सरस्वती देवी

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महासरस्वती
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Member of त्रिदेवी
Devi Saraswati.jpg
पेड़ के नीचे मां सरस्वती की प्रतिमा की पूजा कर रहे श्रद्धालु
अन्य नाम ब्राह्मणी,गायत्री, दुर्गा, शक्ति, वागेश्वरी, वाणिश्वरी, बुद्धिदात्री, सिद्धिदात्री, आदि पराशक्ति, जगजन्नी, भारती, शारदा, हमंसवाहिनी, भगवती सावित्री , ब्रह्मचारिणी, वरदायनी,चंद्रघंटा, भुवनेश्वरी, भगवती, जगदम्बा एवं अन्य अनगिनत नाम
संबंध आदि पराशक्ति, ब्राह्मणी, गायत्री, जगजननी, आदि पराशक्ति, देवी, मातंगी और आदि शक्ति
निवासस्थान

सत्य लोक (यहाँ अकेली रहती है)

ब्रह्मा लोक ( यहाँ ब्रह्मा देव के साथ रहती हैं)
मंत्र ॐ श्री श्री महासरस्वती देवी भगवती नमः ॥
अस्त्र वीणा, वेद, जापमाला, ब्रह्मास्त्र
जीवनसाथी साँचा:if empty
भाई-बहन शिव (बड़े भाई)
संतान साँचा:if empty
सवारी राजहंस, कमल
शास्त्र ब्रह्मवैवर्त पुराण, स्कंद पुराण, गणेश पुराण, विष्णु पुराण, देवी भागवत पुराण,शिव पुराण, कालिका पुराण, तंत्र चुरामणी, सरस्वती उपपुराण, एवं अन्य सभी पुराण, रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद ।
क्षेत्र सर्वस्व इनकी पूजा की जाती हैं
त्यौहार बसंत पंचमी , नवरात्रि मुख्यता सातवें दिन, श्रावण मास के बुधवार को इनकी पूजा होती है

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वैदिक धर्म

महासरस्वती
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Raja Ravi Varma, Goddess Saraswati.jpg
राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित चतुर्भुज देवी महासरस्वती
अन्य नाम महासरस्वती , शारदा , श्वेतांबरी , श्वेता , ब्रह्मावल्लभा , शिवभगिनी आदि
संबंध हिन्दू देवी
निवासस्थान ब्रह्मलोक
मंत्र ॐ ऐं महासरस्वत्यै नमः
अस्त्र वीणा, माला, पुस्तक
जीवनसाथी साँचा:if empty
भाई-बहन भगवान शंकर ( बड़े भाई )
संतान साँचा:if empty
सवारी राजहंस, मोर और कमल

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सरस्वती हिन्दू धर्म की प्रमुख वैदिक एवं पौराणिक देवियों में से हैं। सनातन धर्म शास्त्रों में दो सरस्वती का वर्णन आता है एक ब्रह्मा पत्नी सरस्वती एवं एक ब्रह्मा पुत्री तथा विष्णु पत्नी सरस्वती। ब्रह्मा पत्नी सरस्वती मूल प्रकृति से उत्पन्न सतोगुण महाशक्ति एवं प्रमुख त्रिदेवियो मे से एक है एवं विष्णु की पत्नी सरस्वती ब्रह्मा के जिव्हा से प्रकट होने के कारण ब्रह्मा की पुत्री मानी जाती है कई शास्त्रों में इन्हें मुरारी वल्लभा (विष्णु पत्नी) कहकर भी संबोधन किया गया है। धर्म शास्त्रों के अनुसार दोनों देवियां ही समान नाम स्वरूप , प्रकृति ,शक्ति एवं ब्रह्मज्ञान-विद्या आदि की अधिष्ठात्री देवी मानी गई है इसलिए इनकी ध्यान आराधना में ज्यादा भेद नहीं बताया गया है।

