मगध महाजनपद
मगध प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। आधुनिक पटना तथा गया जिला इसमें शामिल थे। इसकी राजधानी गिरिव्रज (वर्तमान राजगीर) पाटलिपुुुत्र थी। भगवान बुद्ध के पूर्व बृहद्रथ तथा जरासंध यहाँ के प्रतिष्ठित राजा थे।[१] अभी इस नाम से बिहार में एक प्रंमडल है - मगध प्रमंडल।
मगध का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्व वेद में मिलता है। अभियान चिन्तामणि के अनुसार मगध को कीकट कहा गया है।
मगध बुद्धकालीन समय में एक शक्तिशाली राजतन्त्रों में से एक था। यह दक्षिणी बिहार में स्थित था जो कालान्तर में उत्तर भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली महाजनपद बन गया। यह गौरवमयी इतिहास और राजनीतिक एवं धार्मिकता का विश्व केन्द्र बन गया।
मगध महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक, पूर्व में चम्पा से पश्चिम में सोन नदी तक विस्तृत थीं।
मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह थी। यह पाँच पहाड़ियों से घिरा नगर था। कालान्तर में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई। मगध राज्य में तत्कालीन शक्तिशाली राज्य कौशल, वत्स व अवन्ति को अपने जनपद में मिला लिया। इस प्रकार मगध का विस्तार अखण्ड भारत के रूप में हो गया और प्राचीन मगध का इतिहास ही भारत का इतिहास बना।
मगध साम्राज्य का उदय
मगध राज्य का विस्तार उत्तर में गंगा, पश्चिम में सोन तथा दक्षिण में जगंलाच्छादित पठारी प्रदेश तक था। पटना और गया जिला का क्षेत्र प्राचीनकाल में मगध के नाम से जाना जाता था।
मगध प्राचीनकाल से ही राजनीतिक उत्थान, पतन एवं सामाजिक-धार्मिक जागृति का केन्द्र बिन्दु रहा है। मगध बुद्ध के समकालीन एक शक्तिकाली व संगठित राजतन्त्र था। कालान्तर में मगध का उत्तरोत्तर विकास होता गया और मगध का इतिहास (भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास के प्रमुख स्तम्भ के रूप में) सम्पूर्ण भारतवर्ष का इतिहास बन गया।
प्राचीन मगध
प्रथम मगध राजवंश
"कुरु द्वितीय" का पुत्र सुधन्वा अपने मामा "राजा मगध" के बाद मगध का राजा बना। राजा मगध ने मगध साम्राज्य की स्थापना की। सुधन्वा राजा मगध का भतीजा था।
- शासकों की सूची –
- महाराजा मगध, राजवंश के संस्थापक
- महाराजा सुधन्वा
- महाराजा सुधनु
- महाराजा प्रारब्ध
- महाराजा सुहोत्र
- महाराजा च्यवन
- महाराजा चवाना
- महाराजा कृत्री
- महाराजा कृति
- महाराजा क्रत
- महाराजा कृतग्य
- महाराजा कृतवीर्य
- महाराजा कृतसेना
- महाराजा कृतक
- महाराजा प्रतिपदा
- महाराजा उपरिचार वसु, राजवंश के अंतिम शासक और बृहद्रथ के पिता थे
बृहद्रथ राजवंश (1700–682 ई.पू)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
यह सबसे प्राचीनतम राजवंश था। महाभारत तथा पुराणों के अनुसार जरासंध के पिता तथा चेदिराज वसु के पुत्र ब्रहद्रथ ने ब्रहद्रथ वंश की स्थापना की। इस वंश में दस राजा हुए जिसमें ब्रहद्रथ पुत्र जरासंध एवं प्रतापी सम्राट था। जरासंध ने काशी, कौशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, कश्मीर और गांधार राजाओं को पराजित किया।
मथुरा शासक कंस ने जरासंध की दो पुत्रियों अस्ति और प्रप्ति से शादी की थी तथा ब्रहद्रथ वंश की राजधानी वशुमति या गिरिव्रज या राजगृह को बनाई। भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से पाण्डव पुत्र भीम ने जरासंध को द्वन्द युद्ध में मार दिया। उसके बाद उसके पुत्र सहदेव को शासक बनाया गया। इस वंश का अन्तिम राजा रिपुन्जय था। रिपुन्जय को उसके दरबारी मंत्री पूलक ने मारकर अपने पुत्र को राजा बना दिया। इसके बाद एक अन्य दरबारी ‘महीय’ ने पूलिक और उसके पुत्र की हत्या कर अपने पुत्र बिम्बिसार को गद्दी पर बैठाया। ईसा पूर्व ६०० में ब्रहद्रथ वंश को समाप्त कर एक नये राजवंश की स्थापना हुई। पुराणों के अनुसार मनु के पुत्र सुद्युम्न के पुत्र का ही नाम “गया" था।
- शासकों की सूची –
- बृहद्रथ, राजवंश के संस्थापक
- जरासंध
- सहदेव
- मारजारी (1545–1501)
- श्रुतसर्व (1501–1430)
- अप्रतिपा (1430–1345)
- निरमित्र (1345–1249)
- सक्षत्र (1249–1166)
- बृहत्कर्मा (1166–1100)
- साइनाजित (1100–1090)
- श्रीतमजय (1090–1053)
- महाबला (1053–1005)
- सुच्ची (1005–998)
- क्षेम्य (998–943)
- अंहव्रत (943–901)
- धर्मनमित्रा (901–872)
- निर्व्रती (872–818)
- सुव्रत (818–796)
- महासेना (796–770)
- सुमिता (770–745)
- सुबाला (745–735)
- सुनेत्र (735–728)
- सत्यजिता (728–720)
- विश्वजीत (720–699)
- रिपुंज्या (699–682)
(बृहद्रथ वंश का अंतिम शासक)
प्राचीन गणराज्य (1200–450 ई.पू)
प्राचीन बिहार में गंगा घाटी में लगभग १० गणराज्यों का उदय हुआ। ये गणराज्य हैं-
- कपिलवस्तु के शाक्य
- सुमसुमार पर्वत के भर्ग
- केसपुत्र के कालाम
- रामग्राम के कोलिय
- कुशीमारा के मल्ल
- पावा के मल्ल
- पिप्पलिवन के मौर्य
- आयकल्प के बुलि
- वैशाली के लिच्छवि
- मिथिला के विदेह
वैशाली के लिच्छवी
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
बिहार में स्थित प्राचीन गणराज्यों में बुद्धकालीन समय में सबसे बड़ा तथा शक्तिशाली राज्य था। इस गणराज्य की स्थापना सूर्यवंशीय राजा इक्ष्वाकु के पुत्र विशाल ने की थी, जो कालान्तर में ‘वैशाली’ के नाम से विख्यात हुई।
- महावग्ग जातक के अनुसार लिच्छवि वज्जि का एक धनी समृद्धशाली नगर था। यहाँ अनेक सुन्दर भवन, चैत्य तथा विहार थे।
- लिच्छवियों ने महात्मा बुद्ध के निर्वाण हेतु महावन में प्रसिद्ध कतागारशाला का निर्माण करवाया था।
- राजा चेतक की पुत्री चेलना का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार से हुआ था।
- ईसा पूर्व ७वीं शती में वैशाली के लिच्छवि राजतन्त्र से गणतन्त्र में परिवर्तित हो गया।
- विशाल ने वैशाली शहर की स्थापना की। वैशालिका राजवंश का प्रथम शासक "नमनेदिष्ट" था, जबकि अन्तिम राजा सुति या प्रमाति था। इस राजवंश में २४ राजा हुए हैं।
अलकप्प के बुलि
यह प्राचीन गणराज्य बिहार के शाहाबाद, आरा और मुजफ्फरपुर जिलों के बीच स्थित था। बुलियों का बैठ द्वीप (बेतिया) के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। "बेतिया" बुलियों की राजधानी थी। बुलि लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके अवशेष को प्राप्त कर एक स्तूप का निर्माण करवाया था।
प्रद्योत राजवंश (682–544 ई.पू)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
प्रद्योत वंश प्राचीन भारत का एक राजवंश था, जिसका शासन अवन्ति पर था। इसके संस्थापक प्रद्योत थे जो सुनीक (भविष्यपुराण, १.४ के अनुसार शुनक अथवा क्षेमक) के पुत्र (वायुपुराण) थे। प्रद्योत म्लेच्छों (हारहूण, बर्बर, यवन, खस, शक, कामस आदि) से अपने पिता का प्रतिशोध लेने के लिये म्लेच्छयज्ञ करने के कारण म्लेच्छहंता कहलाए।
- शासकों की सूची –
- प्रद्योत महासेना (682–659), (रिपुंज्या की हत्या करने के बाद राजवंश की स्थापना की)
