तारा
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विज्ञान |
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रूपरेखा · प्रवेशद्वार · श्रेणी |
तारे (Stars) स्वयंप्रकाशित (self-luminous) उष्ण वाति की द्रव्यमात्रा से भरपूर विशाल, खगोलीय पिंड हैं। इनका निजी गुरुत्वाकर्षण (gravitation) इनके द्रव्य को संघटित रखता है। मेघरहित आकाश में रात्रि के समय प्रकाश के बिंदुओं की तरह बिखरे हुए, टिमटिमाते प्रकाशवाले बहुत से तारे दिखलाई देते हैं। सूर्य बड़ा तारा है|
तारों के नाम
कुछ चमकते तारों के समूह आकाश को विभिन्न भागों में बाँट देते हैं। इन तारों के समूह को तारामंडल (constellations) कहते हैं। पूरे आकाश को 89 तारामंडलों में विभक्त करके उन तारामंडलों के नाम रख दिए गए हैं। राशिचक्र के तारामंडल बहुत प्रसिद्ध हैं, इनकी संज्ञा मेष, वृष आदि है। किसी एक तारामंडल के तारों को उनके दृश्य (visual) कांतिमान (magnitude) के अवरोह क्रम में चुन लिया जाता है। फिर तारामंडल के नाम के आगे ग्रीक भाषा के अक्षर रखकर तारों का नामकरण किया जाता है, जैसे मेष राशि के सबसे चमकीले तारे का नामकरण एल्फातरीज़ किया गया है। कुछ तारामंडलों में तारों की संख्या इतनी अधिक है कि ग्रीक वर्णमाला के अक्षरों की संख्या उनके लिए कम पड़ जाती है। ऐसे तारों के नामकरण के लिए तारामंडल के पूर्व लैटिन अक्षर तथा आवश्यकता पड़ने पर संख्याएँ लिख देते हैं। कुछ तारे अतिप्रकाशित होने के कारण अतिप्रसिद्ध हैं तथा उनके नाम तारामंडलों के संदर्भ के बिना भी जाने जा सकते हें, जैसे लुब्धक (Sirius), मघा (Regulus), चित्रा (Spica) आदि। इस प्रकार के नामकरण से तारों को पहचानने में सहायता मिलती है।
तारों के कांतिमान (Stellar Magnitudes)
खाली आँखों से देखने पर कुछ तारे अधिक चमकीले तथा कुछ कम चमकीले दिखाई देते हैं। इनकी कांति (luminosity) के यूनाधिक्य के अनुसार हम तारों को कई कांतिमानों में वर्गित कर लेते हैं। तारे हमसे बहुत अधिक दूरी पर स्थित हैं। दूरी के बढ़ने से कम चमकीले तारे हमें दिखाई नहीं देते। बिना यंत्र की सहायता के हमारी आँखें छठे कांतिमान तक के तारे देख सकती हैं। कांतिमानों का वर्गीकरण इस प्रकार है कि जो तारे सबसे अधिक चमकीले दिखलाई पड़ते हैं, उनका कांतिमान न्यूनतम संख्या माना जाता है, उससे कम चमकीले तारों का उससे अधिक इत्यादि। कांतिमान के तारे की अपेक्षा उसे पूर्ववर्ती कांतिमान तारे की चमक अथवा २.५१२ गुना अधिक होती है। इस प्रकार प्रथम कांतिमान का तारा द्वितीय कांतिमान के तारे से २.५१२ गुना चमकीला तथा द्वितीय कांतिमान का तारा तृतीय कांतिमान के तारे से २.५१२ गुना चमकीला होता है। यदि हम छठे कांतिमान के तारे की चमक १ मान लें, तो प्रथम कांतिमान से छठे कांतिमान तक के तारों की चमक १००:३९.८२:१५.८५:६.३१ : २.५१ : १ अनुपात में होगी। इस दृश्य कांतिमान के मापन में सूर्य की कांतिमान - २६.७२, चंद्रमा का - १२.५ तथा लुब्धक तारे कर कांतिमान - १.५ है। माउंट पालोमार वेधशाला के २०० इंच व्यास के (वर्तमान काल के विशालतम) परावर्ती (reflector) दूरदर्शी से हम २३ कांतिमान तक के तारे देख सकते हैं।
कांतिमान का मापन
कांतिमान मापन का अर्थ है तारे के प्रकाश की तीव्रता का मापन। पहले यह कार्य विशेष प्रकार के फोटोमीटरों की सहायता से आँखों द्वारा किया जाता था। इस प्रकार ज्ञात किए गए कांतिमान को दृश्य कांतिमान (Visual magnitude) कहते हैं। आँखें पीले प्रकाश की सुग्राही (sensitive) हैं, अत: दृश्यकांतिमान पीले और हरे रंग के प्रकाश के मापक हैं। बाद में कांतिमापन फोटोग्राफी की प्लेटों की सहायता से किया जाने लगा। इस प्रकार से ज्ञात कांतिमान को फोटोग्राफीय कांतिमान कहते हैं। फोटोग्राफीय कांतिमान नीले रंग के प्रकाश के मापक हैं। तारे कई रंगों के प्रकाश विकीर्ण (emit) करते हैं। अत: तारों के कांतिमान ज्ञात करने के लिए विभिन्न रंगों की सुग्राही प्लेटों के द्वारा तथा वर्णशोधकों (filters) के उपयोग से उनके प्रकाश की तीव्रता आँकी जाती है। पीले रंग की सुग्राही प्लेटों पर पीले रंगशोधकों से फोटोग्राफीय (नीले) तथा दृश्य (पीले) कांतिमानों के अंतर को वर्ण सूचक (Colour index) कहते हैं। इससे तारों का ताप ज्ञात होता है। कांतिमान फोटोग्राही सेलों पर प्रकाश को ग्रहण कर तथा उसे बहुगुणित कर प्रकाश की तीव्रता मापी जाती है। कांतिमान को मापते समय हमें वायुमंडल के प्रभाव तथा तारों की अंतर्वर्ती धूल तथा गैसों के प्रभाव को भी दृष्टि में रखना पड़ता है। कांतिमान के यथार्थ ज्ञान से हमें तारों की दूरियाँ तथा बहुत से भौतिक पदार्थो को जानने में सहायता मिलती है।
निरपेक्ष (Absolute) कांतिमान
