वैदिक व्याकरण
संस्कृत का सबसे प्राचीन (वेदकालीन) व्याकरण 'वैदिक व्याकरण' कहलाता है। यह पाणिनीय व्याकरण से कुछ भिन्न था।
परिचय
संस्कृत में लिखित बृहद् साहित्य के मुख्यतः दो खण्ड हैं - वैदिक साहित्य और लौकिक साहित्य। वैदिक साहित्य के मुख्यतः पाँच विभाग हैं-
- (1) संहिताएं (सूक्तों के संग्रह) (2) ब्राह्मण, (3) अरण्यक (4) उपनिषद (5) कल्पसूत्र
कल्पसूत्र जो प्रधानतः तीन प्रकार के हैं,
- (क) श्रौतसूत्र, जो यज्ञों से सम्बन्धित हैं,
- (ख) गृह्यसूत्र, जिनका गृह के विधानों से सम्बन्ध है,
- (ग) धर्मसूत्र, जो सामाजिक नियमों एवं व्यवहारों से सम्बन्धित हैं।
ये तीन प्रकार के सूत्र ‘कल्पसूत्र’ के अन्तर्गत लिए जाते हैं। इनके अतिरिक्त हैं- शुल्वसूत्र जो यज्ञवेदी सम्बन्धी रेखाणित रूपों का नियोजन करते हैं और इस कारण कभी-कभी कल्पसूत्रों के ही भीतर गिने जाते हैं। उपर्युक्त कल्पसूत्रों के अतिरिक्त कुछ और भी ग्रंथ हैं जिनका सम्बन्ध ध्वनि, विज्ञान, व्याकरण, छन्द और नक्षत्रविद्या से है। यह ग्रन्थ वेदांगों में परिगणित होते हैं। ये ग्रन्थ भी सूत्र-शैली में ही मिलते हैं और इनका समय है वैदिक एवं लौकिक संस्कृत का सन्धिकाल।
वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में भेद
लौकिक संस्कृत-साहित्य का वैदिक साहित्य से अनेक प्रकार का भेद पाया जाता है। वैदिक साहित्य शुद्धतः धार्मिक है तथा इस में सभी लौकिक तत्त्वों का बीज समाहित है। लौकिक संस्कृत साहित्य प्रधान रूप से धार्मिक-धर्मनिरपेक्ष, अथवा धर्म में इसे लोक-परलोक से ही सम्बन्धित कहा जा सकता है। इस साहित्य में महाकाव्य (रामायण एवं महाभारत), पुराण एवं अन्य काव्य (जिनमें गद्य काव्य भी सम्मिलित हैं) नाटक, अलंकारशास्त्र, दर्शन, सूत्र, विधि अथवा नियमकला, वास्तुशास्त्र, औषधि (आयुर्वेद), गणित, मशीन तथा उद्योग सम्बन्धी तथा अनेकों ग्रंथ और अन्य विभिन्न विद्याओं की शाखाएं भी प्राप्त होती हैं।
लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है। दोनों के शब्दरूप तथा धातुरूप अनेक प्रकार से भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं। इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं :-
(1) शब्दरूप की दृष्टि से उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे - देवाः, जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)। जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप देवासः, जनामः भी बनते हैं। इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है। तृतीया विभक्ति बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है। इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ भी प्राप्त होता है।
