वाराणसी की नदियां
साँचा:ambox वाराणसी क्षेत्र में अनेक छोटी बड़ी नदियाँ बहती हैं। इनमें सबसे प्रमुख नदी तो गंगा ही है, किंतु इसके अलावा अन्य बहुत नदियां हैं जैसे बाणगंगा, वरुणा, गोमती, करमनासा, गड़ई, चंद्रप्रभा, आदि।[१]
गंगा
वाराणसी की संस्कृति, भूगोल और प्राकृतिक रचना में गंगा का मुख्य स्थान है। गंगापुर के बेतवर गाँव से गंगा नदी की राह में बनारस जिले का आरंभ होता है। वहीं इससे सुबहा नाला आ मिलता है। वहाँ से लगभग १३ कि॰मी॰ तक गंगा, वाराणसी और मिर्जापुर जिले की सीमा बनाती है और इसके बाद वाराणसी जिले में वाराणसी और चन्दौली का विभाजन करती है।[१] गंगा की धारा अर्ध-वृत्ताकार रूप में वर्ष भर बहती है। इसके बाहरी भाग के ऊपर करारे पड़ते हैं और भीतरी भाग में बालू अथवा बाढ़ की मिट्टी मिलती है। जिले में गंगा का बहाव पहले उत्तरमुखी होता हुआ रामनगर के कुछ आगे तक देहात अमानत और राल्हूपुर के बीच से निकलता है जहाँ करारा कंकरीला है और नदी उसके ठीक नीचे बहती है। देहात अमानत में गंगा का बांया किनारा मुंडादेव तक चला गया है जहाँ इसके नीचे की ओर वह रेत में परिणत हो जाता है और बाढ़ में पानी से भर जाता है। रामनगर से निकलने के बाद गंगा की उत्तर-पूर्व की ओर मुढ़ती दूसरी केहुनी शुरु होती है। धारा यहाँ बायें किनारे से लगकर बहती है। अस्सी संगम से लेकर करारे पर बनारस के मंदिर, घाट और मकान बने हैं और दाहिने किनारे पर बलुआ मैदान है। मालवीय पुल से कैथ तक नदी पूर्व की ओर बहती है। यहाँ धारा बायें किनारे से लगकर बहती है और यह करारा वरुणा संगम के कुछ आगे तक चला जाता है। तांतेपुर पर यह धारा दूसरे किनारे की ओर जाने लगती है और किनारा नीचा और बलुआ होने लगता है।
कैथी के पास गंगा पुन: उत्तर की ओर मुढ़ती है और उसका यह मुख बलुआ तक बना रहता है। कैथी से कांवर तक दक्षिणी किनारा भरभरा है पर बाद में कंकरीले करारे में बदल जाता है, लेकिन कांवर से बलुआ तक मिट्टी की एक उपजाऊ पट्टी कुछ भीतर घुसती हुई पड़ती है। इस घुमाव के अंदर जाल्हूपुर परगना है। इस परगन के अन्दर से गंगा की एक उपधारा बलुआ के कुछ ऊपर गंगा से मिल जाती है। बलुआ से गंगा उत्तर-पश्चिम की ओर घूम जाती है। इसका बांयी ओर का किनारा जाल्हूपुर और कटेहर की सीमा तक नीचा और बलुआ है। यहाँ से नदी पहले उत्तर की ओर बाद में उत्तर-पूर्व की ओर बहती है। कटेहर के दक्षिण-पूर्व कंकरीला किनारा शुरु हो जाता है और यहाँ-वहाँ खादर के टुकड़े हैं। दूसरा किनारा परगना बरह में आता है। बरह के उत्तरी छोर से कुछ दूर गंगा गाजीपुर और वाराणसी की सीमा अलग करती है और वह गाजीपुर जिले में प्रवेश कर जाती है।
बाणगंगा
