खारवेल

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साँचा:infobox खारवेल (193 ईसापूर्व) कलिंग (वर्तमान ओडिशा) में राज करने वाले महामेघवाहन वंश का तृतीय एवं सबसे महान तथा प्रख्यात सम्राट थे। खारवेल के बारे में सबसे महत्वपूर्ण जानकारी हाथीगुम्फा में चट्टान पर खुदी हुई सत्रह पंक्तियों वाला प्रसिद्ध शिलालेख है। हाथीगुम्फा, भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि पहाड़ियों में है। इस शिलालेख के अनुसार वे जैन धर्म का अनुयायी थे।उन्होंने जैन समणो की एक विराट् सभा का भी आयोजन किया था, ऐसा उक्त प्रशस्ति से प्रकट होता है।

उनके समय के संबंध में मतभेद है। उ प्रशस्ति शिलालेख में जो संकेत उपलब्ध हैं उनके आधार पर कुछ विद्वान् उनका समय ईसा पूर्व दूसरी शती में मानते हैं और कुछ उन्हें ईसा पूर्व की प्रथम शती में रखते हैं। किंतु खारवेल को ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध में रखनेवाले विद्वानों की संख्या बढ़ रहीं है।

परिचय

मौर्य साम्राज्य की अवनति के पश्चात् कलिंग में चेदि राजवंश का उदय हुआ। अनुमान किया जाता है कि चेदि वंश बुंदेलखंड के चेदि वंश की ही कोई उपशाखा थी जो कलिंग में स्थापित हो गई थी। खारवेल इस वंश का तीसरा नरेश था और इसे 'कलिंग चक्रवर्ती' कहा जाता है। उदयगिरि में हाथीगुफा के ऊपर एक अभिलेख है जिसमें इसकी प्रशस्ति अंकित है। उस प्रशस्ति के अनुसार यह जैन धर्म का अनुयायी था।

हाथीगुफा के अभिलेख

उसे १० वर्ष की आयु में युवराज पद प्राप्त हुआ था तथा २४ वर्ष की अवस्था में वह महाराज पद पर आसीन हुआ। राज्यभार ग्रहण करने के दूसरे ही वर्ष सातकर्णि की उपेक्षा कर अपनी सेना दक्षिण विजय के लिए भेजी और मूषिक राज्य को जीत लिया। चौथे वर्ष पश्चिम दिशा की ओर उसकी सेना गई और भोजको ने उसकी अधीनता स्वीकर की, सातवें वर्ष उसने राजसूय यज्ञ किया। उसने मगध पर भी चढ़ाई की। उस समय मगध नरेश वृहस्पति मित्र था। इस अभियान में वह उस जिनमूर्ति को उठाकर वापस ले गया जिसे नंदराज अपने कलिंग विजय के समय ले आया था।

खारवेल, चेदि वंश और कलिंग के इतिहास के ही नहीं, पूरे प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में से है। हाथीगुंफा के अभिलेख के विवरण में अतिशयोक्ति की संभावना के पश्चात्‌ भी जो शेष बचता है, उससे स्पष्ट है कि खारवेल असाधारण योग्यता का सेनानायक था और उसने कलिंग की जैसी प्रतिष्ठा बना दी वैसी बाद की कई शताब्दियों संभव नहीं हुई।

