गोर्खालैंड
साँचा:if empty गोर्खाल्याण्ड | |
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प्रस्तावित राज्य | |
साँचा:location map | |
देश | साँचा:flagu |
राज्य | गोरखालैंड |
प्रस्तावित राजधानी | दार्जीलिंग |
भाषाएँ | |
• आधिकारिक | नेपाली |
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गोरखालैंड, भारत के अन्दर एक प्रस्तावित राज्य का नाम है, जिसे दार्जीलिंग और उस के आस-पास के भारतीय गोरखा बहुल क्षेत्रों (जो मुख्यतः पश्चिम बंगाल में हैं) को मिलाकर बनाने की माँग होती रहती है।[२] गोरखालैण्ड की मांग करने वालों का तर्क है कि उनकी भाषा और संस्कृति शेष बंगाल से भिन्न है।[३] गोरखालैण्ड की यह मांग हड़ताल, रैली और आंदोलन के रूप में भी समय-समय पर उठती रहती है।
गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में गोरखालैंड के लिए दो जन आंदोलन (१९८६-१९८८) में हुए। इसके अलावा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में (२००७ से अब तक) कई आंदोलन हुए।
क्षेत्र का इतिहास
शहर का नाम | जनसंख्या |
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दार्जीलिंग | |
कालिम्पोंग | |
कुर्सियांग | |
मिरिक |
इतिहासिक रुपसे दार्जिलिङ और इसके आसपासका तराई क्षेत्र तत्कालिन किरात राज्यका हिस्सा था जिसे बिजयपुर के नाम से जाना जाता था बिजयपुर राज्य के बिघटन के बाद इस क्षेत्र पर सिक्किम और भुटान का कब्जा हुवा। सिक्किम अधिराज्य की स्थापना १६४२ ई० में हुआ था, तब दार्जीलिंग सिक्किम अधिराज्य का एक क्षेत्र हुआ करता था। जब ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में अपना पैर पसार रहा था, उसी समय हिमालयी क्षेत्र में भी गोरखा नामक अधिराज्य पड़ोस के छोटे-छोटे राज्यों को एकीकरण कर अपना राज्य विस्तार कर रहा था।
सन १७८० में गोरखाओं ने सिक्किम पर अपना प्रभुत्व जमा लिया और अधिकांश भाग अपने राज्य में मिला लिया जिसमें दार्जीलिंग और सिलीगुड़ी शामिल थें। गोरखाओं ने सिक्किम के पूर्वी छोर टिस्टा नदी तक और इसके तराई भाग को अपने कब्जे में कर लिया था।[४] उसी समय ईस्ट इंडिया कम्पनी उत्तरी क्षेत्र के राज्यों को गोरखाओं से बचाने में लग गए और इस तरह सन १८१४ में गोरखाओं और अंग्रेजों के बीच एंग्लो-गोरखा युद्ध हुआ। इस युद्ध में गोरखाओं कि हार हुई फलस्वरूप १८१५ में वे एक संधि जिसे सुगौली संधि कहते हैं पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर हो गए। सुगौली संधि के अनुसार गोरखाओं को वह सारा क्षेत्र ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंपना पड़ा जिसे गोरखाओं ने सिक्किम के राजा चोग्याल से जीता था। गोरखाओं को मेची से टिस्टा नदी के बीच के सारे भू-भाग ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपना पड़ा।[५]
बाद में १८१७ में तितालिया संधि के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी ने गोरखाओं से लिये सारे भू-भाग सिक्किम के राजा चोग्याल को वापस सौंप दिए और उनके राज्य के स्वाधीनता की गारंटी दी।
बात यहीं खत्म नही हुई। १८३५ में सिक्किम के द्वारा १३८ स्क्वायर मील (३६० किमी²) भूमि जिसमें दार्जीलिंग और कुछ क्षेत्र शामिल थे को ईस्ट इंडिया कंपनी को अनुदान में सौंप दिया गया। इस तरह दार्जीलिंग १८३५ में बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा हो गया।
