भूगणित

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बेल्जियम के ओस्टेन्ड नामक स्थान पर स्थित एक पुराना भूगणितीय स्तम्भ (1855)

भूगणित (Geodesy or Geodetics) भूभौतिकी एवं गणित की वह शाखा है जो उपयुक्त मापन एवं प्रेक्षण के आधार पर पृथ्वी के पृष्ठ पर स्थित बिन्दुओं की सही-सही त्रिबिम-स्थिति (three-dimensional postion) निर्धारित करती है। इन्ही मापनों एवं प्रेक्षणों के आधार पर पृथ्वी का आकार एवं आकृति, गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र तथा भूपृष्ट के बहुत बड़े क्षेत्रों का क्षेत्रफल आदि निर्धारित किये जाते हैं। इसके साथ ही भूगणित के अन्दर भूगतिकीय (geodynamical) घटनाओं (जैसे ज्वार-भाटा, ध्रुवीय गति तथा क्रस्टल-गति आदि) का भी अध्ययन किया जाता है।

पृथ्वी के आकार तथा परिमाण का और भूपृष्ठ पर संदर्भ बिंदुओं की स्थिति का यथार्थ निर्धारण हेतु खगोलीय प्रेक्षणों की आवश्यकता होती है। इस कार्य में इतनी यथार्थता अपेक्षित है कि ध्रुवों (poles) के भ्रमण से उत्पन्न देशांतरों में सूक्ष्म परिवर्तनों पर और समीपवर्ती पहाड़ों के गुरुत्वाकर्षण से उत्पन्न ऊर्ध्वाधर रेखा की त्रुटियों पर ध्यान देना पड़ता है। पृथ्वी पर सूर्य और चंद्रमा के ज्वारीय (tidal) प्रभाओं का भी ज्ञान आवश्यक है और चूँकि सभी थल सर्वेक्षणों में माध्य समुद्रतल (mean sea level) आधार सामग्री होता है, इसलिये माहासागरों के प्रमुख ज्वारों का भी अघ्ययन आवश्यक है। भूगणितीय सर्वेक्षण के इन विभिन्न पहलुओं के कारण भूगणित के विस्तृत अध्ययन क्षेत्र में अब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र का, भूमंडल पृष्ठ समाकृति पर इसके प्रभाव का और पृथ्वी पर सूर्य तथा चंद्रमा के गुरुत्वीय क्षेत्रों के प्रभाव का अध्ययन समाविष्ट है।

पृथ्वी की आकृति (ऐतिहासिक)

यद्यपि कोलंबस (1492 ई0) से पूर्व यूनानी-मिस्त्री ज्योतिर्विद टॉलिमि के समय में देशांतर तथा अक्षांशों वाले नक्शे प्रचलित थे (भले ही वे कितने भी त्रुटिपूर्ण रहे हों) और बिना देशोतरों तथा अक्षांशों वाले नाविक चार्टों का भी प्रचार था, किंतु कोलंबस के समय में ही पृथ्वी की आकृति को ध्यान में रखकर बनाए हुए यथार्थ नक्शों की आवश्यकता का अनुभव हो गया था। आरंभ में मनुष्य की धारणा थी कि पृथ्वी समुद्रों, नदियों और पहाड़ों से युक्त एक चौरसतल अथवा एक वृत्ताकार मंडलक (disc) है, किंतु खगोलविद्या के पुजारी बेबीलोन वासी आदि जातियों ने जब यह देखा कि दक्षिण दिशा में जाने पर आकाश में तारों की व्यवस्था बदलती जाती है तथा नए नए तारे दिखाई पड़ते हैं और उत्तरी सदोदित तारों की संख्या घटती जाती है, तो उन्हें यह आभास हुआ कि कदाचित् पृथ्वी गोलाकार है और कुछ नहीं तो उसका पृष्ठ वक्रतापूर्ण अवश्य है। समुद्रवासियों ने जहाज को दूर जाने के साथ साथ उसे नीचे जाते भी देखा, तो उन्हें भी गोलीय नहीं तो पिंडाकार पृथ्वी की कल्पना करनी पड़ी होगी, किंतु इस सबका कोई प्रमाण नहीं है।

