) के आधार पर बनी जैसे उदिया-अंतरवेदउदिया (यमुना तट पर), भैसरोड़गढ़ (भैसोदामण्डी) में रुकने वाले भैसोटा, मंडावल में मण्डवारिया, मजावद में मुजावदिया, मांदल में मांदलिया, नभेपुर केनभेपुरिया, आदि।

इस तरह ये गोत्र निर्मित हो गए- सेठिया, काला, मुजावदिया, चौधरी, मेहता, धनोतिया, संघवी, दानगढ़, मांदलिया, घाटिया, मुन्या, घरिया, रत्नावत, फरक्या, वेद, खरडिया, मण्डवारिया, उदिया, कामरिया, डबकरा, भैसोटा, भूत, नभेपुरिया, श्रीखंडिया। प्रत्येकगोत्र के अलग- अलग भेरुजी होते हैं। जिनकी स्थापना उनके पूर्वजों द्वाराकभी किसी सुविधाजनक स्थान पर की गई थी।

दोसर समाज : ऋषि मरीचि के पुत्र कश्यप थे। डॉ. मोतीलाल भार्गव द्वारा लिखी पुस्तक 'हेमू और उसका युग' से पता चलता है कि दूसर वैश्य हरियाणा में दूसी गांव के मूल निवासी हैं, जोकि गुरुगांव जनपद के उपनगर रिवाड़ी के पास स्थित है।

खंडेलवाल समाज : खंडेलवाल के आदिपुरुष हैं खाण्डल ऋषि। एक मान्यता के अनुसार खंडेला के सेठ धनपत के 4 पुत्र थे। 1.खंडू, 2.महेश, 3.सुंडा और 4. बीजा इनमें खंडू से खण्डेलवाल हुए, महेश से माहेश्वरी हुए सुंडा से सरावगी व बीजा से विजयवर्गी। खण्डेलवाल वैश्य के 72 गोत्र है। गोत्र की उत्पति के सम्बंध में यही धारणा है कि जैसे जैसे समाज में बढ़ोतरी हुई स्थान व्यवसाय, गुण विशेष के आधार पर गोत्र होते गए।

श्री अयोध्यावासी वैश्य समाज : अयोध्यावासी के आदिपुरुष हैं राम के परम भक्त मणि कुंडल महाराज | जिस वैश्य समाज का मूल स्थान अयोध्या हो, अर्थात किसी भी समय जिनके पूर्वज अयोध्या से प्रवासित/निर्वासित होकर देश के किसी भी भाग में निवास करते हो और वे किसी भी उपनाम से पहचाने जाते हो वे सभी अयोध्यावासी वैश्य हैं। संपूर्ण देश में निवास कर रहे अयोध्यावासी वैश्य का इतिहास त्रेता युग से प्रारंभ होता है सम्राट दशरथ द्वारा प्रभु श्री राम को बनवास दिए जाने पर अयोध्या की प्रजा दुखी हो गई। विशेषकर वैश्य समाज में व्याकुलता आ गई । तुलसीदासजी ने लिखा है *"भयऊ विकल बड़ वणिक समाजू। बिनु रघुवीर अवध नहि काजू।।* उन्होंने भी प्रभु श्री राम के साथ वन जाने का निर्णय किया। एक रात जब प्रभु श्री राम चुपचाप सीता जी व लक्ष्मण जी के साथ चले गए तो अयोध्यावासी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए और उन्होंने विचार किया कि *"जहां राम तह अवध है , नहीं अवध विन राम । बिना राम वन अवध है, अवध बचा क्या काम।।* और इस प्रकार अपने अपने अनुमान से चारों दिशाओं में ढूंढने निकल पड़े। जगह-जगह बसते गए और इस प्रकार सारे देश में अयोध्यावासी वैश्यों का प्रचार हुआ |

आदि पुरुष महाराजा मणिकुंडल कौन?