- पलक (659–635)
- विशाखयूप (635–585)
- अजक (राजक) (585–564)
- वर्तिवर्धन (564–544)
(प्रद्योत वंश का अंतिम शासक)[२]
हर्यक राजवंश (545–412 ई.पू)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
बिम्बिसार ने हर्यक वंश की स्थापना ५४४ ई. पू. में की। इसके साथ ही राजनीतिक शक्ति के रूप में बिहार का सर्वप्रथम उदय हुआ। बिम्बिसार को मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक/राजा माना जाता है। बिम्बिसार ने गिरिव्रज (राजगीर) को अपनी राजधानी बनायी। इसके वैवाहिक सम्बन्धों (कौशल, वैशाली एवं पंजाब) की नीति अपनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
- बिम्बिसार (544–492 ई.पू.)–
बिम्बिसार एक कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शी शासक था। उसने प्रमुख राजवंशों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर राज्य को फैलाया।
सबसे पहले उसने लिच्छवि गणराज्य के शासक चेतक की पुत्री चेलना के साथ विवाह किया। दूसरा प्रमुख वैवाहिक सम्बन्ध कौशल राजा प्रसेनजीत की बहन []महाकौशला]] के साथ विवाह किया। इसके बाद भद्र देश की राजकुमारी क्षेमा के साथ विवाह किया।
महावग्ग के अनुसार बिम्बिसार की ५०० रानियाँ थीं। उसने अवंति के शक्तिशाली राजा चन्द्र प्रद्योत के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाया। सिन्ध के शासक रूद्रायन तथा गांधार के मुक्कु रगति से भी उसका दोस्ताना सम्बन्ध था। उसने अंग राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था वहाँ अपने पुत्र अजातशत्रु को उपराजा नियुक्त किया था।
बिम्बिसार महात्मा बुद्ध का मित्र और संरक्षक था। विनयपिटक के अनुसार बुद्ध से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया, लेकिन जैन और ब्राह्मण धर्म के प्रति उसकी सहिष्णुता थी। बिम्बिसार ने करीब ५२ वर्षों तक शासन किया। बौद्ध और जैन ग्रन्थानुसार उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया था जहाँ उसका ४९२ ई. पू. में निधन हो गया।
- बिम्बिसार ने अपने बड़े पुत्र “दर्शक" को उत्तराधिकारी घोषित किया था।
- भारतीय इतिहास में बिम्बिसार प्रथम शासक था जिसने स्थायी सेना रखी।
- बिम्बिसार ने राजवैद्य जीवक को भगवान बुद्ध की सेवा में नियुक्त किया था।
- बौद्ध भिक्षुओं को निःशुल्क जल यात्रा की अनुमति दी थी।
- बिम्बिसार की हत्या महात्मा बुद्ध के विरोधी देवव्रत के उकसाने पर अजातशत्रु ने की थी।
- आम्रपाली–
यह वैशाली की नर्तकी एवं परम रूपवती काम कला प्रवीण वेश्या थी। आम्रपाली के सौन्दर्य पर मोहित होकर बिम्बिसार ने लिच्छवि से जीतकर राजगृह में ले आया। उसके संयोग से जीवक नामक पुत्ररत्न हुआ। बिम्बिसार ने जीवक को तक्षशिला में शिक्षा हेतु भेजा। यही जीवक एक प्रख्यात चिकित्सक एवं राजवैद्य बना। अजातशत्रु (४९२-४६० ई. पू.)- बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु मगध के सिंहासन पर बैठा। इसके बचपन का नाम कुणिक था। वह अपने पिता की हत्या कर गद्दी पर बैठा। अजातशत्रु ने अपने पिता के साम्राज्य विस्तार की नीति को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया।
अजातशत्रु के सिंहासन मिलने के बाद वह अनेक राज्य संघर्ष एवं कठिनाइयों से घिर गया लेकिन अपने बाहुबल और बुद्धिमानी से सभी पर विजय प्राप्त की। महत्वाकांक्षी अजातशत्रु ने अपने पिता को कारागार में डालकर कठोर यातनाएँ दीं जिससे पिता की मृत्यु हो गई। इससे दुखित होकर कौशल रानी की मृत्यु हो गई।
- कौशल संघर्ष–
बिम्बिसार की पत्नी (कौशल) की मृत्यु से प्रसेनजीत बहुत क्रोधित हुआ और अजातशत्रु के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। पराजित प्रसेनजीत श्रावस्ती भाग गया लेकिन दूसरे युद्ध-संघर्ष में अजातशत्रु पराजित हो गया लेकिन प्रसेनजीत ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह कर काशी को दहेज में दे दिया।
- वज्जि संघ संघर्ष–
लिच्छवि राजकुमारी चेलना बिम्बिसार की पत्नी थी जिससे उत्पन्न दो पुत्री हल्ल और बेहल्ल को उसने अपना हाथी और रत्नों का एक हार दिया था जिसे अजातशत्रु ने मनमुटाव के कारण वापस माँगा। इसे चेलना ने अस्वीकार कर दिया, फलतः अजातशत्रु ने लिच्छवियों के खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया। वस्सकार से लिच्छवियों के बीच फूट डालकर उसे पराजित कर दिया और लिच्छवि अपने राज्य में मिला लिया।
- मल्ल संघर्ष–
अजातशत्रु ने मल्ल संघ पर आक्रमण कर अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बड़े भू-भाग मगध साम्राज्य का अंग बन गया।
- अजातशत्रु ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्दी अवन्ति राज्य पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की।
- अजातशत्रु धार्मिक उदार सम्राट था। विभिन्न ग्रन्थों के अनुसार वे बौद्ध और जैन दोनों मत के अनुयायी माने जाते हैं लेकिन भरहुत स्तूप की एक वेदिका के ऊपर अजातशत्रु बुद्ध की वंदना करता हुआ दिखाया गया है।
- उसने शासनकाल के आठवें वर्ष में बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अवशेषों पर राजगृह में स्तूप का निर्माण करवाया और ४८३ ई. पू. राजगृह की सप्तपर्णि गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया। इस संगीति में बौद्ध भिक्षुओं के सम्बन्धित पिटकों को सुतपिटक और विनयपिटक में विभाजित किया।
- सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उसने लगभग ३२ वर्षों तक शासन किया और ४६० ई. पू. में अपने पुत्र उदयन द्वारा मारा गया था।
- अजातशत्रु के शासनकाल में ही महात्मा बुद्ध 482 ई. पू. महापरिनिर्वाण तथा महावीर का भी निधन ४६८ ई. पू. हुआ था।
अजातशत्रु के बाद ४६० ई. पू. मगध का राजा बना। बौद्ध ग्रन्थानुसार इसे पितृहन्ता लेकिन जैन ग्रन्थानुसार पितृभक्त कहा गया है। इसकी माता का नाम पद्मावती था।
- उदयन शासक बनने से पहले चम्पा का उपराजा था। वह पिता की तरह ही वीर और विस्तारवादी नीति का पालक था।
- इसने पाटलि पुत्र (गंगा और सोन के संगम) को बसाया तथा अपनी राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र स्थापित की।
- मगध के प्रतिद्वन्दी राज्य अवन्ति के गुप्तचर द्वारा उदयन की हत्या कर दी गई।
बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उदयन के तीन पुत्र अनिरुद्ध, मंडक और नागदशक थे। उदयन के तीनों पुत्रों ने राज्य किया। अन्तिम राजा नागदशक था। जो अत्यन्त विलासी और निर्बल था। शासनतन्त्र में शिथिलता के कारण व्यापक असन्तोष जनता में फैला। राज्य विद्रोह कर उनका सेनापति शिशुनाग राजा बना। इस प्रकार हर्यक वंश का अन्त और शिशुनाग वंश की स्थापना ४१२ई.पू. हुई।
- शासकों की सूची–
- बिम्बिसार (544–492 ई.पू.), प्रथम मगध साम्राज्य के संस्थापक
- अजातशत्रु (492–460 ई.पू.)
- उदायिभद्र (460–444 ई.पू)
- अनिरुद्ध (444–440 ई.पू)
- मुंडा (440–437 ई.पू)
- दर्शक (437 ई.पू.)
