परमार भोज

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राजा भोज परमार या पंवार वंश के नवें राजा थे। साँचा:sfn परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उनमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उन्होंने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है।

कहा जाता है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को राजा भोज ने ही बसाया था , तब उसका नाम भोजपाल नगर था , जो कि कालान्तर में 'भूपाल' और फिर 'भोपाल' हो गया। राजा भोज ने भोजपाल नगर के पास ही एक समुद्र के समान विशाल तालाब का निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था। आज भी भोजपुर जाते समय, रास्ते में शिवमंदिर के पास उस तालाब की पत्थरों की बनी विशाल पाल दिखती है। उस समय उस तालाब का पानी बहुत पवित्र और बीमारियों को ठीक करने वाला माना जाता था। कहा जाता है कि राजा भोज को चर्म रोग हो गया था तब किसी ऋषि या वैद्य ने उन्हें इस तालाब के पानी में स्नान करने और उसे पीने की सलाह दी थी जिससे उनका चर्मरोग ठीक हो गया था। उस विशाल तालाब के पानी से शिवमंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग का अभिषेक भी किया जाता था।

राजा भोज स्वयं बहुत बड़े विद्वान थे और कहा जाता है कि उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी विद्यमान हैं। इनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। उन्होने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई- कहाँ राजा भोज, कहाँ गांगेय, तैलंग। धार में भोज शोध संस्थान में भोज के ग्रन्थों का संकलन है। भोज रचित 84 ग्रन्थों में दुनिया में केवल 21 ग्रन्थ ही शेष है। भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, और गुणग्राही थे। इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकण्ठाभरण, शृंगारमञ्जरी, चम्पूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रन्थ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पण्डितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था-

अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥

(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पण्डित आदृत हैं।)

जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया -

अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवं गते ॥

(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है ; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)तिलक मंजरी ..

परिचय

भोजप्रबन्ध में वर्णित 'भोज की राज्यप्राप्ति' की कथा के अनुसार भोज, धारा नगरी के 'सिन्धुल' नामक राजा के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सावित्री था । जब ये पाँच वषं के थे, तभी इनके पिता अपना राज्य और इनके पालनपोषण का भार अपने भाई मुंज पर छोड़कर स्वर्गवासी हुए थे। मुंज इनकी हत्या करना चाहता था, इसलिये उसने बंगाल के वत्सराज को बुलाकर उसको इनकी हत्या का भार सौंपा । वत्सराज इन्हें बहाने से देवी के सामने बलि देने के लिये ले गया । वहाँ पहुँचने पर जब भोज को मालूम हुआ कि यहाँ मैं बलि चढ़ाया जाऊँगा, तब उन्होंने अपनी जाँघ चीरकर उसके रक्त से बड़ के एक पत्ते पर दो श्लोक लिखकर वत्सराज को दिए और कहा कि थे मुंज को दे देना । उस समय वत्सराज को इनकी हत्या करने का साहस न हुआ और उसने इन्हें अपने यहाँ ले जाकर छिपा रखा । जब वत्सराज भोज का कृत्रिम कटा हुआ सिर लेकर मुंज के पास गया, और भोज के श्लोक उसने उन्हें दिए, तब मुंज को बहुत पश्चाताप हुआ । मुंज को बहुत विलाप करते देखकर वत्सराज ने उन्हें असल हाल बतला दिया और भोज को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया । मुंज ने सारा राज्य भोज को दे दिया और आप सस्त्रीक वन को चले गए ।

राजा भोज को इस असार संसार से विदा हुए करीब पौने नौ सौ वर्ष से अधिक बीत चुके हैं, परन्तु फिर भी इसका यश भारत के एक सिरे से दूसरे तक फैला हुआ है । भारतवासियों के मतानुसार यह नरेश स्वयं विद्वान और विद्वानों का आश्नयदाता था । इसीसे हमारे यहाँ के अनेक प्रचलित किस्से - कहानियों के साथ इसका नाम जुड़ा हुआ मिलता है । राजा भोज यह राजा परमार वंश में उत्पन्न हुआ था । यद्यपि इस समय मालवे के परमार अपने को विक्रम संवत् के चलाने वाले प्रसिद्ध नरेश विक्रमादित्य के वंशज मानते हैं। [१]