   अयोध्या  वासियों की टोलियां प्रभु श्री राम को ढूंढते आगे बढ़ रही थी। परंतु राम जी का पता नहीं लग रहा था। टोलियां थक कर जहां पहुंच जाती थी वहीं पर ठिकाना बना लेती थी । परंतु नगर सेठ मणि कौशल व उनके राम भक्त पुत्र मणि कुंडल आगे बढ़ते गए वह चलते-चलते दक्षिण भारत के *भौवन* नामक नगर पहुंचे गए, तब तक बालक *मणि कुंडल* युवा हो गए थे वहां मणिकुंडल की मित्रता गौतम नामक ब्राम्हण मित्र से हुई उसने मणि कुंडल जी से प्रभु श्री राम को ढूंढने एवं व्यापार करने दूसरे नगर चलने का आग्रह किया । माता पिता की आज्ञा लेकर मणि कुंडल जी गौतम के साथ चल दिए दूसरे नगर पहुंचकर गौतम ने मणि कुंडल जी को दुराचार एवं व्यसनों हेतु प्रेरित किया । मणि कुंडल जी ने इन्हें धार्मिक एवं अनैतिक कृत्य कहते हुए मानने से इनकार किया इस पर गौतम ने शर्त लगाई और छल प्रपंच कर उनका धन ले लिया। धन लेने के बाद वह मणि कुंडल जी से पीछा छुड़ाने का प्रयास करने लगा आगे चलकर गोदावरी नदी के किनारे एकांत स्थान पर गौतम ने मणि कुंडल जी पर हमला कर उनके नेत्र , हाथ और पैर क्षत-विक्षत कर दिए तथा धन लेकर चला गया । 
              संयोगवश उस स्थान पर भगवान योगेश्वर( विष्णु ) का सिद्ध मंदिर था, जहां पर विभीषण प्रत्येक शुक्ल एकादशी को दर्शन करने आते थे मणि कुंडल जी रात भर तड़पते रहे ।प्रातः काल एकादशी थी, लंकापति विभीषण (रावण वध हो चुका था विभीषण लंका के राजा बन चुके थे) अपने पुत्र वैभिषणि के साथ यहां आए तो मणिकुण्डल  जी को  घायल अवस्था में तड़पते देखा। यह जानकर कि वह राम भक्त हैं, और सत्य आस्था के कारण उनकी यह दशा हुई है उन्होंने  विशल्यकरणी औषधि जो संजीवनी बूटी पर्वत ले जाते समय यहां गिर गई थी और उग आई थी , तथा दिव्य मंत्रों से उनका उपचार किया स्वस्थ होकर और विभीषण से यह जानकर कि प्रभु श्री राम बनवास पूर्ण कर अयोध्या में राज्य का संभाल चुके हैं , मणिकुण्डल  जी ने अपना जीवन परोपकार हेतु समर्पित कर दिया चलते चलते वह महापुर राज्य पहुंचे, उस समय वहां की राजकुमारी मरणासन्न स्थिति में थी वैद्य हकीम तांत्रिकों ने जवाब दे दिया था तब मणि कुंडल जी ने उन्हीं दिव्य मंत्र एवं विशल्यकरणीऔषधि से राजकुमारी को स्वस्थ किया। इस पर राजा महाबली ने उन्हें आधा राज्य  देने का आग्रह किया । परंतु मणिकुण्डल जी ने इसे विनम्रता पूर्वक मना कर दिया  इससे राजा की श्रद्धा बढ़ गई और अंततः उन्होंने राजकुमारी से मणि कुंडल जी का विवाह कर पूरा राज पाठ उन्हें सौंप दिया । इस प्रकार वे महापुर के राजा बने । राजा बनने के बाद वह अपने माता-पिता और रानी महा रूपा के साथ प्रभु श्री राम के दर्शन करने अयोध्या गए।
           अयोध्या से प्रभु श्री राम के साथ वन गमन करने के कारण ही हमारा समाज अयोध्यावासी वैश्य कहलाया। मणि कुंडल जी इसी टोली के नायक व महामानव थे । साथ ही मणिकुंडल जी अयोध्यावासी वैश्योक्तपन्न विश्व के प्रथम एवं एकमात्र राजा थे ।इसी कारण महाराजा मणि कुंडल जी अयोध्यावासी वैश्य के आदि पुरुष के रूप में पूजे जाते हैं। उनकी राम भक्ति एवं कुशल प्रशासक छवि पर अयोध्यावासी वैश्य समाज को गर्व है । यह अलग अलग जगह अलग अलग उपनाम यथा गुप्ता, वैश्य,कौशल,कश्यप, अवधिया,अवधवाल, अवधबनिया, आदर्शी,महतो, मोदी,बघेल,परदेशी इत्यादि उपनाम लिखता है।

