वैयाकरण

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पाणिनि

वैयाकरण (अंग्रेजी:Grammarian) ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जो व्याकरण का विशेषज्ञ हो तथा इस विषय पर पूरा अधिकार रखता हो।

प्राचीन समय के वैयाकरण

पाणिनि (लगभग ५०० ई॰ पू॰) संस्कृत के सबसे प्रसिद्ध तथा सम्मानित वैयाकरण हुये हैं। उनका ग्रन्थ अष्टाध्यायी संस्कृत व्याकरण का सबसे प्रतिष्ठित ग्रन्थ है। पाणिनि के पूर्ववर्ती वैयाकरणों में यास्क, शाकटायन, शौनक, शाकल्य, स्फोटायन आदि हुये हैं।

पाणिनि के परवर्ती वैयाकरणों में कात्यायन मुनि, पतंजलि मुनि आदि शामिल हैं। कात्यायन मुनि ने लगभग ३५० ई॰ पू॰ में टिप्पणी रूप में वार्तिक लिखे। तत्पश्चात पतंजलि मुनि ने १५० ई॰ पू॰ के लगभग अष्टाध्यायी पर महाभाष्य नाम से भाष्य लिखा। व्याकरण शास्त्र में पाणिनि, कात्यायन तथा पंतजलि को त्रिमुनि अथवा मुनित्रय कहा गया है।

इसके अतिरिक्त वामन और जयादित्य ने मिलकर ६०० ई॰ के लगभग काशिकावृति की रचना की। यह अष्टाध्यायी की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या मानी जाती है। रामचन्द्र (११०० ई॰) ने प्रक्रिया कौमुदी तथा भट्टोजि दीक्षित ने सिद्धान्त कौमुदी नामक प्रक्रिया ग्रन्थों की रचना की। सिद्धान्त कौमुदी की शैली पर मध्यसिद्धान्तकौमुदी की रचना हुयी और वरदराज ने कुछ आवश्यक नियमों को ध्यान में रखते हुये लघुसिद्धान्तकौमुदी की रचना की।

बाद में व्याकरण के दर्शन पक्ष पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये। ६०० ई॰ के लगभग भर्तृहरि ने वाक्यपदीय लिखा। इसके अतिरिक्त इनकी महाभाष्यदीपिका भी व्याकरण का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसी परम्परा में १६५० ई॰ के लगभग कौण्डभट्ट का वैयाकरणभूषणसार और नागेशभट्ट की १७०० ई॰ के लगभग रचित वैयाकरणसिद्धान्त लघुमंजूषा प्रसिद्ध है।

पाणिनी की अष्टाध्यायी परम्परा के अतिरिक्त भी कुछ आचार्यों के नाम से व्याकरण सम्प्रदाय प्रचलित हुये। इनमें कातन्त्र, चान्द्र, शाकटायन, हैम, सारस्वत तथा सौपद्म प्रमुख हैं।

कुछ अन्य पुराने वैयाकरण हैं-

आधुनिक समय के कुछ वैयाकरण

हिन्दी के वैयाकरण

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व्याकरण के कुछ पश्चिमी विद्वान

कुछ पश्चिमी विद्धानों ने भी हिन्दी एवं संस्कृत व्याकरण सम्बंधी कुछ पुस्तकें लिखी। यद्यपि इनको वैयाकरणों की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता परन्तु विषय से सम्बन्धित होने से उनका नाम भी नीचे दिया जा रहा है।

इन्हें भी देखें