- नागदशक (437–413 ई.पू)
(हर्यक वंश का अंतिम शासक)
शिशुनाग राजवंश (412–345 ई.पू)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
शिशुनाग ४१२ई. पू.गद्दी पर बेठ। महावंश के अनुसार वह लिच्छवि राजा के वेश्या पत्नी से उत्पन्न पुत्र था। पुराणों के अनुसार वह क्षत्रिय था। इसने सर्वप्रथम मगध के प्रबल प्रतिद्वन्दी राज्य अवन्ति को मिलाया। मगध की सीमा पश्चिम मालवा तक फैल गई और वत्स को मगध में मिला दिया। वत्स और अवन्ति के मगध में विलय से, पाटलिपुत्र को पश्चिमी देशों से व्यापारिक मार्ग के लिए रास्ता खुल गया।
- शिशुनाग (413–395 ई.पू)
शिशुनाग ने मगध से बंगाल की सीमा से मालवा तक विशाल भू-भाग पर अधिकार कर लिया। शिशुनाग एक शक्तिशाली शासक था जिसने गिरिव्रज के अलावा वैशाली नगर को भी अपनी राजधानी बनाया। ३९४ ई. पू. में इसकी मृत्यु हो गई।
- कालाशोक (395–377 ई.पू)–
यह शिशुनाग का पुत्र था जो शिशुनाग के ३९४ ई. पू. मृत्यु के बाद मगध का शासक बना। महावंश में इसे कालाशोक तथा पुराणों में काकवर्ण कहा गया है। कालाशोक ने अपनी राजधानी को पाटलिपुत्र स्थानान्तरित कर दिया था। इसने २८ वर्षों तक शासन किया। कालाशोक के शासनकाल में ही बौद्ध धर्म की द्वितीय संगीति का आयोजन हुआ।
- बाणभट्ट रचित हर्षचरित के अनुसार काकवर्ण को राजधानी पाटलिपुत्र में घूमते समय महापद्यनन्द नामक व्यक्ति ने चाकू मारकर हत्या कर दी थी। ३६६ ई. पू. कालाशोक की मृत्यु हो गई।
- महाबोधिवंश के अनुसार कालाशोक के दस पुत्र थे, जिन्होंने मगध पर २२ वर्षों तक शासन किया।
- शिशुनाग वंश का अंतिम राजा महानन्दि था। ३४४ ई. पू. में शिशुनाग वंश का अन्त हो गया और नन्द वंश का उदय हुआ।
- शासकों की सूची –
- शिशुनाग (413–395 ई.पू), राजवंश के संस्थापक
- काकवर्ण (कालाशोक) (395–377)
- क्षेमधर्मन (377–365)
- क्षत्रौजस (365–355)
- नंदिवर्धन (355–349)
- महानन्दि (349–345) अंतिम शासक, उसका साम्राज्य उसके नाजायज बेटे महापद्म नन्द को विरासत में मिला था
नंद साम्राज्य (345–322 ई.पू)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
३४४ ई. पू. में महापद्म नन्द नामक व्यक्ति ने नन्द वंश की स्थापना की। पुराणों में इसे महापद्म तथा महाबोधिवंश में उग्रसेन कहा गया है। यह नाई जाति का था।
उसे महापद्म एकारट, सर्व क्षत्रान्तक आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है। महापद्म नन्द के प्रमुख राज्य उत्तराधिकारी हुए हैं– उग्रसेन, पंडूक, पाण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, योविषाणक, दशसिद्धक, कैवर्त, धनानन्द। इसके शासन काल में भारत पर आक्रमण सिकन्दर द्वारा किया गया। सिकन्दर के भारत से जाने के बाद मगध साम्राज्य में अशान्ति और अव्यवस्था फैली। धनानन्द एक लालची और धन संग्रही शासक था, जिसे असीम शक्ति और सम्पत्ति के बावजूद वह जनता के विश्वास को नहीं जीत सका। उसने एक महान विद्वान ब्राह्मण चाणक्य को अपमानित किया था।
- चाणक्य ने अपनी कूटनीति से धनानन्द को पराजित कर सूर्यवंशी चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाया।
- महापद्मनन्द पहला शासक था जो गंगा घाटी की सीमाओं का अतिक्रमण कर विन्ध्य पर्वत के दक्षिण तक विजय पताका लहराई।
- नन्द वंश के समय मगध राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्धशाली साम्राज्य बन गया।
- व्याकरण के आचार्य पाणिनी महापद्मनन्द के मित्र थे।
- वर्ष, उपवर्ष, वर, रुचि, कात्यायन जैसे विद्वान नन्द शासन में हुए।
- शाकटाय तथा स्थूल भद्र धनानन्द के जैन मतावलम्बी अमात्य थे।
- शासकों की सूची –
- महापद्म नन्द (345–340 ई.पू), राजवंश के संस्थापक
- पंडुकनन्द
- पाङुपतिनन्द
- भूतपालनन्द
- राष्ट्रपालनन्द
- गोविषाणकनन्द
- दशसिद्धकनन्द
- कैवर्तनन्द
- कार्विनाथ नंद (महापद्म नंद के अवैध पुत्र)
- धनानंद (330–322 ई.पू. तक), मौर्य राजा चंद्रगुप्त मौर्य से हारने के बाद अपना साम्राज्य खो दिया।
मौर्य साम्राज्य (सी. 321 ई.पू. - 185 ई.पू.)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
३२२ ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरू चाणक्य की सहायता से धनानन्द की हत्या कर मौर्य वंश की नींव डाली थी।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्दों के अत्याचार व घृणित शासन से मुक्ति दिलाई और देश को एकता के सूत्र में बाँधा और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। यह साम्राज्य गणतन्त्र व्यवस्था पर राजतन्त्र व्यवस्था की जीत थी। इस कार्य में अर्थशास्त्र नामक पुस्तक द्वारा चाणक्य ने सहयोग किया। विष्णुगुप्त व कौटिल्य उनके अन्य नाम हैं।
चन्द्रगुप्त मौर्य (३२२ ई. पू. से २९८ ई. पू.)- चन्द्रगुप्त मौर्य के जन्म वंश के सम्बन्ध में विवाद है। ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में परस्पर विरोधी विवरण मिलता है।
विविध प्रमाणों और आलोचनात्मक समीक्षा के बाद यह तर्क निर्धारित होता है कि चन्द्रगुप्त पिप्पलिवन के सूर्यवंशी मौर्य वंश का था। चन्द्रगुप्त के पिता पिप्पलिवन के नगर प्रमुख थे। जब वह गर्भ में ही था तब उसके पिता की मृत्यु युद्धभूमि में हो गयी थी। उसका पाटलिपुत्र में जन्म हुआ था तथा एक गोपालक द्वारा पोषित किया गया था। चरावाह तथा शिकारी रूप में ही राजा-गुण होने का पता आचार्य चाणक्य ने कर लिया था तथा उसे एक हजार में कषार्पण में खरीद लिया। तत्पश्चात् तक्षशिला लाकर सभी विद्या में निपुण बनाया। अध्ययन के दौरान ही सम्भवतः चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला था। ३२३ ई. पू. में सिकन्दर की मृत्यु हो गयी तथा उत्तरी सिन्धु घाटी में प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या हो गई।
जिस समय चन्द्रगुप्त राजा बना था भारत की राजनीतिक स्थिति बहुत खराब थी। उसने सबसे पहले एक सेना तैयार की और सिकन्दर के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ किया। ३१७ ई. पू. तक उसने सम्पूर्ण सिन्ध और पंजाब प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। अब चन्द्रगुप्त मौर्य सिन्ध तथा पंजाब का एकक्षत्र शासक हो गया। पंजाब और सिन्ध विजय के बाद चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने धनानन्द का नाश करने हेतु मगध पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में धनाननन्द मारा गया अब चन्द्रगुप्त भारत के एक विशाल साम्राज्य मगध का शासक बन गया। सिकन्दर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस उसका उत्तराधिकारी बना। वह सिकन्दर द्वारा जीता हुआ भू-भाग प्राप्त करने के लिए उत्सुक था। इस उद्देश्य से ३०५ ई. पू. उसने भारत पर पुनः चढ़ाई की। चन्द्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर भारत के यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को पराजित कर एरिया (हेरात), अराकोसिया (कंधार), जेड्रोसिया पेरोपेनिसडाई (काबुल) के भू-भाग को अधिकृत कर विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलन का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया। उसने मेगस्थनीज को राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में नियुक्त किया।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिम भारत में सौराष्ट्र तक प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत शामिल किया। गिरनार अभिलेख (१५० ई. पू.) के अनुसार इस प्रदेश में पुण्यगुप्त वैश्य चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल था। इसने सुदर्शन झील का निर्माण किया। दक्षिण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी कर्नाटक तक विजय प्राप्त की।
चन्द्रगुप्त मौर्य के विशाल साम्राज्य में काबुल, हेरात, कन्धार, बलूचिस्तान, पंजाब, गंगा-यमुना का मैदान, बिहार, बंगाल, गुजरात था तथा विन्ध्य और कश्मीर के भू-भाग सम्मिलित थे, लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत किया था। अन्तिम समय में चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला चला गया था। २९८ ई. पू. में उपवास द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना शरीर त्याग दिया।
बिन्दुसार (२९८ ई. पू. से २७३ ई. पू.)- यह चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र व उत्तराधिकारी था जिसे वायु पुराण में मद्रसार और जैन साहित्य में सिंहसेन कहा गया है। यूनानी लेखक ने इन्हें अभिलोचेट्स कहा है। यह २९८ ई. पू. मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। जैन ग्रन्थों के अनुसार बिन्दुसार की माता दुर्धरा थी। थेरवाद परम्परा के अनुसार वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था।