महाराजा मणि कुंडल जी की मूर्तियां श्री अयोध्यावासी वैश्य पंचायती राम जानकी मंदिर अयोध्या , श्री अयोध्यावासी वैश्य धर्मशाला एवं मंदिर चित्रकूट, श्री मणि कुंडल वाटिका कानपुर, श्री दाऊजी मंदिर मैनपुरी , श्री शिव मंदिर टिकैतनगर बाराबंकी, श्रीमणि कुंडल मंदिर सिवनी मध्य प्रदेश के साथ-साथ नवाबगंज फर्रुखाबाद , बरघाट गोपालगंज ,भिखना पुर, सतना, सिधौली , नैमिषारण्य इत्यादि स्थानों पर स्थापित है। अयोध्यावासी वैश्य समाज और महाराजा मणिकुण्डल जी के बारे में ब्रह्म पुराण ,वैश्यानाम गौरव, अयोध्यावासी वैश्य का इतिहास एवं वैश्य समुदाय का इतिहास,जातिभास्कर,जातिअन्वेषण ग्रन्थ मणिकुण्डल कवितावली इत्यादि मे वर्णन मिलता है।

वैश्य समाज की वैश्विक विरासत

वैश्य समाज का प्राचीनकाल से वैश्विक स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण अवदान रहा है। यह अवदान परम्परागत विरासत के रूप में वर्तमान वैश्विक पीढ़ी को प्राप्त हुआ है तथा भावी पीढि़यों को प्राप्त होता रहेगा।

यूनानी शासक सेल्यूकस के राजदूत मैगस्थनीज ने वैश्य समाज की विरासत की प्रशंसा में लिखा है-‘कि देश में भरण- पोषण के प्रचुर साधन तथा उच्च जीवन-स्तर, विभिन्न कलाओं का अभूतपूर्व विकास और पूरे समाज में ईमानदारी, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा प्रचुर उत्पादन वैश्यों के कारण है।

डाॅ. दाऊजी गुप्त वैश्य समाज की विरासत को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- ‘वणिकों की आश्चर्यजनक प्रतिभा का प्रथम दिग्दर्शन हमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त होता है। उस समय जैसे वैज्ञानिक ढंग से बसाए गए व्यवस्थित नगर आज संसार में कहीं नहीं हैं।आज के सर्वश्रेष्ठ नगर न्यूयार्क, पेरिस, लंदन आदि से हड़प्पा सभ्यता के नगर कहीं अधिक व्यवस्थित थे। ललितकला शिल्पकला और निर्यात-व्यापार पराकाष्ठा पर थे। इनकी नाप-तौल तथा दशमलव-प्रणाली अत्यन्त विकसित थी। भारतीय वणिकों ने चीन, मिश्र, यूनान, युरोप तथा दक्षिणी अमेरिका आदि देशों में जाकर न केवल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाया अपितु उन देशों की अर्थव्यवस्था को भी सुधारा। ईसा से 200 वर्ष पूर्व कम्बोडिया, वियतनाम, इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड आदि देशों में जाकर बस गए। वहाँ उनके द्वारा बनवाए गए उस काल के सैंकड़ों मन्दिर आज भी विद्यमान हैं। उसी काल में वे व्यापारी भारत से बौद्ध संस्कृति को अपने साथ वहाँ ले गए। वणिकों ने भारतीय धर्म, दर्शन और विज्ञान से सम्बन्धित लाखों ग्रन्थों का अनुवाद कराया जो आज भी वहाँ उपलब्ध हैं।