(2) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है। वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है तथा उसमें कुछ अन्य रूपों की उपलब्धि होती है। जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिं जोकि लट्प्रकृति अर्थात् वर्तमानकाल की धातु से बनते हैं। उदाहरणार्थ पठ् से पठतु और पठेत् ये दोनों बनते हैं। वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो अन्य लकार हैं- लेट् लकार एवं निषेधात्मक लुंलकार (Injunctive) (जो कि लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ से प्रदर्शित होता है और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है)। इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुं प्रकृति से भी बनते हैं। इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। इसके अतिरिक्त लिं प्रत्यय सम्बन्धी भेद वैदिक संस्कृत में पाये जाते हैं जैसे 'मिनीमसिभी' (लट्, उत्तम पुरुष, बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है। जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि।
(3) पुनश्च, लौकिक संस्कृत आगे चलकर अधिकाधिक कृत्रिम अथवा सुबद्ध होती गई है और इसके उदाहरण हमें सुबन्धु और बाणभटट के गद्यकाव्यों में प्रयुक्त भयावह समासों में मिलते हैं। इस कला में वह अपने क्षेत्र के अन्य गद्यकारों से अत्यन्त उत्कृष्ट हैं।
(4) कुछ वैदिक शब्द लौकिक संस्कृत में अप्राप्य हैं और कुछ नये शब्दों का उद्भव भी हो गया है। उदाहरणार्थ, वैदिक शब्द ‘अपस्’ का ‘कार्य’ के अर्थ में प्रयोग लौकिक संस्कृत में लुप्त हो गया है। लौकिक संस्कृत में प्रयुक्त ‘परिवार’ शब्द वैदिक संस्कृत में अनुपलब्ध है। यह वैदिक एवं लौकिक संस्कृत की अपनी विशेषता है।
शब्दार्थ विज्ञान की दृष्टि से कुछ शब्दों में एक विशिष्ट परिवर्तन हुआ है जैसे ‘ऋतु’ जिसका वैदिक संस्कृत में अर्थ है ‘शक्ति’ और लौकिक संस्कृत में उसका अर्थ 'यज्ञ’ हो गया है।
भाषा में परिवर्तन के अतिरिक्त दोनों साहित्यों में कुछ और भिन्नताएँ प्राप्य हैं-
(1) प्रथमतः, जैसा कि ऊपर कह चुके हैं, वैदिक साहित्य प्रधानतः धार्मिक है जब कि लौकिक संस्कृत अपने वर्ण्यविषय की दृष्टि से धर्म के साथ-साथ लौकिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बद्ध है।
(2) दोनों की आत्मा यद्यपि अभिन्न है तथापि अभिन्नता में भी भिन्नता के दर्शन होते हैं। वैदिक वाङ्मय, मुख्यतः जैसा कि ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में हमें प्राप्त होता है, आशावादी है जबकि लौकिक संस्कृत साहित्य निराशावादी है, इस निराशावाद की झलक बौद्धों के ‘सर्व दुःखं’ में भी है। बौद्धों के व्यवहार्यपक्ष ‘करुणा’ और ‘मैत्री’ का उद्घोष भी वैदिक साहित्य की मौलिकता है।
(3) वैदिक धर्म भी परवर्ती काल में अव्यक्त रूप से विशिष्ट परिवर्धित हुआ दिखाई देता है। यहाँ तक कि वैदिक युग के प्रधान देवता जैसे इन्द्र, अग्नि, वरुण को लौकिक संस्कृत में अपेक्षाकृत विशिष्टता प्राप्त नहीं हुई परन्तु ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों को वेदों में केवल गौण स्थान ही प्राप्त था, परवर्ती काल में इन्हें एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इस काल में कुछ नए देवी देवताओं- गणेश, कुबेर, लक्ष्मी और दुर्गा इत्यादि का भी वैदिक मूल से विकास हुआ।
