थियोडोलाइट
विकोणमान या थिओडोलाइट (Theodolite) उस यंत्र को कहते हैं जो पृथ्वी की सतह पर स्थित किसी बिंदु पर अन्य बिंदुओं द्वारा निर्मित क्षैतिज और उर्ध्व कोण नापने के लिये सर्वेक्षण में व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। सर्वेक्षण का आरंभ ही क्षैतिज और ऊर्ध्व कोण पढ़ने से होता है, जिसके लिये थियोडोलाइट ही सबसे अधिक यथार्थ फल देनेवाला यंत्र है। अत: यह सर्वेक्षण क्रिया का सबसे महत्वपूर्ण यंत्र है।
थिओडोलाइट क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों तरह के कोणों को मापने का उपकरण है, जिसका प्रयोग, त्रिकोणमितीय नेटवर्क में किया जाता है। यह सर्वेक्षण और दुर्गम स्थानों पर किये जाने वाले इंजीनियरिंग काम में प्रयुक्त होने वाला एक सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। आजकल विकोणमान को अनुकूलित कर विशिष्ट उद्देश्यों जैसे कि मौसम विज्ञान और रॉकेट प्रक्षेपण प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में भी उपयोग मे लाया जा रहा है।
बनावट
एक आधुनिक विकोणमान मे एक सचल दूरदर्शी होता है जो दो लम्बवत अक्षों (एक क्षैतिज और दूसरा ऊर्ध्वाधर अक्ष) के बीच स्थित होता है। इस दूरदर्शी को एक इच्छित वस्तु पर इंगित करके इन दोनो अक्षों के कोणों को अति परिशुद्धता के साथ मापा जा सकता है।
इतिहास
19 वीं सदी की शुरुआत में विकसित पारगमन एक विशेष प्रकार का विकोणमान होता था जिसमे दूरदर्शी के लिये कि 'फ्लॉप ओवर' की सुविधा थी जिसके चलते आसानी से पश्च-दृष्टन किया जा सकता था। साथ ही त्रुटि कम करने के लिए कोणों को दोगुना किया जा सकता था। कुछ पारगमन उपकरणों तो सीधे तीस चाप-सेकंड का कोण मापने में सक्षम थे। 20 वीं शताब्दी के मध्य में, पारगमन को एक कम परिशुद्धता के एक साधारण विकोणमान के रूप में जाना जाने लगा था, पर इसमे मापक आवर्धन और यांत्रिक मीटर जैसे सुविधाओं का अभाव था। कॉम्पैक्ट, सटीक इलेक्ट्रॉनिक विकोणमाणों के आने के बाद से पारगमन का महत्व कम हुआ है पर अभी भी निर्माण साइटों पर एक हल्के उपकरण के रूप में इस्तेमाल मे आता है। कुछ पारगमन ऊर्ध्वाधर कोण नहीं माप सकते है।
अक्सर एक निर्माण-स्तर को गलती से एक पारगमन मान लिया जाता है, लेकिन वास्तव यह एक तिरछे कोण मापने के यंत्र का एक प्रकार है। यह न तो क्षैतिज और न ही ऊर्ध्वाधर कोण माप सकता है। इसमे एक स्पिरिट-स्तर और एक दूरदर्शी होता है जिसके माध्यम से प्रयोक्ता एक सपाट तल पर एक दृष्य रेखा स्थापित करता है।
विकोणमान के प्रकार
कोई सैद्धांतिक भिन्नता के न होने पर भी मुख्यत: दो आधारों पर विकोणमानों का वर्गीकरण हुआ है। प्रथम प्रकार के वर्गीकरण का आधार है, दूरबीन ऊर्ध्व समतल में पूरा चक्कर काट सकती है या नहीं।
- जिन यंत्रों में दूरबीन पूरा चक्कर काट सकती है उन्हें ऊर्ध्वाचल (transitting) और
- जिनमें वह पूरा चक्कर नहीं काट सकती उन्हें अनूर्ध्वाचल (nontransitting) विकोणमान कहते हैं। प्राविधिक प्रगति के कारण दूसरे प्रकार के यंत्र अब प्रयोग में नहीं आते।
वर्गीकरण का दूसरा आधार है, यंत्रों में लगे अंकित वृत्त के विभाजन-अंश पढ़ने की सुविधा, जैसे वर्नियर विकोणमान, जिसमें वृत्त के विभाजन अंश पढ़ने के लिये वर्नियर मापनी का प्रयोग होता है; माइक्रोमीटर विकोणमान, जिनमें अंश पढ़ने के लिये सूक्ष्ममापी पेचों का प्रयोग होता है; काँच-चाप (glass arc) विकोणमान, जिनमें काँच के अंकित वृत्त होते हैं और उनके पढ़े जानेवाले चापों के प्रतिबिंदु को प्रेक्षक के सामने लाने की प्रकाशीय सुविध की व्यवस्था होती है।
