फारबिसगंज
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निर्देशांक: साँचा:coord | |
ज़िला | अररिया ज़िला |
प्रान्त | बिहार |
देश | साँचा:flag/core |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | ५०,४७५ |
• घनत्व | साँचा:infobox settlement/densdisp |
भाषा | |
• प्रचलित | हिन्दी, मैथिली |
फारबिसगंज (Forbesganj) भारत के बिहार राज्य के अररिया ज़िले में स्थित एक नगर है।[१][२] फारबिसगंज के विधायक विद्यासागर केसरी उर्फ मंचन केसरी हैं जो 2020 में पुनः फारबिसगंज के विधायक बने इससेे पहले 2015 में पहली बार उन्होंने फारबिसगंज सेे विधानसभा चुनाव जीता था।[३]
फारबिसगंज का ऐतिहासिक सुल्तान पोखर
फारबिसगंज के ऐतिहासिक व ब्रिटिशकालीन सुल्तान पोखर और सुल्तानी माई का मंदिर हिन्दू और मुसलमानों के बीच श्रद्घा और विश्वास का प्रतीक है। इसके साथ ही एक अद्भुत प्रेम कथा की परिणिति भी है। कहते हैं कि शाह सुल्तान के वारिस मीर द्वारा 1857-58 में ब्रिटिश हुकूमत के समय पूरे सुल्तानपुर स्टेट को सर एलेक्जेण्डर हैनरी फोरबेस से कानपुर के सेठ जुगीलाल कमलापति द्वारा खरीदे जाने से पूर्व एक गरीब ब्राह्मण कन्या के रूप लावण्य से मोहित सुल्तान द्वारा हिन्दू-मुस्लिम के प्रतीक के रूप में खुदवाये गये धरोहर आज बेशक सरकारी बेरूखी एवं प्रशासनिक उदासीनता के कारण अपना मूल रूप खोता जा रहा है मगर धार्मिक महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। छठ जैसे मौके पर प्रतिवर्ष हजारों महिलाओं को आज भी मन्नतें मांगने के लिए सुल्तान पोखर मे डूबकी लगाने का रहता है इंजतार।
साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक इस पोखर मे पूरी होती है मन्नतें: कहतें हैं भारत-नेपाल सीमा पर अवस्थित फारबिसगंज की प्रचीनतम सुल्तान पोखर आज भी हिन्दू-मुस्लिम का सौहार्द का एक ऐसा प्रतीक माना जाता है जहां एक साथ दोनों समुदाय के लोग पूजा और इबादत करते हैं। ऐसी आस्था चली आ रही है कि इस पोखर में स्नान करके मंदिर में आकर जो भी मन्नत-मुरादें मांगी जाय, वह अवश्य पूरी होती है। खासकर नि:संतान औरतें मुख्य रूप से औलाद की मन्नतें मांगने आती है।
शर्त के अनुसार खुदवाई गयी थी यह ऐतिहासिक पोखर: जानकारों के अनुसार मुगल के जमाने में इस इलाके का शासक शाह-सुल्तान हुआ करता था। वह जबरिया धर्म परिवर्तन का कट्टर हिमायती और अय्याश किस्म का बादशाह था। पास के ही सहबाजपुर गांव की एक गरीब ब्राह्मण की बेटी के रूप लावण्य पर वह मोहित हो गया तथा उनसे शादी का इरादा स्पष्ट करते हुए बात नहीं मानें जाने पर मृत्युदंड की धमकी दे डाली। गरीब ब्राह्मण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। पिता की परेशानी जानकर उनकी बेटी ने कुछ शर्ते के साथ सुल्तान के संग शादी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। इस दौरान शाह-सुल्तान के समक्ष उसने तीन शर्ते रखी। पहली कि शादी से पूर्व उनका धर्म परिवर्तन नहीं किया जायेगा और महल के अंदर कुंवारी रहकर वहां के तौर-तरीके सीखेंगी। दूसरी शर्त कि शाही महल के ठीक सामने एक आयताकार पोखर खुदवाया जाय जो उत्तर-दक्षिण की दिशा में लंबा हो तथा तीसरा और अंतिम शर्त थी कि शादी