पृथ्वी गोलाकार है, इस मत का सर्वप्रथम प्रवर्तन पाइथैगोरैस या उसके दर्शनानुयायियों का है; किंतु उनके विचार भौतिक तथ्यों पर अवलंबित न होकर तात्विक (metaphysical) थे। अरस्तू के समय में यूनानियों द्वारा पृथ्वी को गोलाकार माना जाने लगा था। उसने पृथ्वी की परिधि का अनुमान 4,00,000 स्टेडियम (stadium) दिया (1 स्टेडियम = 185 मीटर) और बताया कि अन्य आकाशीय पिंडों की तुलना में पृथ्वी खास बड़ी नहीं है। ऐलेग्जैड्रिया का ऐरेटोस्थनीज (लगभग 276 ई0 पू0 से 195 ई0 पू0 तक) पहला लेखक है, जिसने भूपरिधि निर्धारण की विधि बताई। नील नदी पर आधुनिक एस्वॉन को, जो तब 'सीन' के नाम से प्रसिद्ध था, उसने कर्क रेखा (Tropic of Cancer) पर स्थित समझा और उत्तर अयनांत (summer solstice) पर सूर्य को वहाँ ठीक शीर्षस्थ मान लिया। वहाँ से 5,000 स्टेडियम दूर ऐलेग्जैंड्रिया में, जो उसी देशांतर पर स्थित माना गया था, सूर्य शिरोबिंदु (zenith) से भूपरिधि का 1/50 वाँ भाग दूर देखने में आया। इस प्रकार पृथ्वी की परिधि 2,50,000 स्टेडियम ठहरी। टॉलिमि ने अपनी 'जिऑग्राफी' नामक पुस्तक में भूपरिधि अनुमान 1,80,000 स्टेडियम दिया। हो सकता है, स्टेडियम की परिभाषा अलग अलग रही हो।

भूपरिधि निर्धारण की विधि में सुधार तभी संभव हुआ जब 17वीं 18वीं शताब्दियों के बीच पृथ्वी की आकृति नारंगी के मार्निद, चपटी गोलाभ (oblate spheroid) होने की आशंका जड़ पकड़ने लगी। तब हालैंड में स्नैल (1591-1626) ने समक्ष मापन के बजाय त्रिभुजन श्रृंखला (triangulation chain) का आश्रय लिया। 1696 ई0 में पीकार्ड ने अक्षांश निर्धारण और भू-त्रिभूजन के कोणों को नापने में दूरदर्शक का प्रयोग किया। उसने एक अंश चाप की जो लंबाई दी, उसके आधार पर न्यूटन ने परिकलन द्वारा सिद्ध किया कि चंद्रमा को उसकी कक्षा में चलाने में प्रधान बल भू-आकर्षण है।