वैश्य समाज की समाजसेवा प्रवृत्ति की प्रशंसा में राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने दिल्ली में 22 फरवरी 2009 को भाषण के दौरान कहा था कि ‘इस समाज का प्रेम और सद्भाव देश को मंदी के दौर से उबारने में सक्षम है। यह समाज लोगों की मदद में जुटा हुआ है। सामान्य हैसियत वाला वैश्य बन्धु भी जनसेवा में पीछे नहीं है। ऐसा समाज ही देश को सुदृढ बनाने की क्षमता रखता है।

राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने 2 जनवरी 2009 को हैदराबाद में विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ‘वैश्य समाज ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बहुत बड़ा योगदान दिया । स्वतन्त्रता के बाद भी राष्ट्र निर्माण में वैश्य समाज की भूमिका सराहनीय रही। वैश्य समाज ने अपने वाणिज्यिक ज्ञान और व्यापारिक निपुणता का लोहा देश में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में मनवाया है। वैश्य समाज ने देश को बहुत से चिकित्सक, इंजीनियर, वैज्ञानिक समाजसेवी आदि दिए हैं तथा आर्थिक प्रगति और विकास कार्य में हमेशा भरपूर योगदान किया है।

22 जुलाई 1998 को भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति कृष्णकान्त ने वैश्य समुदाय को समाज का महत्त्वपूर्ण घटक बताते हुए कहा था - ‘भारत का सांस्कृतिक इतिहास बताता है कि व्यापार संस्कृति के प्रसार में भी बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। भारत के गणित खगोलशास्त्र आदि का ज्ञान धर्म-प्रचारकों के अलावा व्यापारियों द्वारा ही अरब और मध्य- एशिया के देशों में पहुँचा था और वहाँ से फिर यूरोप में। वैश्य प्राचीन समय से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे हैं।


तेली समाज: महाभारत काल के अंदर तेली नामक तत्वदर्शी का उल्लेख किया गया है। जो तेल का व्यापार करते थे उन्हें तेली नहीं कहा जाता था बल्कि वैश्य कहा जाता था। और महाभारत में तुलाधार वैश्य का वर्णन भी किया गया है जो तेल का एक बहुत बड़ा व्यापारी था। वाल्मीकि जी ने भी तेली जाति का उल्लेख रामायण में नहीं किया है इसका मतलब यहां पर तेली जाति नहीं बनी थी।

पद्म पुराण मैं उत्तराखंड के विष्णुगुप्त नाम के तेल व्यापारी की महानता के बारे में जरूर उल्लेख किया गया है इसका मतलब तेली जाति और तेली समाज का उल्लेख यहां से देखने को मिलता है।

ईशा के प्रथम सदी के शिलालेखों के अंदर तेलियों के बारे में कुछ उल्लेख देखने को जरूर मिलते हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है की गुप्त वंश ही तेली वंश है। इस तरह का संकेत इतिहासकार ओमेली और जेम्स ने किया है ।

तेली जाति की उत्पत्ति का वर्णन- विष्णु धर्मसूत्र, वैखानस, स्मार्तसूत्र, शंख एवं सुमंत् में है।

जिन्होंने केवल तेल व्यवसाय किया वे तेली वैश्य तथा जिन्होंने सुगंधित तेल का व्यापार किया वह मोढ बनिया कहलाए।

सबसे पहले तेल का उत्पादन गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे क्षेत्रों में ज्यादा हुआ करता था। जहां पर लोगों को घांची के नाम से जाना जाने लगा। कुछ लोगों ने घानी उद्योग बंद करने की साजिश भी की और जिन लोगों ने इसी घानी उद्योग को बचाने के लिए शस्त्र उठाया उनको घांची क्षत्रिय के नाम से बुलाया जाने लगा।

तेली समाज में अनेकों संत,सम्राट, देवियों राष्ट्रभक्तो,योद्धा, दानवीरों ने जन्म लिया।

तेली समाज की आज पूरे भारत में 15 करोड़ की आबादी है। जो पूरे भारत में अलग-अलग नामों से जानी जाती है ।

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