सुष्मिता बनर्जी

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
सुष्मिता बनर्जी
जन्मसाँचा:br separated entries
मृत्युसाँचा:br separated entries
मृत्यु स्थान/समाधिसाँचा:br separated entries
उल्लेखनीय कार्यsकाबुलीवालार बंगाली बौ
(एक काबुलीवाला की बंगाली पत्नी)
जीवनसाथीजाँबाज़ खान

साँचा:template otherसाँचा:main other

सुष्मिता बनर्जी, (सुष्मिता बंधोपाध्याय और सईदा कमाल भी)[१] (1963/1964 – 4/5 सितम्बर 2013), भारत की एक लेखिका एवं बुद्धिजीवी थी। उनका संस्मरण काबुलीवालार बंगाली बौ (एक काबुलीवाला की बंगाली पत्नी; 1997)[२] उनके एक अफगान से विवाह और तालिबान शासन के दौरान अफ़गानिस्तान में उनके अनुभवों पर आधारित है। उनके इस संस्मरण पर आधारित एक बॉलीवुड फ़िल्म एस्केप फ्रॉम तालिबान भी बन चुकी है।

संदिग्ध तालिबानी आतंकवादियों ने ४ सितम्बर शाम के बाद और ५ सितम्बर २०१३ की सुबह से पूर्व किसी समय उनके पकतीका प्रान्त, अफ़्ग़ानिस्तान में स्थित घर के बाहर पर उनकी हत्या कर दी।[३]

जीवन

सुष्मिता बनर्जी का जन्म कलकता पश्चिम बंगाल (वर्तमान कोलकाता) में एक मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में हुआ। उनके पिता नागरिक रक्षा विभाग में काम करते थे एवं माँ एक गृहणी थी। वो तीन भाइयों की एकमात्र बहन थी। वो अपने पति जाँबाज़ खान, एक अफगान व्यापारी से कलकता में एक नाटक पूर्वाभ्यास के दौरान मिलीं।[४] उन्होंने 2 जुलाई 1988 को विवाह किया।[२] विवाह गुप्त रूप से कोलकाता में सम्पन्न हुआ, क्योंकि वो अपने माता-पिता से इस बात को लेकर डरती थीं कि कहीं वो इस अन्तरधार्मिक विवाह में आपत्ति करें। जब उनके माता-पिता ने उसे अपने पति के साथ तलाक लेने के लिए कहा तो तो वो खान के साथ अफगानिस्तान चली गईं।[२] वहाँ जाने के बाद उसे पता चला कि उसके पति पहले से ही शादी-सुदा हैं।[१] यद्दपि उसे झटका लगा, लेकिन उन्होंने अपने पति खान के साथ रहना ही उसके पटिया नामक गाँव में स्थित पैतृक घर में रहना आरम्भ किया जहाँ तीन उनके पति के भाई और उनकी पत्नियाँ एवं उनके पति की पहली पत्नी गुलगुती और गुलगुती के बच्चे रहते थे।[२][१] बाद में खान अपने व्यापार के सिलसिले में कोलकाता आये लेकिन बनर्जी कभी वापस नहीं आ सकीं।[२]

अफगानिस्तान में बढ़ती तालिबान सत्ता के साथ, बनर्जी ने देश में होने वाली कट्टरपंथी परिवर्तन देखा। २००३ में एक साक्षात्कार में, उन्होंने कहा कि वहाँ विशेष रूप से महिलाओं की दशा बदतर थी। महिलाओं को परिवार के सदस्यों के अलावा अन्य लोगों के साथ बात करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था। उन्हें घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। स्कूलों, कॉलेजों और अस्पतालों को बंद कर दिया गया था। तालिबानियों ने मई १९९५ में उनका क्लिनिक देख लिया जिसके बाद उन्होंने बनर्जी को बुरी तरह से पीटा।[२]

बनर्जी ने अफगानिस्तान से पलायन करने के लिए दो निष्फल प्रयास किये। उन्हें पकड़ लिया गया और गाँव में नजरबंद कर दिया गया। उनके विरुद्ध एक फतवा जारी किया गया और उनकी मृत्यु का दिन 22 जुलाई 1995 रखा गया।[२] गाँव के मुखिया की सहायता से वो गाँव से भाग गई, इसके लिए उन्होंने एके-४७ रायफल की सहायता से तीन तालिबानी लोगों की हत्या भी की।[२] उन्होंने काबुल पहुँचकर १२ अगस्त १९९५ को कोलकाता के लिए हवाई जहाँज पकड़ी।[२]

वो 2013 तक भारत में रहीं और कई पुस्तकें प्रकाशित कीं। अपनी अफगानिस्तान वापसी पर उन्होंने अफगानिस्तान के दक्षिण-पूर्वी प्रान्त पकतिका में स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता के रूप में कार्य किया तथा स्थानीय महिलाओं के जीवन फिल्मांकन शुरू किया।[१]

निधन

अफ्गान पुलिस के अनुसार, संदिग्ध तालिबानी आतंकवादी, 4 सितम्बर 2013 को पकटिला स्थित उनके घर में जबरन घुस गये। उनके पति और दूसरे लोगों को बांध दिया और उनको पकड़कर बाहर ले गए और गोली मार दी।[५] अगले दिन सुबह उनकी लाश अफ़्ग़ानिस्तान के प्रान्त शरना की प्रांतीय राजधानी के बाहरी इलाके में एक मदरसा के पास पायी गई। शव पर २० गोलियों के निशान पाये गये। पुलिस के अनुमानों के अनुसार उन्हें मारने के पिछे उनकी पुस्तक, उस क्षेत्र के लिए उनके सामाजिक कार्य और उनका भारतीय महिला होना जैसे कई कारण हो सकते हैं[३] इसके अलावा बुर्का न पहनना भी एक कारण हो सकता है जिसके लिए लगभग दो दशक पूर्व उन्हें तालिबान शासन के दौरान सजा-ए-मौत सुनाई गयी थी।[६] तालिबान ने इस हमले में उनके शामिल होने से इनकार किया है।[७]

पुस्तकें

सुष्मिता बनर्जी ने १९९५ में काबुलीवालार बंगाली बौ ("एक काबुलीवाला की बंगाली पत्नी") नामक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने एक अफ़्गान व्यापारी जाँबाज़ ख़ान से उनके प्रेम विवाह, १९८९ में उनके अफगानिस्तान पलायन, तालिबानी अफगान के सामने उनके द्वारा उठाई गई परेसानियों को उजागर करना और उनकी अन्तिम कोलकाता वापसी का विवरण है।[३] वर्ष 2003 में, एस्केप फ्रॉम तालिबान, नामक एक बॉलीवुड फ़िल्म उनकी इस पुस्तक को आधार मानकर बनाई गई।

उन्होंने तालिबानी अत्याचार—देशे ओ बिदेशे (अफगानिस्तान में और विदेश में तालिबान के अत्याचारों), मुल्लाह उमर, तालिबानी ओ आमि (मुल्लाह उमर, तालिबान और मैं) (2000), एक बोर्नो मिथ्या नोई (एक शब्द भी झूठा नहीं है।) (2001) और सभ्यतार सेष पुण्याबानी (सभ्यता के श्वसनांग) नामक पुस्तकें लिखी।[८][९]

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

अफगानों की छाती पे ये निशान रहेंगे