भारतीय विदेश सेवा
भारतीय विदेश सेवा | |||||||||||
सेवा अवलोकन | |||||||||||
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संक्षिप्त नाम | आई.एफ.एस. (IFS) | ||||||||||
गठन | 1946 | ||||||||||
देश | साँचा:flag/core | ||||||||||
प्रशिक्षण स्थल | लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी, मसूरी | ||||||||||
नियंत्रक प्राधिकरण | कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेंशन मंत्रालय; कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग | ||||||||||
कानूनी व्यक्तित्व | सरकारी: सरकारी सेवा | ||||||||||
सामान्य प्रकृति | राजनय (डिप्लोमेसी) | ||||||||||
पूर्ववर्ती सेवा | |||||||||||
कैडर का आकार | |||||||||||
सेवा प्रमुख | |||||||||||
विदेश सचिव वर्तमान: सुजाता सिंह | |||||||||||
लोक सेवा प्रमुख | |||||||||||
कैबिनेट सचिव ाजित कुमार सॆठ | |||||||||||
भारतीय विदेश मन्त्रालय के कार्य को चलाने के लिए एक विशेष सेवा वर्ग का निर्माण किया गया है जिसे भारतीय विदेश सेवा (Indian Foreign Service I.F.S.) कहते हैं। यह भारत के पेशेवर राजनयिकों का एक निकाय है। यह सेवा भारत सरकार की केंद्रीय सेवाओं का हिस्सा है। भारत के विदेश सचिव भारतीय विदेश सेवा के प्रशासनिक प्रमुख होते हैं।
भारतीय राजनय अब संभ्रान्त परिवारों, राजा-रजवाड़ों, सैनिक अफसरों आदि तक ही सीमित न रहकर सभी के लिए खुल गया है। सामान्य नागरिक अपनी योग्यता और शिक्षा के आधार पर इस सेवा का सदस्य बन सकता है।
सन 1947-1948 की विशेष संकटकालीन भरती के अलावा विदेश सेवा के लिये चुनाव एक विशेष परीक्षा व साक्षात्कार द्वारा किया जाता है। चुनाव हो जाने के पश्चात् इन्हें एक विशेष प्रशिक्षण के लिये भेजा जाता है, जो कई भागों में पूरा होता है। इसमें शैक्षणिक विषयों का ज्ञान, विदेश भाषा की शिक्षा, एक माह के लिये विदेश दूतावास में व्यापार की शिक्षा और राष्टंमण्डल के विदेश सेवा अधिकारी प्रशिक्षण केन्द्र में डेढ़ माह का प्रशिक्षण दिया जाता है। तत्पश्चात् ही इनकी किसी विदेश दूतावास में नियुक्ति होती है। इस प्रकार प्रशिक्षित व्यावसायिक राजदूतों के अलावा सरकार समय-समय पर गैर-व्यावसायिक राजनीतिज्ञों सैनिकों, खिलाड़ियों आदि को भी राजदूत नियुक्त करती है। दूतावास में अताशों की भी नियुक्ति की जाती है। प्रधानमन्त्री कभी-कभी विशेष परिस्थितियों में अपने व्यक्तिगत प्रतिनिधि विशेष दूत अथवा घूमने वाले राजदूत (Roving Ambassador) को भी भेज सकता है। विदेश सेवा बोर्ड राजनयिक, व्यापारी एवं वाणिज्य ओर दूतावासों में अधिकारियों की नियुक्ति, उनका स्थानान्तरण और पदोन्नति के कार्य करता है।
इतिहास
13 सितम्बर 1783 को ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक मंडल ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के फोर्ट विलियम में एक ऐसा विभाग बनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया जो वारेन हेस्टिंग्स प्रशासन पर इसके द्वारा "गोपनीय एवं राजनीतिक कारोबार" के संचालन में "दबाव को कम करने" में मदद कर सके। हालांकि इसकी स्थापना कंपनी द्वारा की गयी थी, फिर भी भारतीय विदेश विभाग ने विदेशी यूरोपीय शक्तियों के साथ कारोबार किया। शुरुआत से ही विदेश विभाग के विदेशी और राजनीतिक कार्यों के बीच एक अंतर बनाए रखा किया गया था; सभी "एशियाई शक्तियों" (स्वदेशी शाही रियासतों सहित) को राजनीतिक के रूप में माना गया था जबकि यूरोपीय शक्तियों के साथ संबंधों को विदेशी के रूप में समझा गया था।[१]
1843 में भारत के गवर्नर-जनरल एडवर्ड लॉ, एलेनबोरो के पहले अर्ल ने सरकार के सचिवालय को चार विभागों - विदेश, गृह, वित्त और सैन्य विभाग में व्यवस्थित कर प्रशासनिक सुधारों को अंजाम दिया। इनमें से प्रत्येक की अध्यक्षता एक सचिव-स्तर के अधिकारी द्वारा की गयी थी। विदेश विभाग के सचिव को "सरकार के बाह्य और आंतरिक राजनयिक संबंधों से संबंधित सभी तरह के पत्राचार के संचालन" का कार्यभार सौंपा गया था।
भारत सरकार के अधिनियम 1935 ने विदेश विभाग के विदेशी और राजनीतिक अंगों की कार्यप्रणालियों को और अधिक स्पष्ट रूप से निरूपित करने का प्रयास किया, शीघ्र ही यह महसूस किया गया कि विभाग को पूरी तरह से दो शाखाओं में बांटना प्रशासकीय रूप से अनिवार्य था। नतीजतन गवर्नर-जनरल के प्रत्यक्ष प्रभार के तहत अलग से विदेशी विभाग की स्थापना की गयी।
