संगम काल
संगमकाल (तमिल : சங்ககாலம், संगकालम्) दक्षिण भारत (कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में स्थित क्षेत्र) के प्राचीन इतिहास का एक कालखण्ड है।[१][२] यह कालखण्ड ईसापूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी तक पसरा हुआ है। यह नाम 'संगम साहित्य' के नाम पर पड़ा है। संगम साहित्य, द्रविड़ साहित्य के शुरुआती नमूने थे।
संगम से अभिप्राय तमिल कवियों के संगम या सम्मलेन से है जो संभवतः किन्हीं प्रमुखों या राजाओं के संरक्षण में ही आयोजित होता था। आठवीं सदी ई. में तीन संगमों का वर्णन मिलता है। पाण्ड्य राजाओं द्वारा इन संगमों को शाही संरक्षण प्रदान किया गया।
तमिल किंवदन्तियों के अनुसार, प्राचीन दक्षिण भारत में तीन संगमों (तमिल कवियों का समागम) का आयोजन किया गया था, जिसे 'मुच्चंगम' कहा जाता था। तीन संगम ये थे- प्रमुख संगम, मध्य संगम और अंतिम संगम । इतिहासकार तीसरे संगम काल को ही 'संगम काल' कहते हैं और पहले दो संगमों को 'पौराणिक' मानते हैं।
माना जाता है कि प्रथम संगम मदुरै में आयोजित किया गया था। इस संगम में देवता और महान संत सम्मिलित हुए थे। किन्तु इस संगम का कोई साहित्यिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। द्वितीय संगम कपाटपुरम् में आयोजित किया गया था, और इस संगम का 'तोलकाप्पियम्' नामक एकमात्र ग्रंथ उपलब्ध है जो तमिल व्याकरण ग्रन्थ है। तृतीय संगम भी मदुरै में हुआ था। इस संगम के अधिकांश ग्रंथ नष्ट हो गए थे। इनमें से कुछ सामग्री समूह ग्रंथों या महाकाव्यों के रूप में उपलब्ध है।
600 ई.पू. से 300 ई.पू. के बीच की अवधि, तमिलकम में पांड्य, चोल और चेर के तीन तमिल राजवंशों और कुछ स्वतंत्र सरदारों, वेलिर का शासन था।
संगम साहित्य
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संगम युग का विवरण देने वाला प्रमुख स्रोत उस युग में रचित साहित्य है। संगम साहित्य मुख्य रूप से तमिल भाषा में लिखा गया है। संगम युग की प्रमुख रचनाओं में तोलकाप्पियम्, एतुत्तौके, पत्तुप्पातु, पदिनेकिल्लकणक्कु इत्यादि ग्रंथ तथा शिलप्पादिकारम्, मणिमेखलै और जीवक चिन्तामणि महाकाव्य शामिल हैं।
- तोल्काप्पियम् के लेखक तोलकाप्पियर हैं। यह द्वितीय संगम युग का उपलब्ध एकमात्र प्राचीनतम ग्रंथ है। यह व्याकरण से संबंधित एक ग्रंथ है, साथ ही उस समय की राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों की जानकारी भी इसमें है।
- एतुत्तौके (अष्ट संग्रह) एक संग्रह ग्रंथ है यह तीसरे संगम के आठ ग्रंथों का संग्रह है। ये आठ ग्रंथ ये हैं- नण्णिनै, कुरुन्थोकै, एनकुरुनूर, पदित्रप्पत्तु, परिपादल, कलिथौके, अहनानरु, पुरुनानरु।
- पत्तुप्पातु (दशगीत) दस कविताओं का संग्रह है और यह तृतीय संगम का दूसरा संग्रह ग्रंथ है। ये दस कविताएँ ये हैं- तिरुमुरुकात्रुप्पदै, नेडनलवाडै, पेरुम्पनत्रुप्पदै, पत्तिनप्पालै, पोरुनरात्रुप्पदै, मदुरैकांचि, सिरुपानात्रुप्पदै, मुल्लैप्पातु, कुरुन्जिप्पातु, मलैपदुकदाम।