नवम्बर १८६४ में भूटान और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच सिंचुला संधि हुई जिसमें बंगाल डुआर्स जो असल में कूच बिहार राज्य के हिस्से थें जिसे युद्ध मे भूटान ने कूच बिहार से जीत लिया था के साथ-साथ भूटान के कुछ पहाड़ी क्षेत्र और कालिम्पोंग को सिंचुला संधि के अंतर्गत ईस्ट इंडिया कंपनी को देने पड़ें।
१८६१ से पहले और १८७०-१८७४ तक दार्जीलिंग जिला एक अविनियमित क्षेत्र (Non-Regulated Area) था अर्थात यहां अंग्रेजों के नियम और कानून देश के दूसरे हिस्से की तरह स्वतः लागू नही होते थें, जबतक की विशेष रूप से लागू नहीं किया जाता था। १८६२ से १८७० के बीच इसे विनियमित क्षेत्र (Regulated Area) समझा जाता रहा। १८७४ में इसे अविनियमित क्षेत्र से हटाकर इसे अनुसूचित जिला (Schedule district) का दर्जा दे दिया गया और १९१९ में इसे पिछड़ा क्षेत्र (Backward tracts) कर दिया गया। १९३५ से लेकर भारत के आजादी तक यह क्षेत्र आंशिक रूप से बाहरी क्षेत्र (Partially Excluded area) कहलाया।
भारत के आजादी के बाद १९५४ में एक कानून पास किया गया "द अब्जॉर्बड एरियाज (कानून) एक्ट १९५४" जिसके तहत दार्जीलिंग और इस के साथ के क्षेत्र को पश्चिम बंगाल में मिला दिया गया।
अलग प्रशासनिक इकाई की मांग
दार्जीलिंग में अलग प्रशासनिक इकाई की मांग १९०७ से चली आ रही है, जब हिलमेन्स असोसिएशन ऑफ दार्जीलिंग ने मिंटो-मोर्ली रिफॉर्म्स को एक अलग प्रशासनिक क्षेत्र बनाने के लिए ज्ञापन सौंपी।
१९१७ में हिलमेन्स असोसिएशन ने चीफ सेक्रेटरी, बंगाल सरकार, सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ऑफ इंडिया और वाइसरॉय को एक अलग प्रशासनिक इकाई बनाने के लिए ज्ञापन सौंपा जिसमें दार्जीलिंग जिला और जलपाईगुड़ी जिले को शामिल करने के लिए कहा गया था।
१९२९ में हिलमेन्स असोसिएशन ने फिर से उसी मांग को सायमन कमिसन के समक्ष उठाया।
१९३० में हिलमेन्स असोसिएशन, गोर्खा ऑफिसर्स असोसिएशन और कुर्सियांग गोर्खा लाइब्रेरी के द्वारा एक जॉइंट पेटिशन भारत राज्य के सेक्रेटरी सैमुएल होर के समक्ष एक ज्ञापन सौंपा गया था जिसमें कहा गया था इन क्षेत्रों को बंगाल प्रेसिडेंसी से अलग किया जाय।
१९४१ में रूप नारायण सिन्हा के नेतृत्व में हिलमेन्स असोसिएशन ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ऑफ इंडिया, लॉर्ड पथिक लॉरेन्स को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें कहा गया था दार्जीलिंग और साथ के क्षेत्रों को बंगाल प्रेसिडेंसी से निकाल कर एक अलग चीफ कमिश्नर्स प्रोविन्स बनाया जाय।
१९४७ में अनडिवाइडेड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने एक ज्ञापन कांस्टिट्यूट असेम्बली जिसमें से एक प्रति जवाहर लाल नेहरू, दी वाईस प्रेसिडेंट ऑफ द अंतरिम गवर्नमेंट और लियाक़त अली खान, फाइनेंस मिनिस्टर ऑफ अंतरिम गवर्नमेंट को सौंपा जिसमें सिक्किम और दार्जीलिंग को मिलाकर एक अलग राज्य गोरखास्थान निर्माण की बात कही गई थी।
स्वतन्त्र भारत में अखिल भारतीय गोरखा लिग वह पहली राजनीतिक पार्टी थी जिसने पश्चिम बंगाल से अलग एक नये राज्य के गठन के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू को एनबी गुरुंग के नेतृत्व में कालिम्पोंग में एक ज्ञापन सौंपा था।
१९८० में इंद्र बहादुर राई (दार्जीलिंग के प्रांत परिषद) के द्वारा तब के प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लिखकर एक अलग राज्य की गठन की बात कही।