ब्रह्म विद्या एवं नृत्य संगीत क्षेत्र के अधिष्ठाता के रूप में दक्षिणामूर्ति/नटराज शिव एवं सरस्वती दोनों को माना जाता है इसी कारण दुर्गा सप्तशती की मूर्ति रहस्य में दोनों को एक ही प्रकृति का कहा गया है अतः सरस्वती के १०८ नामों में इन्हें शिवानुजा(शिव की छोटी बहन) कहकर भी संबोधित किया गया है

कहीं-कहीं ब्रह्मा पुत्री सरस्वती को विष्णु पत्नी सरस्वती से संपूर्णतः अलग माना जाता है इस तरह मतान्तर मे तीन सरस्वती का भी वर्णन आता है। इसके अन्य पर्याय या नाम हैं वाणी, शारदा, वागेश्वरी , वेदमाता इत्यादि।

ये शुक्लवर्ण,शुक्लाम्बरा, वीणा-पुस्तक-धारिणी तथा श्वेतपद्मासना कही गई हैं। इनकी उपासना करने से मूर्ख भी विद्वान् बन सकता है। माघ शुक्ल पंचमी(श्रीपंचमी/बसंतपंचमी) को इनकी विशेष रूप से पूजन करने की परंपरा है । देवी भागवत के अनुसार विष्णु पत्नी सरस्वती वैकुण्ठ में निवास करने वाली है एवं पितामह ब्रह्मा की जिह्वा से जन्मी हैं तथा कहीं-कहीं ऐसा भी वर्णन आता है की नित्यगोलोक निवासी श्री कृष्ण भगवान के वंशी के स्वर से प्रकट हुई है। देवी सरस्वती का वर्णन वेदों के मेधा सूक्त मे,उपनिषदों, रामायण, महाभारत के अतिरिक्त कालिका पुराण, वृहत्त नंदीकेश्वर पुराण तथा शिव महापुराण, श्रीमद् देवी भागवत पुराण इत्यादि इसके अलावा ब्रह्मवैवर्त पुराण में विष्णु पत्नी सरस्वती का विशेष उल्लेख आया है। [१]

पौराणिक कथा अनुसार सृष्टि के प्रारंभिक काल में पितामह ब्रह्मा ने अपने संकल्प से ब्रह्मांड की तथा उनमें सभी प्रकार के जंघम-स्थावर जैसे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी मनुष्यादि योनियो की रचना की। लेकिन अपनी सर्जन से वे संतुष्ट नहीं थे, उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है।

  • तब ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारण के लिए अपने कमण्डल से जल अपने अंजली में लेकर संकल्प स्वरूप उस जल को छिड़कर भगवान श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की। ब्रम्हा जी के किये स्तुति को सुन कर भगवान विष्णु तत्काल ही उनके सम्मुख प्रकट हो गए और उनकी समस्या जानकर भगवान विष्णु ने मूलप्रकृति आदिशक्ति माता का आव्हान किया। विष्णु जी के द्वारा आव्हान होने के कारण मूलप्रकृति आदिशक्ति वहां तुरंत ही ज्योति पुंज रूप मे प्रकट हो गयीं तब ब्रम्हा एवं विष्णु जी ने उन्हें इस संकट को दूर करने का निवेदन किया।[२]
  • ब्रम्हा जी तथा विष्णु जी बातों को सुनने के बाद उसी क्षण मूलप्रकृति आदिशक्ति के संकल्प से तथा स्वयं के अंश से श्वेतवर्णा एक प्रचंड तेज उत्पन्न किया जो एक दिव्य नारी के नारी स्वरूप बदल गया। जिनके हाथो में वीणा, वर-मुद्रा पुस्तक एवं माला एवं श्वेत कमल पर विराजित थी। मूल प्रकृति आदिशक्ति के शरीर से उत्पन्न तेज से प्रकट होते ही उस देवी ने वीणा का मधुरनाद किया जिससे समस्त राग रागिनिया संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार कर देने वाली उन देवी को ब्रह्म ज्ञान विद्या वाणी संगीत कला की अधिष्ठात्री देवी "सरस्वती" कहा गया।[३]
  • फिर आदिशक्ति मूल प्रकृति ने पितामह ब्रम्हा से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न हुई ये देवी सरस्वती आपकी अर्धांगिनी शक्ति अर्थात पत्नी बनेंगी, जैसे लक्ष्मी श्री विष्णु की शक्ति हैं, शिवा शिव की शक्ति हैं उसी प्रकार ये सरस्वती देवी ही आपकी शक्ति होंगी। ऐसी उद्घोषणा कर मूलप्रकृति ज्योति स्वरूप आदिशक्ति अंतर्धान हो गयीं। इसके बाद सभी देवता सृष्टि के संचालन में संलग्न हो गए। पुराण

सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा और वीणावादिनी सहित अनेक नामों से संबोधित जाता है। ये सभी प्रकार के ब्रह्म विद्या-बुद्धि एवं वाक् प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की अधिष्ठात्री देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।

भावार्थ:- ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। कई पुराणो के अनुसार नित्यगोलोक निवासी श्रीकृष्ण भगवान ने सरस्वती से प्रसन्न होकर कहा की उनकी बसंत पंचमी के दिन विशेष आराधना करने वालों को ज्ञान विद्या कला मे चरम उत्कर्ष प्राप्त होगी । इस उद्घोषणा के फलस्वरूप भारत में वसंत पंचमी के दिन ब्रह्मविद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा होने कि परंपरा आज तक जारी है।

सरस्वती देवी के अन्य नामों में शारदा, वीणावादिनी, वीणापाणि, आदि कई नामों से जाना जाता है। [४]

परिचय

सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की देवी माना जाता है। उसमें विचारणा, भावना एवं संवेदना का त्रिविध समन्वय है। वीणा संगीत की, पुस्तक विचारणा की और [[हंस] वाहन कला की अभिव्यक्ति है। लोक चर्चा में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है। शिक्षा संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता है। पशु को मनुष्य बनाने का - अंधे को नेत्र मिलने का श्रेय शिक्षा को दिया जाता है। मनन से मनुष्य बनता है। मनन बुद्धि का विषय है। भौतिक प्रगति का श्रेय बुद्धि-वर्चस् को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह माना जाना उचित भी है। इस उपलब्धि के बिना मनुष्य को नर-वानरों की तरह वनमानुष जैसा जीवन बिताना पड़ता है। शिक्षा की गरिमा-बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती अर्चना की परम्परा है। इसे प्रकारान्तर से गायत्री महाशक्ति के अंतगर्त बुद्धि पक्ष की आराधना कहना चाहिए।

स्वरूप

सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं। मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। वाहन राजहंस -सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है। इनका वाहन राजहंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेदग्रंथ और स्फटीकमाला होती है। भारत में कोई भी शैक्षणिक कार्य के पहले इनकी पूजा की जाती हैं।

पूजकगण

thumb|200px|बाली द्वीप में महासरस्वती की प्रतिमा कहते हैं कि महाकवि कालिदास, वरदराजाचार्य, वोपदेव आदि मंद बुद्धि के लोग सरस्वती उपासना के सहारे उच्च कोटि के विद्वान् बने थे। इसका सामान्य तात्पर्य तो इतना ही है कि ये लोग अधिक मनोयोग एवं उत्साह के साथ अध्ययन में रुचिपूवर्क संलग्न हो गए और अनुत्साह की मनःस्थिति में प्रसुप्त पड़े रहने वाली मस्तिष्कीय क्षमता को सुविकसित कर सकने में सफल हुए होंगे। इसका एक रहस्य यह भी हो सकता है कि कारणवश दुर्बलता की स्थिति में रह रहे बुद्धि-संस्थान को सजग-सक्षम बनाने के लिए वे उपाय-उपचार किए गए जिन्हें 'सरस्वती आराधना' कहा जाता है। उपासना की प्रक्रिया भाव-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है। श्रद्धा और तन्मयता के समन्वय से की जाने वाली साधना-प्रक्रिया एक विशिष्ट शक्ति है। मनःशास्त्र के रहस्यों को जानने वाले स्वीकार करते हैं कि व्यायाम, अध्ययन, कला, अभ्यास की तरह साधना भी एक समर्थ प्रक्रिया है, जो चेतना क्षेत्र की अनेकानेक रहस्यमयी क्षमताओं को उभारने तथा बढ़ाने में पूणर्तया समर्थ है। सरस्वती उपासना के संबंध में भी यही बात है। उसे शास्त्रीय विधि से किया जाय तो वह अन्य मानसिक उपचारों की तुलना में बौद्धिक क्षमता विकसित करने में कम नहीं, अधिक ही सफल होती है।