- पदिनेकिल्लकणक्कु 18 कविताओं वाला एक आचारमूलक ग्रंथ है तथा यह तृतीय संगम साहित्य से संबंधित है। इन 18 कविताओं में महत्त्वपूर्ण कविता तमिल के महान कवि और दार्शनिक तिरुवल्लुवर द्वारा लिखित तिरुक्कुरल है। इसे तमिल साहित्य का 'पंचम वेद' भी माना जाता है।
- शिलप्पादिकारम् ‘इलांगोआदिगल’ द्वारा और मणिमेखलै ‘सीतलैसत्तनार’ द्वारा लिखे गए महाकाव्य हैं। इन महाकाव्यों द्वारा तत्कालीन संगम समाज और राजनीति के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त होती है।
संगम काल के बारे में विवरण देने वाले अन्य स्रोत निम्नलिखित हैं -
- अशोक के अभिलेखों में चोल, पाण्ड्य और चेर के बारे में बताया गया है।
- मेगस्थनीज (Megasthenes), स्ट्रैबो (Strabo), प्लिनी (Pliny) और टॉलेमी (Ptolemy) जैसे यूनानी लेखकों ने पश्चिम तथा दक्षिण भारत के बीच वाणिज्यिक व्यापार संपर्कों के बारे में उल्लेख किया है।
- कलिंग के खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख में तमिल राज्यों का उल्लेख है।
- ८वीं सदी ई. में इरैयनार अगप्पोरुल के भाष्य की भूमिका में तीनों संगमो का वर्णन किया गया है।
तमिल संगम का सर्वप्रथम उल्लेख अग्गपोरुल (8 वीं सदी) के भाष्य की भूमिका में मिलता है। संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि दक्षिण में आर्य सभ्यता का विस्तार ऋषि अगस्त्य व कौंडिन्य ने किया। तिरुक्काम्पुलियर, चेर, चोल व पाण्ड्य तीनों राज्यों का संगम स्थल था। संगम साहित्य की मुख्य विषयवस्तु दो हैं- (1) अहूम – इसका सम्बन्ध प्रेम से है। (2) पूरम – यह युद्ध के बारे में है। तोलकाप्पियम में आठ प्रकार के विवाह का उल्लेख है। नेडूलअलवदे में पाण्ड्य राजा नैडूनजेलियन व उनके रानी का वर्णन है। 'एतुत्तौके' (अष्ट संग्रह) में ८ चेर शासकों की प्रशस्ति मिलती है।
शिल्प्पादिकारम् तथा मणिमेखलै संगमकालीन महाकाव्य है। शिल्पाधिकारम का नायक कॉवलन माधवी नामक गणिका पर अपना सारा धन गंवा कर अपनी पत्नी टंकी के पास आता है। कोवलन व कण्णगी मदुरा के लिए रवाना होते हैं। मदुरा में कोलन पर रानी की एक पायल (नुपुर) चुराने का झूठा आरोप लगता है। वह राजा कोवलन को जल्दबाजी में मृत्युदण्ड दे देता है। कणगी अपने पति को निर्दोष साबित करती है। निर्दोष कोलन को मृत्युदण्ड देने की ग्लानि में राजा की मृत्यु हो जाती है तथा कण्णगी के शाप से मधुरा जलकर राख हो जाता है। शिल्लपादिकारम् का लेखक जैन है। प्रोफेसर मेहण्डाले ने शिल्लपादिकारम को तमिल काव्य का 'इलियड' और मणिमेखलै को तमिल का 'ओडिसी' कहा है। ओवैयार तथा नच्चेलियर संगम काल की दो प्रसिद्ध कवयित्रयाँ थी। पत्तुप्पातु, कोवरीपतनम पर रचित एक लम्बी कविता है। संगम कवि कपिलर को 'पारि' नामक चेर राजा ने सरंक्षण दिया। कपिलर ने कलिथौके और कुरिंजपातु नामक ग्रंथ लिखे। मामूलनार नामक तमिल कवि ने नन्दों व मौर्यों का उल्लेख किया है। 'जीवक चिन्तामणि' को 'विवाह का ग्रन्थ' भी कहा जाता है। नच्चिरविकनियर ने संगम कृतियों पर टीका लिखी है।