१९८६ में गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के द्वारा एक हिंसक आंदोलन की शुरुआत हुई जिसका नेतृत्व सुभाष घीसिंग के हाथ में था। इस आंदोलन के फलस्वरूप १९८८ में एक अर्ध स्वायत्त इकाई का गठन हुआ जिसका नाम था "दार्जीलिंग गोरखा हिल परिषद"।
२००७ में फिर से एक नई पार्टी गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के द्वारा एक अलग राज्य की मांग उठाई गई। २०११ में गोर्खा जन मुक्ति मोर्चा ने एक त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसमें गोर्खा जन मुक्ति मोर्चा, बंगाल सरकार और केंद्र सरकार शामिल थी। इस समझौते ने पुराने दार्जीलिंग गोरखा हिल परिषद को नए अर्ध स्वायत्त इकाई गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन में परिवर्तित कर दिया।[६]
गोर्खा जन मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में २०१७ में भी ८ जून से फिर से गोरखालैंड की मांग की आवाज़ उठ खड़ी हुई है, जब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सरकार ने बंगाली भाषा को अनिवार्य भाषा के रूप में पश्चिम बंगाल के हर क्षेत्र में लागू करने का फैसला किया। दार्जीलिंग और उस के आस पास रहने वाले गोरखाओं को लगा कि पश्चिम बंगाल की सरकार उन पर बंगाली भाषा जबरन थोपने की कोशिश कर रही है। इसी कारण से उन्होंने इस का विरोध शुरू कर दिया और फिर अलग राज्य की मांग में रैलियाँ और नारे लगाने लगे। परिणाम स्वरूप पश्चिम बंगाल पुलिस और गोर्खा जन मुक्ति मोर्च के बीच झड़प हो गई और आंदोलन हिंसक रूप ले लिया। इस आंदोलन में कुछ लोग मारे भी गये हैं।
गोरामुमो द्वारा आंदोलन और दागोहिप का गठन
1980 में सुभाष घीसिंग द्वारा अलग किन्तु भारत के अंदर हि एक राज्य बनाने की मांग उठी जिसमें दार्जीलिंग के पहाड़ी क्षेत्र, डुआर्स और सिलिगुड़ी के तराई क्षेत्र और दार्जीलिंग के आस-पास के क्षेत्र सम्मिलित हों। मांग ने एक हिंसक रूप धारण कर लिया, जिसमें 1200 लोग मारे गयें। यह आंदोलन 1988 में तब समाप्त हुई जब दार्जीलिंग गोरखा हिल परिषद (दागोहिप) का गठन हुआ। दागोहिप ने 23 वर्षों तक दार्जीलिंग पहाड़ी पर कुछ दर्जे के स्वायत्तता के साथ शासन किया।
2004 में चौथी दागोहिप का चुनाव नहीं हुआ। यद्यपि, सरकार ने निश्चय किया कि चुनाव नहीं कराया जाएगा और सुभाष घीसिंग हि दागोहिप के सर्वेसर्वा होंगे जबतक कि नई छठी अनुसूचित जनजातीय परिषद का गठन नहीं हो जाता। इस कारण दागोहिप के भूतपूर्व सभासदों में नाराजगी तेजी से बढ़ी। बिमल गुरुंग जो घीसिंग के विश्वसनीय सहायक थें ने निश्चय किया कि वह गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा छोड़ देंगे। दार्जीलिंग के प्रशांत तामांग जो इंडियन आइडल के एक प्रतियोगी थें के समर्थन में बिमल गुरुंग ने इस का फायदा उठाया और घीसिंग को दागोहिप के कुर्सी से हटाने में सफल रहें। उन्होंने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का गठन किया और फिर से अलग राज्य गोरखालैंड के मांग में जुट गयें। [७]
गोजमुमो के नेतृत्व में आंदोलन
2009 के आम चुनाव से पहले, भारतीय जनता पार्टी ने फिर से अपनी नीति का उद्घोष करते हुए कहा था वे छोटे राज्यों के पक्ष में हैं और अगर आम चुनाव जीतते हैं तो दो नए राज्य तेलंगाना और गोरखालैंड के गठन में सहयोग करेंगे। गोजमुमो ने भाजपा के उम्मीदवार जसवंत सिंह का समर्थन किया, जो दार्जीलिंग लोक सभा सीट से विजयी हुयें उनके पक्ष में 51.5% मत पड़े थें। संसद के जुलाई 2009 के बजट अधिवेशन में, तीन सांसद— राजीव प्रताप रूडी, सुषमा स्वराज और जसवंत सिंह— ने गोरखालैंड बनाने पर जबरदस्त समर्थन किया था।