बहुत से तारों का निजी प्रकाश बहुत अधिक है, किंतु अत्याधिक दूरी पर स्थिर होने के कारण उनका दृश्य कांतिमान अधिक दिखलाई पड़ता है। यथार्थ कांतिमान तो तभी ज्ञात हो सकता है, जब वे उपमात्र से समान दूरी पर स्थित हों। समस्त तारों को 10 पारसेक की दूरी पर कल्पित करके ज्ञात किए गए कांतिमान को निरपेक्ष कांतिमान कहते हैं। यदि हमें तारे का दृश्य कांतिमान ज्ञात हो तथा उसकी दूरी ज्ञात हो तो हम निम्नलिखित सूत्र से निरपेक्ष कांतिमान जान सकते हैं:
निरपेक्षकांतिमान दृश्यकांतिमान 5-5 लघुगणक दूरी, पारसेकों में है। विलोमत: यदि हमें निरपेक्ष कांतिमान ज्ञात हो तो हम तारों की दूरियाँ भी जान सकते हैं। सूर्य का निरपेक्ष कांतिमान 4.7 है।
सापेक्ष कांति (Relative luminosity)
किसी तारे की सूर्य के सापेक्ष कांति को सापेक्ष कांति कहते हैं। इसमें सूर्य की कांति १ मान ली जाती है। इस प्रकार के अध्ययन से हम तारों से प्राप्त होनेवाली ऊर्जा (energy) का अध्ययन करते हैं, जिससे उनकी भौतिक स्थितियों (physical conditions) के अध्ययन में सहायता मिलती है।
तारों की संख्या
पूर्णतया निर्मल आकाश में हमें दृष्टि सहायक यंत्रों के 3,200 से अधिक तारे नहीं दिखलाई पड़ते। चूँकि हम आकाश के केवल आधे हिस्से को ही देख पाते हैं अत: चक्षुदृश्य तारों की संख्या 6,500 (2x3,200+100) के लगभग है। इनमें
1,5 कांतिमान से अधिक चमकीले 20 तारे
2 कांतिमान तक चमकीले 49 तारे हैं
3 कांतिमान तक चमकीले 150 तारे हैं
4 कांतिमान तक चमकीले 500 तारे हैं
तारा 5 कांतिमान तक चमकीले 1500 तारे हैं
शेष चक्षुदृश्य तारे छठे कांतिमान के है। यदि हम अपनी दृष्टि को 10 गुनी अंतर्मुखी कर लें तो दृश्य तारों की संख्या 1000 गुना बढ़ जाएगी, अर्थात् यदि तारों को समरूप से फैला हुआ मान लिया जाए तो उनकी संख्या उनकी दूरी की छह गुनी बढ़ जाएगी। यह संबंध अधिक चमकीले तारों तक ही सीमित है। कम गैलेक्सी में विशालतम दूरदर्शी द्वारा ज्ञात तारों की संख्या लगभग 1,00,00,00,00,000 (एक खरब) है।
तारों की गतियाँ (Steller motions)
तारे की वास्तविक गति तथा गमनदिशा ज्ञात करने के लिए हम उसकी गति को दो भागों में बाँट लेते हैं। दृष्टिसूत्र पर लंब दिशा की गति के कोणीय मान को तारे की निजी गति (proper motion) कहते हैं। तारों की निजी गतियाँ कम होतीं हैं। उन्हें ज्ञात करने के लिए हमें बहुत दूरवर्ती कालों में लिए गए तारों के फोटोग्राफों की तुलना करनी पड़ती है। जो तारे हमारे निकट हैं, वे दूरवर्ती तारों के सापेक्ष आगे पीछे हट जाते हैं। इस कोणीय मान को काल के अंतराल से भाग देने पर निजी गति ज्ञात हो जाती हैं। इस कोणीय दृष्टिसूत्र की दिशा की तारक गति को त्रैज्य वेग (Radial velocity) कहते हैं। त्रैज्य वेग जानने के लिए हम वर्णक्रमदर्शी (spectrograph) की सहायता से तारे का वर्णक्रम (spectrum) ले लेते हैं। यदि वर्णक्रम रेखाएँ नीले छोर की तरफ हटी हों, तो हम डॉपलर सिद्वांत की सहायता से जान लेते हैं कि तारा हमारी ओर आ रहा है तथा, यदि वर्णक्रम रेखाएँ लाल छोर की ओर हटी हों, तो हम से दूर जा रहा है। रेखाओं का स्थानांतरण (shift) उनके त्रैज्यवेग का अनुक्रमानुपाती (directly proportional) होता है। बनार्ड ने ओफियूकस (सर्पधर) तारामंडल के एक दश्म कांतिमान् के तारे की निजी गति 10.3 प्रति वर्ष ज्ञात की है, जो विशालतम है। निजी गति का ज्ञान तारापुंजों के अध्ययन में सहायक होता है तथा इससे हम यह भी जान जाते हैं कि अधिक नीली गति के तारे अपेक्षाकृत हमारे निकट हैं। त्रैज्य वेग का सूर्य के सापेक्ष ज्ञान करने के लिए, हमें पृथ्वी की गति को भी ध्यान में रखना पड़ता है। निजी गति तथा त्रैज्य वेग के ज्ञान से बल-समांतर-चतुर्भुज के सिद्धांत द्वारा वास्तविक गति तथा उसकी दिशा ज्ञात हो जाती है।
तारों की दूरियाँ
तारों की दूरियाँ ज्ञात करने के लिए त्रिकोणमितीय विधियों का प्रयोग किया जाता है। हमसे अति समीप तारा भी इतनी दूरी पर है कि यदि हम पृथ्वी के व्यास को आधार मानकर उसकी दिशाओं को देखें तो वे समांतर प्रतीत होतीं हैं, अर्थात् तारे का लंबन (parallax) शून्य ही आता है। अत: तारों के लंबन को ज्ञात करने के लिए हमें बड़े आधार की आवश्यकता पड़ती है। अत: पृथ्वी की कक्षा (orbit) के व्यास को हम आधार बनाते हैं। यदि हम किसी तारे की दिशा के एक वेध के छ: महीने बाद उसका वेघ करें तो हमें पृथ्वी की कक्षा के व्यास (2 x 6,30,00,000 मील के लगभग) का आधार मिल जाता है। इस प्रकार के वेध से समीपस्थ तारे दूरस्थ तारों के सापेक्ष (जिनका हमें उनकी निजी गति के अध्ययन से ज्ञान है) थोड़ा दिक् परिवर्तन दिखलाते हैं। इसे निकालते समय हमें तारे की निजी गति के प्रभाव पर भी विचार करना पड़ता है। तो भी यह इतना कम है कि निकटतम तारे का लंबन 76 है। यदि