नदी किनारे की भूगर्भिक बनावट और बहुत जगहों पर कंकरीले करारों के कारण जिले में नदी की धारा में बहुत कम अदल-बदल हुआ है। कहते हैं कि प्राचीन काल में बरह शाखा के सिवा गंगा की कोई दूसरी धारा नहीं थी। लेकिन इस बात का प्रमाण है कि गंगा की धारा प्राचीन काल में दूसरी ही तरह से बहती थी। परगना कटेहर में कैथ के पास की चचरियों से ऐसा लगता है कि इन्हीं कंकरीले करारों के कारण नदी एक समय दक्षिण की ओर घूम जाती थी। गंगा की इस प्राचीन धारा के बहाव का ज्ञान बाणगंगा से होता है जो बरसात में भर जाती है। टांड़ा से शुरु होकर बाणगंगा दक्षिण की ओर छ: मील तक महुवारी की ओर जाती है, फिर पूर्व की ओर रसूलपुर तक, अन्त में उत्तर में रामगढ़ को पार करती हुई वह हसनपुर (सैयदपुर के सामने) तक जाती है। जिस समय गंगा की धार का यह रुख था उस समय गंगा की वर्तमान धारा में गोमती बहती थी जो गंगा में सैयदपुर के पास मिल जाती थी। जनश्रुति यह है कि शान्तनु ने बाणगंगा को काशिराज की कन्या के स्वयंवर के अवसर पर पृथ्वी फोड़कर निकाला। काशिराज की राजधानी उस समय रामगढ़ थी। अगर किसी समय राजप्रसाद रामगढ़ में था तो वह गंगा पर रहा होगा और इस तरह इस लोक कथा के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि एक समय गंगा रामगढ़ से होकर बहती थी।
गंगा की इस प्राचीन धारा के बारे में प्राचीन साहित्य में भी अनेक प्रमाण हैं। ब्राह्मण और बौद्ध साहित्य में तो गंगा की इस धारा की कोई चर्चा नहीं है पर जैन साहित्य में इसका थोड़ा बहुत उल्लेख है। जैनों ने एक प्राचीन अंग नायाधम्म कहा (४/१२१) में इस बात का उल्लेख है कि वाराणसी के उत्तर-पूर्व में मयगंगा तीर्थदह अर्थात मृतगंगा तीर्थहृद था। उत्तराध्ययन चूर्णि[२] के अनुसार मयगंगा के निचले बहाव के रुख में एक हृद था जिसमें काफी पानी इकट्ठा हो जाता था जो कभी निकलता नहीं था। जिनप्रभसूरि ने विविध तीर्थकल्प[३] में मातंग ॠषि बल का जन्म स्थान मृतगंगा का किनारा बतलाया है। कथा में यह कहा गया है कि ॠषि बल एक समय तिन्दुक नामक उपवन में ठहरे थे। वहाँ उन्होंने अपने गुणों से गंडी तिन्दुक यक्ष को प्रसन्न कर लिया। कोसल राज की कन्या ने एक समय ॠषि को देखकर उन पर थूक दिया। इस पर यक्ष उसके सिर पर चढ़ गया और राज कन्या को ॠषि से विवाह करना पड़ा। ॠषि ने बाद में उसे त्याग दिया और उसने रुद्रदेव से विवाह कर लिया। भिक्षा-याचना पर निकले ॠषि का एक समय ब्राह्मण अपमान कर रहे थे लेकिन भद्रा ने उन्हें पहचाना और ब्राह्मणों की भर्त्स्ना की। ॠषि ने फिर ब्राह्मणों को भी क्षमा कर दिया।
मृतगंगा संबंधी उक्त कथा से कई बातें ज्ञात होती है, पहली यह कि कम-से-कम गुप्तयुग में जब नायाधम्म कहा-लिखी गयी मृतगंगा आज के जैसी ही थी। दूसरी यह कि यह मृतगंगा वाराणसी के उत्तर-पूर्व में थी जो भौगोलिक दृष्टिकोण से बिलकुल ठीक है। तीसरी यह कि आज से १३०० वर्ष पहले इसमें पानी भरा रहता था और यह दह बन जाती थी। अब तो मृतगंगा में पानी केवल बरसात में आता है। संभवत: १००० वर्ष पहले बाणगंगा अधिक गहरी थी और बाद में मिट्टी भरने से छिछली हो जाने के कारण पानी रोकने में असमर्थ हो गयी।