कहते हैं, भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, पंडित और गुण-ग्राही थे । इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था । इनका समय १० वीं ११ वीं शताब्दी माना गया है । ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे । सरस्वतीकण्ठाभरण, शृंगारमञ्जरी, चम्पूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहार-समुच्चय आदि अनेक ग्रन्थ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं । इनकी सभा सदा बड़े बड़े पण्डितों से सुशोभित रहती थी । इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी ।

रोहक इनका प्रधानमंत्री और भुवनपाल मंत्री था। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इनके सेनापति थे जिनकी सहायता से भोज ने राज्यसंचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति यह भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इन्हें अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमार बहुत ही उत्तेजित थे और इसीलिये परमार भोज चालुक्यों से बदला लेन के विचार से दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई करने को प्रेरित हुए। उन्होंने ने दाहल के कलबुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेन्द्र चोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय[सोलंकी] ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् 1044 ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालवा राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिय। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परन्तु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया। सन् 1018 ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवत: कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, हराया था

जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाई और पहले लाट नामक राज्य पर, जिसका विस्तार दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत तक था, आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया और भोज ने कुछ समय तक उसपर अधिकार रखा। इसके बाद लगभग सन् 1020 ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया और उनके सामंतों के रूप में शिलाहारों ने यहाँ कुछ समय तक राज्य किया। सन् 1008 ई. में जब महमूद गज़नबी ने पंजाबे शाही नामक राज्य पर आक्रमण किया, भोज ने भारत के अन्य राज्यों के साथ अपनी सेना भी आक्रमणकारी का विरोध करने तथा शाही आनंदपाल की सहायता करने के हेतु भेजी परंतु हिंदू राजाओं के इस मेल का कोई फल न निकला और इस अवसर पर उनकी हार हो गई। सन् 1043 ई. में भोज ने अपने भृतिभोगी सिपाहियों को पंजाब के मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली के राजा के पास भेजा। उस समय पंजाब गज़नी साम्राज्य का ही एक भाग था और महमूद के वंशज ही वहाँ राज्य कर रहे थे। दिल्ली के राजा को भारत के अन्य भागों की सहायता मिली और उसने पंजाब की ओर कूच करके मुसलमानों को हराया और कुछ दिनों तक उस देश के कुछ भाग पर अधिकार रखा परंतु अंत में गज़नी के राजा ने उसे हराकर खोया हुआ भाग पुन: अपने साम्राज्य में मिला लिया।

भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी चढ़ाई कर दी जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा। सन् 1055 ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहा था कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।

उत्तर में भोज ने चंदेलों के देश पर भी आक्रमण किया था जहाँ विद्याधर नामक राजा राज्य करता था। परंतु उससे कोई लाभ न हुआ। भोज के ग्वालियर पर विजय प्राप्त करने के प्रयत्न का भी कोई अच्छा फल न हुआ क्योंकि वहाँ के राजा कच्छपघाट कीर्तिराज ने उसके आक्रमण का डटकर सामना किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भोज ने कुछ समय के लिए कन्नौज पर भी विजय पा ली थी जो उस समय प्रतिहारों के पतन के बादवाले परिवर्तन काल में था।

भोज ने राजस्थान में शाकंभरी के चाहमनों के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा चाहमान वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानों के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा।

भोज ने गुजरात के चौलुक्यों [सोलंकी ] से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य सोलंकी नरेश मूलराज प्रथम के पुत्र चंमुदराज को वाराणसी जाते समय मालवा में परमार भोज के हाँथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को इसपर बड़ा क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने भोज के विरुद्ध एक बड़ी सेना तैयार की और भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपन हाथों में ली। कुछ समय बाद भाज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, जब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी। जैसा ऊपर बताया जा चुका है, सन् 1055 ई. के थोड़े ही पहले भीम ने कलचुरी कर्ण से संधि करके मालवा पर आक्रमण कर दिया था परन्तु भोज के रहते वे उस प्रदेश पर अधिकार न पा सके।