(4) परवर्ती कवियों में (विशेषतः आठवीं और नवीं शताब्दी के बाद के) अत्युक्ति का आश्रय ग्रहण करने की ओर अधिक झुकाव है, जैसे माघ, श्रीहर्ष आदि में जबकि पूर्ववर्ती कवियों जैसे अश्वघोष (बौद्ध कवि), भास और कालिदास में अत्युक्ति का अभाव है। वैदिक वाङ्मय में अत्युक्ति का महा अभाव है।
(5) लौकिक संस्कृति में छन्दोबद्ध रूपों के प्रयोगों की ओर हमें एक विशिष्ट आग्रह दिखायी देता है। वैदिक युग में भी छन्दोबद्ध रूपों का आधिक्य मिलता है, किन्तु वहां विशेषतः यज्ञ सम्बन्धी साहित्य में गद्य का भी प्रयोग हुआ, जैसे यजुर्वेद और ब्राह्मणों में। लौकिक संस्कृत काल में छन्दोबद्ध रूपों के प्रयोग की ओर इतना अधिक झुकाव है कि यहाँ तक कि वैद्यक ग्रन्थ (चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता इत्यादि) भी पद्य में ही लिखे गये। आश्चर्य तो इस बात से होता है कि कोशों की रचना (जैसे अमरकोश) भी छन्दों में ही हुई। कुछ आगे चलकर परवर्ती काल में बाण और सुबन्धु ने गद्य काव्यों के लेखन की शैली का विकास किया, जो बड़े-बड़े समासों से मिश्रित होने के कारण अत्यन्त कृत्रिम कही जाती है। इसके अतिरिक्त पूर्ववर्ती काल में सूत्र-रूप में दार्शनिक ग्रंथों को लिखने की प्रणाली का भी प्रचलन हुआ।
आगे चलकर हमें छन्दों की प्रणाली का भी एक परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। वैदिक छन्द जगती, त्रिष्टुभ, अनुष्टुभ तो लौकिक संस्कृत में सर्वथा अनुपलब्ध है। जबकि लौकिक संस्कृत के छन्द वंशस्थ, उपेन्द्रवज्रा, शिखरिणी आदि वेदों में पूर्णतः अप्राप्य हैं। हां, यह अवश्य सच है कि लौकिक संस्कृत में प्रयुक्त श्लोक छन्द वैदिक अनुष्टुभ् छन्द का ही रूप हैं।
वैदिक एवं लौकिक संस्कृत की भिन्नताओं की ओर दृष्टिपात करते हुए यह ध्यान देना आवश्यक है कि सिद्धांत की दृष्टि से दोनों एक दूसरे से काफी मिलती-जुलती हैं। वेदों में कुछ और अधिक ध्वनियाँ मिलती हैं, जैसे कि ळ’। अन्य ध्वनि-सिद्धान्त दोनों के समान ही हैं और उनमें कोई भी वैसा अन्तर नहीं दिखायी देता जैसा कि प्राकृत बोलियों में हमें प्राप्त होता है।
व्याकरण
अ-कार
अ-कार संज्ञा का सबसे बड़ा वर्ग है। नियमानुसार इस वर्ग से सम्बन्धित संज्ञाएँ हृस्व- अ पर खत्म होती हैं, या तो पु॰ या फ़िर नपुस॰. दीर्घ-आ पर खत्म होने वाली संज्ञाएँ अधिकतर स्त्री॰ होते हैं। यह वर्ग बहुत बड़ा है क्योँकि इसमें प्राक्-हिंद-यूरोपीयाई ओ-कार भी सम्मिलित है।
पु॰ (वीर 'आदमी, पति, बहादुर') | नपुस॰ (दिन 'वार या दिवस') | स्त्री॰ (भार्या 'औरत, पत्नी') | |||||||
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एक॰ | द्वि॰ | बहु॰ | एक॰ | द्वि॰ | बहु॰ | एक॰ | द्वि॰ | बहु॰ | |
कर्ता | वीरस् | वीराउ | वीरास् (अस्) | दिनम् | दिनइ | दिनानि | भार्या | भार्यइ | भार्यास् |
संबोधन | वीर! | वीराउ! | वीरास्! | दिन! | दिनइ! | दिनानि! | भार्या! | भार्यइ! | भार्यास्! |
कर्म | वीरम् | वीराउ | वीरान् | दिनम् | दिनइ | दिनानि | भार्याम् | भार्यइ | भार्यास् |
करण | वीरइना | वीराभ्याम् | वीराइस् | दिनइना | दिनाभ्याम् | दिनाइस् | भार्याया | भार्याभ्याम् | भार्याभिस् |