अखिल भारतीय गोरखा संघ के नेता मदन तामांग की हत्या के कारण गोरखालैंड की मांग ने एक नया मोड़ ले लिया। उन्हें कथित रूप से गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के समर्थकों ने 21 मई 2010 को दार्जीलिंग में चाकू मारकर हत्या कर दिया था, जिसके फलस्वरूप दार्जीलिंग पहाड़ के तीन तहसील दार्जीलिंग, कालिम्पोंग और कुर्सियांग बंद रहेँ।[८] [९] मदन तामांग के हत्या के पश्चात, पश्चिम बंगाल सरकार ने गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के खिलाफ कार्रवाई की धमकी दी, जिनके वरिष्ठ नेताओं के नाम एफआईआर में नामित थें, इस बीच गोरखा पार्टी के साथ अंतरिम व्यवस्था पर चल रहे वार्ता को समाप्त करने का संकेत देते हुए कहा गया कि हत्या के बाद इन लोगों ने लोकप्रिय समर्थन खो दिया है। [१०]
8 फरवरी 2011 को, गोजमुमो के तीन कार्यकर्ताओं की गोली मारकर हत्या कर दी गई, जिनमें से एक की मृत्यु पुलिस के द्वारा चोट पहुंचाने की वजह से बाद में हो गई, जब वे पदयात्रा पर थें। यह पदयात्रा बिमल गुरुंग के नेतृत्व में गोरुबथान से जयगांव जा रही थी। यह घटना तब घटित हुई जब वे पदयात्रा के दौरान जलपाईगुड़ी जिले में प्रवेश कर रहे थें। इस घटना की वजह से दार्जीलिंग पहाड़ में हिंसा उत्पन्न हो गई और शहर में अनिश्चित काल के लिए गोजमुमो के द्वारा बंद का आह्वान किया जो 9 दिनों तक चलता रहा।[११]
18 अप्रैल 2011 को पश्चिम बंगाल राज्य विधानसभा चुनाव, 2011 में, गोजमुमो के उम्मीदवारों ने तीन दार्जिलिंग पहाड़ी विधानसभा सीटें जीतें जिससे साबित हो गया कि दार्जीलिंग में अभी भी गोरखालैंड की कड़ी मांग है। गोजमुमो उम्मीदवार त्रिलोक देवन ने दार्जिलिंग निर्वाचन क्षेत्र, में जीत दर्ज की। [१२] हर्क बहादुर क्षेत्री ने कालिम्पोंग निर्वाचन क्षेत्र से, और रोहित शर्मा ने कुर्सियांग निर्वाचन क्षेत्र से जीत दर्ज की। [१३] विल्सन चम्परामरी जो एक स्वतंत्र उम्मीदवार और जिन्हें गोजमुमो का समर्थन था, ने भी डुआर्स में कालचीनी निर्वाचन क्षेत्र से जीत दर्ज की। [१४]
गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन
गोरखालैंड क्षेत्रिय प्रशासन जो कि दार्जीलिंग पहाड़ी की एक अर्ध-स्वायत्त प्रशासनिक निकाय है के गठन के लिए समझौते के ज्ञापन पर 18 जुलाई 2011 को हस्ताक्षर किया गया था।[१५] पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव (2011) अभियान के समय ममता बनर्जी ने कहा था दार्जीलिंग बंगाल का अविभाज्य हिस्सा है, जबकि ममता ने निरूपित किया कि यह गोरखालैंड आंदोलन का अंत होगा, वहीं बिमल गुरुंग ने दोहराया कि यह राज्य प्राप्ति का दूसरा कदम है। दोनो ने सार्वजनिक रूप से एक हि स्थान से यह वक्तव्य दिया जब दोनों सिलीगुड़ी के नजदीक पिनटेल गांव में त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर करने जमा हुए थें। [१६]गोरखालैंड प्रशासनिक क्षेत्र बनाने के लिए पश्चिम बंगाल विधान सभा में 2 सिंतबर 2011 को विधेयक पारित हुआ। [१७] पश्चिम बंगाल सरकार ने गोरखालैंड प्रशासनिक क्षेत्र अधिनियम के लिए 14 मार्च 2012 को गोरखालैंड प्रशासनिक क्षेत्र के लिए चुनाव कि तैयारी करने का संकेत देते हुए एक राजपत्र अधिसूचना जारी किया।[१८] 29 जुलाई 2012 को गोरखालैंड प्रशासनिक क्षेत्र के लिए हुए मतदान में, गोजमो के उम्मीदवारों ने 17 निर्वाचन क्षेत्रों पर जीत हासिल किया और सभी 28 सीटों पर निर्विरोध रहें।[१९]
