सिक्किम का इतिहास

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गुरु रिन्पोचे, सिक्किम के संरक्षक सन्त की मूर्ति. नाम्ची की मूर्ति ११८ फ़ीट पर विश्व में उनकी सबसे ऊँची मूर्ति है।

बौद्ध भिक्षु गुरु रिन्पोचे का 8वीं सदी में सिक्किम दौरा सिक्किम से सम्बन्धित सबसे प्राचीन विवरण है। अभिलेखित है कि उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, सिक्किम को आशीष दिया तथा कुछ सदियों पश्चात आने वाले राज्य की भविष्यवाणी करी। मान्यता के अनुसार 14वीं सदी में ख्ये बुम्सा, पूर्वी तिब्बत में खाम के मिन्यक महल के एक राजकुमार को एक रात दैवीय दृष्टि के अनुसार दक्षिण की ओर जाने का आदेश मिला। इनके ही वंशजों ने सिक्किम की राजतन्त्र की स्थापना करी। 1642 में ख्ये के पाँचवें वंशज फुन्त्सोंग नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षु- जो कि उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से आये थे, द्वारा सिक्किम का प्रथम चोग्याल(राजा) घोषित किया गया। इस प्रकार सिक्किम में राजतन्त्र का आरम्भ हुआ।

फुन्त्सोंग नामग्याल के पुत्र, तेन्सुंग नामग्याल ने उनके पश्चात 1670 में कार्य-भार संभाला। तेन्सुंग ने राजधानी को युक्सोम से रबदेन्त्से स्थानान्तरित कर दिया। 1700 में सिक्किम पर भूटान का आक्रमण हुआ जिसमें चोग्याल की अर्ध-बहन था, जिसको राज-गद्दी से वंचित कर दिया गया था। तिब्बतियों की सहयता से चोग्याल को राज-गद्दी पुनः सौंप दी गयी। 1717 तथा 1733 के बीच में सिक्किम को नेपाल तथा भूटान के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा जिसके कारण अन्तत: रबदेन्त्से का पतन हो गया।[१]

सिक्किम के पुराने राजशाही का ध्वज

नेपाल की हार

1791 में चीन ने सिक्किम की मदद के लिये और तिब्बत को गोरखा से बचाने के लिये अपनी सेना भेज दी थी। नेपाल की हार के पश्चात, सिक्किम किंग वंश का भाग बन गया। पड़ोसी देश भारत में ब्रितानी राज आने के बाद सिक्किम ने अपने प्रमुख दुश्मन नेपाल के विरुद्ध उससे हाथ मिला लिया। नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण किया एवं टेराई समेत काफी सारे क्षेत्र में कब्जा कर लिया। इसकी वज़ह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नेपाल पर चढ़ाई की जिसका परिणाम 1814 का गोरखा युद्ध रहा। सिक्किम और नेपाल के बीच हुई सुगौली संधि तथा सिक्किम और बरतानवी भारत के बीच हुई तितालिया संधि के द्वारा नेपाल द्वारा अधिकृत सिक्किमी क्षेत्र सिक्किम को वर्ष 1817 में लौटा दिया गया। यद्यपि, अंग्रेजों द्वारा मोरांग प्रदेश में कर लागू करने के कारण सिक्किम और अंग्रेजी शासन के बीच संबंधों में कड़वाहट आ गयी। वर्ष 1849 में दो अंग्रेज़ अफसर, सर जोसेफ डाल्टन और डाक्टर अर्चिबाल्ड कैम्पबेल, जिस में से उत्तरवर्ती (डाक्टर अर्चिबाल्ड) सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार था, सिक्किम के पर्वतों में अनुमति अथवा सूचना के बिना जा पहुंचे। इन दोनों अफसरों को सिक्किम सरकार द्वारा बंधी बना लिया गया. नाराज ब्रिटिश शासन ने इस हिमालय वर्ती राज्य पर चढाई कर दी और इसे 1935 में भारत के साथ मिला लिया। इस चढाई के परिणाम वश चोग्याल ब्रिटिश गवर्नर के अधीन एक कठपुतली राजा बन कर रह गया।[२]