बिन्दुसार के समय में भारत का पश्चिम एशिया से व्यापारिक सम्बन्ध अच्छा था। बिन्दुसार के दरबार में सीरिया के राजा एंतियोकस ने डायमाइकस नामक राजदूत भेजा था। मिस्र के राजा टॉलेमी के काल में डाइनोसियस नामक राजदूत मौर्य दरबार में बिन्दुसार की राज्यसभा में आया था।
दिव्यादान के अनुसार बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए थे, जिनका दमन करने के लिए पहली बार अशोक को, दूसरी बार सुसीम को भेजा
प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता का ही अनुसरण किया। प्रति में उपराजा के रूप में कुमार नियुक्त किए। दिव्यादान के अनुसार अशोक अवन्ति का उपराजा था। बिन्दुसार की सभा में ५०० सदस्यों वाली मन्त्रिपरिषद् थी जिसका प्रधान खल्लाटक था। बिन्दुसार ने २५ वर्षों तक राज्य किया अन्ततः २७३ ई. पू. उसकी मृत्यु हो गयी।
अशोक (२७३ ई. पू. से २३६ ई. पू.)- राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे। इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद २६९ ई. पू. में हुआ था।
वह २७३ ई. पू. में सिंहासन पर बैठा। अभिलेखों में उसे देवाना प्रिय एवं राजा आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। मास्की तथा गर्जरा के लेखों में उसका नाम अशोक तथा पुराणों में उसे अशोक वर्धन कहा गया है। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने ९९ भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था, लेकिन इस उत्तराधिकार के लिए कोई स्वतंत्र प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है।
दिव्यादान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी।
सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री देवी से विवाह किया जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ। दिव्यादान में उसकी एक पत्नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है। उसके लेख में केवल उसकी पत्नी का नाम करूणावकि है जो तीवर की माता थी। बौद्ध परम्परा एवं कथाओं के अनुसार बिन्दुसार अशोक को राजा नहीं बनाकर सुसीम को सिंहासन पर बैठाना चाहता था, लेकिन अशोक एवं बड़े भाई सुसीम के बीच युद्ध की चर्चा है।
अशोक का कलिंग युद्ध
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष २६१ ई. पू. में कलिंग पर आक्रमण किया था। आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में उसका विधिवत् अभिषेक हुआ। तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यक्ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये, एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा। इससे द्रवित होकर अशोक ने शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया।
कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया। उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया। उसने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय का युग शुरू हुआ। उसने बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया।
सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी। तत्पश्चात् मोगाली पुत्र निस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था। दिव्यादान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है। अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा लुम्बिनी ग्राम को करमुक्त घोषित कर दिया था।
अशोक एवं बौद्ध धर्म
- कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया।
- अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया।
- दिव्यादान में उसकी एक पत्नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है। उसके लेख में केवल उसकी पत्नी करूणावकि है। दिव्यादान में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगताशोक का नाम का उल्लेख है।
- विद्वानों अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभूतियाँ कांस्टेटाइन, ऐटोनियस, अकबर, सेन्टपॉल, नेपोलियन सीजर के साथ की है।
अशोक ने अहिंसा, शान्ति तथा लोक कल्याणकारी नीतियों के विश्वविख्यात तथा अतुलनीय सम्राट हैं। एच. जी. वेल्स के अनुसार अशोक का चरित्र “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है।"
- अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया।
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-
(अ) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ, (ब) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति, (स) धर्म महापात्रों की नियुक्ति, (द) दिव्य रूपों का प्रदर्शन, (य) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, (र) लोकाचारिता के कार्य, (ल) धर्मलिपियों का खुदवाना, (ह) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि।
अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया। वह अभिषेक के १०वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया। कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी। अपने अभिषेक २०वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की। नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया। स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया।
अभिषेक के १३वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे धर्म महापात्र कहा गया था। इसका कर्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था।
अशोक के शिलालेख
अशोक के १४ शिलालेख विभिन्न लेखों का समूह है जो आठ भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-
(१) धौली- यह उड़ीसा के पुरी जिला में है।
(२) शाहबाज गढ़ी- यह पाकिस्तान (पेशावर) में है।
(३) मान सेहरा- यह हजारा जिले में स्थित है।
(४) कालपी- यह वर्तमान में उत्तरांचल (देहरादून) में है।
(५) जौगढ़- यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है।
(६) सोपरा- यह महराष्ट्र के थाणे जिले में है।
(७) एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है।
(८) गिरनार- यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है।
अशोक के लघु शिलालेख
अशोक के लघु शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है जिसे लघु शिलालेख कहा जाता है। ये निम्नांकित स्थानों से प्राप्त हुए हैं-
(१) रूपनाथ- यह मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में है।
(२) गुजरी- यह मध्य प्रदेश के दतिया जिले में है।
(३) भबू- यह राजस्थान के जयपुर जिले में है।
(४) मास्की- यह रायचूर जिले में स्थित है।
(५) सहसराम- यह बिहार के शाहाबाद जिले में है।
धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मानव तथा पशु के लिए अलग चिकित्सा की व्य्वस्था की। अशोक के महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग प्राप्ति का उपदेश बौद्ध ग्रन्थ संयुक्त निकाय में दिया गया है।
अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों, प्रचारकों को विदेशों में भेजा अपने दूसरे तथा १३वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया जहाँ दूत भेजे गये थे।
दक्षिण सीमा पर स्थित राज्य चोल, पाण्ड्य, सतिययुक्त केरल पुत्र एवं ताम्रपार्णि बताये गये हैं।
अशोक के अभिलेख
अशोक के अभिलेखों में शाहनाज गढ़ी एवं मान सेहरा (पाकिस्तान) के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण हैं। तक्षशिला एवं लघमान (काबुल) के समीप अफगानिस्तान अभिलेख आरमाइक एवं ग्रीक में उत्कीर्ण हैं। इसके अतिरिक्त अशोक के समस्त शिलालेख लघुशिला स्तम्भ लेख एवं लघु लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं। अशोक का इतिहास भी हमें इन अभिलेखों से प्राप्त होता है।
अभी तक अशोक के ४० अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। सर्वप्रथम १८३७ ई. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता हासिल की थी।
रायपुरबा- यह भी बिहार राज्य के चम्पारण जिले में स्थित है।
प्रयाग- यह पहले कौशाम्बी में स्थित था जो बाद में मुगल सम्राट अकबर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखवाया गया था।
अशोक के लघु स्तम्भ लेख
सम्राट अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है जो निम्न स्थानों पर स्थित हैं-
१. सांची- मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है।
२. सारनाथ- उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में है।
३. रूभ्मिनदेई- नेपाल के तराई में है।
४. कौशाम्बी- प्रयागराज के निकट है।