रामगढ़ में बाणगंगा के तट पर वैरांट के प्राचीन खंडहरों की स्थिति है, जो महत्वपूर्ण है। लोक कथाओं के अनुसार यहाँ एक समय प्राचीन वाराणसी बसी थी। सबसे पहले बैरांट के खंडहरों की जाँच पड़ताल ए.सी.एल. कार्लाईल[४] ने की। वैरांट की स्थिति गंगा के दक्षिण में सैदपुर से दक्षिण-पूर्व में और वाराणसी के उत्तर-पूर्व में करीब १६ मील और गाजीपुर के दक्षिण-पश्चिम करीब १२ मील है। वैरांट के खंडहर बाणगंगा के वर्तुलाकार दक्षिण-पूर्वी किनारे पर हैं। बैरांट के नाम व्युत्पत्ति के बारे में ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। मत्स्यों की राजधानी बैरांट जो जयपुर, राजस्थान में है, इससे भिन्न है, फिर भी मत्स्यों के इस प्रदेश में होने का उल्लेख एक जगह महाभारत में आया है। लगता है मत्स्य एक जगह स्थिर न होकर आगे-पीछे आते-जाते रहे होगें और शायद इस नाम से उनका संबंध भी हो। पर लौकिक अनुश्रुति में सत्य का अंश है और इसे एक अफवाह मानकर टाला नहीं जा सकता है। बैरांट के खंडहरों में प्राचीन किले का भग्नावशेष बाणगंगा के पूर्वी कोने पर है। प्राचीन नगर के अवशेष किले से लेकर दक्षिण में बहुत दूर तक जमीन पर है, इसके बाद वे घूमकर दक्षिण-पश्चिम की ओर नदी के किनारे पर स्थित है। पुराना किला मिट्टी का बना है पर उसमें बहुत सी ईंटें भी मिलती है। उत्तर-दक्षिण में इसकी लम्बाई लगभग ४१० मीटर और पूरब में लगभग २७५ मीटर है। इसके बगल में प्राकार के २० से ३० मीटर चौड़े वप्र के अवशेष हैं। कहीं-कहीं यह वप्र है पर अधकर नालियों से कट गया है। किले के तीन ओर अर्थात् उत्तर-पूर्व, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पूर्व के अट्टालक बच गए हैं। किले के चारों फाटकों का विशेष रूप से उत्तर-दक्षिण के फाटकों का अभी भी पता लगता है। किले के अंदर दक्षिण में करीब एक तिहाई भाग नीचा है, फिर एक तिहाई जमीन उत्तर की ओर चढ़ती हुई है और किले की उत्तरी चौथा भाग और भी है। उत्तर-पूर्व अट्टालक के पास किसी बड़ी इमारत के भग्नावशेष हैं। किले के बाहर की खाई के निशान अब भी उत्तर-दक्षिण की ओर दिखते हैं। किले से करीब १२० मीटर की दूरी पर वैरांट नामक गाँव है। इस गाँव के उत्तर-पूर्व में ५० मीटर की दूर पर एक दूसरा टीला है। गाँव से उत्तर की ओर करीब ६२० मीटर पर भगतिन का तालाब है, जिसके उत्तर में करीब १०० मीटर पर एक दूसरा टीला है। तालाब से करीब २०० मीटर पश्चिम में रामसाला नाम का मंदिर है, जहाँ अघोरी महंत और उनके चेले रहते हैं। इस मंदिर से करीब १ कि॰मी॰ उत्तर में रामगढ़ का गाँव है। बैरांट गाँव के उत्तर-पूर्व २१० मीटर पर ठीकरों और ईंटों से पटी कुछ जमीन है। किले के दक्षिण में करीब १४० मीटर पर प्राकार के भग्नावशेष हैं, जो पूर्व से पश्चिम तक करीब ४२५ मीटर तक दिखाई पड़ते हैं। इसके पास में ही चौरस टीला है जिसके दक्षिण में एक नाला है। इस नाले से करीब ९०० मीटर पर रसूलपुर का गाँव और एक टीला है। इस तरह