संगमकालीन समाज एवं संस्कृति
राजनैतिक जीवन
संगमकालीन प्रशासन राजतंत्रात्मक था। राजपद वंशानुगत था। राज्य को 'मंडल' कहा जाता था। समस्त अधिकार राजा में निहित थे। राजा को मन्नम, वन्दन, कारवेन इत्यादि उपाधियाँ दी गई थीं। ये उपाधियां राजा एवं देवता दोनों के लिए होतीं थीं। राजा के सर्वोच्च न्यायालय या राज्यसभा को 'मनरम' कहते थे। राजा का जन्मदिन 'पेरूनल' कहलाता था। राजा के दरबार को 'नलबै' भी कहा जाता था। सेना के सेनापति को 'एनाडी' की उपाधि दी जाती थी। सेना कि अग्र टुकड़ी को तुशी तथा पिछली टुकड़ी को 'कुले' कहा जाता था। सेना में वेल्लाल (धनी कृषक) भर्ती किए जाते थे। युद्ध में मरे सैनिकों की स्मृति में पाषाण मूर्तियाँ बनाई जातीं थीं। इस प्रकार की मूर्तियों को 'नड्डूकल' या वीरक्कल कहते थे। युद्ध में बन्दी स्त्रियों को दासी बनाकर उनसे मंदिरों में दीपक जलाने का कार्य कराया जाता था।
सामाजिक जीवन
संगम काल में उत्तर भारत की संस्कृति के तत्वों का दक्षिण में प्रसार हुआ। संगम काल के चार वर्ण थे- अरसर (शासक), अंडनार (ब्राह्मण), वेनिगर (वणिक), वेलालर (किसान)। इस काल में भी जाति प्रथा का आधार व्यवसाय ही थे। व्यवसाय का आधार विभिन्न क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति हुआ करती थी। तमिल क्षेत्र में ब्राह्मणों का आगमन सर्वप्रथम संगम काल में ही होता है। भूमि अधिकतर वैल्लाल जाति के हाथों में थी जो धनी कृषक वर्ग था । शासक वर्ग भी वैल्लाल जाति से ही निकलता था। वैल्लाल के प्रमुख को वेलिर कहा जाता था। खेतों में काम करने वाले मजदूरों को कडेसियर कहते थे। वेल्लाल दो वर्गों में विभाजित थे- धनिक कृषक व भूमिहीन वर्ग। चोल राज्य में धनी कृषकों को 'वेल' तथा 'आरशु' की उपाधि दी जाती थी। पाण्ड्य राज्य में इन्हें 'कविदी' की उपाधि दी जाती थी। उच्च सैनिक वर्गों में सती प्रथा का प्रचलन था। अन्तरजातीय विवाह भी प्रचलित था। दास प्रथा भी प्रचलित थी। दासों के लिए नियमित बाजार लगते थे। गायक व नर्तकों को पार और विडेलियर कहा था।
आर्थिक जीवन
संगम काल में कृषि, पशुपालन व शिकार जीविका के मुख्य आधार थे। दक्षिण भारत में अगस्त्य ऋषि द्वारा कृषि का विस्तार किया गया। जहाजों का निर्माण तथा कताई-बुनाई महत्वपूर्ण उद्योग थे । 'उरैयूर' सूती वस्त्र उद्योग का महत्वपूर्ण केन्द्र था। अधिकांश व्यापार वस्तु-विनिमय में होता था। बाजार को 'अवनम' कहते थे। पाण्ड्य राज्य के प्रमुख बंदरगाह शालीयुर, कोरकाय आदि थे। चोल राज्य के प्रमुख बंदरगाह पुहार और उरई थे। टालमी ने कावेरी पट्टनम को 'खबेरिस' नाम दिया है। तोंडी, मुशिरी तथा पुहार में यवन लोग बड़ी संख्या में विद्यमान थे। संगम काल में रोम के साथ व्यापार उन्नत अवस्था में था। अरिकामेडु से रोमन लोगों की