कथा

राजा भोज से सम्बन्धित अनेक कथाएँ हैं। अलबेरूनी ने अपने भ्रमण वृत्तान्त में एक अद्भुत कथा लिखी है । वह लिखता है कि 'मालवे की राजधानी धार में , जहाँ पर इस समय भोजदेव राज्य करता है , राज-महल के द्वार पर, शुद्ध चांदी का एक लंबा टुकड़ा पड़ा है । उसमें मनुष्य की आकृति दिखाई देती है । लोग इसकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार बतलाते हैं' - "प्राचीन काल में किसी समय एक मनुष्य कोई विशेष प्रकार का रासायनिक पदार्थ लेकर वहाँ के राजा के पास पहुँचा । उस रासायनिक पदार्थ का यह गुण था कि उसके उपयोग से मनुष्य अमर , विजयी , अजेय और मनोवाञ्छित कार्य करने में समर्थ हो सकता था । उस पुरुष ने , राजा को उसका सारा हाल बतला कर , कहा कि आप अनुक समय अकेले आकर इसका गुण आजमा सकते हैं । इस पर राजा ने उसकी बात मान लीं और साथ ही उस पुरुष की चाही हुई सब वस्तुऐं एकचित्र कर देने की , अपने कर्मचारियों को आज्ञा दें दी । इसके बाद वह पुरुष कई दिनों तक एक बड़ी कड़ाही में तेल गरम करता रहा । और जब वह गाड़ा हो गया तब राजा से बोला कि , अब आप इस में कूद पड़ें , तो मैं बाकी की क्रियाएँ भी समाप्त कर डालू । परन्तु राजा की उसके कथनानुसार जलते हुए तेल में कूदने की हिम्मत न हुई । यह देख उसने कहा कि , यदि आप इसमें कूदने से डरते है , तो मुझे आने दीजिये ताकि मैं यह सिद्धि प्राप्त कर लू । राजा ने यह बात मान ली । इस पर उस पुरुष ने औषधियों की कई पुड़ियाँ निकाल कर राजा को दी और समझा दिया कि इस इस प्रकार के चिह्न दिखाई देने पर वे अन्य पुड़िया तेल में डाल दे । इस प्रकार राजा को समझा बुझाकर वह पुरुष उस कड़ाही में कूद पड़ा और क्षण भर में ही गलकर एक गाढ़ा तरल पदार्थ बन गया । राजा भी उसकी बतलाई विधि के अनुसार एक एक पुड़िया उसमें डालने लगा । परन्तु जब बह एक पुड़िया को छोड़कर बाकी सारी की सारी पुड़ियाएँ डाल चुका तब उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि , यदि वास्तव में ही यह पुरुष अमर , विजयी , और अजेय होकर जीवित हो गया , तो मेरी और मेरे राज्य की क्या दशा होगी । ऐसा विचार उत्पन्न होते ही उसने वह अन्तिम पुड़िया तेल में न डाली । इससे वह कड़ाही ठंडी हो गई और वह घुला हुआ पुरुष चांदी के उपर्यत टुकड़े के रूप में जम गया ।"[२]

साम्राज्य

भोज का साम्राज्य : उदयपुर की ग्वालियर प्रशस्ति में लिखा है कि सम्राट भोज का राज्य उत्तर में हिमालय से, दक्षिण में मलयाचल तक और पूर्व में उदयाचल से पश्चिम में अस्ताचल तक फैला हुआ था। इस सम्बन्ध में निम्न श्लोक इस प्रकार है -

आकैलासान्मलयर्गिरतोऽ स्तोदयद्रिद्वयाद्वा।
भुक्ता पृथ्वी पृथुनरपतेस्तुल्यरूपेण येन॥१७॥[३][४]

कुछ विद्वानों का मत है कि सम्राट भोज का राज्य लगभग संपुर्ण भारतवर्ष पर ही था। उसका अधिकार पूर्व में डाहल या चेदि, कन्नौज, काशी, बंगाल, बिहार, उड़ीसा और आसाम तक था । दक्षिण में विदर्भ, महाराष्ट्र, कर्णाट और कांची तक तथा पश्चिम में गुजरात, सौराष्ट्र और लाट तक, तथा उत्तर में चित्तौड़ साँभर और काश्मीर तक था। चम्पू रामायण में भोज को विदर्भ का राजा कहाँ गया है और विदर्भराज की उपाधि से विभुषित किया गया है। [५][६] भोज के राज्य विस्तार को दर्शाता हुआ और एक श्लोक इस प्रकार है -

केदार-रामेश्वर-सोमनाथ-सुण्डीर-कालानल-रूद्रसत्कैः ।
सुराश्रयैर्व्याप्य च यःसमन्ताद्यथार्थसंज्ञां जगतीं चकार ॥२०॥[७]