भारत में बिना शर्त विलय

1947 में एक लोकप्रिय मत द्वारा सिक्किम का भारत के साथ विलय अस्वीकार कर दिया गया और तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू नें सिक्किम को संरक्षित राज्य का दर्जा प्रदान किया। इसके तहत भारत सिक्किम का संरक्षक हुआ और सिक्किम के विदेशी राजनयिक अथवा सम्पर्क संबंधी विषयों की जिम्मेदारी भारत नें संभाली। 1955 में एक राज्यिक परिषद् स्थापित की गई जिसके अधीन चोग्याल को एक संविधानिक सरकार बनाने की अनुमति दी गई। इस दौरान सिक्किम नेशनल काँग्रेस द्वारा पुनः मतदान और नेपालियों को अधिक प्रतिनिधित्व की मांग के चलते राज्य में गडबडी की स्थिति पैदा हो गई। 1973 में राजभवन के सामने हुए दंगो के कारणवश भारत सरकार को सिक्किम को संरक्षण प्रदान करने का औपचारिक अनुरोध किया गया। चोग्याल राजवंश सिक्किम में अत्यधिक अलोकप्रिय साबित हो रहा था। सिक्किम पूर्ण रूप बाह्य विश्व के लिये बंद था और बाह्य विश्व को सिक्किम के बारे मैं बहुत कम जानकारी थी। यद्यपि अमरीकन आरोहक गैन्ग्तोक में से कुछ चित्र तथा अन्य कानूनी प्रलेख तस्कृत करने में सफल हुआ। इस प्रकार भारत की कार्यवाही विश्व की दृष्टि में आई। यद्यपि इतिहास लिखा जा चुका था और वास्तविक स्थिती विश्व के सम्मुख तब आयी जब काजी (प्रधान मंत्री) नें 1974 में भारतीय संसद को यह अनुरोध किया के सिक्किम को भारत का एक राज्य स्वीकार किया जाए और उसे भारतीय संसद में प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाए। अप्रैल में भारतीय सेना सिक्किम में प्रविश्टित हुयी और राजमहल के पहरेदारों को निःशस्त्र करने के पश्चात गंगटोक को अपने कब्जे में ले लिया।

दो दिनों के भीतर सम्पूर्ण सिक्किम राज्य भारत के नियंत्रण में था। सिक्किम को भारतीय गणराज्य में सम्मिलित्त करने का प्रशन जनता के सामने रख्खा गया जिसमे सिक्किम की 97.5 प्रतिशत जनता नें इस का समर्थन किया। कुछ ही सप्ताह के उपरांत 16 मई 1975 में सिक्किम औपचारिक रूप से भारतीय गणराज्य का 22वां प्रदेश बना और सिक्किम में एकाधिपत्य का अंत हुआ।

वर्ष 2002 में चीन को एक बड़ी शर्मिंदगी के सामना करना पड़ा जब 17वें कर्मापा उर्ग्यें त्रिन्ले दोरजी, जिन्हें चीनी सरकार एक लामा घोषित कर चुकी थी, एक नाटकीय अंदाज़ में तिबेत से भाग कर सिक्किम की रुम्तेक मोनास्ट्री में जा पहुंचे। चीनी अधिकारी इस धर्म संकट में जा फँसे के इस बात का विरोध भारत सरकार से कैसे करें क्योंकि भारत से विरोध करने का अर्थ यह निकलता के चीनी सरकार नें प्रत्यक्ष रूप से सिक्किम को भारत के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार कर लिया है।

चीन से संबंध

चीनी सरकार की अभी तक सिक्किम पर औपचारिक स्थिति यह थी कि सिक्किम एक स्वतंत्र राज्य है जिस पर भारत नें अधिक्रमण कर रखा है।[३] चीन ने अंततः सिक्किम को 2003 में भारत के एक राज्य के रूप में स्वीकार किया जिससे भारत-चीन संबंधों में आयी कड़वाहट कुछ कम हुई। बदले में भारत नें तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग स्वीकार किया। भारत और चीन के बीच हुए एक महत्वपूर्ण समझौते के तहत चीन ने एक औपचारिक मानचित्र जारी किया जिसमे सिक्किम को स्पष्ट रूप में भारत की सीमा रेखा के भीतर दिखाया गया। इस समझौते पर चीन के प्रधान मंत्री वेन जियाबाओ और भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने हस्ताक्षर किया। जुलाई 6, 2006 में हिमालय के नाथुला दर्रे को सीमावर्ती व्यापार के लिए खोल दिया गया जिससे यह संकेत मिलता है कई इस क्षेत्र को लेकर दोनों देशों के बीच सौहार्द का भाव उत्पन्न हुआ है।[४]