५. निग्लीवा- नेपाल के तराई में है।
६. ब्रह्मगिरि- यह मैसूर के चिबल दुर्ग में स्थित है।
७. सिद्धपुर- यह ब्रह्मगिरि से एक मील उ. पू. में स्थित है।
८. जतिंग रामेश्वर- जो ब्रह्मगिरि से तीन मील उ. पू. में स्थित है।
९. एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
१०. गोविमठ- यह मैसूर के कोपवाय नामक स्थान के निकट है।
११. पालकिगुण्क- यह गोविमठ की चार मील की दूरी पर है।
१२. राजूल मंडागिरि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
१३. अहरौरा- यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है।
१४. सारो-मारो- यह मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में स्थित है।
१५. नेतुर- यह मैसूर जिले में स्थित है।
अशोक के गुहा लेख
दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर नामक तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं। इन सभी की भाषा प्राकृत तथा ब्राह्मी लिपि में है। केवल दो अभिलेखों शाहवाजगढ़ी तथा मान सेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है। यह लिपि दायीं से बायीं और लिखी जाती है।
तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख कन्धार के पास शारे-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है।
अशोक के स्तम्भ लेख
अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छः भिन्न स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं। इन स्थानों के नाम हैं-
(१) दिल्ली तोपरा- यह स्तम्भ लेख प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में पाया गया था। यह मध्य युगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया। इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं।
(२) दिल्ली मेरठ- यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया।
(३) लौरिया areraj तथा लौरिया नन्दगढ़- यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारण जिले में है।
सैन्य व्यवस्था- सैन्य व्यवस्था छः समितियों में विभक्त सैन्य विभाग द्वारा निर्दिष्ट थी। प्रत्येक समिति में पाँच सैन्य विशेषज्ञ होते थे।
पैदल सेना, अश्व सेना, गज सेना, रथ सेना तथा नौ सेना की व्यवस्था थी।
सैनिक प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी अन्तपाल कहलाता था। यह सीमान्त क्षेत्रों का भी व्यवस्थापक होता था। मेगस्थनीज के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना छः लाख पैदल, पचास हजार अश्वारोही, नौ हजार हाथी तथा आठ सौ रथों से सुसज्जित अजेय सैनिक थे।
प्रान्तीय प्रशासन
चन्द्रगुप्त मौर्य ने शासन संचालन को सुचारु रूप से चलाने के लिए चार प्रान्तों में विभाजित कर दिया था जिन्हें चक्र कहा जाता था। इन प्रान्तों का शासन सम्राट के प्रतिनिधि द्वारा संचालित होता था। सम्राट अशोक के काल में प्रान्तों की संख्या पाँच हो गई थी। ये प्रान्त थे-
प्रान्त राजधानी
प्राची (मध्य देश)- पाटलिपुत्र
उत्तरापथ - तक्षशिला
दक्षिणापथ - सुवर्णगिरि
अवन्ति राष्ट्र - उज्जयिनी
कलिंग - तोलायी
प्रान्तों (चक्रों) का प्रशासन राजवंशीय कुमार (आर्य पुत्र) नामक पदाधिकारियों द्वारा होता था।
कुमाराभाष्य की सहायता के लिए प्रत्येक प्रान्त में महापात्र नामक अधिकारी होते थे। शीर्ष पर साम्राज्य का केन्द्रीय प्रभाग तत्पश्चात् प्रान्त आहार (विषय) में विभक्त था। ग्राम प्रशासन की निम्न इकाई था, १०० ग्राम के समूह को संग्रहण कहा जाता था।
आहार विषयपति के अधीन होता था। जिले के प्रशासनिक अधिकारी स्थानिक था। गोप दस गाँव की व्यवस्था करता था।
नगर प्रशासन
मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य शासन की नगरीय प्रशासन छः समिति में विभक्त था।
प्रथम समिति- उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करता था।
द्वितीय समिति- विदेशियों की देखरेख करता है।
तृतीय समिति- जनगणना।
चतुर्थ समिति- व्यापार वाणिज्य की व्यवस्था।
पंचम समिति- विक्रय की व्यवस्था, निरीक्षण।
षष्ठ समिति- बिक्री कर व्यवस्था।
नगर में अनुशासन बनाये रखने के लिए तथा अपराधों पर नियन्त्रण रखने हेतु पुलिस व्यवस्था थी जिसे रक्षित कहा जाता था।
यूनानी स्त्रोतों से ज्ञात होता है कि नगर प्रशासन में तीन प्रकार के अधिकारी होते थे-एग्रोनोयोई (जिलाधिकारी), एण्टीनोमोई (नगर आयुक्त), सैन्य अधिकार।
अशोक के परवर्ती मौर्य सम्राट- मगध साम्राज्य के महान मौर्य सम्राट अशोक की मृत्यु २३७-२३६ ई. पू. में (लगभग) हुई थी। अशोक के उपरान्त अगले पाँच दशक तक उनके निर्बल उत्तराधिकारी शासन संचालित करते रहे।
अशोक के उत्तराधिकारी- जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में अशोक के उत्तराधिकारियों के शासन के बारे में परस्पर विरोधी विचार पाये जाते हैं। पुराणों में अशोक के बाद ९ या १० शासकों की चर्चा है, जबकि दिव्यादान के अनुसार ६ शासकों ने असोक के बाद शासन किया। अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य पश्चिमी और पूर्वी भाग में बँट गया। पश्चिमी भाग पर कुणाल शासन करता था, जबकि पूर्वी भाग पर सम्प्रति का शासन था लेकिन १८० ई. पू. तक पश्चिमी भाग पर बैक्ट्रिया यूनानी का पूर्ण अधिकार हो गया था। पूर्वी भाग पर दशरथ का राज्य था। वह मौर्य वंश का अन्तिम शासक है।
मौर्य साम्राज्य का पतन
मौर्य सम्राट की मृत्यु (२३७-२३६ई. पू.) के उपरान्त करीबन दो सदियों (३२२-१८४ई.पू.) से चले आ रहे शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य का विघटन होने लगा।
अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र ने कर दी। इससे मौर्य साम्राज्य समाप्त हो गया।
इसके पतन के कारण निम्न हैं-
१.अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारी,२.प्रशासन का अत्यधिक केन्द्रीयकरण,३.राष्ट्रीय चेतना का अभाव, ४.आर्थिक एवं सांस्कृतिक असमानताएँ ५.प्रान्तीय शासकों के अत्याचार,६.करों की अधिकता।
विभिन्न इतिहासकारों ने मौर्य वंश का पतन के लिए भिन्न-भिन्न कारणों का उल्लेख किया है-
- हर प्रसाद शास्त्री - धार्मिक नीति (ब्राह्मण विरोधी नीति के कारण)
- हेमचन्द्र राय चौधरी - सम्राट अशोक की अहिंसक एवं शान्तिप्रिय नीति।
- डी. डी.कौशाम्बी- आर्थिक संकटग्रस्त व्यवस्था का होना।
- डी.एन.झा-निर्बल उत्तराधिकारी
- रोमिला थापर - मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए केन्द्रीय शासन अधिकारी तन्त्र का अव्यवस्था एवं अप्रशिक्षित होना।
मौर्य शासन - भारत में सर्वप्रथम मौर्य वंश के शासनकाल में ही राष्ट्रीय राजनीतिक एकता स्थापित हुइ थी। मौर्य प्रशासन में सत्ता का सुदृढ़ केन्द्रीयकरण था परन्तु राजा निरंकुश नहीं होता था। मौर्य काल में गणतन्त्र का ह्रास हुआ और राजतन्त्रात्मक व्यवस्था सुदृढ़ हुई। कौटिल्य ने राज्य सप्तांक सिद्धान्त निर्दिष्ट किया था, जिनके आधार पर मौर्य प्रशासन और उसकी गृह तथा विदेश नीति संचालित होती थी -राजा, अमात्य जनपद, दुर्ग, कोष, सेना और, मित्र।
मौर्य वंश के शासक
- चंद्रगुप्त मौर्य (सी. 321-297 ई.पू.)
- बिन्दुसार अमित्राधाट (297–273 ई.पू.)
- अशोक (273-232 ईसा पूर्व)
- कुणाल (232-224 ईसा पूर्व)
- दशरथ (232-224 ई.पू.)
- सम्प्रति (224-215 ईसा पूर्व)
- शालिशुका (215-202 ईसा पूर्व)
- देववर्मन (202-195 ईसा पूर्व)
- शतधन्वन (195 ई.पू.), इनके शासनकाल के दौरान मौर्य साम्राज्य सिकुड़ गया था
- बृहद्रथ (187-180 ईसा पूर्व), निष्क्रिय शासक होने के कारण पुष्यमित्र शुंग द्वारा हत्या कर दी गई।
शुंग साम्राज्य (सी. 185 ईसा पूर्व - 73 ईसा पूर्व)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