इसी से स्पष्ट है कि भोज ने अपने साम्राज्य के पूर्वी सीमा पर सुंदरबन स्थित सुण्डिर, दक्षिणी सीमा पर रामेश्वर, पश्चिमी सीमा पर सोमनाथ तथा उत्तरी सीमा पर केदारनाथ सरिख विख्यात मंदिरों का निर्माण तथा पुर्ननिर्माण किया था। भोज ने काश्मीर में कुण्ड भी बनवाया था। भोज के साम्राज्य विस्तार पर विद्वानों में थोडा मतभेद हो सकता है क्योंकि भोज की साम्राज्य सीमाएं विस्तिर्ण किंतु थोड़ी अस्थिर रही। [८] भोज का काश्मीरराज्य भी इतिहास में दर्ज है। विश्वेश्वरनाथ रेउ ने राजा भोज से सम्बन्धित राज्यों की सुचि में काश्मीरराज्य के विषय में लिखा है कि राजा भोज ने सुदूर काश्मीरराज्य के कपटेश्वर ( कोटेर ) तीर्थ में पापसूदन का कुण्ड बनवाया था और वह सदा वहीं के लाए हुए जल से मुँह धोया करता था । इसके लिये वहाँ का जल मंगवाने का पूरा पूरा प्रबन्ध किया गया था । [९]

कृतियाँ

राजा भोज बहुत बड़े वीर और प्रतापी होने के साथ-साथ प्रकाण्ड पंडित और गुणग्राही भी थे। इन्होंने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

राजा भोज ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में रचनाएँ की हैं। उन्होने कोई ८४ ग्रन्थों की रचना की है। उनमें से प्रमुख हैं-[१०]

  • राजमार्तण्ड (पतंजलि के योगसूत्र की टीका)
  • सरस्वतीकंठाभरण (व्याकरण)
  • सरस्वतीकण्ठाभरण (काव्यशास्त्र)
  • शृंगारप्रकाश (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र)
  • तत्त्वप्रकाश (शैवागम पर)
  • वृहद्राजमार्तण्ड (धर्मशास्त्र)
  • राजमृगांक (चिकित्सा)
  • विद्याविनोद
  • युक्तिकल्पतरु - यह ग्रन्थ राजा भोज के समस्त ग्रन्थों में अद्वितीय है। इस एक ग्रन्थ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति, वास्तु, रत्नपरीक्षा, विभिन्न आयुध, अश्व, गज, वृषभ, महिष, मृग, अज-श्वान आदि पशु-परीक्षा, द्विपदयान, चतुष्पदयान, अष्टदोला, नौका-जहाज आदि के सारभूत तत्त्वों का भी इस ग्रन्थ में संक्षेप में सन्निवेश है। विभिन्न पालकियों और जहाजों का विवरण इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रकार के खड्गों का सर्वाधिक विवरण इस पुस्तक में ही प्राप्त होता है।

डॉ महेश सिंह ने उनकी रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है-

  • संकलन : सुभाषितप्रबन्ध
  • शिल्प : समरांगणसूत्रधार
  • खगोल एवं ज्योतिष : आदित्यप्रतापसिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगांक, विद्वज्ञानवल्लभ (प्रश्नविज्ञान)
  • धर्मशास्त्र, राजधर्म तथा राजनीति : भुजबुल (निबन्ध) , भुपालपद्धति, भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय
  • चाणक्यनीति या दण्डनीति : व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड, राजनीतिः
  • व्याकरण : शब्दानुशासन
  • कोश : नाममालिका
  • चिकित्साविज्ञान : आयुर्वेदसर्वस्व,

विद्वानों का उपनाम भोज

विजयनगर का सम्राट कृष्णदेवराय स्वयं उच्चकोटि का विद्वान और प्रतिभासंपन्न कवि था । उसे आंध्र का भोज कहा गया है। [११]

भोज के समय में भारतीय विज्ञान

समराङ्गणसूत्रधार का ३१वां अध्याय ‘यंत्रविज्ञान’ से सम्बन्धित है। इस अध्याय में यंत्र, उसके भेद और विविध यंत्रनिर्माण-पद्धति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यंत्र उसे कहा गया है जो स्वेच्छा से चलते हुए (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि) भूतों को नियम से बांधकर अपनी इच्छानुसार चलाया जाय ।[१२]

स्वयं वाहकमेकं स्यात्सकृत्प्रेर्यं तथा परम् ।
अन्यदन्तरितं बाह्यं बाह्यमन्यत्वदूरत: ॥

इन तत्वों से निर्मित यंत्रों के विविध भेद हैं, जैसे :- (1) स्वयं चलने वाला, (2) एक बार चला देने पर निरंतर चलता रहने वाला, (3) दूर से गुप्त शक्ति से चलाया जाने वाला तथा (4) समीपस्थ होकर चलाया जाने वाला।