फल

मन्दबुद्धि लोगों के लिए गायत्री महाशक्ति का सरस्वती तत्त्व अधिक हितकर सिद्घ होता है। बौद्धिक क्षमता विकसित करने, चित्त की चंचलता एवं अस्वस्थता दूर करने के लिए सरस्वती साधना की विशेष उपयोगिता है। मस्तिष्क-तंत्र से संबंधित अनिद्रा, सिर दर्द्, तनाव, जुकाम जैसे रोगों में गायत्री के इस अंश-सरस्वती साधना का लाभ मिलता है। कल्पना शक्ति की कमी, समय पर उचित निणर्य न कर सकना, विस्मृति, प्रमाद, दीघर्सूत्रता, अरुचि जैसे कारणों से भी मनुष्य मानसिक दृष्टि से अपंग, असमर्थ जैसा बना रहता है और मूर्ख कहलाता है। उस अभाव को दूर करने के लिए सरस्वती साधना एक उपयोगी आध्यात्मिक उपचार है।

शिक्षा

शिक्षा के प्रति जन-जन के मन-मन में अधिक उत्साह भरने-लौकिक अध्ययन और आत्मिक स्वाध्याय की उपयोगिता अधिक गम्भीरता पूवर्क समझने के लिए भी सरस्वती पूजन की परम्परा है। बुद्धिमत्ता को बहुमूल्य सम्पदा समझा जाय और उसके लिए धन कमाने, बल बढ़ाने, साधन जुटाने, मोद मनाने से भी अधिक ध्यान दिया जाता है। महाशक्ति गायत्री मंत्र उपासना के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण धारा सरस्वती की मानी गयी है संध्यावंदन मे प्रातः सावित्री, मध्यान्ह गायत्री एवं सायं सरस्वती ध्यान से युक्त त्रिकाल संध्यावंदन करने की विधा है। सरस्वती के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस तरह है-

सरस्वती वंदना

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥

जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥

शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥2॥

जैन धर्म[५]

[६]जिनवाणी के साथ देवता और भगवती शब्दों का प्रयोग मात्र आदर सूचक है सरस्वती ( स+रस+वती अर्थात रस से परिपूर्ण प्रकृति ) पद का प्रयोग मात्र जिनवाणी के रूप में हुआ है और उस जिनवाणी को रस से युक्त मानकर यह विशेषण दिया गया |

जैनागम में जैनाचार्यो ने सरस्वती देवी के स्वरूप की तुलना भगवान की वाणी से है; यथार्थत: सरस्वती देवी की प्रतिमा द्वादशांग का ही प्रतीकात्मक चिन्ह है

षट्खण्डागम- धवला भाग १ धवला

बारहअंगंगिज्जा वियलिय-मल-मूढ-दंसणुत्तिलया।

विविह-वर-चरण-भूसा पसियउ सुयदेवया सुइरं।। [७]

अर्थ - बारह प्रकार के अंग ( द्वादशांग ) जिससे ग्रहण होते हैं, जिससे समस्त प्रकार के कर्म मल और मूढ़ताएं दूर होती हैं-इस प्रकार के सम्यक दर्शन की जो तिलक स्वरूप हैं, विविध प्रकार के श्रेष्ठ सदाचरण रूपी भाषा से युक्त है, जिसके चरण विविध प्रकार के आभूषणो से मण्डित है ऐसी श्रुतदेवी चिरकाल तक मेरें ऊपर प्रसन्न रहें |