किसी तारे का लंबन 1 हो तो वह पृथ्वी से पृथ्वी की कक्षा की त्रिज्या से 2,06,265 गुनी दूरी पर होता है। इस दूरी को एक पारसेक (पारलैक्स सेकंड का संक्षिप्त रूप) कहते है। दूरी मापने के लिए जिस अन्य इकाई का प्रयोग किया जाता है, वह है प्रकाशवर्ष (light year)। प्रकाश का वेग 1,86,000 मील प्रति सेकंड है। इस वेग से प्रकाश एक वर्ष में जितनी दूरी तक जाता है उतनी दूरी को एक प्रकाश वर्ष कहते हैं यह दूरी लगभग 60,00,00,00,00,000 मील होती है। एक पारसेक लगभग 3.26 प्रकाश वर्ष के तुल्य होता है। त्रिकोणमितीय विधि से हम केवल अत्यंत समीपस्थ तारों की दूरियाँ ही ज्ञात कर सकते हैं। अत: दूरवर्ती तारों की दूरियाँ ज्ञात करने के लिए हमें अन्य विधियों का आश्रय लेना पड़ता है। यदि हम किसी प्रकार तारों के निरपेक्ष कांतिमान को जान सकें, तो हम निरपेक्ष कांतिमान शीर्षक में दिए गए सूत्र की सहायता से उनकी दूरियाँ ज्ञात कर सकते हैं। सौभाग्य से हमें सेफिइड (Cepheid) तथा लाइरा (Lyra) वर्ग के तारे उपलब्ध हैं, जिनके निरपेक्ष कांतिमान हम ज्ञात कर सकते हैं।
तारों के लंबनों को ज्ञात करने की निम्नलिखित अन्य विधियाँ हैं: Sachin Chaudhary
- सूर्य की निजि गति से लंबन ज्ञात करना -
- पारिकाल्पनिक लंबन (Hypothetical parallax);
वर्गीकरण
- रचना तथा आकारगत वर्गीकरण
- गैलेक्सी की सर्पिल भुजाओं (spiral arms) तथा नाभिक (nucleus) में उपलब्ध तारे;
- तारों का वर्णक्रमीय (spectroscopic) वर्गीकरण;
- प्रकाश के घटने बढ़ने के कारण तारों का वर्गीकरण -- चल तारे (variable stars);
- पुंर्जो (clusters) में उपलब्ध तारे;
- द्विक (double) तथा बहुसंख्यक (multiple) तारे आदि।
इन वर्गीकरणों का निजी महत्व है और इनसे हमें तारों के विश्लेषण में विशेष सहायता मिलती है। इन वर्गीकरणों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है:
रचना तथा आकारगत वर्गीकरण
सूर्य हमारा निकटतम तारा है, जिसका हम बहुत अच्छी तरह अध्ययन कर सकते हैं। तारों के तत्वों के अध्ययन से हमें अधिकांश तारे ऐसे उपलब्ध होते है, जिनका जन्म लगभग उसी समय हुआ जिस समय हमारे सूर्य का। ये तारे ताप, आकार तथा कांति के अवरोह अनुक्रम में हैं। इस वर्ग को मुख्य अनुक्रम (main sequence) कहते हैं। इसमें अत्याधिक ताप के तारों का आकार सूर्य के आकार से लगभग 10 गुना तथा निम्न ताप के तारों का आकार सूर्य के आकार का लगभग दशमांश होगा। सूर्य इसी अनुक्रम का एक मझोले आकार का तारा है, जिसकी द्रव्यमात्रा तथा ताप औसत से कम है। मुख्य अनुक्रम के वक्र में ऊपर (अधिक ताप के छोर) की ओर तारे अत्यंत विरल हैं। इस अनुक्रम के अधिकांश तारे सूर्य से छोटे तथा कम ताप के हैं। इनमें उपलब्ध तत्वों की मात्रा सूर्य जैसी है। सूर्य के अध्ययन से हम इस वर्ग के अतिरिक्त तारों के दो और मुख्य वर्ग है: दानवाकार तारों के तीन मुख्य भेद हैं। दानवाकार (giants), तथा वामनाकार (dwarfs) तारे। दानवाकार तारों के तीन मुख्य भेद - दानवकार, अति दानवाकार (supergiants) तथा उपदानवाकार (subgiants)। अतिदानवाकार तारे आकार में बहुत विशाल होते हैं। उदाहरणार्थ, ज्येष्ठा (Antares) का व्यास सूर्य के व्यास का लगभग 300 गुना है। दानवाकार तारों में खगाश्व के द्वितीय बीटा पिगासी (Beta-pegasi) का व्यास सूर्य के व्यास से 170 गुना तथा ब्रह्महृदय (Capella) का, सूर्य के व्यास से, 12 गुना है। उपदानवाकार तारे मुख्य अनुक्रम तथा दानव वर्ग के तारां के बीच स्थित हैं। वामनाकार तारों के भी वामन, उपवामन (Subdwarfs), लालरंग वामन (Red dwarfs) तथा श्वेत-वामन (White dwarfs) भेद हैं। इन वर्गों में श्वेत वामनाकार तारे अपना विशेष महत्व रखते हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनकी द्रव्यमात्रा मध्य श्रेणी की तथा कांति कम होती है, किंतु इनका आकार बहुत छोटा तथा इनका घनत्व अत्यंत अधिक होता है।
सर्पिल भुजाओं तथा नाभिकों के तारे
हमें जितने तारे दिखाई देते हैं, उनमें अत्यधिक मात्रा में वे तारे हैं, जो हमारी गैलेक्सी (galaxy) के सदस्य हैं। हमारी गैलेक्सी अपने में एक विश्व (universe) है। इसका आकार सर्पिल (spiral) है। बहुत से अन्य ताराविश्व भी हैं, जिनका आकार सर्पिल है। उनकी रचना तथा आकृति का अध्ययन करने के लिए हमें अपनी आकाशगंगा के कुछ विशेष प्रकार के तारों के अध्ययन से सहायता मिलती है। इन तारों के गुख्यत: दो वर्ग हैं। कुछ तारे सदा गैलेक्सी की सर्पिल भुजाओं में उपलब्ध होते हैं तथा अन्य गैलेक्सी के नाभिक के निकट पाए जाते हैं। इनमें प्रथम वर्ग के तारे हमारे सूर्य के निकट पड़ोसी हैं तथा दूसरे वर्ग के तारे सूर्य से दूर हैं। वाल्टर वाडे ने प्रथम वर्ग के तारों का नाम प्रथम तारा श्रेणी, अथवा पॉपुलेशन प्रथम, तथा