15 वर्ष की आयु तक खारवेल ने राजोचित विद्याएँ सीखीं। 16वें वर्ष में वह युवराज बना। 24वें वर्ष में उसका राज्याभिषेक हुआ। सिंहासन पर बैठते ही उसने दिग्विजय प्रारंभ की। शासन के दूसरे वर्ष में उसने सातकर्णि (सातवाहन नरेश सातकर्णि प्रथम) का बिना विचार किए एक विशाल सेना पश्चिम की ओर भेजी जो कण्णवेंणा नदी (कृष्णा) पर स्थित असिक नगर (ऋषिक नगर) तक गई थी। चौथे वर्ष में उसने विद्याधर नाम के एक राजा की राजधानी पर अधिकार कर लिया और राष्ट्रिक तथा भोजों को पराभूत किया, जो संभवत: विदर्भ में राज्य करते थे। आठवें वर्ष में उसने बराबर पहाड़ी पर स्थित गोरथगिरि के दुर्ग का ध्वंस किया और राजगृह को घेर लिया। इस समाचार से एक यवनराज के हृदय में इतना भय उत्पन्न हुआ कि वह मथुरा भाग गया। 10वें वर्ष में उसने भारतवर्ष (गंगा की घाटी) पर फिर से आक्रमण किया। 11वें वर्ष में उसकी सेना ने पिथुंड को नष्ट किया और विजय करती हुई वह पांड्य राज्य तक पहुँच गई। 12वें वर्ष उसने उत्तरापथ पर फिर आक्रमण किया और मगध के राजा बहसतिमित (बृहस्त्स्वातिमित्र) को संभवत: गंगा के तट पर पराजित किया। उसकी इन विजयों के कारण उसकी रानी के अभिलेख में उसके लिए प्रयुक्त चक्रवर्तिन्‌ शब्द उपयुक्त ही है।

खारवेल जैन था। उसने और उसकी रानी ने जैन भिक्षुओं के निर्वाह के लिए व्यवस्था की और उनके आवास के लिए गुफाओं का निर्माण कराया। किंतु वह धर्म के विषय में संकुचित दृष्टिकोण का नहीं था। उसने अन्य सभी देवताओं के मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया। वह सभी संप्रदायों का समान आदर करता था।

खारवेल का प्रजा के हित का सदैव ध्यान रहता था और उसके लिए वह व्यय की चिंता नहीं करता था। उसने नगर और गाँवों की प्रजा का प्रिय बनने के लिए उन्हें करमुक्त भी किया था। पहले नंदराज द्वारा बनवाई गई एक नहर की लंबाई उसने बढ़वाई थी। उसे स्वयं संगीत में अभिरुचि थी और जनता के मनोरंजन के लिये वह नृत्य और सगीत के समारोहों का भी आयोजन करता था। खारवेल को भवननिर्माण में भी रुचि थी। उसने एक भव्य 'महाविजय-प्रासाद' नामक राजभवन भी बनवाया था।

खारवेल के पश्चात्‌ चेदि राजवंश के संबंध में हमें कोई सुनिश्चित बात नहीं ज्ञात होती। संभवत: उसके उत्तराधिकारी उसके राज्य को स्थिर रखने में भी अयोग्य थे जिससे शीघ्र ही साम्राज्य का अंत हो गया।

पूर्वज

हाथीगुमफा के अभिलेखों के अनुसार खारवेल महामेघवाहन का वंशज था। [१] किन्तु इसमें यह नहीं लिखा है कि खारवेल और महामेघवाहन में क्या सम्बन्ध था अथवा उन दोनों के बीच में कुल कितने राजा हुए।[२] भगवान लाल ने शिलालेख के आधार पार निम्नलिखित कुलवृक्ष बनाया है:[१]

                                          ललक
                                                    │
                                           │
            खेमराज                               |
         (उपाख्य क्षेमराज)                    अज्ञात 
                 │                            │
            वुधराज                             हस्तिसह
          (या, वृद्धराज)                   (या, हस्तिसिंह)
              │                            │
              │                            │
            खारवेल                               |
      (या, भिकु / भिक्षुराज )───────┼──────────पुत्री 
                                     │
                               │
                              वक्रदेव
                               (या, कुदेपसिरि)
                                │
                                │
                               वदुख 
                                  (या, बदुख)

धर्म

हाथिगुंफा अभिलेख अरिहंत और सिद्धों को नमस्कार करने से शुरू होता है[३] जो नमस्कार महामंत्र की तरह है जिसमें तीन और पदो को नमस्कार किया गया हैं। यह अभिलेख उल्लेख मिलता है कि राजा खारवेल ने अग्रजिन की एक मूर्ति कलिंग में वापस लाई। बोहोत से इतिहासकार अग्रजिन को भगवान ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर) मानते हैं।[४] इस प्रकार राजा खारवेल को जैन धर्म का अनुयाई माना जाता हैं।

सन्दर्भ

  1. साँचा:cite book
  2. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Sailendra_1999 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  3. साँचा:cite book
  4. साँचा:cite book

इन्हें भी देखें