भोजशाला
भोजशाला, राजा भोज द्वारा निर्मित संस्कृत अध्ययन का केन्द्र तथा सरस्वती का मन्दिर था। बीसवीं शदी के आरम्भिक दिनो से मध्य प्रदेश के धार में स्थित वर्तमान भोजशाला को विवादित कामिल मौला मसजिद माना जाने लगा है।
सरस्वती का यह भव्य मंदिर पूर्व कि ओर मुख किये हुए बहुमंजिला आयताकर भवन है जो अपने वास्तु शिल्प के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है।
परिचय
महारजा भोज माँ सरस्वती के वरदपुत्र थे। उनकी तपोभूमि धारा नगरी में उनकी तपस्या और साधना से प्रसन्न हो कर माँ सरस्वती ने स्वयं प्रकट हो कर दर्शन दिए। माँ से साक्षात्कार के पश्चात उसी दिव्य स्वरूप को माँ वाग्देवी की प्रतिमा के रूप में अवतरित कर भोजशाला में स्थापित करवाया जहाँ पर माँ सरस्वती की कृपा से महराजा भोज ने ६४ प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की। उनकी अध्यात्मिक, वैज्ञानिक, साहित्यिक अभिरुचि, व्यापक और सूक्ष्म दृष्टी, प्रगतिशील सोच उनको दूरदर्शी तथा महानतम बनाती है। महाराजा भोज ने माँ सरस्वती के जिस दिव्य स्वरूप के साक्षात् दर्शन किये थे उसी स्वरूप को महान मूर्तिकार मंथल ने निर्माण किया। भूरे रंग के स्फटिक से निर्मित यह प्रतिमा अत्यन्त ही चमत्कारिक, मनोमोहक एव शांत मुद्रा वाली है, जिसमें माँ का अपूर्व सोंदर्य चित्ताकर्षक है। ध्यानस्थ अवस्था में वाग्देवी कि यह प्रतिमा विश्व की सबसे सुन्दर कलाकृतियों में से एक मानी जाती है।
माँ सरस्वती का प्राकट्य स्थल भोजशाला हिन्दू जीवन दर्शन का सबसे बड़ा अध्यन एवं प्रचार प्रसार का केंद्र भी था जहाँ देश विदेश के लाखों विद्यार्थियों ने १४०० प्रकाण्ड विद्वान आचार्यो के सानिध्य आलोकिक ज्ञान प्राप्त किया । इन आचार्यो में भवभूति, माघ, बाणभट्ट, कालिदास, मानतुंग, भास्करभट्ट, धनपाल, बौद्ध संत बन्स्वाल, समुन्द्र घोष आदि विश्व विख्यात है। महाराजा भोज के पश्चात अध्यन अध्यापन का कार्य २०० वर्षो तक निरन्तर जारी रहा।
माँ के प्रगट्य स्थल पर सेकड़ो वर्षो से अविरत आराधना, यज्ञ, हवन, पूजन एवं तपस्वियों की साधना से भोजशाला सम्पूर्ण विश्व में सिद्ध पीठ के रूप में आस्था और श्रद्धा का केंद्र है। १२६९ इसवी से ही इस्लामी आक्रंताओ ने अलग अलग तरीको से योजना पूर्वक भारत वर्ष के इस अध्यात्मिक और सांस्कृतिक मान बिंदु भोजशाला पर आक्रमण किया जिसे तत्कालीन हिन्दू राजाओ ने विफल कर दिया।
सन १३०५ मे इस्लामी बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने भोजशाला पर आक्रमण कर दिया तथा भोजशाला को के कुछ भाग को भी ध्वस्त किया। आचार्यो की हत्या कर यज्ञ कुण्ड में डाल दिया। राजा मेदनीराय ने वनवासी धर्मयोधाओ को साथ ले कर मुस्लिम आक्रान्ताऔ को मार भगाया गया। तत्पश्चात १९०२ में से वाग्देवी की प्रतिमा को मेजर किनकैड अपने साथ इंग्लेंड ले गया, जो, आज भी लन्दन संग्रहालय में कैद है।