दूसरे वर्ग के तारों का नाम द्वितीय तारा श्रेणी, अथवा पॉपुलेशन द्वितीय रखा है। इन दोनों प्रकार के तारावर्गो के वर्णक्रम-कांति-वक्रों में भिन्नता होती है। प्रथम ताराश्रेणी के अत्यंत चमकीले तारे नीले रंग के होते हैं तथा उनका निरपेक्ष कांतिमान 7 अथवा 8 होता है, जबकि द्वितीय ताराश्रेणी के अत्यंत चमकीले तारे लाल रंग के होते हैं तथा उनका निरपेक्ष कांतिमान - 3 या उससे अधिक होता है। प्रथम ताराश्रेणी के तारों में तारों की अंतर्वर्ती (interstellar) गैस तथा धूल अत्यधिक मात्रा में है, जबकि द्वितीय ताराश्रेणी के तारों में यह अत्यंत कम मात्रा में है। इन ताराश्रेणियों के अध्ययन से हमे गैलेक्सीओं की सर्पिल भुजाओं तथा नाभिकों को निश्चित करने मात्र के ही लिए नहीं, किंतु इनसे हमें तारों की उत्पत्ति तथा विकास (evolution) की स्थिति का अध्ययन करने में भी सहायता मिलती है।
वर्णक्रमीय (Spectroscopic) वर्गीकरण
तारों की द्रव्यमात्रा के अणु, जो मूलावस्था में उदासीन (in a neutral state) रहते हैं, ताप में उत्तरोतर वृद्धि होने के कारण आयनीकृत (ionized) होकर अपने ऋण विद्युत्कणों (electron) को अधिकाधिक मात्रा में खोने लगते हैं। इसके प्रभाव से ऐसे तारों के वर्णक्रम (spectrum) में बननेवाली चमकीली और काली रेखाओं में विभिन्नता आ जाती है। दूसरे शब्दों में रेखाएँ तारों के प्रकाश विकीर्ण (radiating) करनेवाले अणुओं के ताप की विभिन्न अवस्थाओं की द्योतक हैं। इस प्रकार तारों के वर्णक्रमों के अध्ययन से उनके मुख्य 10 भेद किए गए हैं, जिन्हें रोमन लिपि के बड़े अक्षरों ओ (O), बी (B), ए (A), एफ (F), जी (G), के (K), एम (M), आर (R), एन (N), तथा एस (S) से व्यक्त करते हैं। चूँकि वर्णक्रम वर्गीकरण का ताप से संबंध है, अत: एक ही वर्ग के तारों के ताप में उत्तरोत्तर ्ह्रास बताने कि लिए ओ (O) वर्णक्रम के तारों के लिए ओ (O) के बाद अंग्रजी वर्णमाला के छोटे ए (a) से इ (e) तक के वर्ण रख दिए जाते हैं तथा ओ (O), ओबा (Ob) आदि। इसी प्रकार के अभिप्राय को व्यक्त करने के लिए बी (B) से एम (M) के वर्णक्रम के तारों के लिए उनके सूचक अक्षरों के बाद 0 से लेकर 9 तक के अंक रखे जाते हैं।
ओ (O) वर्णक्रमीय तारे
ये आयनीकृत हीलियम वाले तारे हैं। इनके वर्णक्रमों में आयनीकृत हीलियम तथा दोहरे तिहरे आयनीकृत ऑक्सीजन तथा नाईट्रोजन की रेखाएँ प्राप्त होतीं हैं। इस आयनीकृत अवस्था के अनुसार इसका पृष्ठीय ताप 30,0000 से लेकर 40,0000 सें0 तक अथवा इससे भी अधिक होना चाहिए। ओ (O) वर्णक्रम के ज्ञात तारों की संख्या सौ से अधिक नहीं है, जिनमें अधिकाश नंगी आँखों से नहीं देखे जा सकते। इस वर्ग के तीन तारे, गामा बेलोरम ओए, (Gamma Velorum, Oa), जीटा पप्पिस ओए (Zeta Puppis, Oa) तथा जीटाओरायन, ओइ5 (Zeta Orion, Oi5) चक्षु दृक्ष्य हैं।
बी (B), वर्णक्रमीय तारे
ये उदासीन हीलियम वाले तारे हैं। इनका पृष्ठीय ताप 25,000° से 12,000° सें0 तक रहता है। यह ताप यद्यपि हीलियम को आयनीकृत करने में असमर्थ है, तथापि इसके वर्णक्रम में आयनीकृत ऑक्सीजन रेखाएँ उपलब्ध होतीं हैं। बी5 (B5) तारे से लेकर निम्नतर ताप के तारों में हीलियम तथा आयनीकृत ऑक्सीजन रेखाएँ कम होने लगती हैं और वर्णक्रम के बैगनी भाग की और हाईड्रोजन रेखाएँ तथा हाईड्रोजन की चौड़ी काली अवशोषण रेखाएँ उभर आती है। हमारी तारासूचियों में बी (B) तारे बहुत हैं।
ए (A) वर्णक्रमीय तारे
ये हाइड्रोजन प्रमुख तारे हैं। इनका पृष्ठीय ताप 12,000° से लेकर 8,000° सें0 तक है। इनकी संख्या अत्याधिक है।
एफ (F) वर्णक्रमीय तारे
कुछ ज्योतिषी इन्हे कैल्सियम तारे कहते थे। इनका पृष्ठीय ताप 8,000° से लेकर 6,000° से0 तक होता है।
जी (G) वणक्रमीय तारे
ये सूर्य की श्रेणी के तारे हैं। इनके वर्णक्रम में आयनीकृत (ionized) कैल्सियम की रेखाएँ खूब उभरी रहती हैं। इनका पृष्ठीय ताप 6,000° से लेकर 4,000° सें0 तक है। 12,000° जी (G) वर्णक्रमीय तारे पहचाने जा चुके हैं।
के (K) वर्णक्रमीय तारे
इनका पृष्ठीय ताप 5,000° से लेकर 3,5000 सें° तक होता है। पहले ये सूर्यकलंक तारों के नाम से प्रसिद्ध थे।
एम (M) वर्णक्रमीय तारे
टीटोनियम ओराइड तारे। इनका पृष्ठीय ताप 3,500° से लेकर 2,000° सें0 तक है।
एस (S) वर्णक्रमीय तारे
इनमें प्राय: सभी चल तारे हैं, जिनमें केवल चक्षुदृश्य कोई नहीं है।
आन-एन (R-N) तारे
इनका पृष्ठीय ताप 3,000° से लेकर 5,000° ऐं0 तक है। ये सभी दानवाकार तथा अधिकांशत: चल तारे हैं। ये बहुत कम संख्या में हैं। इनमें से कोई भी तारा केवल चक्षु से सरलतापूर्वक दृश्य नहीं है।
चल तारे (Variable Stars)