वर्नियर थियोडोलाइट ही सबसे पुरानी कल्पना है। पुराने विकोणमानों के अंकित वृत्त बड़े व्यास के होते थे, जिससे कुशल कारीगर इनपर भली प्रकार सही विभाजन कर सकें। इसका निर्माण डेढ़ सौ वर्ष से कुछ पहले भारतीय सर्वेक्षण विभाग के महासर्वेक्षक, कर्नल एवरेस्ट (इन्हीं के नाम पर संसार की सबसे ऊँची, पहाड़ की चोटी का नाम पड़ा है) ने कराया था। वह यंत्र आज भी उक्त विभाग के देहरादून स्थित संग्रहालय में रखा है1 इसके क्षैतिज वृत्त का व्यास एक गज है। काचचाप थियोडोलाइट के क्षैतिज वृत्त का व्यास लगभग 2.5 इंच है। पहले पहल वर्नियर को ही व्यास के आधार पर बाँटा जाता रहा है जैसे 12"", 10"", 8"", 6"" एवं 5"" वर्नियर आदि।
वर्नियर की पठनक्षमता 20 सेंकड (किसी-किसी में 10 सेकंड), माइक्रोमीटर की 10 सेकंड यथार्थ और 3 सेंकंड संनिकट तक तथा काचचाप में एक सेकंड तक की है। काचचाप में कुछ विशेष प्रसिद्ध नाम है टैविस्टॉक (Tavistock.), वाइल्ड (Wild), तथा ज़ीस (Ziess) विकोणमान।
विकोणमान के प्रयोग की विधि-
इस विघि का विज्ञापन वैभव पंडित के द्वारा हुआ जिस
जिस बिंदु पर अन्य बिंदुओं द्वारा निर्मित कोण ज्ञात करने होते हैं, उसपर तिपाई रखकर यंत्र कस दिया जाता है। ऊर्ध्व प्लेट वाली धुरी के नीचेवाले सिरे में एक काँटा लगा रहता है। उसमें एक डोरी से साहुल लटकाकर तिपाई के पैर इस प्रकार जमाए जाते हैं कि साहुल की नोक बिंदु को ठीक इंगित करे। इस क्रिया को केंद्रण कहते हैं। तदुपरांत नेत्रिका को आगे पीछे ऐसे घुमाया जाता है कि मध्यच्छद के क्रूस तंतु स्पष्ट दिखाई दें। फिर दूरबीन पर दिए फोकस पेंच को घुमाकर दूरबीन में दूर की वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिंब देखा जाता है। इस क्रिया को फोकस करना कहते हैं। फोकस तब सही माना जाता है जब नेत्रिका के पास आँख धीरे-धीरे ऊपर नीचे करने से प्रतिबिंब तंतुओं से हटता न दिखाई दे। इसे विस्थापनाभास मिटाना कहते हैं। इसके बाद क्षैतिजकारी पेंचों को समुचित रूप से घुमाकर ऊर्ध्व प्लेट पर लगे पाणसल का बुलबुला केंद्रित किया जाता है, जिससे प्लेट को घुमाकर किसी भी स्थिति में रखने से बुलबुला केंद्रित रहे। इस क्रिया को क्षैतिजीकरण कहते हैं। पुन: दूरबीन साधने के स्तंभ से लगे एक पेंच से ऊर्ध्ववृत्त के वर्नियरों पर लगे पाणसल का बुलबुला केंद्रित कर दिया जाता है।
उपर्युक्त क्रियाएँ करने के बाद दूरबीन को घुमाकर ऐसी स्थिति में रोका जाए कि ऊर्ध्व वृत्त पढ़ने की, वर्नियरों को शून्यांक रेखा, या निर्देशचिह्न-रेखा, ऊर्ध्व वृत्त की रेखा पर संपाती (coincident) हो जाए। तब यदि यंत्र पूर्णतया समंजित (adjusted) हो तो निम्नलिखित प्रमुख दशाएँ प्राप्त होती हैं :
- (1) यंत्र का ऊर्ध्वाधर अक्ष साहुल रेखा पर संपाती होगा। यह नीचे बने स्टेशन बिंदु तथा अंकित क्षैतिज वृत्त के केंद्र से गुजरते हुए दूरबीन के क्षैतिज अक्ष और ऊर्ध्व प्लेट पर लगे पाणसल के अक्ष पर समकोण होगा।
- (2) अंकित क्षैतिज वृत्त, दूरबीन की दृष्टिरेखा और ऊर्ध्व वृत्त के वर्नियरों की शून्यांक (निर्देश) रेखा एकदम क्षैतिज होगी।
यदि उपयुक्त संबंध स्थापित न हो तो यंत्र पूर्णतया समंजित नहीं है। यंत्र की बनावट में ऐसी सुविधाओं का समावेश रहता है कि इन संबंधों की परीक्षा हो सके और आवश्यक होने पर समंजन क्रिया जा सके।