पौराणिक इतिहास

पौराणिक समय में ये छेत्र किरातो का था जब किरात राजा यलम्बर ने 1,500 बी सी में मध्य नेपाल पर कब्जा कर लिया था। और उसका राज्य पश्चिम में त्रिसुली नदी से लेकर पूर्व में तीस्ता नदी तक फैला हुआ था। [१] [२] हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव को शिकारी कितेश्वर या किरातों के भगवान के रूप में अर्जुन के रूप में उसी स्थान पर प्रकट हुए हैं, जहां प्राचीन किरतेश्वर मंदिर पश्चिम सिक्किम के लेगशिप में स्थित है। [३] [४] ६ वीं शताब्दी तक लेपचाओं ने नेपाल (वर्तमान इलाम क्षेत्र), वर्तमान सिक्किम, हर चु घाटी और अम्मो चू घाटी (दक्षिण पश्चिमी भूटान) और ग्रेटर सिक्किम के पूर्वी भाग के अधिकांश भाग पर कब्जा कर लिया था। चुम्बी घाटी इस बीच, लिम्बस ने ग्रेटर सिक्किम (वर्तमान लिम्बुवान क्षेत्र) के पश्चिमी भाग का निवास किया। [५] लिम्बुवान का एक हिस्सा अभी भी पश्चिम जिले, दक्षिण जिले और उत्तर जिले के एक हिस्से में मौजूद सिक्किम में बरकरार है। [६] लेप्चा ने लेप्चा बोली बोलता थी और आस्था से बोंग्थिज्म और मुनिवाद या एनिमिज़्म के विश्वासियों थे। लिम्बु लाेग लिम्बु बोली बोलता था और यह युमसवाद या यूमा साममाङ, किरात का एक रूप था। [5]

7 वीं शताब्दी में, थेकुंग एडेक ने लेप्चा जनजातियों को समेकित किया और खुद को पानू, एक आदिवासी धार्मिक और प्रशासनिक प्रमुख या राजा घोषित किया। इसी प्रकार, लिम्बु जनजातियों पर उनके चुने हुए 10 लोगों में से 10 निर्वाचित प्रमुखों या हाङ द्वारा एक सामाजिक और प्रशासनिक निकाय बनाने के लिए शासन किया गया था, जिसे थिबोंग याक्थुम तुयांगहांग (आदिवासी गणतंत्र परिषद या टेन लिम्बस काउंसिल) कहा जाता है।[[] लगभग West West० ए। डी। हैंग, पश्चिम सिक्किम के प्रमुख, चीकीकोम के लोगों द्वारा लिम्बुवान के किबा लिम्बु राजा, माबो हाङ के खिलाफ लड़ने के लिए उकसाया गया था। ना हाङ की हार हुई और लिंबुवान से चिलिचोम को गायब कर दिया गया। सिक्किम का उल्लेख कई हिंदू ग्रंथों में भी मिलता है क्योंकि बौद्ध संत गुरु रिनपोछे या पद्मसंभव को ९वीं शताब्दी में भूमि से गुजारा गया था। किंवदंती के अनुसार, गुरु ने भूमि को आशीर्वाद दिया, बौद्ध धर्म को सिक्किम में पेश किया और राज्य में राजशाही के युग की भी भविष्यवाणी की, जो सदियों बाद आएगा। सिक्किम में तिब्बतियों के प्रवास और सिक्किम राजशाही की स्थापना के संबंध में कई कहानियां हैं। सबसे लोकप्रिय कहा गया है कि 13 वीं शताब्दी में, पूर्वी तिब्बत में खम में मिन्यक हाउस के एक राजकुमार, गुरु ताशी ने एक रात एक दिव्य रहस्योद्घाटन किया था जो उन्हें अपनी किस्मत की तलाश में दक्षिण की यात्रा करने का निर्देश देता था। गुरु ताशी चुम्बी घाटी में बस गए। [९] [१०] इस अवधि के दौरान जनसंख्या और भाषायी सर्वेक्षण का आयोजन नहीं किया गया था, लेकिन यह निश्चित है कि इस क्षेत्र में बाद के समय में लेप्चा, लिम्बस, मगर और कुछ भूटिया थे। [1 1]

सन्दर्भ

  1. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; History नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  2. साँचा:cite web
  3. साँचा:cite web
  4. साँचा:cite news