आचार्य कुन्दकुन्द देव श्रीश्रुतभक्ति मे सरस्वती देवी की आराधना करते हुए कहते हैं कि यथा-

अरिहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं।

पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवहिं सिरसा।।

अर्थ -उस श्रुतज्ञान रूपी महासमुद्र को भक्ति से युक्त होकर सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ, जो अरिहन्त द्वारा कहा गया है एवं गणधरों द्वारा सम्यव् प्रकार से रचा गया है।


यथार्थत: सरस्वती देवी की प्रतिमा द्वादशांग का ही प्रतीकात्मक चिह्न है। ग्रंन्थ प्रतिष्ठासारोद्धार में जैन सरस्वती देवी के संबंध में निम्न श्लोक उपलब्ध हैं-

वाग्वादिनी भगवती सरस्वती, ह्रीं नम:इत्यनेन मूलमन्त्रेणवेष्टयेत्।

ओं ह्रीं मयूरवाहिन्यै नम:, इति वाग्देवतां स्थापयेत्।।

जैनचार्य वीरसेन ने भी सरस्वती देवी को जयदु सुददेवता से सम्बोधन कर यह प्रमाणित कर दिया कि जो जैनागम में चार प्रकार के देव-देवियों के देव-देवियों का वर्णन है,उसमें श्रुतदेवी कोई देवी नहीं है वरन् जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि स्वरूप श्रुतदेवी सरस्वती है।

कहा भी है- जिनेश्वरस्वच्छसर:सरोजिनी, त्वमंगपूर्वादिसरोजराजिता।

गणेशहंसव्रजसेविता सदा, करोषि केषां न मुदं परामिह।। - (श्री पद्मनन्दि पंचविंशतिका, आचार्य पद्मनंदी, १५/२१)

अर्थ:— हे माता! हे सरस्वती! तुम जिनेश्वर रूपी निर्मल सरोवर की तो कमलिनी हो और ग्यारह अंग चौदह पूर्व रूपी कमल से शोभित हो और गणधर रूपी हंसों के समूह से सेवित हो, इसलिए तुम इस संसार में किसको उत्तम हर्ष की करने वाली नहीं हो?

अध्यात्मयोगी आत्मस्वरूप के अमर गायक आचार्य कुन्दकुन्ददेव श्रुतभक्ति/ सरस्वती की स्तुति करते हुए अपने जिन भावों को शब्दाक्षर द्वारा इस प्रकार लिपिबद्ध करते हैं—

सिद्धवरसासणाणं, सिद्धाणं कम्मम्चक्कमुक्काणं। कादूण णमोक्कारं, भक्तीए णमामि अंगादिं।।

अर्थ:- जिनका अहिंसामय उत्कृष्ट जैनशासन लोक में प्रसिद्ध है तथा जो (घातिया और अघातिया रूप अष्ट) कर्मों के चक्र से मुक्त हो चुके हैं, ऐसे सिद्धों को नमस्कार कर भक्तिपूर्वक द्वादशांग रूप सरस्वती (बारह अंगों को मैं आचार्य कुन्दकुन्द नमस्कार करता हूँ।

जहि संभव जिणवर-मुहकमल।

सत्तभंग-वाणी जसु अमल।।

आगम-छंद-तक्क वर वाणि।

सारद सद्द-अत्थ-पय खाणि।।१।।

गुणणिहि बहु विज्जागमसार।

पुठि मराल सहइ अविचार।।

छंद बहत्तरि-कला-भावती।

सुकइ ‘रल्ह’ पणवइ सरसुती।।२।। (महाकवि रल्ह)