न्यूटन और उसके समकालीन हाइगेंज (Huygens) से भूगणित का नया युग आरंभ हुआ। मुख्यत: उनके द्वारा यांत्रिक ज्ञानवृद्धि के कारण और चूँकि पृथ्वी का अपने अक्ष के परित: घूर्णन सत्य माना जाने लगा, यह कल्पना प्रबल हो चली कि पृथ्वी गोलाकार न होकर लघु अक्ष (oblate) गोलाभ है, जो ध्रुवों पर चपटी है। इस धारणा की पुष्टि खगोलज्ञ रिशर के इस प्रायोगित प्रमाण से हो गई कि उसकी घड़ी जो पैरिस में ठीक चलती थी दक्षिण अमरीका के समीन नगर में ढाई मिनट प्रति घंटा सुस्त हो जाती थी। इस धारणा के विरोध में फ्रांस के कैसिनस का कहना था कि यदि पृथ्वी गोलाभ है तो विषुवत् से ध्रुव की ओर जाने पर एक अंश अक्षांश की दूरी बढ़ती जानी चाहिए। कदाचित् इसके विपरीत भी समझा जाय, क्योंकि पाठक के विचार से भूकेंद्रीय (geocentric) अक्षांश एक अंशवाला चाप वह होगा जो भूकेंद्र पर एक अंश का कोण अंतरित करता है, किंतु इसके अनुसार समक्ष प्रेक्षण नहीं किया जा सकता। खगोलीय अक्षांश (astronomical latitude) का, जो साहुल सूत्र और विषुवत् समतल के बीच के कोण है, प्रेक्षण संभव है। ध्रुवों से जाने वाला कोई भी समतल पृथ्वी से दीर्घवृताकार जैसा परिच्छेद काटेगा, जिसकी वक्रता ध्रुवों पर (जो लघु अक्ष के सिरे हैं) सबसे कम और विषुवत् पर सबसे अधिक होती है फलत: अक्षांश के प्रति चाप वृद्धि सबसे अधिक ध्रुवों पर होगी। लेकिन बात इसके विपरीत देखने में आई जिससे ऐसा लगा कि पृथ्वी दीर्घाक्ष (prolate) गोलाभ है। इस प्रकार पृथ्वी को लघ्वक्ष और दीर्घाक्ष समझने वाले विद्वानों में विवाद चल पड़ा। इसे तय करने के लिये पेरिस विज्ञान परिषद् (Paris Academy of Sciences) ने दो खोज दल भेजे, एक पेरू को और दूसरा लैपलेंड को, जिनके अक्षांशों में यथासंभव बड़ा अंतर था। 1743 ई0 में इन दलो ने जो एक अंश चाप की मापें दीं, उनेस यह निष्कर्ष निकला कि ध्रुवों पर चपटापन (oblateness) 1/213 है, जब कि आधुनिक मान 1/297 है। इसके बाद मीटर की लंबाई के निर्धारण के निमित्त पृथ्वी के चपटेपन और चाप के अनेक मापन हुए। (आरंभ में विचार यह था कि मीटर किसी भी याम्योत्तर के चतुर्थांश की लंबाई का करोड़वाँ भाग रहे, किंतु बाद में मीटर को मानक छड़ की लंबाई मान लिया गया।) यंत्रों में सुधार के साथ-साथ परिकलन विधियों में भी सुधार हुए, जिनमें गाउस का न्यूनतम वर्ग सिद्धांत (Principle of Least Squares) अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस विधि का विस्तृत उपयोग जर्मन खगोलज्ञ बेसेल ने किया। परिष्कृत प्रेक्षण विधियों और परिशुद्धि के उच्च मानकों का सूत्रपात करने में वे अग्रणी थे।

भूसर्वेक्षण यंत्र और प्रेक्षण विधियाँ

भूसर्वेक्षण के ज्योतिष कार्य के लिये खगोलीय यंत्र काम में आते हैं। देशांतर (longitude) ज्ञात करने के लिये याम्योत्तर यंत्र (transit insturment) अत्यंत प्राचीन काल से उपयोग में आता रहा है। अब इस यंत्र में स्वत: अभिलेखी (self recording) सूक्ष्ममापी लगा रहता है और वह समयलेखी (chronograph) के साथ प्रयुक्त होता है। अंक्षाश निर्धारण के लिये शिरोबिंदु दूरबीन (zenith telescope) या भंग दूरदर्शक याम्यांतर यंत्र का उपयोग किया जाता है। दिगंश निर्धारण और त्रिभूजन कोणों (triangulation angles) के मापन हेतु ऐसे थियोडोलाइटों का उपयोग किया जाता है, जो समान्य सर्वेक्षण में काम आनेवालों स अधिक सूक्ष्म एवं परिशुद्ध होते हैं। और अधिक यथार्थता की प्राप्ति के लिये कितनी ही मापें, यंत्र के क्षैतिज वृत्त पर समानत: वितरित विंदुओं से निर्दिष्ट पिंड पर, दिष्ट कर ली जाती है। इस प्रकार अंशांकन की त्रुटियों से बचा जा सकता है।