संप्रदान | वीराय (इ) | वीराभ्याम् | वीरइभ्यस् | दिनाय (इ) | दिनाभ्याम् | दिनइभ्यस् | भार्यायाइ | भार्याभ्याम् | भार्याभ्यस् |
आपादान | वीरात् | वीराभ्याम् | वीरइभ्यस् | दिनात् | दिनाभ्याम् | दिनइभ्यस् | भार्यायास् | भार्याभ्याम् | भार्याभ्यस् |
संबंध | वीरस्य (स्) | वीरयउस् | वीरानाम् | दिनस्य (स्) | दिनयउस् | दिनानाम् | भार्यायास् | भार्ययउस् | भार्यानाम् |
अधिकरण | वीरइ | वीरयउस् | वीरइषु | दिनइ | दिनयउस् | साँचा:transl दिनइषु | भार्यायाम् | भार्ययउस् | भार्यासु |
Samato
पुल्लिंग (पति) | नपुंसकलिंग (वारि 'पानी') | स्त्रीलिंग (मति 'सोच') | |||||||
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एकवचन | द्विवचन | बहुवचन | एकवचन | द्विवचन | बहुवचन | एकवचन | द्विवचन | बहुवचन | |
कर्ता | पतिस् | पती | पतयस् | वारि | वारिणी | वारीणि | मतिस् | मती | मतयस् |
संबोधन | पतइ! | पती! | पतयस्! | वारि, वारइ! | वारिणी! | वारीणि! | मतइ! | मती! | मतयस्! |
कर्म | पतिम् | पती | पतीन् | वारि | वारिणी | वारीणि | मतिम् | मती | मतीस् |
करण | पतिना | पतिभ्याम् | पतिभिस् | वारिणा | वारिभ्याम् | वारिभिस् | मत्या | मतिभ्याम् | मतिभिस् |
संप्रदान | पतयइ | पतिभ्याम् | पतिभ्यस् | वारिणइ | वारिभ्याम् | वारिभ्यस् | मत्याइ | मतीभ्याम् | मतिभ्यस् |
आपादान | पतइस् | पतिभ्याम् | पतिभ्यस् | वारिणस् | वारिभ्याम् | वारिभ्यस् | मत्यास् | मतिभ्याम् | मतिभ्यस् |
संबंध | पतइस् | पत्यउस् | पतीनाम् | वारिणस् | वारिणउस् | वारिणाम् | मत्यास् | मत्यउस् | मतीनाम् |
अधिकरण | पताउ | पत्यउस् | पतिषु | वारिणि | वारिणउस् | वारिषु | मत्याम् | मत्यउस् | मतिषु |
उ-कार
पु. (वायु 'हवा') | नपुस. (मधु 'शहद') | स्त्री. (शत्रु 'वह दुश्मन औरत') | |||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
एक | द्वि | बहु | एक | द्वि॰ | बहु॰ | एक॰ | द्वि॰ | बहु॰ | |
कर्ता | वायुस् | वायू | वायवस् | मधु | मधुनी | मधूनी | शत्रुस् | शत्रू | शत्रवस् |
संबोधन | वायउ! | वायू! | वायवस्! | मधु! | मधुनी! | मधूनि! | शत्रउ! | शत्रू! | शत्रवस्! |
कर्म | वायुम् | वायू | वायून् | मधु | मधुनी | मधूनि | शत्रुम् | शत्रू | शत्रूस् |
करण | वायुऩा | वायुभ्याम् | वायुभिस् | मधुना | मधुभ्याम् | मधुभिस् | शत्र्वा | शत्रुभ्याम् | शत्रुभिस् |
संप्रदान | वायवइ | वायुभ्याम् | वायुभ्यस् | मधुनइ | मधुभ्याम् | मधुभ्यस् | शत्र्वाइ | शत्रुभ्याम् | शत्रुभ्यस् |
अपादान | वायउस् | वायुभ्याम् | वायुभ्यस् | मधुनस् | मधुभ्याम् | मधुभ्यस् | शत्र्वास् | शत्रुभ्याम् | शत्रुभ्यस् |
संबंध | वायउस् | वाय्वउस् | वायूनाम् | मधुनस् | मधुनउस् | मधूनाम् | शत्र्वास् | शत्र्वउस् | शत्रूऩाम् |
अधिकरऩ | वायाउ | वाय्वउस् | वायुषु | मधुनि | मधुनउस् | मधुषु | शत्र्वॅम | शत्र्वउस् | शत्रुषु |
ऋ-कार
ऋ-कार का प्रयोग ऋ अंत वाले शब्दोँ जैसे नपुसक. दातृ 'देनेवाला', पु. पितृ 'बाप', नप्तृ 'भतीजा' और स्त्री. मातृ 'माँ', दुहितृ 'बेटी' और स्वसृ 'बहन'.
