प्रश्नोपनिषद

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प्रश्नोपनिषद  
चित्र:उपनिषद.gif
लेखक वेदव्यास
चित्र रचनाकार अन्य पौराणिक ऋषि
देश भारत
भाषा संस्कृत
श्रृंखला अथर्ववेदीय उपनिषद
विषय ज्ञान योग, द्वैत अद्वैत सिद्धान्त
प्रकार हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ

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प्रश्नोपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है। स उपनिषद् के प्रवक्ता आचार्य पिप्पलाद थे जो कदाचित् पीपल के गोदे खाकर जीते थे।

रचनाकाल

उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चित मत नही है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है—

  1. पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां
  2. पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम
  3. सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल
  4. उपनिषदों में वर्णित खगोलीय विवरण

निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है[१]-

विभिन्न विद्वानों द्वारा वैदिक या उपनिषद काल के लिये विभिन्न निर्धारित समयावधि
लेखक शुरुवात (BC) समापन (BC) विधि
लोकमान्य तिलक (Winternitz भी इससे सहमत है)
6000
200
खगोलिय विधि
बी. वी. कामेश्वर
2300
2000
खगोलिय विधि
मैक्स मूलर
1000
800
भाषाई विश्लेषण
रनाडे
1200
600
भाषाई विश्लेषण, वैचारिक सिदान्त, etc
राधा कृष्णन
800
600
वैचारिक सिदान्त
मुख्य उपनिषदों का रचनाकाल
डयुसेन (1000 or 800 – 500 BC) रनाडे (1200 – 600 BC) राधा कृष्णन (800 – 600 BC)
अत्यंत प्राचीन उपनिषद गद्य शैली में: बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषीतकि, केन
कविता शैली में: केन, कठ, ईश, श्वेताश्वतर, मुण्डक
बाद के उपनिषद गद्य शैली में: प्रश्न, मैत्री, मांडूक्य
समूह I: बृहदारण्यक, छान्दोग्य
समूह II: ईश, केन
समूह III: ऐतरेय, तैत्तिरीय, कौषीतकि
समूह IV: कठ, मुण्डक, श्वेताश्वतर
समूह V: प्रश्न, मांडूक्य, मैत्राणयी
बुद्ध काल से पूर्व के:' ऐतरेय, कौषीतकि, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, केन
मध्यकालीन: केन (1–3), बृहदारण्यक (IV 8–21), कठ, मांडूक्य
सांख्य एवं योग पर अधारित: मैत्री, श्वेताश्वतर

विषयवस्तु

सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी, इन छह ब्रह्मजिज्ञासुओं ने इनसे ब्रह्मनिरूपण की अभ्यर्थना करने के उपरांत उसे हृदयंगम करने की पात्रता के लिये आचार्य के आदेश पर वर्ष पर्यंत ब्रह्मचर्यपूर्वक तपस्या करके पृथक्-पृथक् एक एक प्रश्न किया। पिप्पलाद के सविस्तार उत्तरों के सहित इन छह प्रश्नों के नाम का यह उपनिषद का पूरक बतलाया जाता है। इसके प्रथम तीन प्रश्न अपरा विद्या विषयक तथा शेष परा विद्या संबंधी हैं।

प्रथम प्रश्न प्रजापति के रथि और प्राण की ओर उनसे सृष्टि की उत्पत्ति बतलाकर आचार्य ने द्वितीय प्रश्न में प्राण के स्वरूप का निरूपण किया है और समझाया है कि वह स्थूल देह का प्रकाशक धारयिता एवं सब इंद्रियों से श्रेष्ठ है। तीसरे प्रश्न में प्राण की उत्पत्ति तथा स्थिति का निरूपण करके पिप्पलाद ने कहा है कि मरणकाल में मनुष्य का जैसा संकल्प होता है उसके अनुसार प्राण ही उसे विभिन्न लोकों में ले जाता है।

चौथे प्रश्न में पिप्पलाद ने यह निर्देश किया है कि स्वप्नावस्था में श्रोत्रादि इंद्रियों के मन मे लय हो जाने पर प्राण जाग्रत रहता है तथा सुषुप्ति अवस्था में मन का आत्मा में लय हो जाता है। वही द्रष्टा, श्रोता, मंता, विज्ञाता इत्यादि है जो अक्षर ब्रह्म का सोपाधिक स्वरूप है। इसका ज्ञान होने पर मनुष्य स्वयं सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप, परम अक्षर हो जाता है।

पाँचवे प्रश्न में ओंकार में ब्रह्म की एकनिष्ठ उपासना के रहस्य में बतलाया गया है कि उसकी प्रत्येक मात्रा की उपासना सद्गति प्रदायिनी है एवं सपूर्ण ॐ का एकनिष्ठ उपासक कैचुल निर्मुक्त सर्प की तरह पापों से नियुक्त होकर अंत में परात्पर पुरुष का साक्षात्कार करता है।

अंतिम छठे प्रश्न में आचार्य पिप्पलाद ने दिखाया है कि इसी शरीर के हृदय पुंडरीकांश में सोलहकलात्मक पुरुष का वास है। ब्रह्म की इच्छा, एवं उसी से प्राण, उससे श्रद्धा, आकाश, वाय, तेज, जल, पृथिवी, इंद्रियाँ, मन और अन्न, अन्न से वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक और नाम उत्पन्न हुए हैं जा उसकी सोलह कलाएँ और सोपाधिक स्वरूप हैं। सच्चा ब्रहृम निर्विशेष, अद्वय और विशुद्ध है। नदियाँ समुद्र में मिलकर जैसे अपने नाम रूप का उसी में लय कर देती हैं पुरुष भी ब्रह्म के सच्चे स्वरूप को पहचानकर नामरूपात्मक इन कलाओं से मुक्त होकर निष्कल तथा अमर हो जाता है। इस निरूपण की व्याख्या में शंकराचार्य ने अपने भाष्य में विनाशवाद, शून्यवाद, न्याय सांख्य एवं लौकायितकों का यथास्थान विशद खंडन किया है।

प्रश्नोपनिषद् पर सर्वप्रधान शांकरभाष्य अतिरिक्त मध्यभाष्य तथा रामानुजाचार्य जयतीर्थाचार्य एव अन्य आचार्यो की टीकाएँ अथवा भाष्य प्रचलित है।

सन्दर्भ

  1. Ranade 1926, pp. 13–14

बाहरी कड़ियाँ

मूल ग्रन्थ

अनुवाद