विजय मंदिर, विदिशा

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
imported>रोहित साव27 द्वारा परिवर्तित १२:११, ७ अप्रैल २०२२ का अवतरण (रोहित साव27 (वार्ता) के अवतरण 4926413 पर पुनर्स्थापित : स्रोतहीन बदलाव)
(अन्तर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अन्तर) | नया अवतरण → (अन्तर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
विजय मंदिर
लुआ त्रुटि package.lua में पंक्ति 80 पर: module 'Module:i18n' not found।
धर्म संबंधी जानकारी
सम्बद्धतासाँचा:br separated entries
देवताशिव/ कृष्ण/ सूर्य
अवस्थिति जानकारी
अवस्थितिसाँचा:if empty
लुआ त्रुटि Module:Location_map में पंक्ति 422 पर: No value was provided for longitude।
वास्तु विवरण
शैलीहिन्दू
निर्मातासाँचा:if empty
स्थापितअति प्राचीन
ध्वंससाँचा:ifempty
साँचा:designation/divbox
साँचा:designation/divbox

साँचा:template otherस्क्रिप्ट त्रुटि: "check for unknown parameters" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:main other

विदिशा के किले की सीमा के अंदर पश्चिम की तरफ अवस्थित इस मंदिर के नाम पर ही विदिशा का नाम भेलसा पड़ा। सर्वप्रथम इसका उल्लेख सन् १०२४ में महमूद गजनी के साथ आये विद्धान अलबरुनी ने किया है। अपने समय में यह देश के विशालतम मंदिरों में से एक माना जाता था। साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार यह आधा मील लंबा- चौड़ा था तथा इसकी ऊँचाई १०५ गज थी, जिससे इसके कलश दूर से ही दिखते थे। दो बाहरी द्वारों के भी चिंह मिले हैं। सालों भर यात्रियों का मेला लगा रहता था तथा दिन- रात पूजा आरती होती रहती थी।

निर्माणकर्ता

कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण चालुक्य वंशी राजा कृष्ण के प्रधानमंत्री वाचस्पति ने अपनी विदिशा विजय के उपरांत किया। नृपति के सूर्यवंशी होने के कारण भेल्लिस्वामिन (सूर्य) का मंदिर बनवाया गया। इस भेल्लिस्वामिन नाम से ही इस स्थान का नाम पहले भेलसानी और कालांतर में भेलसा पड़ा।

अपनी विशालता, प्रभाव व प्रसिद्धि के कारण यह मंदिर हमेशा से मुस्लिम शासकों के आँखों का कांटा बना रहा। कई बार इसे लूटा गया और तोड़ा गया और वहाँ के श्रद्धालुगणों ने हर बार उसका पुननिर्माण कर पूजनीय बना डाला।

वास्तु

मंदिर की वास्तुकला तथा मूर्तियों की बनावट यह संकेत देते हैं कि १० वीं - ११ वीं सदी में शासकों ने इस मंदिर का पुननिर्माण किया था। मुस्लिम शासकों के धमार्ंध आक्रमणों की शुरुआत परमार काल से ही आरंभ हो गयी थी। पहला आक्रमण सन् १२३३- ३४ ई. में दिल्ली के गुलावंश के शासक इल्तुतमिश ने किया। उसने पूरे नगर में लूट- खसोट की।

सन् १२५० ई. इसका पुननिर्माण किया गया, लेकिन सन् १२९० ई. में पुनः अलाउद्दीन खिलजी के मंत्री मलिक काफूर ने इस पर आक्रमण कर अपार लूटपाट की। वहाँ की ८ फुट ऊँची अष्ट धातु की प्रतिमा को दिल्ली स्थित बदायूँ दरवाजे की मस्जिद की सीढियों में जड़ दिया गया।

सन् १४५९- ६० ई. में मांडू के शासक महमूद खिलजी ने इस मंदिर को तो लूटा ही, साथ- साथ भेलसा नगर व लोह्याद्रि पर्वत के अन्य मंदिरों को भी अपना निशाना बनाया। इसके बाद सन् १५३२ ई. में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने मंदिर को पुनर्विनाश किया। अंत में धमार्ंध औरंगजेब ने सन् १६८२ ई. में इसे तोपों से उड़वा दिया। शिखरों को तोड़ डाला गया। मंदिर के अष्टकोणी भाग को चुनवाकर चतुष्कोणी बना दिया। अवशेष पत्थरों का प्रयोग कर दो मीनारें बनवा दी तथा उसे एक मस्जिद का रूप दे दिया। मंदिर के पार्श्व भाग में तोप के गोलों को स्पष्ट निशान है। औरंगजेब के मृत्योपरांत वहाँ की टूटी- फूटी मूर्तियों को फिर से पूजा जाने लगा। सन् १७६० ई. में पेशवा ने इसका मस्जिद स्वरुप नष्ट कर दिया। अब भोई आदि (हिंदूओं की निम्न जाति) ने इसे माता का मंदिर समझकर भाजी- रोटी से इसकी पूजा करने लगे।

पहले यह मंदिर अष्टकोणी था, जिससे १५० गज की दूरी पर द्वार बने थे। सामने विशाल यज्ञशाला था। बांयी ओर बावड़ी थी तथा पिछले हिस्से में सरोवर था। यहाँ खुदाई में मिली अन्य वस्तुओं के साथ मानव व सिंहों के मुखों की आकृतियों में तराशे कीर्तिमुख मिले हैं। बावड़ी, जो पहले पुरी तरह ढकी हुई थी, के स्तंभों पर कृष्णलीला के दृश्य उत्कीर्ण किये गये हैं। यहाँ के पत्थरों के अवशेष आज भी आस- पास के भवनों में प्रयुक्त हुए हैं।

ज्यादातर शिलालेख आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिये हैं। स्तंभ पर मिला एक संस्कृत अभिलेख यह स्पष्ट करता है कि यह मंदिर चर्चिका देवी का था। संभवतः इसी देवी का दूसरा नाम विजया था, जिसके नाम से इसे विजय मंदिर के रूप से जाना जाता रहा। यह नाम "बीजा मंडल' के रूप में आज भी प्रसिद्ध है।

देखें