पुष्यमित्र शुंग – सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पश्चात मौर्य साम्राज्य उदासीन और निष्क्रिय होता चला गया । अहिंसक नीतियों के कारण अखंड भारत नष्ट हो गया और सिकुड़ता चला गया। राजा शतधन्वन के काल मे मौर्य साम्राज्य पुरी तरह से सिकुड़ गया। मौर्य वंश का अंतिम शासक बृहद्रथ निष्क्रिय था। भारत पर विदेशी आक्रमण बढते जा रहे थे। सम्राट बृहद्रथ ने उनका मुकाबला करने से मना कर दिया। तब प्रजा और सेना में विद्रोह होने लगा। पुष्यमित्र शुंग मगध का सेनापति था। एक दिन राष्ट्र और सेना के बारे में अप्रिय वचन कहने के कारण क्रोधित होकर सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने राजा बृहद्रथ की हत्या कर दी। इस कार्य के पश्चात सेना और प्रजा ने पुष्यमित्र शुंग का साथ दिया। इसके बाद पुष्यमित्र शुंग ने स्वयं को सम्राट घोषित किया जिस नये राजवंश की स्थापना की उसे पूरे देश में शुंग साम्राज्य के नाम से जाना जाता है। शुंग ब्राह्मण थे। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के फ़लस्वरुप अशोक द्वारा यज्ञों पर रोक लगा दिये जाने के बाद उन्होंने पुरोहित का कर्म त्यागकर सैनिक वृति को अपना लिया था। पुष्यमित्र अन्तिम मौर्य शासक वृहद्रथ का प्रधान सेनापति था। पुष्यमित्र शुंग के पश्चात इस वंश में नौ शासक और हुए जिनके नाम थे -अग्निमित्र, वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, भद्रक, तीन अज्ञात शासक, भागवत और देवभूति। पुष्यमित्र ने‘सेनानी’ की उपाधि धारण की थी। दीर्घकाल तक मौर्यों की सेना का सेनापति होने के कारण पुष्यमित्र इसी रूप में विख्यात था तथा राजा बन जाने के बाद भी उसने अपनी यह उपाधि बनाये रखी। शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ था मनुस्मृति के वर्तमान स्वरुप की रचना इसी युग में हुई थी। अतः उसने निस्संदेह राजत्व को प्राप्त किया था। परवर्ती मौर्यों के निर्बल शासन में मगध का सरकारी प्रशासन तन्त्र शिथिल पड़ गया था एवं देश को आन्तरिक एवं बाह्य संकटों का खतरा था। ऐसी विकट स्थिति में पुष्य मित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमाकर जहाँ एक ओर यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की और देश में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना कर वैदिक धर्म एवं आदेशों की जो अशोक के शासनकाल में अपेक्षित हो गये थे। इसी कारण इसका काल वैदिक प्रतिक्रिया अथवा वैदिक पुनर्जागरण का काल कहलाता है। शुंग वंश के अन्तिम सम्राट देवभूति की हत्या करके उसके सचिव वसुदेव ने ७५ ई. पू. कण्व वंश की नींंव डाली।
शुंगकालीन संस्कृति के प्रमुख तथ्य –
- शुंग राजाओं का काल वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म का पुनर्जागरण काल माना जाता है।
- मानव आकृतियों के अंकन में कुशलता दिखायी गयी है। एक चित्र में गरुङ सूर्य तथा दूसरे में श्रीलक्ष्मी का अंकन अत्यन्त कलापूर्ण है।
- पुष्यमित्र शुंग ने ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान किया। शुंग के सर्वोत्तम स्मारक स्तूप हैं।
- बोधगया के विशाल मन्दिर के चारों और एक छोटी पाषाण वेदिका मिली है। इसका निर्माण भी शुंगकाल में हुआ था। इसमें कमल, राजा, रानी, पुरुष, पशु, बोधिवृक्ष, छ्त्र, त्रिरत्न, कल्पवृक्ष, आदि प्रमुख हैं।
- स्वर्ण मुद्रा निष्क, दिनार, सुवर्ण, मात्रिक कहा जाता था। ताँबे के सिक्के काषार्पण कहलाते थे। चाँदी के सिक्के के लिए ‘पुराण’अथवा ‘धारण’ शब्द आया है।
- शुंग काल में समाज में बाल विवाह का प्रचलन हो गया था। तथा कन्याओं का विवाह आठ से १२ वर्ष की आयु में किया जाने लगा था।
- शुंग राजाओं का काल वैदिक काल की अपेक्षा एक बड़े वर्ग के लोगों के मस्तिष्क परम्परा, संस्कृति एवं विचारधारा को प्रतिबिम्बित कर सकने में अधिक समर्थ है।
- शुंग काल के उत्कृष्ट नमूने बिहार के बोधगया से प्राप्त होते हैं। भरहुत, सांची, बेसनगर की कला भी उत्कृष्ट है।
- महाभाष्य के अलावा मनुस्मृति का मौजूदा स्वरुप सम्भवतः इसी युग में रचा गया था। विद्वानो के अनुसार शुंग काल में ही महाभारत के शान्तिपूर्ण तथा अश्वमेध का भी परिवर्तन हुआ। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान के अनुसार यह भी सच है कि शुंग बौद्ध धर्म आदर नही करते थे पर द्वेष भी नहीं करते थे । शुंगो ने कुछ बौद्धों को अपना मन्त्री नियुक्त कर रखा था। पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र ने ३६ वर्षों तक शासन किया। इस प्रकार उसका काल ई.पू से १४८ई.पू.तक माना जाता है।
पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी—
अग्निमित्र – पुष्यमित्र की मृत्यु (१४८इ.पू.) के पश्चात उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ। वह विदिशा का उपराजा था। उसने कुल ८ वर्षों तक शासन कीया।
वसुज्येष्ठ या सुज्येष्ठ – अग्निमित्र के बाद वसुज्येष्ठ राजा हुआ।
वसुमित्र – शुंग वंश का चौथा राजा वसुमित्र हुआ। उसने यवनों को पराजित किया था। एक दिन नृत्य का आनन्द लेते समय मूजदेव नामक व्यक्ति ने उसकी हत्या कर दी। उसने १० वर्षों तक शाशन किय। वसुमित्र के बाद भद्रक, पुलिंदक, घोष तथा फिर वज्रमित्र क्रमशः राजा हुए। इसके शाशन के १४वें वर्ष में तक्षशिला के यवन नरेश एंटीयालकीड्स का राजदूत हेलियोंडोरस उसके विदिशा स्थित दरबार में उपस्थित हुआ था। वह अत्यन्त विलासी शाशक था। उसके अमात्य वसुदेव ने उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार शुंग वंश का अन्त हो गया।
महत्व – इस वंश के राजाओं ने मगध साम्रज्य के केन्द्रीय भाग की विदेशियों से रक्षा की तथा मध्य भारत में शान्ति और सुव्यव्स्था की स्थापना कर विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को कुछ समय तक रोके रखा। मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर उन्होंने वैदिक संस्कृति के आदर्शों की प्रतिष्ठा की। यही कारण है की उसका शासनकाल वैदिक पुनर्जागरण का काल माना जाता है।
विदर्भ युद्ध – मालविकामित्रम के अनुसार पुष्यमित्र के काल में लगभग १८४इ.पू.में विदर्भ युद्ध में पुष्यमित्र की विजय हुई और राज्य दो भागों में ब दिया गया। वर्षा नदी दोनों राज्यों कीं सीमा मान ली गई। दोनो भागों के नरेश ने पुष्यमित्र को अपना सम्राट मान लिया तथा इस राज्य का एक भाग माधवसेन को प्राप्त हुआ। पुष्यमित्र का प्रभाव क्षेत्र नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तृत हो गया।
यवनों का आक्रमण – यवनों को मध्य देश से निकालकर सिन्धु के किनारे तक खदेङ दिया और पुष्यमित्र के हाथों सेनापति एवं राजा के रूप में उन्हें पराजित होना पङा। यह पुष्यमित्र के काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।
पुष्यमित्र का शासन प्रबन्ध – साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। पुष्यमित्र प्राचीन मौर्य साम्राज्य के मध्यवर्ती भाग को सुरक्षित रख सकने में सफ़ल रहा। पुष्यमित्र का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार तक तथा पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में मगध तक फ़ैला हुआ था। दिव्यावदान और तारानाथ के अनुसार जालन्धर और स्यालकोट पर भी उसका अधिकार था। साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजकुमार या राजकुल के लोगो को राज्यपाल नियुक्त करने की परम्परा चलती रही। पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सह -शाशक नियुक्त कर रखा था। और उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था। धनदेव कौशल का राज्यपाल था। राजकुमार जी सेना के संचालक भी थे। इस समय भी ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी। इस काल तक आते-आते मौर्यकालीन केन्द्रीय नियन्त्रण में शिथिलता आ गयी थी तथा सामंतीकरण की प्रवृत्ति सक्रिय होने लगी थीं।
शुंग वंश के शासक
- पुष्यमित्र शुंग (१८५-१४९ ईसा पूर्व) ने बृहद्रथ की हत्या करने के बाद राजवंश की स्थापना की।
- अग्निमित्र (१४९-१४१ ईसा पूर्व), पुष्यमित्र के पुत्र और उत्तराधिकारी
- वसुजीष्ठ (१४१-१३१ ईसा पूर्व)
- वसुमित्र (१३१-१२४ ईसा पूर्व)
- आंध्रका (१२४-१२२ ई.पू.)
- पुलिंदका (१२२-११९ ईसा पूर्व)
- घोष (११९ -११६ ई.पू.)
- वज्रमित्र (११६-११० ई.पू.)
- भागभद्र (सी. ११० ईसा पूर्व), पुराणों द्वारा वर्णित।
- देवभूति (८३–७३ ईसा पूर्व), इसी के मन्त्री वसुदेव ने इसकी हत्या कर दी।
कण्व वंश (सी. 73 ईसा पूर्व - 26 ईसा पूर्व)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
शुंग वंश के अन्तिम शासक देवभूति के मन्त्रि वसुदेव ने उसकी हत्या कर सत्ता प्राप्त कर कण्व वंश की स्थापना की। कण्व वंश ने ७५इ.पू. से ३०इ.पू. तक शासन किया। वसुदेव पाटलिपुत्र के कण्व वंश का प्रवर्तक था। वैदिक धर्म एवं संस्कृति संरक्षण की जो परम्परा शुंगो ने प्रारम्भ की थी। उसे कण्व वंश ने जारी रखा। इस वंश का अन्तिम सम्राट सुशमी कण्य अत्यन्त अयोग्य और दुर्बल था। और मगध क्षेत्र संकुचित होने लगा। कण्व वंश का साम्राज्य बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित हो गया और अनेक प्रान्तों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया तत्पश्चात उसका पुत्र नारायण और अन्त में सुशमी जिसे सातवाहन वंश के प्रवर्तक सिमुक ने पदच्युत कर दिया था। इस वंश के चार राजाओं ने ७५इ.पू.से ३०इ.पू.तक शासन किया।
कण्व वंश के शासक
- वासुदेव (सी. ७५ - ६६ ईसा पूर्व), देवभूति की हत्या करने के बाद राजवंश की स्थापना की।
- भूमिमित्र (सी. ६६ - ५२ ई.पू)
- नारायण (सी. ५२ - सी. ४० ई.पू)
- सुषरमन (सी. ४० - २६ ई.पू.)