के पूर्व संध्या पर पूनम की रात में वह उस पोखर में जी भरकर नौका विहार करेगी। तब सुल्तान ने बिना किसी हिचकिचाहट ही सारी शर्तें कबूल कर ली और अमल करना भी प्रारंभ कर दिया। कहते हैं कि शर्तानुसार महल के ठीक सामने पोखर खुदवाये गये। इसमें ब्राह्मणी कन्या माया ने पूनम की रात नौका विहार करना प्रारंभ कर दिया। देखते-देखते ही उसने जल समाधि ले ली। कहते हैं कि शाह-सुल्तान ने तीन दिनों तक उस कन्या की खोज करायी किन्तु असफल रहा। चौथे दिन स्वत: उसकी लाश पोखर की दक्षिणी किनारे से लगी मिली। सुल्तान ने मृत्यु के बावजूद उसे सिन्दूर देकर विवाह रचा ली और लाश को इस्लामी तौर-तरीके से दफना दिया। किंवदन्ति यह कि शाह-सुल्तान को इस घटना से इतना सदमा पहुंचा कि उसने इस शव को साक्षी मानकर सौगन्ध खा लिया कि वह ना केवल दमन-दामन छोड़ देगा बल्कि जबरन धर्मान्तरण भी नहीं कराएगा।
मूलरूप खोने के बाद भी विश्वास मे नही आयी कमी: कहतें हैं कि शाह-सुल्तान के वारिस कतईमीर ने 1857-58 में ब्रिटिश हुकूमत के समय पूरे सुल्तानपुर स्टेट को सर एलेक्जेण्डर हेनरी फोरेबेश के हाथों बेच दिया और फिर आजादी के बाद उन अंगे्रजों ने स्टेट को कानपुर के सेठ जुगीलाल कमलापति के हाथों बेच दिया गया। बाद में सेठ ने भी मंदिर और मंदिर का जमीन भी टुकड़ों में बेच दिया जिसपर आज भी लोग रह रहे हैं। बाद में बढ़ती आबादी को लेकर पोखर की स्वच्छता एवं मंदिर की पवित्रता भंग होने लगी। क्योंकि इस इलाके का गंदा पानी पोखर में गिराया जाने लगा। सरकारी बेरूखी और प्रशासनिक उदासीनता के कारण यह धरोहर अपना मूलरूप खोता जा रहा है बाबजूद लोगों के विश्वास में कहीं कोई कमी नहीं आई है। आज भी लोग इस स्थान को देवी का स्थान मानते हैं।
फारबिसगंज का ऐतिहासिक सिरूआ मेला सुल्तान पोखर
सिरूआ पर्व के मौके पर एतिहासिक सुल्तान पोखर में जहां बड़ी संख्या में महिलाओं स्नान कर मन्नतें मांगती हैं वहीं मुरादें पूरी होने पर महिलाएं सुल्तानी माई के मंदिर में पूजा अर्चना कर चढ़ावा चढ़ाते हैं।
वहीं हिन्दू और मुस्लिम का प्रतीक कहे जाने वाले सुल्तान पोखर के बारें में जानकार बताते हैं कि शाह सुल्तान के वारिश कतई मीर द्वारा 1857-58 में ब्रिटिश हुकूमत के समय पूरे सुल्तानपुर स्टेट को सर एलेक्जेण्डर हेनरी फोरबेस से कानपुर के सेठ जुगीलाल कमलापति द्वारा खरीदे जाने से पूर्व एक गरीब कन्या के रूप लावण्य से मोहित सुल्तान द्वारा शन्र्तानुकूल हिन्दू-मुस्लिम के प्रतीक के रूप में खुदवाया गया पोखर आज फारबिसगंज का ऐतिहासिक धरोहर है। सुल्तान पोखर व सुल्तानी माई का मंदिर हिन्दू-मुस्लिम का सौहार्द का एक ऐसा प्रतीक माना जाता है जहां एक ही स्थान पर एक साथ दोनों समुदाय के लोग पूजा और इबादत करते हैं। इस पोखर में स्नान कर मंदिर में आकर जो भी मन्नतें-मुरादें मांगी जाय, वह अवश्य पूर्ण होती है। खासकर नि:संतान औरतें मुख्य रूप से औलाद की मन्नतें मांगने आती है। मुगलकाल की यह ऐतिहासिक धरोहर आज भी साम्प्रदायिक सौहार्द और अमन का पैगाम देती है। खासकर सिरूआ के मौके पर महिलाओं की काफ़ी भीड़ जुटती है।
इस मौके पर माँ भगवती वैष्णो देवी मंदिर सुल्तान पोखर दुर्गा पुजा समिति के सदस्य ने बताया कि सिरूआ के मौके पर सुल्तान पोखर व मंदिर परिसर मे मेले सा दृश्य लगता है।