त्रिभुजन में भुजाएँ तीन-चार किलोमीटर की रहें तो अच्छा है। इससे कम रहने पर मापन त्रुटियों की संख्या बढ़ जाती है। पहाड़ी स्थल पर 300 किलोमीटर तक की दूरी पर भी स्पष्ट-दृश्यता रहती है। सिद्धांतत: केवल एक ही समक्ष मापे हुए आधार और उसके सिरों पर के कोणों के मापन से ही कोई भी दूरी ज्ञात की जा सकती है। इस प्रकार उत्तरोतर केवल कोणों के मापन से ही कोई भी दूरी ज्ञात की जा सकती है, किंतु व्यवहार में इस प्रकार परिकलित किसी किसी दूरी को समक्ष भी माप लिया जाता है, जिससे कोण मापन की यथार्थता की जॉँच होती रहती है। आजकल निकल और टिन की मिश्रधातु इनवार (invar) के बने तार या फीते से दूरी का समक्ष मापन किया जाता है। इस धातु पर ऊष्मा आदि का प्रभाव उपेक्षणीय होता है। मापन के समय तार का तनाव भी मानक रखा जाता है। इस प्रकार दूरी मापन में 10 लाख में 1 तक की परिशुद्धता हो जाती है।

भूसर्वेक्षण में भू का आशय उस पृथ्वीतल से है जो समुद्र पर माध्य समुद्रतल है तथा स्थल पर वह अभिकल्पित समुद्रतलवाला पृष्ठ है जो स्पिरिट तल द्वारा निर्धारित होता है। यदि समुद्र से स्थल में कोई नहर खोद दी जाय, तो जो तल नहर के पानी का होगा वही पृथ्वी तल माना जाएगा। इस भौतिक परिभाषा में गणितीय परिशुद्धता नहीं है क्योंकि समुद्रतल भी पवन, क्षारता, दाब, ऊष्मा आदि के कारण परिवर्तनशील है। पृथ्वीतल की गणितीय परिभाषा उस समविभव (equipotential) अथवा समान तलवाले, पृष्ठ से दी जाती है जिसपर, पृथ्वी में जितना भी द्रव्य हैं तथा जहाँ भी हैं उस सबके गुरुत्वाकर्षण और अक्ष के परित: घूर्णन के कारण, विभवफलन (potential function) अचर होता है। ये समविभव पृष्ठ दृष्ट गुरुत्व अर्थात् गुरुत्वाकर्षण और घूर्णन जन्य अपकेंद्री बल (centrifugal force) के संयुक्त प्रभाव, की दिशा पर लंब होंगे और संख्या में कितने ही होंगे इनमें से जो माध्य सागर तल के निकटतम है उसे पृथ्वीतल माना जाता है और उसे भू समुद्रतलाभ, या जियोइड (Geoid), कहते हैं। इस शब्द में पृथ्वी के गोलाभ होने का भाव अंतर्निहित नहीं है। इसमें केवल यही भाव है कि पृथ्वी "पृथ्वी आकृति" वाली है। स्पिरिटतल से बिंदुओं का जो उन्नयन मिलता है, वह जियोइड के सापेक्ष होता है, न कि पार्थिव गोलाभ के। मानचित्र हेतु जियोइड को ऐसा गोलाभ मान लिया जाता है जो पृथ्वी के या उसके किसी भाग के, जिससे हमें सरोकार हो, निकटतम हो। चूँकिं पृथ्वीं पूर्णत: गोलाकार नहीं है, इसके विभिन्न याम्योत्तरीय चापों (meridian arcs) को और उनके सिरों के अक्षांशों को माप कर, इन सब प्रक्षणों का न्यूनतम वर्ग सिद्धांत, या अन्य किसी ऐसी विधि से समन्वय कर, पृथ्वी का आकार (अर्थात् परिमाण) ज्ञात किया जाता रहा है इस कार्य के लिये देशांतरीय चाप भी काम में आ सकते हैं, लेकिन इनका मापन विद्युत् तारसंचार (electric telegraph) का अविष्कार होने पर ही संतोषजनक यथार्थता का हो सका है और भू-आकार का निर्धारण चाप के बजाय क्षेत्रफल अर्थात् विक्षेप (deflection) विधि से किया जाने लगा है। इस नई विधि में त्रिभुजन श्रृंखला से संबद्ध एक बड़ा क्षेत्र लिया जाता है, जिसके बीच एक बिंदु को मूलबिंदु चुनकर उसके देशांतर, अंक्षाश और उससे जानेवाली एक रेखा का दिगंश तथा भू-गोलाभ से संबद्ध दो मापें स्वेच्छया चुन ली जाती है (सामान्यतया इन्हें खगोलीय मानों के लगभग ही समझ लेना ठीक रहता है)। इन जियोडिय मानों के आधार पर त्रिभुजन श्रृखंला द्वारा पार्थिव गोलाभ का परिकलन लिया जाता है।