अर्थ:- जो शारदा जिनेन्द्र भगवान के मुखरूपी कमल से प्रकट हुई है, जिसकी सप्तभंगमयी वाणी है, जो आगम, छंद एवं तक्र से युक्त है, -ऐसी शारदा शब्द, अर्थ एवं पद की खान है। जो गुणों की निधि एवं विद्या तथा आगम की सार-स्वरूपा है, जो स्वभावत: हंस की पीठ पर सुशोभित है, जिसे छंद एवं बहत्तर कलाएँ प्रिय हैं—ऐसी सरस्वती को ‘रल्ह’ कवि नमस्कार करता है।।१।।

स्वरूप

जैन धर्म की सरस्वती (श्रुतदेवी) के प्रारम्भिक स्वरुप मे एक मुख, चार हाथ हैं; वो हाथों में कमंडलु ,अक्षमाला ,कमल व शास्त्र धारण किये हुये है | किन्तु अन्य विभिन्न स्वरुप भी दृष्टिगोचर होते है जिनमे हाथों में कमंडलु , कमल, अंकुश व वीणा देखी जा सकती है; एवम आसन के रुप मे कमल, हंस व मयुर है |

प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ[८] आचार्य नेमिचन्द्र - सरस्वती स्तोत्र


बारह अंगंगिज्जा, दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा।

चोद्दसपुव्वाहरणा, ठावे दव्वाय सुयदेवी।।१।।

आचारशिरसं सूत्र-कृतवक्त्रां सुवंठिकाम्।

स्थानेन समवायांग-व्याख्याप्रज्ञप्तिदोर्लताम् ।।२।।

वाग्देवतां ज्ञातृकथो-पासकाध्ययनस्तनीम्।

अंतकृद्दशसन्नाभि-मनुत्तरदशांगत: ।।३।।

सुनितंबां सुजघनां, प्रश्नव्याकरणश्रुतात्।

विपाकसूत्रदृग्वाद-चरणां चरणांबराम् ।।४।।

सम्यक्त्वतिलकां पूर्व-चतुर्दशविभूषणाम्।

तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारुपत्रांकुरश्रियम्।।५।।

अर्थ - बारह अंगों में से प्रथम जो ‘आचाराँग’ है, वह श्रुतदेवी-सरस्वती देवी का मस्तक है, ‘सूत्रकृतांग’ मुख है, ‘स्थानांग’ कंठ है, ‘समवायांग’ और ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’ ये दोनों अंग उनकी दोनों भुजाएं हैं, ज्ञातृकथांग’ और ‘उपासकाध्ययनांग’ ये दोनों अंग उस सरस्वती के दो स्तन हैं, ‘अंतकृद्दशांग’ यह नाभि है, ‘अनुत्तरदशांग’ श्रुतदेवी का नितंब है, ‘प्रश्नव्याकरणांग’ यह जघन भाग है, ‘विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग’ ये दोनों अंग उन सरस्वती के दोनों पैर हैं। ‘सम्यक्त्व’ यह उनका तिलक है, चौदह पूर्व ये अलंकार हैं और ‘प्रकीर्णक श्रुत’ सुन्दर बेल बूटे सदृश हैं।

नाम

जैन दर्शन में अरिहंतों द्वारा भाषित होने से इन्हें जिनवाणी,अरिहंतवाणी,श्रुतदेवी,वाग्देवी,भारती,वागेश्वरी आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया है |


प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती।तृतीयं शारदा देवी चतुर्थं हंसगामिनी।।

पञ्चमं विदुषां माता षष्ठं वागीश्वरी तथा।

कुमारी सप्तमं प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी।।

नवमं च जगन्माता, दशमं ब्राह्मिणी तथा।

एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं वरदा भवेत्।।

पञ्चदशं श्रुतदेवी, षोडशं र्गौिनगद्यते।।

(सरस्वती नाम स्तोत्रम् , ४-७)

