अगस्त्यमुनि मन्दिर, रुद्रप्रयाग
अगस्त्यमुनि मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले के अगस्त्यमुनि नामक शहर में स्थित है। पुराना मन्दिर दक्षिण भारतीय शैली में बना है जिसमें बाद में पुनरुद्धार हेतु परिवर्तन हुआ। मुख्य मन्दिर में अगस्त्यमुनि का कुण्ड एवं उनके शिष्य भोगाजीत की प्रतिमा है। साथ में महर्षि अगस्त्य के इष्टदेव अगस्त्येश्वर महादेव का मन्दिर है।
इतिहास
दक्षिण की ओर जाने से पहले (जहाँ से वे कभी वापस नहीं आये) महर्षि अगस्त्य उत्तर भारत में देवभूमि उत्तराखण्ड की यात्रा पर आये थे। यहाँ पर रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि शहर में नागकोट नामक स्थान के पास महर्षि अगस्त्य ने सूर्य भगवान तथा श्रीविद्या की उपासना की थी।
कई स्थानीय राजा महर्षि के शिष्य बन गये जिनमें भोगाजीत, कर्माजीत, शील आदि शामिल थे। इन सभी के रुद्रप्रयाग जिले में विभिन्न स्थानों पर मन्दिर हैं।
आतापी-वातापी दैत्य
जब मुनि इस स्थान पर वास कर रहे थे तो उस क्षेत्र में आतापी तथा वातापी नामक दो दैत्य भाइयों ने अत्यंत आतंक फैला रखा था। वे रूप बदलकर ऋषियों को भोजन के बहाने बुलाते थे, एक भाई सूक्ष्मरूप धारणकर भोजन में छिपकर बैठ जाता था एवं दूसरा भोजन परोसता था। भोजन सहित असुर को निगल लेने के बाद दूसरा उसे आवाज देता था तथा वह पेट फाड़कर बाहर आ जाता था तथा दोनों मिलकर ऋषि को मारकर खा जाते थे। सभी लोग इन राक्षसों से तंग आ चुके थे तथा उन्होंने महर्षि अगस्त्य से इन दोनों से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना की। मुनि जी इन राक्षसों के यहाँ भोजन करने गये, जब पहला राक्षस भोजन सहित पेट में चला गया तो मुनि जी ने मन्त्र पढ़कर उसे जठराग्नि से पेट में ही जला दिया (अगस्त्य मुनि पूर्वजन्म में जठराग्नि रूप में थे)। जब दूसरे राक्षस के पुकारने पर भी वह वापस न आया तो वह राक्षस अपने असली रूप में आकर मुनि जी से युद्ध करने लगा। यह युद्ध बहुत दिनों तक चला, राक्षस अत्यन्त बलवान था तथा मुनि जी थक गये। तब उन्होंने देवी का स्मरण किया, देवी कूर्मासना (स्थानीय बोली में कुमास्योंण) रूप में प्रकट हुयी। जिस स्थान पर देवी प्रकट हुयी वहाँ वर्तमान में कूर्मासना मन्दिर है। देवी नें दैत्य का सिल्ला नामक स्थान पर वध किया, वहाँ पर वर्तमान में स्थानेश्वर महादेव का मन्दिर है जिसमें राक्षसी कुण्ड बना है।[१]
पुराना देवल
यह महर्षि का मूल तपोस्थल था जहाँ पर पुराने समय में मन्दिर था। यह वर्तमान मन्दिर से लगभग आधा किलोमीटर दूर है। हजारों वर्ष पहले वहाँ एक बार बाढ़ आयी जिसमें मन्दिर बह गया। इसके बाद किसी स्थानीय निवासी को स्वप्न हुआ कि मैं (मुनि देवता) इस नये स्थान पर आ गया हूँ। नये स्थान पर जहाँ स्वप्न में बताया गया था वहाँ महर्षि अगस्त्य का कुण्ड है। बाढ़ में बही महर्षि की मूल प्रतिमा का पता नहीं चला। इसकी जगह महर्षि के शिष्य भोगाजीत की तांबे की प्रतिमा कुण्ड के ठीक साथ में स्थापित की गयी। वर्तमान में मुख्य रूप से इसी प्रतिमा की मुनिजी के रूप में ही पूजा की जाती है। भोगाजीत की अष्टधातु की एक अन्य प्रतिमा है जो यात्रा के समय बाहर ले जायी जाती है।
मठाधीश
मान्यता के अनुसार बहुत वर्षों पहले एक बार अगस्त्यमुनि मन्दिर के पुजारी का देहान्त हो गया था जिस कारण वहाँ पूजा बन्द थी। इसी समय दक्षिण से कोई दो आदमी जो कि उत्तराखण्ड की यात्रा पर आये हुये थे, अगस्त्य ऋषि के मन्दिर के बारे में पता लगने पर मन्दिर में दर्शन को आये। स्थानीय लोगों ने उन्हें मना किया के मन्दिर के अन्दर मत जाओ, पूजा बन्द है और जो अन्दर जा रहा है उसकी मृत्यु हो रही है। उन्होंने कहा कि अगस्त्य ऋषि तो हमारे देवता हैं, हम तो दर्शन करेंगे ही (दक्षिण में भी अगस्त्य ऋषि का आश्रम है)। वे अन्दर गये, दर्शन किया और उनको कुछ न हुआ तो स्थानीय लोगों ने उनसे ही मन्दिर में पूजा व्यवस्था सम्भालने का अनुरोध किया। वे वहाँ पुजारी हो गये तथा पहाड़ के ऊपर एक स्थान पर वे रहने लगे तथा बेंजी नामक गाँव बसाया। तब से अगस्त्यमुनि मन्दिर में ग्राम बेंजी से ही पुजारी (मठाधीश) होते हैं।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- ↑ स्कन्द पुराण