समस्थिति (Isostasy)

साहुलसूत्र के अनियमित विक्षेप भूगणितज्ञ के लिये सदा पहेली रहे हैं। ये खगेलीय या जियोडीय निर्धारण की त्रुटियों से कहीं अधिक होते हैं और अपेक्षतया छोटे से क्षेत्र के लिये भी जियोडीय न्यास (data) में समुचित परिवर्तन उन्हें विशेष से कम नहीं कर सकता। इसलिये आरंभ में जहाँ भी विक्षेप का अधिक होना - पहाड़ घाटी, पठार, महासागरतल आदि -- दृश्य स्थलाकृति (topographic) संबंधी कारणों से उत्पन्न समझा जाता था, उस क्षेत्र को परिकलन से छोड़ दिया जाता था। बाद में जब अधिक यथार्थ स्थलाकृति तथ्य उपलब्ध हुए तो उन सबके प्रभाव के यांत्रिक विधि से परिकलन की बात सूझी। सबसे पहले कलकत्ते के आर्कडेकन प्रेट ने ऐसे परिकलन किए, यद्यपि वे अत्यंत श्रमसाध्य थे। उन्होंने देखा कि परकलित विक्षेप प्रक्षेपित विक्षेप से कहीं कम था। इस तथ्य की सबसे अधिक संतोषजनक व्याख्या इस मान्यता पर की गई कि पृथ्वी से ऊपर उठे हुए भागों के नीचे द्रव्य घनत्व औसत से कम और गर्त्त (depression) के नीचे औसत से अधिक होता है। गणितीय सुविधा इसमें है कि घनत्व परिवर्तन इतना मान लिय जाय कि भूपृष्ट से नीचे एक विशिष्ट गहराई पर, जिसे प्रतिकारी गहराई (compensating depth) कहते हैं, एकाई क्षेत्रफल पर (जो 1,000 वर्ग मील की कोटि का होता है) जो द्रव्यमान ऊपर की ओर स्थित है अचर हो। इस परिकल्पना (hypothesis) को समस्थिति प्रतिकार (Isostatic Compensation) कहते हैं और ऐसी व्यवस्था को समस्थिति। समस्थिति विधि को पहली बार संयुक्त राज्य पर किए गए प्रेक्षणों में हफर्ड ने प्रयुक्त किया और 1924 ई0 में अंतर्राष्ट्रीय जियोडेटिक और भूभौतिकीय संघ (International Geodetic and Geophysical Union) के जियोडेसी अनुभाग ने पूरी पृथ्वी के आकार को वह मान लिया जो हेफर्ड ने प्राप्त किया था। बाद में हीज कैनेन ने इस विधि को यूरोप में ऊर्ध्वाधर के विक्षेप पर लगाया और हेफर्ड के परिणामों को प्राय: पुष्ट कर दिया।