कुछ तारे ऐसे हैं, जिनकी कांति बढ़ती घटती रहती है। इन्हें चल तारे कहते हैं। चल तारों का स्पष्ट निर्देश करने लिए तारामंडल के आगे अंग्रेजी वर्णमाला के बड़े अक्षर आर (R), एस (S), टी (T) आदि रख दिए जाते हैं, यथा आर सेटी (R Ceti) आदि। इनकी संख्या बढ़ने के साथ एक अक्षर के स्थान पर दो अथवा तीन अक्षर भी रखने पड़ सकते हैं, यथा आर आर लाइरा (R R Lyra) आदि। लगभग 20,000 चल तारे ज्ञात हैं तथा उनका नियमित रूप से वेघ किया जाता है। तारों के दो विशाल वर्ग हैं: पहला बाह्यहेतुक चल तथा दूसरा स्वत: चल। बाह्यहेतुक चल तारे ग्रहणकारी युग्म तारे (eclipsing binaries) होते हैं। इनमें अलगूल तारा प्रसिद्ध है। इसका सामान्य कांतिमान 2.2 हैं, किंतु यह 3.4 तक हो जाता है। स्वत: चल तारे तीन श्रेणियों में रखे जा सकते हैं: सपंदनशील (pulsating) चल, विस्फोटक चल (exploding) तथा अन्य चल तारे।
सपंदनशील तारे =
इनमें कुछ तारों का आवर्तन काल एक दिन से भी कम होता है। ऐसे तारे आर आर लाइरा (R R Lyra) वर्ग के हैं। कुछ का आवर्तन काल 1 से लेकर 50 दिन तक का है। ऐसे तारे सेफिइड वर्ग के तारे हैं। कुछ तारों का आवर्तनकाल 100 से लेकर 1000 दिन तक का है। इन्हें दीर्ध आवर्तकालिक (long period) तारे कहते हैं। इस वर्ग के तारे लाल रंग के दानवाकार तारे होते हैं। कुछ तारे अर्द्धनियमित चल (Semi regular variables) हैं, इनका चक्र 40 से लेकर 150 दिन तक का है। ये तारे भी लाल रंग के दानवाकार तारे होते हैं। इनमें आर आर लाइरा तथा सेफिइड (Cpheid) तारे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आर लाइरा तारों का यह नाम इसलिए पड़ा कि ये सब गुणों में लाइरा तारामंडल में वर्णित उस चल तारे के समान हैं, जिसका नाम आर आर लाइरा रखा गया। नाम से यह न समझना चाहिए कि ऐसे तारे केवल लाइरा तारामंडल में ही होते हैं, किंतु इस श्रेणी के तारे हमारी गैलेक्सी तथा अन्य ताराप्रणालियों आदि में सर्वत्र हैं। इन तारों की महत्ता की कारण है इनका दूरीसूचक होना। आर आर लाइरा वर्ग के तारों में आवर्तनकाल के बढ़ने पर पर भी उनके निरपेक्ष कांतिमान में अंतर नहीं पड़ता। इसका अर्थ यह है कि किसी एक तारागुच्छ ताराप्रणाली (गैलेक्सी) में आर आर लाइरा तारे हों, तो वे समान निरपेक्ष कांतिमान के होंगे और यह समान निरपेक्ष कांतिमान लगभग शून्य के तुल्य है। ऐसी अवस्था में उनके दृश्य कांतिमान के ज्ञान से उनकी दूरी निम्नलिखित सूत्र द्वारा ज्ञात हो सकती है।
निरपेक्ष कांतिमान = दृश्य कांतिमान + 5 - 5 लघुगणक दूरी
सेफिइड तारे
इनका यह नाम इसलिए पड़ा कि इनकी प्रकृति डेल्टा सेफियस, अथवा चर्तुथ कपिश, की तरह की है। चतुर्थ कपिश सेफियड वर्ग का सर्वाधिक चमकीला तारा है, जिसे चक्षु से देखा जा सकता है। सेफियड तारों का आवर्तनकाल एक दिन से कुछ अधिक से लेकर 45 दिन से कुछ अधिक है। हमारी गैलेक्सी के सेफिइड तारों में 7 दिन का आवर्तनकाल प्राय: होता है। सेफिइड तारों की सबसे बड़ी विशेषता है इनका आवर्तनकाल-कांति-साहचर्य नियम (period luminosity relationship) से संगत होना। इसका अर्थ है कि सेफिइड तारों के आवर्तन काल में जैसे जैसे वृद्धि होती है वैसे वैसे उनके निरपेक्ष कांतिमान में वृद्धि होती जाती है। यह संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसकी सहायता से सेफिइड तारों का निरपेक्ष कांतिमान जानकर पूर्व सूत्र द्वारा इनकी दूरी ज्ञात की जा सकती है। सेफिइड तारों की सहायता से तारागुच्छों तथा तारापद्धतियों की दूरी ज्ञात की जाती हैं। तापजनित रंग के परिवर्तन का कारण सामान्यत: स्पंदन (Plusation) सिद्धांत कल्पित किया गया है, जिसका आशय है कि सेफिइड तारों के तल में आवर्तन से वृद्धि तथा ्ह्रास होता है, जिससे तारा क्रमानुसार फैलता तथा सिकुड़ता रहता है। वस्तुत: स्पंदन सिद्धांत सभी स्थितियों का यथार्थ उत्तर नहीं देता। अत: आजकल ज्योतिषी समझने लगे हैं कि सेफिइड तारों की विभिन्न स्थितियाँ इनके ताप के परिवर्तन के कारण हैं, जिसका स्वय एक पुनरावृति चक्र है। 1,000 से अधिक सेफिइड तारे ज्ञात है।
विस्फोटक तारे
ऐसे तारों में नियमित अथवा अनियमित रूप से विस्फोट होता है। ये तारे सामान्यत: अत्यंत धुँधले होते हैं, किंतु विस्फोट होने के बाद इनकी कांति अत्यंत असाधारण रूप से बढ़ जाती है। यह स्थिति कुछ दिन रहने के बाद तारे अपनी की सी सामान्य कांति में आ जाते हैं। इस प्रकार के तारों को नवतारा (Nova) कहते हैं। 1918 ई0 के ऐक्विला तारापुंज के नवतारे की चमक चार ही दिन के भीतर पहले से चालीस हजार गुना बढ़ गई थी। अन्य प्रसिद्ध नवतारे हैं: परस्यूस तारामंडल का नवतारा, 1925 ई0 विक्टोरिस नवतारा तथा 1934 ई0 का हरक्यूलीस तारामंडल का नवतारा। जो नवतारे विस्फोट के बाद अत्यंत असाधारण रूप से चमकीले हो जाते है, उन्हे अतिनवतारा (Supernova) कहते हैं। 1885 ई0 के ऐंड्रोमिडा नीहारिका के अतिनवतारे ने छह दिनों में इतना अधिक प्रकाश विकीर्ण किया कि सूर्य कदाचित् उतने प्रकाश को 10 लाख वर्षो में विकीर्ण कर पाएगा।