भूगोल
फारबिसगंज अररिया जिले का एक शहर है, जो 1990 से पहले पूर्णिया जिला का हिस्सा था । इस शहर की सीमा नेपाल से लगती हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 57 और राष्ट्रीय राजमार्ग 57A यहाँ से गुज़रते हैं। अररिया जिला के उतर में नेपाल, दक्षिण में पूर्णिया, पूरब में किशनगंज और पश्चिम में सुपौल जिला है।
इतिहास
फारबिसगंज का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब अलैक्जेंडर जॉन फोरबेस ने बाबू प्रताप सिंह दुगड़ व अन्य से सुल्तानपुर इस्टेट की खरीद की तो इसे फोरबेसाबाद नाम दिया गया। सन 1877 में हंटर की रिपोर्ट में भी शहर का नाम फोरबेसाबाद ही दर्ज है। लेकिन जब रेलवे लाइन आई तो शहर का नाम बदल कर फोरबेसगंज कर दिया। इस शहर के अंदर रामुपर, किरकिचिया, भागकोहलिया तथा मटियारी राजस्व ग्राम हैं और सुल्तानपुर इस्टेट की कचहरी के अवशेष आज भी नजर आते हैं। अलैक्जेंडर ने ही यहां सबसे पहले नील की खेती शुरू की और इस्टेट के अधीन 17 हजार बीघे में नील उपजाया जाता था। प्रथम विश्व युद्ध के दिनों में नील की चमक फीकी पड़ने से पहले ही अलैक्जेंडर व उसके वारिस जमींदारी व जूट के धंधे में पांव रख चुके थे। नील धीरे धीरे घटता गया और फारबिसगंज की चर्चा अनाज, कपड़ा व अन्य उपभोक्ता सामानों की सबसे बड़ी मंडी के रूप मे होने लगी। फारबिसगंज का बाजार चारो दिशाओं से रोजाना आने वाली हजारों अनाज लदी गाड़ियों की वजह से समृद्धि के शिखर को छूने लगा। फोरबेस परिवार के बाद इस्टेट का कारोबार ई रौल मैके के अधीन आ गया। मैके आम जन के साथ घुलमिल कर रहने वाला अंग्रेज था और स्थानीय बोलियां बड़े आराम से बोल लेता था । सन 1945 में उन्होंने इस्टेट को जेके जमींदारी कंपनी के हाथ बेच दिया और सबके सब वापस इंग्लैंड चले गए। मैके कानून का बड़ा ज्ञाता था और 1929 में उसने इंडिगो सीड से जुड़े एक मामले में दरभंगा के महाराजा सर कामेश्वर सिंह को हरा दिया था ।
आर्थिक
ग्रामीण संपर्किता इसकी सबसे बड़ी विकास-बाधा है। शहर के पूरब में अम्हरा, खबासपुर, चिकनी, घोड़ाघाट, कौआचांड घाट, सौरगांव असुरी, कमताहा व ऐसे ही दर्जनों नदी घाट हैं, जहां पुल बना कर फारबिसगंज को नई ज़िंदगी दी जा सकती है। लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया है। फरबिसगंज में मखाना का अच्छा उत्पादन होता है, मखाना के पैकेट फारबिसगंज में तैयार किए जाते हैं और ट्रेन से दिल्ली, पंजाब, मुंबई और अन्य जगहों पर भेजे जाते हैं। जिसकी विदेशों में डिमांड है। इस कारण से यहाँ के किसानो की आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा।[४]
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ "Bihar Tourism: Retrospect and Prospect स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।," Udai Prakash Sinha and Swargesh Kumar, Concept Publishing Company, 2012, ISBN 9788180697999
- ↑ "Revenue Administration in India: A Case Study of Bihar," G. P. Singh, Mittal Publications, 1993, ISBN 9788170993810
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