लोलक द्वारा प्रेक्षण (Observations with the Pendulum)

चूँकि पृथ्वी पूर्णत: दृढ़ पदार्थ की बनी नहीं मानी जाती और फिर उसमें अक्ष के परित: घूर्णन है अत: गुरुत्वाकर्षण और घूर्णन जन्य अपकेंद्र बल (centrifugal force) के कारण ध्रुवों पर उसकी आकृति चपटे गोलाभ की है। फलत: ध्रुवों और विषुवत् पर दृष्ट गुरुत्वाकर्षण की मापों और दिशाओं में अंतर है। लोलक दोलनों (oscillations) द्वारा इस अंतर को अत्यंत परिशुद्धत: नापकर, परिकलन द्वारा पृथ्वी की आकृति निर्धारित हो जाती है। साथ में पृथ्वी की त्रिज्या भी ज्ञात की जा सकती है, किंतु वह इतनी यथार्थ नहीं मिलती। ये गुरुत्व प्रेक्षण अन्य परिकलनों में भी उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

अंक्षाश विचरण (Variation of Latitude)

याम्योत्तर में ऊर्ध्वाधर का विचरण (variation of the vertical) खगोलीय अक्षांश तथा जियोडीय अक्षांश दोनों पर निर्भर रहता है। इनमें जियोडीय अक्षांश भी भू-घूर्णन के कारण विचरणशील है। प्रत्येक पिंड में एक आकृति अक्ष (axis of the figure) होता है, जिसके परित: जड़त्व आघूर्ण (moment of inertia) महत्तम होता है। यदि घूर्णन इस अक्ष के परित: न हो तो, तो घूर्णनाक्ष का ध्रुव आकृति अक्ष के ध्रुव के परित: एक बंद वक्र में घूमा करेगा। पृथ्वी जैसे लगभग गोलाकार पिंड में घूर्णानाक्ष की दिशा अवकाश (space) में अपरिवर्तित रहेगी। इन परिघटनाओं (phenomena) के नियमों की व्याख्या पहले आयलर (Euler) ने की थी। इसके आधार पर खगोलज्ञों ने अक्षांश विचरण के लिये प्रेक्षण किए। कई व्यक्तियों के असफल प्रयासों के बाद ध्रुवगतिजन्य अक्षांश परिवर्तन, देशांतर में लगभग 1800 के अंतर वाले, दो नगरों बर्लिन और होनोलूलू में देखा गया। एक में जितनी वृद्धि थी दूसरे में लगभग उतना ही ह्रास था। चांडलर (Chandler) ने देखा कि आकृति ध्रुव के परित: घूर्णन ध्रुव का परिक्रमन लगभग 14 मास में पूरा हो जाता है। इतनी अवधि माहासागर जल और पृथ्वी के प्रत्यास्थ द्रव्य के कारण है, जबकि दृढ़ पिंड के लिये आयलर के नियमानुसार अवधि 10 मास की होनी चाहिए थी। पृथ्वी के घूर्णन ध्रुव की गति कुछ इस कारण भी होती है कि आकृति-ध्रुव ऋतु, दाब, मेघ आदि के कारण विचरणशील रहता है। इन आर्वत परिवर्तनों की कालावधि (Period) एक वर्ष की है। दोनों प्रकार के विचरणों का आयाम (amplitude) 0.1² की कोटि का है।