अर्थ:- प्रथम वह भारती हैं, द्वितीय सरस्वतीशारदा देवी उनका तृतीय नाम है और चतुर्थ हंसगामिनी ।।४।। विदुषी,वागीश्वरी, कुमारी, ब्रह्मचारिणा ये उनके पंचम-पष्ठ-सप्तम और अष्टम नाम हैं ।।५।।नौवाँ नाम जगन्माता, दशवाँ नाम ब्राह्मिणी, ग्याहरवाँ नाम ब्रह्माणी और बारहवाँ नाम वरदा है।।६।। तेरहवाँ नाम वाणी, चौदहवाँ नाम भाषा, पन्द्रहवाँ नाम श्रुतदेवी, सोलहवाँ नाम गौ हैं। इस प्रकार ये सरस्वती देवी के सोलह नाम हैं।

सरस्वती वंदना

अरिहन्त भासियत्थ्ं गणहरदेवेहिं गंथियं सव्वं |

पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवयं सिरसा ||

सरस्वती स्तोत्र

चन्द्रार्क-कोटिघटितोज्ज्वल-दिव्य-मूर्ते!

श्रीचन्द्रिका-कलित-निर्मल-शुभ्रवस्त्रे!

कामार्थ-दाय-िकलहंस-समाधिरूढ़े।

वागीश्वरि! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।1।।[९]

त्यौहार

जैनधर्म में ज्येष्ठ मास के शुक्ल पंचमी को जैन ज्ञानपंचमी या श्रुत पंचमी भी कहते हैं और उस दिन श्रुतदेवी एवं शास्त्रों की विधिवत् पूजा का विधान दिगम्बरों में है तथा र्काितक मास की शुक्ल पंचमी को श्रुत देवी की पूजा का विधान श्वेताम्बर जैन परम्परा में है।

बौद्ध धर्म

बौद्ध ग्रंथों में सरस्वती के कई स्वरूपों का वर्णन किया गया है जैसे–महासरस्वती, वङ्कावीणा, वङ्काशारदा सरस्वती, आर्य सरस्वती, वङ्का सरस्वती आदि।


पुरातात्विक इतिहास[१०] [११]

वैदिक सनातन एवं बौद्ध धर्मो की अपेक्षा जैन धर्म की सरस्वती (श्रुतदेवी) के वृहद स्तर पर पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं | जैन शिल्प में यक्षी, अंबिका एवं चक्रेश्वरी के बाद सरस्वती ही सर्वाधिक लोकप्रिय देवी रही है | सरस्वती (श्रुतदेवी) की सबसे प्राचीन प्रतिमा कंकाली टीले (मथुरा) से प्राप्त हुई है जो १३२ ई, की है ; इसके अतिरिक्त जैन परंपरा में बहुत ही सुंदर सरस्वती (श्रुतदेवी) प्रतिमाएं पल्लू (बीकानेर) और लाडनूँ आदि से प्राप्त हुई है |


चित्र विथिका

अन्य देशों में सरस्वती

जापान में सरस्वती को 'बेंजाइतेन' कहते हैं। जापान में उनका चित्रन हाथ में एक संगीत वाद्य लिए हुए किया जाता है। जापान में वे ज्ञान, संगीत तथा 'प्रवाहित होने वाली' वस्तुओं की देवी के रूप में पूजित हैं।

दक्षिण एशिया के अलावा थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया, जापान एवं अन्य देशों में भी सरस्वती की पूजा होती है।

अन्य भाषाओ/देशों में सरस्वती के नाम-
  • बर्मा - थुयथदी (သူရဿတီ=सूरस्सती, उच्चारण: [θùja̰ðədì] या [θùɹa̰ðədì])
  • बर्मा - तिपिटक मेदा Tipitaka Medaw (တိပိဋကမယ်တော်, उच्चारण: [tḭpḭtəka̰ mɛ̀dɔ̀])
  • चीन - बियानचाइत्यान Biàncáitiān (辯才天)

सन्दर्भ

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  9. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  10. Dr. Shanti Swaroop Sinha, Dr. Maruti Nandan Pd. Tiwari. "CONCEPT OF SARASWATI IN JAIN TRADITION AND ART" (PDF). {{cite journal}}: Cite journal requires |journal= (help)
  11. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  12. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