बस्ती रोमन सम्राट ऑगस्टस व टिवेरियस की मुहरें मिली हैं। पेरिप्लस ने अरिकामेडु को 'पोडुका' कहा है। पश्चिमी देशों को काली मिर्च, मसाला , हाथीदांत ,रेशम , मोती, सूती वस्त्र, मलमल आदि का निर्यात किया जाता था। आयातित वस्तुओं में सिक्के, पुखराज, छपे हुए वस्त्र, शीशा, टीन, तांबा व शराब प्रमुख थे। पुहार एक सर्वदेशीय महानगर था । यहां विभिन्न देशों के नागरिक रहते थे । संगम काल में दक्षिण भारत का मलय द्वीपों व चीन के साथ भी व्यापार था। यूनान के दक्षिण भारत के साथ व्यापार के कारण ग्रीक भाषा में चावल, अदरक आदि शब्द तमिल भाषा से लिए गए थे। पेरिप्लस में संगम युग के 24 बंदरगाहों का उल्लेख किया है जो सिन्ध नदी के मुहाने से लेकर कन्याकुमारी तक विस्तृत थे। भूमि मापन की इकाई वैली या माहोती थी। अंबानम अनाज का माप था। नाली ,अल्लाकू और उल्लाक भी छोटे माप थे।
धार्मिक जीवन
संगम युग में दक्षिण भारत में वैदिक धर्म का आगमन हुआ। दक्षिण भारत में मुरुगन की उपासना सबसे प्राचीन है। मुरुगन का एक अन्य नाम सुब्रमणयम भी मिलता है। बाद में सुब्रमणयम का एकीकरण स्कन्ध कार्तिकेय से किया गया। मुरगन का दूसरा नाम वेलन भी था। वेल या बरछी इनका प्रमुख अस्त्र था। मुरगन का प्रतीक मुर्गा था। पहाड़ी क्षेत्र के शिकारियों पर्वत देव के रूप में मुर्गन की पूजा करते थे मुरुगन की पत्नियों में एक कुरवस नामक पर्वतीय जनजाति की स्त्री हैं। परशुराम की माता मरियम्मा, चेचक की देवी थीं। विष्णु का तमिल नाम 'तिरुमल' है। किसान मेरूडम इंद्र देव की पूजा करते थे। पुहार के वार्षिक उत्सव में इन्द्र की विशेष पूजा होती थी।
मणिमेखलै में कापालिक शैव सन्यासियों का वर्णन है, इसमें बौद्ध धर्म के दक्षिण में प्रसार का वर्णन है। शिल्पादिकारम में जैन धर्म के संस्थानों का वर्णन है।
शिक्षा
शिक्षा और साहित्य की दृष्टि से संगम युग स्वर्णिम काल कहा जाता है। इस समय समाज में शिक्षा का न केवल प्रचलन था बल्कि ज्ञान जगत के सभी विषय जैसे विज्ञान, कला, साहित्य, व्याकरण,गणित और ज्योतिष,चित्रकला और मूर्तिकला आदि का समुचित ज्ञान दिया जाता था। शिक्षा देने के लिए मन्दिरों को चुना गया था और शिक्षक को ‘कणकट्टम’ तथा शिक्षा पाने वाले ‘पिल्लै’ कहा जाता था। विद्यार्थी शिक्षा पूरी करने के बाद शिक्षकों को ‘गुरु दक्षिणा’ देते थे।
संगम काल राजा और राजवंश
संगम काल में दक्षिण भारत पर तीन राजवंशों ने शासन किया- चेर, चोल तथा पाण्ड्य राजवंशपाण्ड्य। संगम काल के साहित्य से इन राज्यों के बारे में जानकारी मिलती है।
चेर
चेरों ने उस क्षेत्र पर शासन किया जो वर्तमान समय में केरल के मध्य और उत्तरी भाग तथा तमिलनाडु का कोंगु क्षेत्र है। उनकी राजधानी वांजि थी। पश्चिमी तट, मुसिरी और टोंडी के बंदरगाह उनके नियंत्रण में थे।