30 जुलाई 2013 को गुरुंग ने गोरखालैंड क्षेत्रिय प्रशासन से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि इसमें पश्चिम बंगाल सरकार का दखल अंदाजी अधिक है और फिर नये सिरे से गोरखालैंड आंदोलन शुरू कर दिया।[२०]
2013 का आंदोलन
30 जुलाई 2013 को कांग्रेस कार्य समिति ने सर्वसम्मति से आंध्र प्रदेश से एक अलग तेलंगाना राज्य के गठन की सिफारिश करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया।[२१] इसके परिणामस्वरूप पूरे भारत में अलग राज्य के लिये अचानक से मांग बढ़ गई, उनमें से प्रमुख थे पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड और असम में बोडोलैंड राज्य की मांग।
गोजमो ने तीन दिन के बंद का आह्वान किया,[२२] फिर गोजमो ने 3 अगस्त से अनिश्चितकाल तक के लिए बंद का आह्वान किया।[२३] पृष्ठभूमि में बड़े पैमाने पर शांतिपूर्ण, राजनीतिक विकास हुआ। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने आदेश देकर कहा बन्द का आह्वान करना अवैद्य है, इस आदेश के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने अपना रुख कड़ा करते हुए अर्धसैनिक बल की कुल 10 कंपनियां दार्जीलिंग भेजा ताकि हिंसक विरोध को दबाया जा सके और गोजमो के बड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जा सके।[२४] प्रतिक्रिया में गोजमो ने विरोध का एक अनोखा विकल्प निकाला 'जनता बंद' जिसमें ना तो किसी धरने पर बैठना था ना हि किसी बल का प्रयोग करना था, इस में पहाड़ के लोगों से स्वेक्षा से 13 और 14 अगस्त को अपने अपने घरों में रहने के लिए कहा गया था।[२५] यह सरकार के लिए एक बड़ी सफलता और शर्मिंदगी साबित हुई।
इस भाग-दौड़ के बाद, 16 अगस्त को गोजमो के द्वारा दार्जीलिंग में एक सर्व-दलीय मीटिंग बुलाई गई, जिसमें गोरखालैंड को समर्थन करने वाली पार्टियों ने अनौपचारिक रूप से गोरखालैंड संयुक्त कार्रवाई समिति का गठन किया।[२६] और संयुक्त रूप से आंदोलन जारी रखने का फैसला किया और अलग अलग नामों से बन्द को निरंतर जारी रखने का फैसला किया।
106 सालों में पहली बार पहाड़ कि सभी बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ एक साथ आने को सहमत हुईं और संयुक्त रूप से आंदोलन को आगे बढ़ाने का निर्णय किया।
केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के मांग के साथ, GJAC ने फैसला किया कि 18 अगस्त के बाद भी विभिन्न कार्यक्रमों के तहत जैसे कि 'घर भित्र जनता' (घर के अंदर जनता), मशाल जुलूस और काले पट्टी के साथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर विशाल मानव श्रृंखला के द्वारा बंद जारी रखी जायेगी।
2017 का दार्जीलिंग आंदोलन
गोरखालैंड का समयरेखा[२७] | |
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1907 | पहली बार दार्जीलिंग में अलग प्रशासनिक इकाई कि मांग के लिए आवाज उठाई गई। हिलमेन्स असोसिएशन ने मिंटो-मोर्ली रिफॉर्म को एक ज्ञापन सौंपा जिसमेँ एक अलग प्रशासनिक निकाय कि मांग कि गई थी। |
1917 | हिलमेन्स असोसिएशन ने बंगाल सरकार और वाइसराय को एक ज्ञापन सौंप कर जलपाईगुड़ी और दार्जीलिंग जिले को लेकर एक अलग प्रशासनिक निकाय बनाने के लिए कहा था। |