देखने से पता चलता है कि बाणगंगा के पूर्वी किनारे पर पुराने किले से रसूलपुर तक कोई प्राचीन शहर बसा था क्योंकि वर्षा काल में बराबर यहाँ से ढीकरे और ईंटें निकलती रहती है। इतना ही नहीं प्राचीन शहर के भग्नावशेष रसूलपुर से दक्षिण-पश्चिम करीब ७००-८०० मीटर और आगे तक चले गए हैं। शहर के इस बढ़ाव के दक्षिणी कोने पर बाणगंगा पर पुराना घाट है। जहाँ शहर के अवशेष खत्म होते हैं वहाँ मिट्टी का एक बुर्ज है।
कार्लाइल के अनुसार प्राचीन किले को छोड़कर शहर की पूरी लम्बाई करीब ३ या ३-५ कि॰मी॰ है। पूरब से पश्चिम तक शहर की चौड़ाई का इसलिए ठीक पता नहीं लगता क्योंकि खेतों के लिए जमीन समतल कर दी गयी है। लेकिन ध्यान से देखने पर शहर की उत्तरी और चौड़ाई लगभग ६०० मीटर और दक्षिण ४०० मीटर से ३०० मीटर और ठेठ दक्षिणी ओर २४० मीटर रह जाती है। प्राचीन नगर के ठेठ पूर्व में एक प्राचीन छिछली नदी का तल थी जिससे नगर घिरा था। अब सूख गया है पर इसमें बरसात में थोड़ा पानी भर जाता है। कार्लाइल ने बैरांट से बहुत-से आहत और ढलुए सिक्के पाए। ईसा पूर्व दूसरी सदी की ब्राह्मी लिपि में ज्येष्ठदत्त तथा विजयमित्र के सिक्के तथा कनिष्क के भी सिक्के उन्हें मिले। राम कृष्णदास एवं डॉ॰ मोती चन्द ने भी बैरांट से बहुत आहत सिक्के इकट्ठे किये। एक सिक्के पर शुंगकालीन ब्राह्मी में "गोमि' लेख है।
कार्लाइल को अकीक इत्यादि की बहुत सी मणियाँ भी यहाँ से मिली है। भारतकला भवन काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में भी ऐसी मणियों का अच्छा संग्रह है। यहाँ हाथी दाँत की चूड़ियों के भी टुकड़े काफी संख्या में मिलते हैं। कार्लाइल को बैरांट के आस-पास के नालों और खेतों से प्रस्तर युग की चिप्पियाँ (flakes) तथा कोर भी मिले थे इन सब बातों से यह सिद्ध हो जाता है कि बैरांट की बस्ती प्राचीन है। काली मिट्टी के ओपदार बर्तनों के टुकड़ों के मिलने से तो यह निश्चित हो जाता है कि मौर्य युग में यहाँ बस्ती थी। ऊपर हमने वैरांट के प्राचीन शहर का इसलिए विस्तारपूर्वक वर्णन किया कि इस नगर की स्थिति से वाराणसी के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इस जगह काशी की प्राचीन स्थिति के संबंध की कुछ बातों का जानना आवश्यक है। महाभारत (अनुशासन पर्व, १८९९, १९००) में यह कथा आयी है कि काशिराज हर्य को वीतिष्व्यो ने गंगा-यमुना के मैदान में हराकर मार डाला। हर्य के पुत्र सुदेव को भी लड़ाई में मात खानी पड़ी। बाद में उनके पुत्र दिवोदास ने दूसरी वाराणसी गंगा के उत्तर किनारे और गोमती के दक्षिण किनारे पर बसायी।