राजा भोज के भोजप्रबन्ध में लिखा है –

घटयेकया कोशदशैकमश्व: सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या ।
वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्त्रम ॥

भोज ने यंत्रनिर्मित कुछ वस्तुओं का विवरण भी दिया है। यंत्रयुक्त हाथी चिंघाड़ता तथा चलता हुआ प्रतीत होता है। शुक आदि पक्षी भी ताल के अनुसार नृत्य करते हैं तथा पाठ करते है। पुतली, हाथी, घोडा, बन्दर आदि भी अंगसंचालन करते हुए ताल के अनुसार नृत्य करते मनोहर लगते है। उस समय बना एक यंत्रनिर्मित पुतला नियुक्त किया था। वह पुतला वह बात कह देता था जो राजा भोज कहना चाहते थे ।।

भोज की कीर्ति

सम्राट भोज जहां कुशल प्रशासक और सेनापति था वहीं विद्या प्रेमी और कवि भी था। [१३]

भोज की दान-कीर्ति

बल्लाल सेन द्वारा रचित भोजप्रबन्ध तो भोज द्वारा विद्वानों और कवियों के सम्मान एवं उन्हे पुरस्कार स्वरूप दिये गये दान की कथाओं से भरा पड़ा है। विल्हण ने अपने विक्रमाङ्कदेवचरित् में लिखा है कि, अन्य नरेशों की तुलना राजा भोज से नहीं की जा सकती। इसके अलावा उस समय राजा भोज का यश इतना फैला हुआ था कि अन्य प्रान्तों के विद्वान् अपने यहाँ के नरेशों की विद्वत्ता और दान शीलता दिखलाने के लिये राजा भोज से ही उनकी तुलना किया करते थे। राजतरङ्गिणी में लिखा है कि उस समय विद्वान् और विद्वानों के आश्रयदाता क्षीतिराज ( क्षितपति ) और भोजराज ये दोनों ही अपने दान की अधिकता से संसार में प्रसिद्ध थे। विल्हण ने भी अपने विक्रमांकदेवचरित् में क्षितिपति की तुलना भोजराज से ही की है। उसमें लिखा है कि लोहरा का राजा वीर क्षीतपती भी भोज के ही समान गुणी था।[१४]

सन्दर्भ

  1. राजा भोज. श्रीयुत विश्वेश्वरनाथ रेउ. पृ. 1.इलाहाबाद.हिंदुस्थानी एकेडेमी, यु. पी.1932.
  2. राजा भोज. श्रीयुत विश्वेश्वरनाथ रेउ. पृ. 125.इलाहाबाद.हिंदुस्थानी एकेडेमी, यु. पी.1932.
  3. एपिग्राफिया इंडिका.भाग.१.पृ.२३५. श्लो.१७.
  4. राजा भोज. श्रीयुत विश्वेश्वरनाथ रेउ. पृ. 125.इलाहाबाद.हिंदुस्थानी एकेडेमी, यु. पी.1932.
  5. राजा भोज. श्रीयुत विश्वेश्वरनाथ रेउ.इलाहाबाद.हिंदुस्थानी एकेडेमी, यु. पी.1932.
  6. धारा देवी तथा भोज.मध्यप्रदेश संदेश.4 अप्रैल 1970.पृ.१३
  7. एपिग्राफिया इंडिका. भाग.१. पृ.२३६.श्लो.२०.
  8. राजा भोज. श्रीयुत विश्वेश्वरनाथ रेउ.इलाहाबाद.हिंदुस्थानी एकेडेमी, यु. पी.1932.
  9. राजा भोज. श्रीयुत विश्वेश्वरनाथ रेउ. पृ.235.इलाहाबाद.हिंदुस्थानी एकेडेमी, यु. पी.1932.
  10. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  11. Pārva madhyakālina Bhārata kā rūjannitika evani sāmskrtika itihāsa.Bhanwarlal Nathuram Luniya 1968.
  12. The Concept of Yantra in the SamarangaNasutradhara of Bhoja स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। (Indian Journal of history of Science, 19(2);118-124(1984)
  13. Gurjara vīra-vīrāṅganāeṃ.Bhāratīya itihāsa kā śānadāra adhyāya.p.40.Gaṇapati Siṃha.Cau. Vīrabhāna Baṛhānā.1986
  14. राजा भोज. श्रीयुत विश्वेश्वरनाथ रेउ. पृ.106. इलाहाबाद. हिंदुस्थानी एकेडेमी, यु. पी.1932.

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