1929 | हिलमेन्स असोसिएशन ने फिर से साइमन कमीशन के समक्ष अपनी मांग रखी। |
1930 | हिलमेन्स असोसिएशन, गोरखा ऑफिसर्स असोसिएशन और कुर्सियांग गोरखा लाइब्रेरी के द्वारा भारत सरकार के समक्ष एक संयुक्त याचिका पेश किया गया जिसमें बंगाल प्रोविंस से अलगाव कि मांग कि गई थी। |
1941 | रूप नारायण सिंह के अध्यक्षता में हिलमेन्स असोसिएशन ने भारत सरकार से आग्रह किया कि दार्जीलिंग को बंगाल से अलग कर इसे मुख्य आयुक्त का प्रांत बनाया जाय। |
1947 | अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने विधान सभा में एक ज्ञापन सौंप कर गोरखास्थान बनाने कि मांग कि जिसमें सिक्किम और दार्जीलिंग को एक साथ रखने कि बात कही गई थी। |
1952 | अखिल भारतीय गोरखा लिग के अध्यक्ष एनबी गुरुंग नप्रधानमंत्री नेहरू से मिल कर बंगाल से अलगाव कि मांग की। |
1980 | प्रान्त परिषद ऑफ दार्जीलिंग जिसके अध्यक्ष इंद्र बहादुर राई थे ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने दार्जीलिंग को अलग कर एक अलग राज्य बनाने कि मांग कि थी। उसी साल सुभाष घीसिंग कि अध्यक्षता में गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा गोरामो (गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट GNLF) का उदय हुआ था। |
1986 | गोरामो ने गोरखालैंड के लिए हिंसक आंदोलन किया। इस हिंसा में 1200 लोगों कि जान गई थीं। |
1988 | दार्जीलिंग गोरखा हिल परिषद के समझौते पर गोरामो, ज्योति बसु की अध्यक्षता में वाम मोर्चा सरकार और केंद्र सरकार ने हस्ताक्षर किया। |
2007 | बिमल गुरुंग द्वारा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का उदय। |
2011 | सिप्चू (डुआर्स) में गोजमो के तीन समर्थक मारे गयें। हिंसक आंदोलन का आरम्भ। इसी वर्ष गोरखा क्षेत्रीय प्रशासन का गठन भी हुआ। |
एक बार फिर जून 2017 से दार्जीलिंग में अलग राज्य के लिए आंदोलन जारी है।[२८] यह आंदोलन पश्चिम बंगाल के पहाड़ी क्षेत्र में बंगाली भाषा अनिवार्य भाषा करने के विरोध में शुरू हुआ जहां लोगों की आधिकारिक भाषा नेपाली है।[२८]
गोरखालैंड की क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टियाँ
- गोरखा जन मुक्ति मोर्चा (गोजमुमो/गोजमो)
- गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (गोरामुमो/गोरामो)
- गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (सी.के.प्रधान) (गोरामो-प्र)
- गोरखा राष्ट्रीय कांग्रेस
- अखिल भारतीय गोरखा लिग (अभागोलि)
- भारतीय गोरखा परिषद (भागोप)
- भारतीय गोरखा जनशक्ति (भागोज)
- क्रांतिकारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी
- गोरखालैंड राज्य निर्माण मोर्चा
- भारतीय नेपाली बीर गोरखा
- सिक्किम राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा
- मातृ भूमि सुरक्षा संगठन
- जन आंदोलन पार्टी (जाप)
बाहरी कड़ियाँ
- ठंडे बस्ते में पड़ा गोरखालैंड का मुद्दा फिर क्यों सुलग उठा (दृष्टिआईएएस.कॉम)
- बहुत पुराना है गोरखालैंड आंदोलन का इतिहास(डिडब्ल्यू.कॉम)
- गोरखालैंड कि मांग(देशबन्धु.को.इन)
सन्दर्भ
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- ↑ साँचा:cite webसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
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- ↑ साँचा:cite web
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