पु. (पितृ 'बाप') | नपुसंक. (दातृ 'देने वाला') | स्त्री. (मातृ 'माँ') | |||||||
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एक | द्वि | बहु | एक | द्वि | बहु | एक | द्वि | बहु | |
कर्ता | पिता | पितराउ | पितरस् | दातृ | दातृणी | दातृणि | माता | माताराउ | मातारस् |
संबोधन | पीतर्! | पितराउ! | पितरस्! | दातृ! | दातृणी! | दातृणि! | मातार! | माताराउ! | मातारस्! |
कर्म | पितरम् | पितराउ | पितृन् | दातृ | दातृणी | दातृणि | मातारम् | माताराउ | मातृस् |
करण | पित्रा | पितृभ्याम् | पितृभिस् | दातृणा | दातृभ्याम् | दातृभिस् | मातारा | मातृभ्याम् | मातृभिस् |
संप्रदान | पित्रइ | पितृभ्याम् | पितृभ्यस् | दातृणइ | दातृभ्याम् | दातृभ्यस् | मातारइ | मातृभ्याम् | मातृभ्यस् |
अपादान | पितुर, पित्रस् | पितृभ्याम् | पितृभ्यस् | दातृणस् | दातृभ्याम् | दातृभ्यस् | मातारस् | मातृभ्याम् | मातृभ्यस् |
संबंध | पितुर, पित्रस् | पित्रउस् | पितृणाम् | दातृणस् | दातृणउस् | दातृणाम् | मातारस् | मातरउस् | मातृणाम् |
अधिकरण | पितरि | पित्रउस् | पितृषु | दातृणि | दातृणउस् | दातृषु | माताराम् | मातरउस् | मातृषु |
ध्वनिशास्त्र
जैसे होमेरिक ग्रीक क्लासिकल ग्रीक से भिन्न है वैसै ऋग्वैदिक भाषा संस्कृत भाषा से भिन्न है। तिवारी ([1955] 2005) ने दोनोँ के बीच अंतर को निम्न सिद्धांत स्वरूप सूचित किया:
- ऋग्वैदिक भाषा में voiceless bilabial fricative ([ɸ], जो उपधमानीय कहलाता था और एक अघोष वर्त्य संघर्षी voiceless velar fricative ([x], यानि ख़ जो जिह्वामूलीय कहलाता था)—यह तब प्रयोग होता है जब श्वास विसर्ग अः क्रमशः अघोष ओष्ठ्य और velar व्यंजनोँ के ठीक पहले आता है। दोनोँ ही संस्कृत में लुप्त हो गए और विसर्ग बन गए। उपधमानीय पसाँचा:transl और फसाँचा:transl, जिह्वामूलीय कसाँचा:transl और खसाँचा:transl से ठीक पहले आता है।
- ऋग्वैदिक भाषा में retroflex lateral approximant ळ([ ɭ ]) और इसका बलाघाती सहायक [ɭʰ] ळ्ह भी, संस्कृत में लुप्त हो गए, [ɖ] (ड़) और [ɖʱ] (ढ़) में बदल गए। (क्षेत्रानुसार; वैदिक उच्चारण अभी तक कुछ क्षेत्रोँ में मौलिक हैँ, जैसे. दक्षिण भारत,गढ़वाल, महाराष्ट्र सहित.)