अन्य प्रकार के चल तारे प्राय: अनियमित आवर्तनकाल के हैं।
गुच्छों में उपलब्ध तारे
किसी स्वच्छ रात्रि में आकाश में कुछ धुँधले प्रकाश के धब्बे से दिखाई देते हैं। यदि हम इन्हें शक्तिशाली यंत्रों से देखें तो इनमें तीन प्रकार की वस्तुएँ मिलती हैं: तारे के गुच्छे (star clusters), नीहारिकाएँ (nebulae) तथा गैलेक्सियाँ। नीहारिकाएँ चमकीली गैसों से बनी हैं तथा आकशगंगाएँ हमारी गैलेक्सी की तरह स्वतंत्र ताराप्रणालियाँ हैं। तारों के गुच्छे दो प्रकार के हैं, एक तो वे जो आकाशगंगीय समतल में, या आकाशगंगीय सर्पिल भुजाओं के पास उपलब्ध होते हैं। ऐसे गुच्छे आकाशगंगीय गुच्छे (Galactic Clusters) कहलाते हैं। इनमें तारों की संख्या अपेक्षकृत कम रहती हैं। इस प्रकार के वर्ग में कृत्तिका तारा गुच्छे अत्यधिक चमकीला तथा बड़ा है। गोलाकार तारागुच्छ सर्पिल भुजाओं से दूर तथा नाभिक के पास होते हैं। गोलाकार (globular) तारागुच्छों में अपेक्षाकृत अत्याधिक तारे रहते हैं। ये प्राय: घुँधले से दिखाई देते हैं। इन्हें दूरदर्शियों से ही देखा जाता है। ओमेंगा सेंटारी (Omega Centauri) तथा 47 तुकाने (47 Tucanae) पंचल कांतिमान के, चक्षुदृश्य, गोलाकार तारागुच्छ का पॉपुलेशन द्वितीय से संबंध है। अवश्य ही इनसे तारों के विकास की अवस्थाओं का ज्ञान होता है। इन तारों में विद्यमान आर आर लाइरा तथा सेफिइड तारों की सहायता से गुच्छ की दूरी ज्ञात की जाती है। इनके अध्ययन से गैलेक्सी के स्वरूप के अध्ययन में बहुत सहायता मिलती है।
दोहरे (double) बहुसंख्यक (multiple) तारे
अधिकाश तारे दोहरे, अथवा बहुसंख्यक (अति निकट दिखाई देनेवाले दो अथवा अधिक तारे), होते हैं, इनमें कुछ तारों की जोड़ियों में परस्पर कुछ भी संबंध नहीं होता, किंतु वे अति समीप इसलिए दिखाई देते हैं कि वे हमारी दृष्टिरेखा की ओर स्थित हैं। ऐसे तारों को चाक्षुष, (optical) दोहरे तारे कहते हैं। ऐसे तारे कम हैं। अधिकांश तारे वस्तुत: एक या अधिक तारों के साथ हैं। दो तारे, जो परस्पर आकर्षण से एक निश्चित प्रकार के दीर्घवृत्ताकार मार्ग में भ्रमण करते हैं, तारा-युग्म कहलाते हैं। यह निश्चय हो जाने पर कि कोई तारा वस्तुत: युग्म हैं, हम उसके संबंध की बहुत सी बातें ज्ञात कर सकते हैं, क्योंकि उसकी, अथवा उसके साथी तारा की, गति व्यापक गुरुत्वाकर्षण नियम (Generalized Gravition Law) का पालन करती हैं। युग्म तारों की गति तथा द्रव्यमात्रा को निश्चित रूप से ज्ञात किया जा सकता है। युग्मतारे मुख्यतया तीन प्रकार के होते हैं: दृश्य (visual), ग्रहणकारी (eclipsing) तथा वर्णक्रमीय (spectroscopic)। दृश्य युग्मतारों की कक्षा का ज्ञान करने के लिए उनकी दूरी तथा स्थिति कोण (position angle) का वेघ करना पड़ता है। अधिकांश दृश्य युग्मतारों का परिक्रमणकाल (period of revolution) बहुत लंबा होता है, जिसे ज्ञात करने के लिए सैकड़ों वर्षों तक वेघ की आवश्यकता है। इसीलिए यद्यपि 25,000 से भी अधिक दृश्य युग्मतारे ज्ञात हो चुके हैं, तथापि 200 से अधिक की कक्षा का ज्ञान अभी तक नहीं हो सका है। ग्रहणकारी युग्मतारे के सहचर की कक्षा प्राय: हमारी दृष्टिरेखा की दिशा में थोड़े से झुकाव से रहती है, जिससे एक तारा दूसरे को पूर्णतया या खंडश: ढक लेता है और इससे एक तारे का प्रकाश हमें दिखाई नहीं पड़ता। इससे युग्मतारे की पहचान हो जाती हैं, क्योंकि सामान्य स्थिति में इस तारे का जितना प्रकाश रहता है ग्रहण के समय पहले की अपेक्षा कम हो जाता है। यह ग्रहण की स्थिति नियत समय से होतीं हैं। इस तरह के तारों में बीटा परस्यूस (Beta Persues), अर्थात् अलगूल, अति प्रसिद्ध है। सामान्य अवस्था में इसका कांतिमान 2.2 होता है, जा ग्रहण के समय 3.4 रह जाता है। ग्रहण (eclipse) के पश्चात् इसका कांतिमान पुन: 2.2 हो जाता है। कुछ युग्मतारों के सहचर की कक्षा का समतल पृथ्वी के समीप से नहीं जाता, अत: हम उसके ग्रहण की स्थिति नहीं देख सकते हैं। किंतु उसके वर्णक्रम की रेखाओं के परिवर्तन से हमें पता चल जाता है कि यह तारा कब हमारी ओर आता तथा कब हमसे दूर जाता है, जिससे स्पष्ट है कि यह किसी अदृश्य तारे के चारों ओर घूम रहा है। ऐसे तारे वर्णक्रमीय युग्मतारों का परिक्रमण काल कम होता है। लगभग 309 वर्णक्रमीय तारों की कक्षाएँ ज्ञात हो चुकी हैं।
तारों के आकार
तारों के आकार प्राय: तीन विधियों से जाने जाते हैं:
(1) निरपेक्ष कांतिमान तथा ताप से,
(2) ग्रहणकारी युग्मतारों के ग्रहणकाल से तथा
(3) व्यतिकरणमापी (interferometer) से।
प्रथम विधि प्लैंक के निम्नलिखित सूत्र पर आधारित है:
दृश्य निरपेक्ष कांतिमान Mvis = (29500 / ताप) - 5 log (r) - 0.08
जहाँ r = तारे की त्रिज्या है।
ग्रहणकारी तारे के ग्रहण के काल के वेघ से उसकी कक्षा के सापेक्ष उसकी त्रिज्या ज्ञात हो जाती है। व्यातिकरणमापी से तारे का कोणीय व्यास ज्ञात हो जाता है तथा इसकी दूरी ज्ञात होने से इसका सरल रेखात्मक व्यास भी ज्ञात हो जाता है। तारों के व्यास के आधार पर ही उनके दानवाकार तथा वामनाकार आदि नाम पड़े हैं।
द्रव्यमात्रा (mass) तथा घनत्व (density)
तारों की द्रव्यमात्रा ज्ञात करने की प्रत्यक्ष विधि युग्म तारों के सहचार की गति का अध्ययन करने से प्राप्त होतीं हैं। व्यापक गुरुत्वाकर्षण नियम की सहायता से इन तारों की द्रव्यमात्रा ज्ञात की जाती है। किसी भी वामन तारे (dwarf) की द्रव्यमात्रा सूर्य की द्रव्यमात्रा के दशमांश से कम नहीं उपलब्ध हुई हैं, तथा सूर्य से 10 गुनी से अधिक द्रव्यमात्रा के तारे भी विरल ही हैं। किसी तारे का घनत्व = द्रव्यमात्रा/आयतन। इस प्रकार देखने से पता चलता है कि दानवाकार तारों का घनत्व अत्यंत कम होता है तथा वामनाकार तारों का अत्यधिक। ज्येष्टा जैसे विशाल तारे का व्यास सूर्य के व्यास का 480 गुना है, तो भी इसकी द्रव्यमात्रा सूर्य की द्रव्यमात्रा के 20 गुने से अधिक नहीं। परिणामत: इसका घनत्व सूर्य के घनत्व के .00000002 से भी कम है। यह साधारण हवा के घनत्व से भी बहुत कम है। श्वेतावामन तारे सीरियम बी का, जिसकी त्रिज्या सूर्य की त्रिज्या की .034 तथा द्रव्यमात्रा सूर्य की द्रव्यमात्रा की 86 है, घनत्व इतना अधिक है कि उसके द्रव्य के एक घन इंच का भार एक टन होगा।
पृष्ठ का ताप (Surface Temperature)
सामान्यता फोटोमीटर की सहायता से, तारों के प्रकाश के विभिन्न रंगों के घनत्व की प्रयोगशाला में पहले से ज्ञात तापों के रंगों के घनत्व से तुलना कर, तारों के पृष्ठ का ताप ज्ञात किया जा सकता है। किंतु इसके निश्चित रूप से ज्ञात करने की सर्वोत्तम विधि है, उनके प्रकाश का वर्णक्रमीय विश्लेषण। इसी के आधार पर तारों का वर्णक्रमीय वर्गीकरण है, जो वस्तुत: उनके ताप का द्योतक है।
उर्जा का स्रोत (Source of Energy)
तारे अपनी ऊर्जा नाभिकीय अभिक्रिया से प्राप्त करते हैं। तारों के नाभिक के ताप के कारण तारों के उदजन के परमाणु नाभिक्रिया से हीलियम के परमाणुओं में परिवर्तित होते रहते हैं। इसके परिणाम स्वरूप तारों में अत्यधिक ताप की उत्पत्ति होतीं हैं, जिसे ये प्रकाश के रूप में विकीर्ण करते रहते हैं। बहुत अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए इन्हें अत्यल्प विद्युत्कण खोने पड़ते हैं। अतएव इनकी द्रव्यमात्रा में कोई भारी कमी नहीं होती तथा इनका जीवन भी करोड़ों वर्षों का हो जाता है।
तारों का वायुमंडल (Steller Atmosphere)
तारों के वायुमंडल का अध्ययन भी वर्णक्रम की रेखाओं से किया जाता है। सूर्य के वायुमंडल के अध्ययन से हमें पता चला है कि इसमें हाइड्रोजन अत्यधिक मात्रा में हैं। दूसरा स्थान हीलियम का है। अन्य तत्व कम मात्रा में हैं, तथापि मैग्नीशियम और ऑक्सीजन के परमाणु निश्चित रूप से विद्यमान हैं। ज्ञात रासायनिक तत्वों में 61 तत्व सूर्य के वायुमंडल में पहचाने जा चुके हैं। अधिकाशं तारों का वायुमंडल सूर्य सरीखा है, तथापि सभी तारों का वायुमंडल बिलकुल एक सा नहीं है। इनमें कार्बन तथा ऑक्सीजन की मात्राओं में अंतर है।
तारों का मूल तत्व
तारों के मूल तत्वों को उनके वर्णक्रम की रेखाओं के अध्ययन से जाना जाता है। प्रयोगशला में विभिन्न मूल तत्वों के वर्णक्रम ले लिए जाते हैं तथा तारों के वर्णक्रमों का उनसे मिलान करके तारों में उपलब्ध मूल तत्वों की पहचान की जाती है। इस प्रकार के अध्ययन से पता चला है कि औसत तारों में लगभग 70 हाइड्रोजन, 28 हीलियम, 1.5 कार्बन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा निआँन और 0.5 लोह वर्ग के तथा अन्य भारी तत्व होते हैं। भारी तत्व पॉपुलेशन प्रथम के तारों में लगभग 3 होते हैं तथा पॉपुलेशन द्वितीय वालों में 1 से भी कम।
तारों का विकास (Steller Evolution)
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तारों का जन्म तारों के अंतर्वर्ती गैस तथा धूल के कणों से होता है। गैस के बादलों के विद्युत्कण सामान्यतया उदासीन अवस्था में रहते हैं, किंतु जब कोई अत्यधिक उष्ण तारा इनके समीप से जाता है तो ये आयनीकृत होकर गतिशील हो जाते हैं तथा इनमें एक नाभिक (nuclues) बन जाता है, जो आसपास के गैस तथा धूल के द्रव्यकणों को आकृष्ट करके विशालरूप धारण करने लगता है। गति तथा संकोचन से नाभिक का ताप बढ़ने पर, इनमें नाभिकीय अभिक्रिया (neclear reaction) प्रारंभ हो जाती है, जिससे ये प्रकाश ऊर्जा (light energy) को विकीर्ण करने लगते तथा हमें नए तारों के स्वरूप में दिखलाई देने लगते हैं। विभिन्न प्रकार के तारों की ऊर्जा विकीर्णता के अध्ययन से पता चला है कि पॉपुलेशन द्वितीय के तारे बहुत प्राचीन हैं तथा पापुलेशन प्रथम के तारे अपेक्षाकृत बाद में निर्मित हैं।
