सुंधा माता

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हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पूजा के दौरान किसी कारणवश मूर्ति के खंड होने पर उसकी आराधना नहीं होती है, लेकिन राजस्थान में एक पर्वत ऐसा भी है जहाँ खंडित मूर्तियों को रखना पवित्र माना जाता है। विभिन्न राज्यों से सुंधा माता के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु अपने साथ खंडित देवी मूर्तियाँ साथ लाते है। इन प्रतिमाओं को पहाड़ की शिलाओं के नीचे जहाँ उचित समझते है, वहीं रख कर चले जाते हैं।[१]

हिन्दू मान्यता

खंडित मूर्ति को ऐसे ही फेंकना पाप माना जाता है। इस पर्वत को पवित्र मानते हुए लोग अपनी आराध्य देवियों को यहाँ छोड़ना उचित समझते हैं।

स्थिति

जालौर जिला मुख्यालय से करीब 105 किलोमीटर एवं भीनमाल उपखंड से 35 किलोमीटर दूर रानीवाड़ा तहसील के दाँतलावास गाँव के पास यह ऐतिहासिक एवं प्राचीन तीर्थस्थल है।

अरावली पर्वतमाला के इस पहाड़ का नाम सुंधा होने के कारण इस देवी को सुंधा माता के नाम से भी जाना जाता है। माँ की प्रतिमा बिना धड़ के होने कारण इसे अधदेश्वरी भी कहा जाता है।

इतिहास

इस बारे में एक कवि का छन्द भी यहाँ प्रचलित है-

 उक्ति|सिर सुंधे धर कोरटे, पग सुंदरला पाल।
    आचामुण्डा इसरी, गले फुलाँ री माल।

इसका अर्थ है माँ का सिर सुंधा पर, धड़ कोरटे तथा पग सुंदरला में पूजे जाते हैं।

सुंधा पर्वत का पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से भी कम महत्व नहीं है। त्रिपुर राक्षस का वध करने के लिए आदि देव की तपोभूमि यहीं मानी जाती है। इसके अलावा चामुंडा माता की मूर्ति के पास एक शिवलिंग स्थापित है और वैदिक कर्मकांड को मानने वाले श्रीमाली ब्राह्मण समाज के उपमन्यु गौत्र के यह कुलदेवता हैं तथा यही नागिनी माता स्थित है, जो इनकी कुलदेवी हैं।

यह स्थान अनेक ऋषि-मुनियों की तपोभूमि रही है तथा यही पर भारद्वाज ऋषि का आश्रम भी बताया जाता है। वर्ष 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मेवाड़ शासक इतिहास पुरुष महाराणा प्रताप ने अपने कष्ट के दिनों में सुंधा माता की शरण ली थी।

तेरहवीं सदी के शुरुआती सालों में ही भीनमाल गुजरात के सोलंकियों से जालौर के चौहान शासक उदयसिंह ने छीन लिया और जालौर के चौहान शासकों का सुंधा माता के प्रति विशेष आदर भाव रहा है।

इसी श्रद्धा के कारण उदयसिंह के पुत्र चाचिगदेव ने इस मंदिर का निर्माण संवत 1312 में करवाया तथा 1319 में अक्षय तृतीया के दिन विधि विधान से माँ चामुंडा की प्रतिष्ठा करवाई गई।

तेरहवीं सदी में ही अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण कर चौहान शाखा का अन्त किया और यह क्षेत्र मुगलों, बिहारी पठानों एवं गुजरात के सुल्तानों के अधीन रहा। मारवाड़ रियासत का अंग बनने के बाद जोधपुर राजपरिवार ने श्रद्धा भाव से इस तीर्थ को सुंधा की ढाणी, मंगलवा एवं चितरोड़ी गाँव भेंट किए।

संचालन

मंगलवा में आईजी महाराज का मठ था और वही इसका पीठाधीश कहलाता था। इस दौरान चामुंडा माता को मदिरा अर्पण की जाती थी तथा बलि चढ़ाने का रिवाज था। वर्ष 1976 में यहाँ ट्रस्ट बनने के बाद मद्यपान एवं बलि चढ़ाने को निषेध कर दिया गया।

प्रभाव व श्रद्धालु

राजस्थान के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश से प्रतिवर्ष लाखों लोग यहाँ दर्शन के लिए आते हैं। साल में दो बार नवरात्रों के समय यहाँ नौ दिन मेले का आयोजन होता है और श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुट जाती है। हर माह के शुक्ल पक्ष की तेरस से पूर्णिमा तक मंदिर में अधिक दर्शानार्थी आते हैं।

प्रकृति

यह स्थान की प्राकृतिक छटा, मनोरम वातावरण, पर्वत पर फैली हरियाली, रेत के पहाड़ एवं कल-कल बहते झरने तथा आयुर्वेद की महत्वपूर्ण दुर्लभ जड़ी-बूटियों का भंडार को देखकर वर्तमान में यह किसी पर्यटक स्थल से कम नजर नहीं आता है।

देखें

सन्दर्भ