- अक्षरात्मक [ɻ̩] (ऋ), [l̩] (लृ) और उनके दीर्घ स्वर उत्तर ऋग्वैदिक काल में लुप्त हो गए। बाद में [ɻi] (रि) और [li] (ल्रि) के रूप उच्चारित होने लगा.
- स्वर e (ए) और o (ओ) वैदिक में अइ [ai] और अउ [au] रूप में उच्चारित हो, पर बाद में संस्कृत में ये पूर्ण शुद्ध ए [eː] और ओ [oː] हो गए।.
- स्वर ai (ऐ) और au (औ) वैदिक में [aːi] (आइ) और [aːu] (आउ) हो गए, पर संस्कृत मे ये [ai] (अइ) और [au] (अउ) हो गए।
- प्रातिशाख्यस् का दावा है कि दंत्य व्यंजन वस्तुतः दाँतोँ की जड़ (दंतमूलीय) थे, पर बाद में पूर्ण दंत्य हो गए। इसमें [r] र भी है जो बाद में retroflex हो गया।
- वैदिक में सुर का बड़ा महत्व था जो कभी भी शब्द का अर्थ बदल देता था और पाणिनि से पहले तक सुरक्षित था। आजकल, सुरभेद केवल पारंपरिक वैदिक में पाया जाता है, बजाय इसके संस्कृत एक राग भेदी भाषा है।
- प्लुत् स्वर या (त्रैमात्रिक स्वर) वैदिक में ध्वन्यात्मक थे पर संस्कृत में लुप्त हो गए।
- वैदिक में प्राय संधि के दौरान दो स्वर बिना विकार के उच्चारित होते हैं।
रूपविज्ञान
संज्ञा और विशेषण के लिए आधारभूत शब्दरूप प्रत्यय पद्धति
आधारभूत पद्धति नीचे तालिका में दी गई है — लगभग सभी संज्ञाओँ और विशेषणोँ के लिए वैध और तर्कसंगत. फिर भी, लिंग और शब्दमूल के अंतिम व्यंजन/स्वर अनुसार, अनिवार्य संधि के कुछ पुर्वनिर्धारित सुत्र हैं जो अंतिम सर्वमान्य शब्द को बनाते हैँ. नपुसकलिंग के लिए अलग से प्रत्यय दिए गए होएंगे, बाकि के पु॰ और स्त्री॰ के लिए होएंगे. जहाँ दो या तीन रूप दिए होंगे वहाँ पहला पु॰ (और नपुस॰), पर दुसरा और तीसरा स्त्री॰ होगा.
एकवचन | द्विवचन | बहुवचन | |
---|---|---|---|
कर्ता | -स् (-म्) | -आउ, -ई, -ऊ (-नी) | -अस् (-नि) |
संबोधन | -स् (-) | -आउ, -ई, -ऊ (-नी) | -अस् (-नी) |
कर्म | -अम् (-म्) | -आउ, -ई, -ऊ (-नी) | -न्, -अस् (-नी) |
करण | -ना, -या | -भ्याम् | -भिस् |
संप्रदान | -अइ | -भ्याम् | -भ्यस् |
आपादान | -अस् | -भ्याम् | -भ्यस् |
संबंद्ध | -अस् | -अउस् | -नाम् |
अधिकरण | -इ, -आम् | -अउस् | -षु |