भू-आकृति निर्धारण की खगोलीय विधियाँ

भू-आकृति-निर्धारण की अनेक खगोलीय विधियाँ हैं। अधिकांशत: उनमें पृथ्वी के विषुवतीय प्रोद्वर्ध (equatorial protruberance) से उत्पन्न यांत्रिक प्रभावों द्वारा चपटेपन का अध्ययन किया जाता है। इसका प्रभाव निकटतम पड़ौसी चंद्रमा के खगोलीय देशांतर तथा अक्षांश (celestial longitude and latitude) में और क्रांति-वृत (ecliptic) पर चंद्र कक्षा के पात्र (node) तथा भूमि-नीच (perigee) में दीर्घकालिक (secular) परिवर्तन लाना है। बदले में चंद्रमा, सूर्य और अन्य ग्रहों के साथ, पृथ्वी के विषुवतीय उभार (bulge) पर क्रिया कर विषुवों (equinoxes) कहते हैं, उत्पन्न करता है। ऐसे किसी भी प्रभाव से चपटेपन का परिकलन किया जा सकता है।

यह आवश्यक नहीं कि किसी प्रदेशविशेष के लिये समूची पृथ्वी की माध्य आकृति सर्वोत्तम रहेगी।

अंतराराष्ट्रीय संदर्भ दीर्घवृत्ताभ के मूल अवयव

अंतराराष्ट्रीय संदर्भ दीर्घवृत्ताभ के मूल अवयव (Fundamental Elements of the International Ellipsoid of Reference) निम्नलिखित हैं-

  • अर्ध दीर्घाक्ष या विषुवतीय त्रिज्या (semi major axis, i.e. equatorial radius) a = 63,77,388 मीटर,
  • दीर्घवृतता (ellipticity) अर्थात् चपटापन (flattening) f = 1- b/a = 1/297

परिकलित राशियाँ (Calculated Quantities)

अर्धलघुअक्ष या ध्रुवीय त्रिज्या (semi-minor axis, i.e. polar radius) b = 63,57,912 मीटर

उत्केंद्रता (eccentricity) का वर्ग = 1 - a2/b2 = 0.00672,26700

विषुवत् चतुर्थांश (quadrant of the equator) की लंबाई = 1,00,19,148.4 मीटर

याम्योत्तर चतुर्थांश (quadrant of the meridian) की लंबाई = 1,00,02,288.3 मीटर

दीर्घवृत्तज का पृष्ठ (surface of the ellipsoid) = 51,01,00,934 वर्ग मीटर

दीर्घवृत्तज का आयतन (volume of the ellipsiod) = 10,83,31,97,80,000 घन किलो मीटर

दीर्घवृत्तज के बराबर पृष्ट वाले गोले (sphere) की त्रिज्या (radius) = 63,71,227.7 मीटर

दीर्घवृत्तज के बराबर आयतन वाले गोले की त्रिज्या = 63,71,221.3 मीटर

दीर्घवृत्तज का द्रव्यमान (mass) (माध्य घनत्व को 5.527 मानने पर) = 5.988x1021 मीट्रिक टन

इन राशियों में कितनी अनिश्चितता समझी जाए, यह व्यक्तिगत सम्मति पर निर्भर है। कदाचित दीर्घाक्ष में 50 मीटर तक की और चपटेपन के व्युत्क्रम (reciprocal) में अर्ध इकाई तक की त्रुटि हो सकती है।

अंतरराष्ट्रीय भूगणितीय संगठन

भूगणित, मूलत: अंतरराष्ट्रीय विज्ञान है। द्वितीय महायुद्ध से पहले कई अंतरराष्ट्रीय संगठन भूसर्वेक्षण का काम करते थे किंतु युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय भूगणितीय और भूभौतिकीय संघ (international geodetic and geophysical union) का संगठन हुआ। इसके कई एक अर्ध स्वतंत्र अनुभाग हैं। इनमें एक भूगणितीय अनुभाग (geodetic section) है, जिसने पहले अंतरराष्ट्रीय भूगणितीय ऐसोसियेशन का कार्य सँभाल लिया है और अंतरराष्ट्रीय ज्योतिष संघ के साथ अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण का कार्य भी ले लिया। इस संघ के अतिरिक्त भी छोटे बड़े अन्य संगठन हैं। इन सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भूगणित वास्तव में भूभौतिकी की एक प्रमुख शाखा है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