अब प्रश्न उठता है कि दिवोदास का बसाया यह दूसरा वाराणसी कहां पर था? गंगा की आधुनिक धारा को देखते हुए यह नगर गंगा-गोमती के संगम कैथी के पास होना चाहिए पर कैथी के आस-पास किसी प्राचीन नगर का भग्नावशेष नहीं है। चंद्रावती के भी गाहड़वाल युग के पहले के नहीं है और एक बड़े शहर का तो यहाँ नाम निशान भी नहीं मिलता। आज तक यह भी नहीं सुनने में आया कि चंद्रावती से कोई प्राचीन सिक्के भी मिले हैं। आसपास खोजने पर बैरांट के सिवा कोई ऐसी दूसरी जगह नहीं मिलती जहाँ प्राचीन काल में एक शहर रहा है। गंगा-गोमती की वर्तमान धारा इस मत के विरुद्ध पड़ती है, पर गंगा की प्राचीन धारा की अगर कल्पना की जाए तो बैरांट पर ही दिवोदास की बनायी दूसरी वाराणसी संभव जान पड़ती है। बाणगंगा रसूरपुर तक पूर्ववाहिनी होकर हसनपुर में गंगा के वर्तमान प्रवाह में मिल जाती है। जिस समय गंगा का मूल प्रवाह बाणगंगा काँठे से था, इस समय गोमती गंगा की वर्तमान धारा में बहती हुई सैदपुर के पास गंगा से आ मिलती थी। इस तरह बैरांट या प्राचीन वाराणसी गोमती के दक्षिण में पड़ता था जैसा कि महाभारत में कहा गया है। अब प्रश्न यह है कि यह नयी वाराणसी कब तक बसी रही? ऐसा जान पड़ता है कि जब तक गंगा ने अपना प्रवाह नहीं बदला था तब तक नगर बैरांट में ही बना रहा। पर जब गंगा ने इस जगह को छोड़ दिया तब नगर भी धीरे-धीरे वीरान हो चला और अंत में केवल टीला रह गया। लेकिन यह सब हुआ कब? ऐसा पता लगता है कि मौर्ययुग तक तो वैरांट का शहर बसा था और शायद गंगा ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद ही अपना रास्ता बदला होगा। कम-से-कम जैसा हमें अनुश्रुतियों से पता लगता है गुप्तयुग में तो मृतगंगा अर्थात् बाणगंगा इतिहास में आ चुकी थी, अत: गंगा ने अपना रास्ता इसके कई शताब्दी पहले बदला होगा। यह प्रश्न ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्व का है पर इस प्रश्न पर और अधिक प्रकाश तभी पड़ सकता है जब वैरांट की आधुनिक ढ़ंग से खुदाई हो।
वरुणा
सुबहा और अस्सी जैसे दो एक मामूली नाले-नालियों को छोड़कर इस जिले में गंगा की मुख्य सहायक नदियाँ बरना और गोमती हैं। वाराणसी के इतिहास के लिए तो बरना का काफी महत्व है क्योंकि जैसा हम पहले सिद्ध कर चुके हैं इस नदी के नाम पर ही वाराणसी नगर का नाम पड़ा। अथर्ववेद (५/७/१) में शायद बरना को ही बरणावती नाम से संबोधन किया गया है। उस युग में लोगों का विश्वास था कि इस नदी के पानी में सर्प-विष दूर करने का अलौकिक गुण है। प्राचीन पौराणिक युग में इस नदी का नाम "वरणासि' था। बरना इलाहाबाद और जौनपुर जिलों की सीमा पर फूलपुर के ताल से निकालकर वाराणसी जिले की सीमा में पश्चिमी ओर से घुसती है और यहाँ उसका संगम विसुही नदी से सरवन गाँव में होता है। विसुही नाम का संबंध शायद विष्ध्नी से हो। संभवत: बरना नदी के जल में विष हरने की शक्ति के प्राचीन विश्वास का संकेत हमें उसकी एक सहायक नदी के नाम से मिलता है। बिसुही और उसके बाद वरना कुछ दूर तक जौनपुर और वाराणसी की सीमा बनाती है। बल खाती हुई बरना नदी पूरब की ओर जाती है और दक्षिण और कसवार ओर देहात अमानत की ओर उत्तर में पन्द्रहा अठगांवा और शिवपुर की सीमाएं निर्धारित करती है। बनारस छावनी के उत्तर से होती हुई नदी दक्षिण-पूर्व की ओर घूम जाती है और सराय मोहाना पर गंगा से इसका संगम हो जाता है। वाराणसी के ऊपर इस पर दो तीर्थ है, रामेश्वर ओर कालकाबाड़ा। नदी के दोनों किनारे शुरु से आखिर तक साधारणत: हैं और अनगिनत नालों से कटे हैं।