चेरों का प्रतीक चिह्न "धनुष-बाण" था। ईसा की पहली शताब्दी के पुगलुर शिलालेख से चेर शासकों की तीन पीढ़ियों की जानकारी मिलती है। चेर राजा रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार से लाभ प्राप्त करते थे। कहा जाता है कि उन्होंने ऑगस्टस का एक मंदिर भी बनवाया गया था। चेरों के सबसे महान राजा शेनगुटटवन (सेंगुत्तुवन) थे जिन्हें 'लाल चेर' या 'अच्छे चेर' भी कहा जाता था। शेनगुटटवन ने चेर राज्य में पत्तिनी (पत्नी) पूजा प्रारम्भ की। इसे कण्णगी पूजा भी कहा गया। वह दक्षिण भारत से चीन में दूत भेजने वाले पहले भारतीय राजा थे।
चोल
चोलों के नियन्त्रण में वह क्षेत्र था जो वर्तमान तमिलनाडु का मध्य और उत्तरी भाग है। उनके शासन का मुख्य क्षेत्र कावेरी डेल्टा था जिसे बाद में 'चोलमण्डलम' के नाम से जाना जाता था। चोलों की राजधानी उरैयूर (तिरुचिरापल्ली के पास) थी। बाद में करिकाल ने कावेरीपत्तनम या पुहार नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया। इनका प्रतीक चिह्न बाघ था। चोलों के पास एक कुशल नौसेना भी थी।
करिकाल चोल राजाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक हुआ। पत्तिनप्पालै में उनके जीवन और सैन्य अधिग्रहण को दर्शाया गया है। संगम साहित्य की विभिन्न कविताओं में वेण्णि के युद्ध का उल्लेख मिलता है जिसमें करिकाल ने पाण्ड्य तथा चेर सहित ग्यारह राजाओं को पराजित किया था। करिकाल की सैन्य उपलब्धियों ने उन्हें पूरे तमिल क्षेत्र का अधिपति बना दिया। करिकाल ने अपने शासनकाल में व्यापार और वाणिज्य क्षेत्र को संपन्न बनाया। उसने पुहार या कावेरीपत्तनम शहर की स्थापना की और अपनी राजधानी उरैपुर से कावेरीपत्तनम में स्थानांतरित की। इसके अतिरिक्त कावेरी नदी के किनारे 160 किमी. लम्बा बांध बनवाया।
पाण्ड्य
पाण्ड्यों ने मदुरै से शासन किया। उनका राज्य भारतीय प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी भाग में था। कोरकई इनकी प्रारंभिक राजधानी थी जो बंगाल की खाड़ी के साथ थम्परपराणी के संगम के पास स्थित थी। पाण्ड्य वंश का प्रतीक चिह्न ‘मछली’ थी।
पाण्ड्योण ने तमिल संगमों का संरक्षण किया और संगम कविताओं के संकलन की सुविधा प्रदान की। शासकों ने एक नियमित सेना बनाए रखी। संगम साहित्य के अनुसार, पाण्ड्य राज्य धनी और समृद्ध था।
पाण्ड्यों का पहला उल्लेख मेगास्थनीज ने किया है। उसने इस राज्य को मोतियों के लिये प्रसिद्ध बताया था। समाज में विधवाओं के साथ बुरा व्यवहार किया जाता था। इस राज्य में ब्राह्मणों का काफी प्रभाव था तथा ईसा के शुरूआती शताब्दियों में पाण्ड्य राजा वैदिक यज्ञ करते थे। कलभ्रस नामक जनजाति के आक्रमण के साथ उनकी शक्ति का क्षय हुआ।
संगम युग का अन्त
तीसरी शताब्दी के अन्त तक संगमकालीन व्यवस्था धीरे-धीरे पतन की तरफ अग्रसर होती गयी। तीन सौ ईस्वी पूर्व से छह सौ ईस्वी पूर्व के बीच कालभ्रस ने तमिल देश पर कब्ज़ा कर लिया था। इस अवधि को पहले के इतिहासकारों ने 'अंतरिम युग' या 'अंधकार युग' कहा है। नल्लिवकोडन संगम युग का अंतिम ज्ञात पाण्ड्य शासक था।