तारों का जीवन
तारों के जीवन से तात्पर्य उनके प्रकाशमय जीवन से होता है। तारों के प्रकाश का आधार है, उनका हाइड्रोजन का भंडार, जिसकी नाभिकीय अभिक्रिया से वे ऊष्मा ऊर्जा प्राप्त करते हैं। जो तारे अत्यधिक चमकीले हैं, स्वभावत: वे अपने हाइड्रोजन के भंडार का अधिकाधिक उपभोग करके उसे अधिक शीघ्रता से हीलियम में परिवर्तित करते रहते हैं। यद्यपि हाइड्रोजन का भंडार समाप्त होने पर भी तारे संकोचन (contraction) द्वारा अपनी ऊष्मा उर्जा को बहुत वर्षों तक प्राप्त कर सकते हैं, तथापि उनके जीवन का मुख्य आधार उनके हाइड्रोजन के उपभोग पर ही निर्भर रहता है। जो तारे अत्यधिक चमकीले दिखलाई देते हैं, उनका जीवनकाल 109 वर्ष के लगभग तथा मुख्य अनुक्रम के धुँधले तारो का जीवनकाल 1013 वर्ष के लगभग होता है। सूर्य का जीवनकाल लगभग 1010 वर्ष हैं।
अपने चारों ओर फैले हुए तारामय विश्व के रहस्य को जानने की हमारी इच्छा बहुत पुरानी है। तारों के अध्ययन से हमने विश्व को गैलेक्सी जैसी अनेक ताराप्रणालियों (stellar system) पूर्ण पाया है। लाल रंग की ओर रेखाओं के स्थानातरंण (red shift) द्वारा हमने तारों के वर्णक्रमों के अध्ययन से इतना जान लिया है कि हमारा विश्व फैल रहा है। तथापि अपने सीमित साधनों के कारण हम विश्व के वास्तविक रूप को नहीं जान सके हैं। हमारे विश्व का कितना विस्तार है फैलता हुआ विश्व किस सीमा तक फैल सकता है विश्व की वक्रता कैसी है, तथा वक्रता त्रिज्या क्या है ये सभी प्रश्न अभी तक विवादास्पद हैं तथा इन विषयों में हमारा कोई निश्चित सर्वसम्मत सिद्धांत नहीं है। सबसे बड़ा माउंट पालोमार वेघशाला का, 200 इंच व्यास का हेल दूरदर्शी एक अरब पारसेक, अथवा लगभग 20,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00 मील के लगभग, दूरियों के दृश्य तक ही पहुँच पाया है। उसके आगे क्या है, हम नहीं जान सके। अत: अब हमारा ध्यान रेडियो दूरदर्शी चाक्षुष दूरदर्शियों की लगभग सीमा तक पहुँच चुका है। अत: अब हमारा ध्यान रेडियो दूरदर्शियों की ओर गया है। वैज्ञानिक विकास की वर्तमान प्रगति में हमें आशा है कि रेडियों दूरदर्शी हमें ताराविश्व के अज्ञात रहस्यों तक पहुँचा सकेंगें।
तारापात
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वैज्ञानिक तथ्यों के बावजूद यह आकाशीय दृश्य अनादिकाल से विश्वव्यापी विश्वासों में महत्वपूर्ण रहा है। पुराकथाओं, प्राचीन पौराणिक तथा अर्धएतिहासिक वृतांतों और लोककथाओं से इस घटना के विषय में प्रचलित विविध मान्यताओं का पता चलता है। आकाश की इस विलक्षण घटना का सबसे अधिक संबंध भविष्यसूचक विश्वासपरंपरा से आबद्ध फलित ज्योतिष से है जिसमें इसके फलाफल का विधान किया जाता है। वराहमिहिर कृत बृहत्संहिता में कहा गया है कि वे लोग जो स्वर्ग में अपने संपूर्ण सुकर्मों का फल भोग चुकते हैं, उल्का के रूप में गिर पड़ते हैं। भविष्यवाणी संबंधी विश्वासों के अनुसार उल्कापात कहीं शुभसूचक है और कहीं अशुभसूचक। किंतु अधिकतर भविष्य में होनेवाली किसी दुर्घटना के दैवी संकेत के रूप से यह अशुभसूचक ही समझा जाता है। प्लिनी के उल्लेखानुसार 1200 ई0 पू0 के प्राचीन ग्रीस के नगरराज्य स्पार्टा के राजनियंत्रक दंडाधिकारी यदि आठ वर्ष की शासनावधि के बाद, किसी चंद्रविहीन स्वच्छ रात्रि में उल्कापात होते देख लेते थे तो शासक के पापात्मा होने का दैवी संकेत मानकर उसे गद्दी से उतार देते थे।
नक्षत्रों और तारों के संबंध में यह विलक्षण अंधविश्वास सामान्य रूप से एशिया, यूरोप, अमरीका और अफ्रीका के विस्तृत क्षेत्रों में प्रचलित है कि आकाश के प्रत्येक तारे से धरती के अलग अलग मनुष्य या मनुष्यों के जीवन तथा भाग्य नियंत्रित होते हैं। नक्षत्रों के रूप, स्वभाव, स्थान तथा गति की कल्पना के आधार पर जन्मपत्री में व्यक्ति के भावी जीवन की व्याख्या का आधार यही विश्वास है जिसे एक गणितीय या वैज्ञानिक पद्धति प्रदान की गई है। भाग्य से इनका संबंध उक्त भूभाग की अभिव्यक्ति में प्रचलित 'तारा' और 'नक्षत्र' शब्द के अर्थों में सुगमतापूर्वक खोजा जा सकता है। इसी प्रकार किसी तारे का रंग और तेज भी पृथ्वी के किसी मनुष्य के स्वभाव और भाग्यका प्रतिनिधित्व करता है; साथ ही, उसके टूटने का अर्थ है संबंधित व्यक्ति का मृत होना। प्यून जातियों की पुराकथा के अनुसार जब सभी तारे टूट चुकेगें तब मानवीय सृष्टि का अंत हो जाएगा। कहीं कहीं इसका अर्थ नए जन्म का संकेत भी है किंतु तारापात की यह शुभस्थिति विश्वास जगत् में अत्यंत विरल है।