गोमती
इस नदी का भी पुराणों में बहुत उल्लेख है। पौराणिक युग में यह विश्वास था कि वाराणसी क्षेत्र की सीमा गोमती से बरना तक थी। इस जिले में पहुँचने के पहले गोमती का पाट सई के मिलने से बढ़ जाती है। नदी जिले के उत्तर में सुल्तानीपुर से घुसती है और वहाँ से २२ मील तक अर्थात कैथी में गंगा से संगम होने तक यह जिले की उत्तरी सरहद बनाती है। नदी का बहाव टेढ़ा-मेढ़ा है और इसके किनारे कहीं-कहीं ढालुए हैं।
नंद
नंद गोमती की एकमात्र सहायक नदी है। यह नदी जौनपुर की सीमा पर कोल असला में फूलपुर के उत्तर-पूर्व से निकलती है और धौरहरा में गोमती से जा मिलती है। नंद में हाथी नाम की एक छोटी नदी हरिहरपुर के पास मिलती है।
करमनासा
मध्यकाल में हिन्दुओं का यह विश्वास था कि करमनासा के पानी के स्पर्श से पुण्य नष्ट हो जाता है। करमनासा और उसकी सहायक नदियाँ चंदौली जिले में है। नदी कैभूर पहाड़ियों से निकलकर मिर्जापुर जिले से होती हुई, पहले-पहल बनारस जिले में मझवार परगने से फतहपुर गाँव से घूमती है। मझवार के दक्षिण-पूरबी हिस्से में करीब १० मील चलकर करमनासा गाजीपुर की सरहद बनाती हुई परगना नरवम को जिला शाहाबाद से अलग करती है। जिले को ककरैत में छोड़ती हुई फतेहपुर से ३४ मील पर चौंसा में वह गंगा से मिल जाती है। नौबतपुर में इस नदी पर पुल है और यहीं से ग्रैंड ट्रंक रोड और गया को रेलवे लाइन जाती है।
गड़ई
करमनासा की मुख्य सहायक नदी गड़ई है जो मिर्जापुर की पहाड़ियों से निकलकर परगना धूस के दक्षिण में शिवनाथपुर के पास से इस जिले में घुसती है और कुछ दूर तक मझवार और धूस की सीमा बनाती हुई बाद में मझवार होती हुई पूरब की ओर करमनासा में मिल जाती है।
चन्द्रप्रभा
मझवार में गुरारी के पास मिर्जापुर के पहाड़ी इलाके से निकलकर चन्द्रप्रभा बनारस जिले को बबुरी पर छूती हुई थोड़ी दूर मिर्जापुर में बहकर उत्तर में करमनासा से मिल जाती है।
बनारस जिले की नदियों के उक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि बनारस में तो प्रस्रावक नदियाँ है लेकिन चंदौली में नहीं है जिससे उस जिले में झीलें और दलदल हैं, अधिक बरसात होने पर गाँव पानी से भर जाते हैं तथा फसल को काफी नुकसान पहुँचता है। नदियों के बहाव और जमीन की के कारण जो हानि-लाभ होता है इसे प्राचीन आर्य भली-भांति समझते थे और इसलिए सबसे पहले आबादी बनारस में हुई।
सन्दर्भ
- ↑ अ आ वाराणसी की नदियाँ स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।। काशीविश्वनाथ। गुरुवार, २७ अगस्त २००९
- ↑ उत्तराध्ययन चूर्णि (१३, पृ. २१५) आवश्यक चूर्णि (पृ. ५१६)
- ↑ साँचा:cite book
- ↑ साँचा:cite book