आन्ध्र व कुषाण वंश
मगध में आन्ध्रों का शासन था या नहीं इसकी जानकारी नही मिलती है। कुषाणकालीन अवशेष भी बिहार से अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। कुछ समय के पश्चात प्रथम सदी इ. में इस क्षेत्र में कुषाणों का अभियान हुआ। कुषाण शासक कनिष्क द्वारा पाटलिपुत्र पर आक्रमण किये जाने और यह के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान अश्वघोष को अपने दरबार में प्रश्रय देने की चर्चा मिलती है। कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद मगध पर लिच्छवियों का शासन रहा। अन्य विद्वान मगध पर शक मुण्डों का शासन मानते हैं।
गुप्त साम्राज्य (सी. 240–480 ई.)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया।
- मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं।
- मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।
- गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था।
गुप्त वंश की स्थापना –
गुप्त राजवंश की स्थापना महाराजा गुप्त ने लगभग २७५ई.में की थी। उनका वास्तविक नाम श्रीगुप्त था। गुप्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र घटोत्कच था।
चन्द्र्गुप्त के सिंहासनारोहण के अवसर पर (३०२ई.) को गुप्त सम्वत भी कहा गया है। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार मगध के मृग शिखावन में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। तथा मन्दिर के व्यय में २४ गाँव को दान दिये थे।
श्रीगुप्त – के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था। प्रसिद्ध इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार श्रीगुप्त भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था।
घटोत्कच – घटोत्कच श्रीगुप्त का पुत्र था। २८० ई. पू. से ३२० ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी।
चन्द्रगुप्त प्रथम – यह घटोत्कच का उत्तराधिकारी था, जो ३२० ई. में शासक बना।
- चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में सबसे पहला शासक था जो प्रथम स्वतन्त्र शासक है। यह विदेशी को विद्रोह द्वारा हटाकर शासक बना।
- इसने नवीन सम्वत (गुप्त सम्वत) की स्थापना की। इसने लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह सम्बन्ध स्थापित किया।
- चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसका शासन काल (३२० ई. से ३५० ई. तक) था।
- पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है।
चन्द्रगुप्त प्रथम तथा लिच्छवि सम्बन्ध -
चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। वह एक दूरदर्शी सम्राट था। चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया। स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध उसके सीमावर्ती क्षेत्र में आ गया। कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया। लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने मिलाया।
हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की।
उसने विवाह की स्मृति में राजा-रानी प्रकार के सिक्कों का चलन करवाया। इस प्रकार स्पष्ट है कि लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया। राय चौधरी के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के महाराजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की।
समुद्रगुप्त – चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद ३५० ई. में उसका पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा। समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के गर्भ से हुआ था। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है। इन्हें परक्रमांक कहा गया है। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।
हरिषेण समुद्रगुप्त का मन्त्री एवं दरबारी कवि था। हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय, साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है।
- समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
- विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपधि दी।
समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था। यह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था। उसे कविराज भी कहा गया है। वह महान संगीतज्ञ था जिसे वीणा वादन का शौक था। इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मन्त्री नियुक्त किया था।
काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है। उसने उदार, दानशील, असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया। समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ भी था लेकिन वह हिन्दू धर्म मत का पालन करता था। वैदिक धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व प्राचीर बन्ध यानी धर्म की प्राचीर कहा गया है।
समुद्रगुप्त का साम्राज्य – समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे।
दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्तियाँ उसकी अधीनता स्वीकार करती थीं।
समुद्रगुप्त के काल में सदियों के राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी शक्तियों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः नैतिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्नति की चोटी पर जा पहुँचा था।
रामगुप्त – समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना, लेकिन इसके राजा बनने में विभिन्न विद्वानों में मतभेद है|
विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर पता चलता है कि समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे- रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त। रामगुप्त बड़ा होने के कारण पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा, लेकिन वह निर्बल एवं कायर था। वह शकों द्वारा पराजित हुआ और अत्यन्त अपमानजनक सन्धि कर अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को भेंट में दे दिया था, लेकिन उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़ा ही वीर एवं स्वाभिमानी व्यक्ति था। वह छद्म भेष में ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के पास गया। फलतः रामगुप्त निन्दनीय होता गय्श। तत्पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर दी। उसकी पत्नी से विवाह कर लिया और गुप्त वंश का शासक बन बैठा।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य – चन्द्रगुप्त द्वितीय ३७५ ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था। वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने ३७५ से ४१५ ई. तक (४० वर्ष) शासन किया।
हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं। उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की। उसने नागवंश, वाकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई। वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया। उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ की विजय प्राप्त की।
- वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्ति से शकों का उन्मूलन किया। कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल (कर्नाटक) में था।
- चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल को स्वर्ण युग भी कहा गया है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में ही फाह्यान नामक चीनी यात्री (३९९ ई.) आया था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजय यात्रा –
चन्द्रगुप्त एक महान प्रतापी सम्राट था। उसने अपने साम्राज्य का और विस्तार किया।
(१) शक विजय - पश्चिम में शक क्षत्रप शक्तिशाली साम्राज्य था। ये गुप्त राजाओं को हमेशा परेशान करते थे। शक गुजरात के काठियावाड़ तथा पश्चिमी मालवा पर राज्य करते थे। ३८९ ई. ४१२ ई. के मध्य चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों पर आक्रमण कर विजित किया।
(२) वाहीक विजय - महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार चन्द्र गुप्त द्वितीय ने सिन्धु के पाँच मुखों को पार कर वाहिकों पर विजय प्राप्त की थी। वाहिकों का समीकरण कुषाणों से किया गया है, पंजाब का वह भाग जो व्यास का निकटवर्ती भाग है।
(३) बंगाल विजय - महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को परास्त किया था।
(४) गणराज्यों पर विजय - पश्चिमोत्तर भारत के अनेक गणराज्यों द्वारा समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी गई थी।
परिणामतः— चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा इन गणरज्यों को पुनः विजित कर गुप्त साम्राज्य में विलीन किया गया। अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तापघटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी।
चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला-साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। उसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था। उसके दरबार में नौ रत्न थे- कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि उल्लेखनीय थे।
निस्संदेह चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म का चरमोत्कर्ष का काल रहा था।
कुमारगुप्त प्रथम – (४१५ ई. से ४५५ ई.)- चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् ४१५ ई. में उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा। वह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था। यह कुमारगुप्त के बसाठ (वैशाली) का राज्यपाल था।
- कुमारगुप्त प्रथम का शासन शान्ति और सुव्यवस्था का काल था। साम्राज्य की उन्नति के पराकाष्ठा पर था। इसने अपने साम्राज्य का अधिक संगठित और सुशोभित बनाये रखा। गुप्त सेना ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया था।
- कुमारगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य की पूरी तरह रक्षा की जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था।
- कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों या मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने अनेक उपाधियाँ धारण कीं। उसने महेन्द्र कुमार, श्री महेन्द्र, श्री महेन्द्र सिंह, महेन्द्रा दिव्य आदि उपाधि धारण की थी।
- मिलरक्द अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के साम्राज्य में चतुर्दिक सुख एवं शान्ति का वातावरण विद्यमान था।
- कुमारगुप्त प्रथम स्वयं वैष्णव धर्मानुयायी था, किन्तु उसने धर्म सहिष्णुता की नीति का पालन किया।
- गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के ही प्राप्त हुए हैं। उसने अधिकाधिक संक्या में मयूर आकृति की रजत मुद्राएं प्रचलित की थीं। उसी के शासनकाल में नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी।
कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल की प्रमुख घटनओं का निम्न विवरण है –
१. पुष्यमित्र से युद्ध – भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के शासनकाल के अन्तिम क्षण में शान्ति नहीं थी। इस काल में पुष्यमित्र ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया। इस युद्ध का संचालन कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने किया था। उसने पुष्यमित्र को युद्ध में परास्त किया।
२. दक्षिणी विजय अभियान – कुछ इतिहास के विद्वानों के मतानुसार कुमारगुप्त ने भी समुद्रगुप्त के समान दक्षिण भारत का विजय अभियान चलाया था, लेकिन सतारा जिले से प्राप्त अभिलेखों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है।