भारत सरकार की बाहरी-गतिविधियों को संचालित करने के लिए एक राजनयिक सेवा के गठन का विचार योजना और विकास विभाग के सचिव, लेफ्टिनेंट-जनरल टी.जे. हटन द्वारा रिकॉर्ड किये गए दिनांक 30 सितम्बर 1944 के एक नोट से उत्पन्न हुआ था। जब इस नोट को विदेशी विभाग के पास उनकी टिप्पणी के लिए भेजा गया तो विदेश सचिव, ओलफ कैरोई ने अपनी टिप्पणियां एक विस्तृत नोट में प्रस्तावित सेवा की सीमा, संरचना और कार्यों के विस्तार से रिकॉर्ड की। कैरोई ने यह बताया था कि जिस तरह भारत एक स्वायत्त राष्ट्र के रूप में उभरा है, इसके लिए विदेश में प्रतिनिधित्व की एक ऐसी प्रणाली तैयार करना अनिवार्य है जो भावी सरकार के उद्देश्यों के साथ पूर्ण सामंजस्य बिठा सके।
सितंबर 1946 को भारत की आजादी के ठीक पहले भारत सरकार ने विदेशों में भारत के कूटनीतिक, दूतावास संबंधी और वाणिज्यिक प्रतिनिधित्व के लिए भारतीय विदेश सेवा की स्थापना की। आजादी के साथ ही विदेशी और राजनीतिक विभाग का लगभग-पूर्ण रूपांतरण एक ऐसे स्वरूप में हुआ जो उस समय का नया विदेशी मामलों और राष्ट्रमंडल संबंधों का मंत्रालय बना।
चयन
1948 में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित संयुक्त सिविल सेवा परीक्षा के तहत नियुक्त भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों के पहले समूह ने सेवा में योगदान दिया। इस परीक्षा को आज भी नए आईएफएस अधिकारियों के चयन के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
सिविल सेवा परीक्षा का प्रयोग कई भारतीय प्रशासनिक निकायों की भर्ती के लिए किया जाता है। इसके तीन चरण हैं - प्रारंभिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार।
संपूर्ण चयन प्रक्रिया लगभग 12 महीनों तक चलती है। लगभग 400,000 प्रतिभागियों में से प्रति वर्ष लगभग 800 से 900 उम्मीदवारों का चयन अंतिम रूप से किया जाता है, लेकिन केवल एक अच्छी रैंक ही आईएफएस में चयन की गारंटी देती है - जिसकी स्वीकृति दर 0.01 फीसदी है।
हाल के वर्षों में भारतीय विदेश सेवा में प्रति वर्ष औसतन लगभग 20 व्यक्तियों को शामिल किया जाता है। सेवा की वर्तमान कैडर संख्या लगभग 600 अधिकारियों की है जिसमें लगभग 162 अधिकारी विदेशों में भारतीय मिशन एवं पदों पर और देश में विदेशी मामलों के मंत्रालय में विभिन्न पदों पर आसीन हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारतीय राजनयिकों की संख्या में कमी की जानकारी दी थी।[२]
प्रशिक्षण
विदेश सेवा के लिए स्वीकृति मिलाने पर नए सदस्यों को महत्वपूर्ण प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है। नए सदस्य एक परिवीक्षाधीन अवधि से गुजरते हैं (और इन्हें परिवीक्षार्थी (प्रोबेशनर) कहा जाता है). प्रशिक्षण की शुरुआत मसूरी में स्थित लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी में होती है जहां कई विशिष्ट भारतीय सिविल सेवा संगठनों के सदस्यों को प्रशिक्षित किया जाता है।
लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी का प्रशिक्षण पूरा करने के बाद परिवीक्षार्थी आगे प्रशिक्षण के साथ-साथ विभिन्न सरकारी निकायों के साथ संलग्न होने और भारत एवं विदेश में भ्रमण के लिए नई दिल्ली में स्थित विदेश सेवा संस्थान में दाखिला लेते हैं। संपूर्ण प्रशिक्षण कार्यक्रम 36 महीनों की अवधि का होता है।
प्रशिक्षण कार्यक्रम के समापन पर अधिकारी को अनिवार्य रूप से एक विदेशी भाषा (सीएफएल) सीखने का जिम्मा दिया जाता है। एक संक्षिप्त अवधि तक विदेशी मामलों के मंत्रालय से संलग्न रहने के बाद अधिकारी को विदेश में एक भारतीय राजनयिक मिशन पर नियुक्त किया जाता है जहां की स्थानीय भाषा सीएफएल हो। वहां अधिकारी भाषा का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और उनसे उनके सीएफएल में दक्षता प्राप्त करने और एक परीक्षा उत्तीर्ण करने की अपेक्षा की जाती है, उसके बाद ही उन्हें सेवा में बने रहने की अनुमति दी जाती है।
करियर और पद संरचना
- दूतावास में:
- तृतीय सचिव (प्रवेश स्तर)
- द्वितीय सचिव (सेवा में पुष्टि के बाद पदोन्नति)
- प्रथम सचिव
- सलाहकार
- मंत्री
- मिशन के उप-अध्यक्ष/ उप उच्चायुक्त/ उप स्थायी प्रतिनिधि
- राजदूत/उच्चायुक्त/स्थायी प्रतिनिधि
- वाणिज्य दूतावास में:
- उप वाणिज्यदूत
- वाणिज्यदूत
- महावाणिज्यदूत
- विदेश मंत्रालय में
- अवर सचिव
- उप सचिव
- निदेशक
- संयुक्त सचिव
- अतिरिक्त सचिव
- सचिव