वायु संहिता
वायु संहिता (शिवपुराण) के पूर्व और उत्तर भाग में पाशुपत विज्ञान, मोक्ष के लिए भगवान शिव के ज्ञान की प्रधानता, हवन, योग और शिव-ध्यान का महत्त्व समझाया गया है। भगवान शिव ही चराचर जगत् के एकमात्र देवता हैं। भगवान शिव के 'निर्गुण' और 'सगुण' रूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि शिव एक ही हैं, जो समस्त प्राणियों पर दया करते हैं।[१]
अध्ययन क्षेत्र
प्रयाग में ऋषियों द्वारा सम्मानित सूतजी के द्वारा कथा का आरम्भ,विद्यास्थानों एवं पुराणों का परिचय तथा वायु संहिता का प्रारम्भ(1)
ऋषियों का ब्रह्माजी के पास जा उनकी स्तुति करके उनसे परम पुरुष के विषय में प्रश्न करना और ब्रह्माजी का आनन्दमग्न हो ‘रुद्र’ कहकर उत्तर देना (2)
ब्रह्माजी के द्वारा परमतत्त्व के रूप में भगवान् शिव की ही महत्ता का प्रतिपान, उनकी कृपा को ही सब साधनों का फल बताना तथा उनकी आज्ञा से सब मुनियों का नैमिषारण्य में आना (3)
नैमिषारग्य में दीर्घसत्र के अन्त में मुनियों के पास वायुदेवता का आगमन, उनका सत्कार तथा ऋषियों के पूछने पर वायु के द्वारा पशु, पाश एवं पशुपति का तात्त्विक विवेचन (4-5) ऊं
महेश्वर की महत्ता का प्रतिपादन (6)
ब्रह्माजी की मूर्छा, उनके मुख से रुद्रदेव का प्राकट्य, सप्राण हुए ब्रह्माजी के द्वारा आठ नामों से महेश्वर की स्तुति तथा रुद्र की आज्ञा से ब्रह्मा द्वारा सृष्टि-रचना (7-12)
भगवान् रुद्र के ब्रह्माजी के मुख से प्रकट होने का रहस्य, रुद्र के महामहिम स्वरूप का वर्णन, उनके द्वारा रुद्रगणों की सृष्टि तथा ब्रह्माजी के रोकने से उनका सृष्टि से विरत होना (13-14)
ब्रह्माजी के द्वारा अ्द्धनारीश्वर रूप की स्तुति तथा उस स्त्रोत की महिमा (15)
महादेवजी के शरीर से देवी का प्राकट्य और देवी के भ्रूमध्यभाग से शक्ति का प्रादुर्भाव (16)[२] भगवान् शिव का पार्वती तथा पार्षदों के साथ मन्दराचल पर जाकर रहना (17-24)
पार्वती की तपस्या, एक व्याघ्र पर उनकी कृपा (25)
गौरीदेवी का व्याघ्र को अपने साथ ले जाने के लिये ब्रह्माजी से आज्ञा माँगना (26)
मन्दराचल पर गौरीदेवी का स्वागत, महादेवजी के द्वारा उनके और अपने उत्कृष्ट स्वरूप एवं अविच्छेद्य सम्बन्ध पर प्रकाश (27)[३]
अग्नि और सोम के स्वरूपका विवेचन तथा जगत्की अग्नीषोमात्मकता का प्रतिपादन (28)
जगत् ‘वाणी और अर्थरूप’ है-इसका प्रतिपादन (29)
ऋषियों के प्रश्न का उत्तर देते हुए वायुदेव के द्वारा शिव के स्वतन्त्र एवं सर्वानुग्राहक स्वरूप का प्रतिपादन (30-32)
पाशुपत-व्रत की विधि और महिमा तथा भस्मधारण की महत्ता (33)
बालक उपमन्यु को दूध के लिये दु:खी देख माता का उसे शिव की तथा उपमन्यु की तीव्र तपस्या (34)
भगवान् शंकर का इन्द्ररूप धारण करके उपमन्यु के भक्तिभाव की परीक्षा लेना (35)[४]