3. अश्वमेध यज्ञ – सतारा जिले से प्राप्त १,३९५ मुद्राओं व लेकर पुर से १३ मुद्राओं के सहारे से अश्वमेध यज्ञ करने की पुष्टि होती है।
स्कन्दगुप्त – (४५५ ई. से ४६७ ई.)- पुष्यमित्र के आक्रमण के समय ही गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की ४५५ ई. में मृत्यु हो गयी थी।
उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। उसने सर्वप्रथम पुष्यमित्र को पराजित किया और उस पर विजय प्राप्त की। उसने १२ वर्ष तक शासन किया। स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण कीं। कहीय अभिलेख में स्कन्दगुप्त को शक्रोपन कहा गया है।
उदारता एवं परोपकरिता का कार्य- स्कन्दगुप्त का शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी। स्कन्दगुप्त एक अत्यन्त लोकोपकारी शासक था जिसे अपनी प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी।
जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के शासन काल में भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया था उसने दो माह के भीतर अतुल धन का व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया।
- हूणों का आक्रमण - हूणों का प्रथम आक्रमण स्कन्दगुप्त के काल में हुआ था। हूण मध्य एशिया की एक बर्बर जाति थी। हूणों ने अपनी जनसंख्या और प्रसार के लिए दो शाखाओं में विभाजित होकर विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गये। पूर्वी शाखा के हूणों ने भारत पर अनेकों बार आक्रमण किया। स्कन्दगुप्त ने हूणों के आक्रमण से रक्षा कर अपनी संस्कृति को नष्ट होने से बचाया।
- पुरुगुप्त - पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया।
कुमारगुप्त द्वितीय – पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है।
बुधगुप्त - कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया।
ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था।
नरसिंहगुप्त बालादित्य - बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना।
इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है।
कुमारगुप्त तृतीय - नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था।
- गोविन्दगुप्त का विद्रोह - यह स्कन्दगुप्त का छोटा चाचा था, जो मालवा के गवर्नर पद पर नियुक्त था। इसने स्कन्दगुप्त के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। स्कन्दगुप्त ने इस विद्रोह का दमन किया।
- वाकाटकों से युद्ध - मन्दसौर शिलालेख से ज‘जात होता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का फायदा उठाते हुए वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया परन्तु स्कन्दगुप्त ने वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन को पराजित कर दिया।
- गुप्त साम्राज्य की अवति - स्कन्दगुप्त राजवंश का आखिरी शक्तिशाली सम्राट था। ४६७ ई. उसका निधन हो गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए-
- पुरुगुप्त - यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था।
- दामोदरगुप्त - कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना।
ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था।
- महासेनगुप्त - दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। उसने मौखरि नरेश अवन्ति वर्मा की अधीनता स्वीकार कर ली। महासेनगुप्त ने असम नरेश सुस्थित वर्मन को ब्राह्मण नदी के तट पर पराजित किया।
अफसढ़ लेख के अनुसार महासेनगुप्त बहुत पराक्रमी था।
- देवगुप्त - महासेनगुप्त के बाद उसका पुत्र देवगुप्त मलवा का शासक बना। उसके दो सौतेले भाई कुमारगुप्त और माधवगुप्त थे।
देवगुप्त ने गौड़ शासक शशांक के सहयोग से कन्नौज के मौखरि राज्य पर आक्रमण किया और गृह वर्मा की हत्या कर दी।
प्रभाकर वर्धन के बड़े पुत्र राज्यवर्धन ने शीघ्र ही देवगुप्त पर आक्रमण करके उसे मार डाला।
- माधवगुप्त - हर्षवर्धन के समय में माधवगुप्त मगध के सामन्त के रूप में शासन करता था। वह हर्ष का घनिष्ठ मित्र और विश्वासपात्र था। हर्ष जब शशांक को दण्डित करने हेतु गया तो माधवगुप्त साथ गया था। उसने ६५० ई. तक शासन किया।
हर्ष की मृत्यु के उपरान्त उत्तर भारत में अराजकता फैली तो माधवगुप्त ने भी अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित किया।
गुप्त वंश के शासक
- श्रीगुप्त प्रथम (सी. 240-290), संस्थापक
- घटोत्कच (290-320)
- चंद्रगुप्त प्रथम (320–325)
- समुद्रगुप्त (325-375)
- रामगुप्त (375-380)
- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वितीय) (380–415)
- कुमारगुप्त प्रथम (४१५-४५५)
- स्कन्दगुप्त (455-467)
- पुरुगुप्त (467-472)
- कुमारगुप्त द्वितीय (472–480)
परवर्ती गुप्त राजवंश (490–750 ईस्वी)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। गुप्त साम्राज्य का ५५० ई. में पतन हो गया। गुप्त वंश के पतन के बाद भारतीय राजनीति में विकेन्द्रीकरण एवं अनिश्चितता का माहौल उत्पन्न हो गया। अनेक स्थानीय सामन्तों एवं शासकों ने साम्राज्य के विस्तृत क्षेत्रों में अलग-अलग छोते-छोटे राजवंशों की स्थापना कर ली। इसमें एक था- उत्तर गुप्त राजवंश। इस राजवंश ने करीब दो शताब्दियों तक शासन किया। इस वंश के लेखों में चक्रवर्ती गुप्त राजाओं का उल्लेख नहीं है।
परवर्ती गुप्त वंश के संस्थापक कृष्णगुप्त ने (५१० ई. ५२१ ई.) स्थापना की।
अफसढ़ लेख के अनुसार मगध उसका मूल स्थान था, जबकि विद्वानों ने उनका मूल स्थान मालवा कहा गया है। उसका उत्तराधिकारी हर्षगुप्त हुआ है। उत्तर गुप्त वंश के तीन शासकों ने शासन किया। तीनों शासकों ने मौखरि वंश से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रह।
कुमारगुप्त - यह उत्तर गुप्त वंश का चौथा राजा था जो जीवित गुप्त का पुत्र था। यह शासक अत्यन्त शक्तिशाली एवं महत्वाकांक्षी था। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। उसका प्रतिद्वन्दी मौखरि नरेश ईशान वर्मा समान रूप से महत्वाकांक्षी शासक था। इस समय प्रयाग में पूष्यार्जन हेतु प्राणान्त करने की प्रथा प्रचलित थी।
हांग गांगेय देव जैसे शसकों का अनुसरण करते हुए कुमार गुप्त ने प्रयाग जाकर स्वर्ग प्राप्ति की लालसा से अपने जीवन का त्याग किया।
पश्चातवर्ती गुप्त शासन के प्रमुख शासक निम्नलिखित हैं:साँचा:sfnसाँचा:sfnसाँचा:sfn
- नृप श्री कृष्णगुप्त, (शासनकाल 490-505 ई )
- देव श्री हर्षगुप्त, (शासनकाल 505-525 ई )
- श्री जीवित गुप्त प्रथम, (शासनकाल. 525-550 ई )
- श्री कुमारगुप्त, (शासनकाल 550-560 ई )
- श्री दामोदरगुप्त, (शासनकाल 560-562 ई )
- श्री महासेनगुप्त, (शासनकाल 562-601 ई )
- श्री माधवगुप्त, (शासनकाल 601-655 ई ) (रानी : श्रीमती)
- महाराजाधिराज आदित्यसेन, (शासनकाल 655-680 ई ) (रानी: कोनदेवी)
- महाराजाधिराज देवगुप्त, (शासनकाल 680-700 ई ) (रानी: कमलादेवी)
- महाराजाधिराज विष्णुगुप्त (रानी: इज्जदेवी) (725 ई)
- महाराजाधिराज जीवित गुप्त द्वितीय (750 ई)
पुष्यभूति राजवंश (वर्धन राजवंश) (606–647 ईस्वी)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- हर्षवर्धन (606–647) ने उत्तरी भारत का एकीकरण किया और 40 वर्षों तक इस पर शासन किया, वह एकीकृत उत्तरी भारत पर शासन करने वाले अंतिम गैर-मुस्लिम सम्राट थें।
पाल साम्राज्य (750–1174 ईस्वी)
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
यह पूर्व मध्यकालीन राजवंश था। जब हर्षवर्धन काल के बाद समस्त उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गहरा संकट उत्पन६न हो गया, तब बिहार, बंगाल और उड़ीसा के सम्पूर्ण क्षेत्र में पूरी तरह अराजकत फैली थी।
इसी समय गोपाल ने बंगाल में एक स्वतन्त्र राज्य घोषित किया। जनता द्वारा गोपाल को सिंहासन पर आसीन किया गया था। वह योग्य और कुशल शासक था, जिसने ७५० ई. से ७७० ई. तक शासन किया। इस दौरान उसने औदंतपुरी (बिहार शरीफ) में एक मठ तथा विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया। पाल शासक बौद्ध धर्म को मानते थे। आठवीं सदी के मध्य में पूर्वी भारत में पाल वंश का उदय हुआ। गोपाल को पाल वंश का संस्थापक माना जाता है।
धर्मपाल (७७०-८१० ई.)- गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल ७७० ई. में सिंहासन पर बैठा। धर्मपाल ने ४० वर्षों तक शासन किया। धर्मपाल ने कन्नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलझा रहा। उसने कन्नौज की गद्दी से इंद्रायूध को हराकर चक्रायुध को आसीन किया। चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के बाद उसने एक भव्य दरबार का आयोजन किया तथा उत्तरापथ स्वामिन की उपाधि धारण की। धर्मपाल बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसने काफी मठ व बौद्ध विहार बनवाये।
उसने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया था। उसके देखभाल के लिए सौ गाँव दान में दिये थे। उल्लेखनीय है कि प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय एवं राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया था।
देवपाल (८१०-८५० ई.)- धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठा। इसने अपने पिता के अनुसार विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया। इसी के शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था। उसने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाई। उसने पूर्वोत्तर में प्राज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल, पूर्वी तट पर उड़ीसा तक विस्तार किया। कन्नौज के संघर्ष में देवपाल ने भाग लिया था। उसके शासनकाल में दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे। उसने जावा के शासक बालपुत्रदेव के आग्रह पर नालन्दा में एक विहार की देखरेख के लिए ५ गाँव अनुदान में दिए।
- देवपाल ने ८५० ई. तक शासन किया था। देवपाल के बाद पाल वंश की अवनति प्रारम्भ हो गयी। मिहिरभोज और महेन्द्रपाल के शासनकाल में प्रतिहारों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश भागों पर अधिकार कर लिया।
- ११वीं सदी में महीपाल प्रथम ने ९८८ ई.-१००८ ई. तक शासन किया। महीफाल को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है। उसने समस्त बंगाल और मगध पर शासन किया।
- महीपाल के बाद पाल वंशीय शासक निर्बल थे जिससे आन्तरिक द्वेष और सामन्तों ने विद्रोह उत्पन्न कर दिया था। बंगाल में केवर्त, उत्तरी बिहार मॆम सेन आदि शक्तिशाली हो गये थे।
- रामपाल के निधन के बाद गहड़वालों ने बिहार में शाहाबाद और गया तक विस्तार किया था।
- सेन शसकों वल्लासेन और विजयसेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार किया।
- इस अराजकता के परिवेश में तुर्कों का आक्रमण प्रारम्भ हो गया।
'पाल राजवंश के शासक' –
- गोपाल (पाल) (७५०-७७०)
- धर्मपाल (७७०-८१०)
- देवपाल (८१०-८५०)
- शूर पाल महेन्द्रपाल (८५० - ८५४)
- विग्रह पाल (८५४ - ८५५)
- नारायण पाल (८५५ - ९०८)
- राज्यो पाल (९०८ - ९४०)
- गोपाल २ (९४०-९६०)
- विग्रह पाल २ (९६० - ९८८)
- महिपाल (९८८ - १०३८)
- नय पाल (१०३८ - १०५५)
- विग्रह पाल ३ (१०५५ - १०७०)
- महिपाल २ (१०७० - १०७५)
- शूर पाल २ (१०७५ - १०७७)
- रामपाल (१०७७ - ११३०)
- कुमारपाल (११३० - ११४०)
- गोपाल ३ (११४० - ११४४)
- मदनपाल (११४४ - ११६२)
- गोविन्द पाल (११६२ - ११७४)
- पाल राजवंश के पश्चात सेन राजवंश ने बंगाल पर १६० वर्ष राज किया।
सन्दर्भ
- ↑ साँचा:cite book
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।