खय्याम

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मोहम्मद ज़हुर खय्याम
Mohammed Zahur Khayyam.jpg
खय्याम अपने जन्मदिन पर
जन्म 18 फ़रवरी 1927
राहों, नवांशहर जिला, पंजाब
मृत्यु मृत्यु 19 अगस्त 2019[१]
व्यवसाय रचयिता,
जीवनसाथी जगजीत कौर

मोहम्मद ज़हूर "खय्याम" हाशमी (१८ फरवरी १९२७ – १९ अगस्त २०१९), जिन्हें "खय्याम" नाम से जाना जाता था, भारतीय फ़िल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार थे। अविभाजित पंजाब के राहों नगर में जन्मे खय्याम छोटी उम्र में ही घर से भागकर दिल्ली चले आये, जहाँ उन्होंने पण्डित अमरनाथ से संगीत की दीक्षा ली। वर्ष १९४८ में हीर-राँझा फ़िल्म से शर्माजी-वर्माजी जोड़ी के शर्माजी के नाम से एक संगीतकार के रूप में अपने करियर की शुरुआत की। १९५३ की फुटपाथ से उन्होंने खय्याम नाम अपना लिया।

खय्याम ने ४ दशकों तक बॉलीवुड फ़िल्मों के लिए संगीत रचना की। वर्ष १९८२ में आयी फ़िल्म उमराव जान के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला। इसी फ़िल्म के लिए, और १९७७ की कभी कभी लिए उन्होंने दो बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी जीता। वर्ष २००७ में खय्याम को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, २०१० में फ़िल्मफ़ेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार और २०१८ में हृदयनाथ मंगेशकर पुरस्कार प्राप्त हुआ। कला क्षेत्र में उनके योगदान के लिए खय्याम को वर्ष २०११ में भारत सरकार द्वारा पदम् भूषण पुरस्कार प्रदान किया गया था।[२]

व्यक्तिगत जीवन

1927 में जन्में ख़य्याम 10 साल की उम्र में ही घर छोड़कर दिल्ली आ गए थे.अभिनेता बनने का सपना उन्हें दिल्ली ले आया था. लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था. दिल्ली में 5 साल रहते हुए उन्होंने संगीत सीखा और अपनी किस्मत आजमाने के लिए बम्बई (आज के मुंबई) चले गए. खय्याम ने बताया कि वो कैसे बचपन में छिप–छिपाकर फ़िल्में देखा करते थे जिसकी वजह से उनके परिवार वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया था.

खय्याम अपने करियर की शुरुआत अभिनेता के तौर पर करना चाहते थे पर धीरे-धीरे उनकी दिलचस्पी फ़िल्मी संगीत में बढ़ती गई और वह संगीत के मुरीद हो गए.

उन्होंने पहली बार फ़िल्म 'हीर रांझा' में संगीत दिया लेकिन मोहम्मद रफ़ी के गीत 'अकेले में वह घबराते तो होंगे' से उन्हें पहचान मिली.

फ़िल्म 'शोला और शबनम' ने उन्हें संगीतकार के रूप में स्थापित कर दिया.

खय्याम ने बताया कि 'पाकीज़ा' की जबर्दस्त कामयाबी के बाद 'उमराव जान' का संगीत बनाते समय उन्हें बहुत डर लग रहा था.

उन्होंने कहा, "पाकीज़ा और उमराव जान की पृष्ठभूमि एक जैसी थी. 'पाकीज़ा' कमाल अमरोही साहब ने बनाई थी जिसमें मीना कुमारी, अशोक कुमार, राज कुमार थे. इसका संगीत गुलाम मोहम्मद ने दिया था और यह बड़ी हिट फ़िल्म थी. ऐसे में 'उमराव जान' का संगीत बनाते समय मैं बहुत डरा हुआ था और वो मेरे लिए बहुत बड़ी चुनौती थी."

खय्याम ने आगे कहा, "लोग 'पाकीज़ा' में सब कुछ देख सुन चुके थे. ऐसे में उमराव जान के संगीत को खास बनाने के लिए मैंने इतिहास पढ़ना शुरू किया."

आखिरकार खय्याम की मेहनत रंग लाई और 1982 में रिलीज हुई मुज़फ़्फ़र अली की 'उमराव जान' ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए.

ख़य्याम कहते हैं, "रेखा ने मेरे संगीत में जान दाल दी. उनके अभिनय को देखकर लगता है कि रेखा पिछले जन्म में उमराव जान ही थी."

व्यक्तिगत जीवन और मृत्यु

खय्याम ने जगजीत कौर से 1954 में भारतीय फिल्म उद्योग में पहली अंतर-सांप्रदायिक शादियों में से एक से शादी की।[३] उनका एक बेटा था, प्रदीप, जिसकी 2012 में दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई। अपने बेटे की मदद करने की प्रकृति से प्रेरित होकर, उन्होंने कलाकारों और तकनीशियनों की ज़रूरत में मदद करने के लिए "खय्याम जगजीत कौर चैरिटेबल ट्रस्ट" ट्रस्ट शुरू किया।[४]

अपने अंतिम दिनों में, खय्याम विभिन्न आयु संबंधी बीमारियों से पीड़ित थे। 28 जुलाई 2019 को खय्याम को फेफड़ों में संक्रमण के कारण जुहू, मुंबई के सुजय अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 19 अगस्त 2019 को 92 वर्ष की आयु में हृदय गति रुकने से उनका निधन हो गया।[५] अगले दिन पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया।[६]

नामांकन और पुरस्कार

पुरस्कार

नामांकन

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