१९७१ का भारत-पाक युद्ध
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1971 भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान को बड़ी हार का सामना करना पड़ा।[२४] पूर्वी पाकिस्तान आजाद हो गया और बांग्लादेश के रूप में एक नया देश बना। 16 दिसंबर को ही पाकिस्तानी सेना ने सरेंडर किया था।
१९७१ का भारत-पाक युद्ध भारत एवं पाकिस्तान के बीच एक सैन्य संघर्ष था। इसका आरम्भ तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के स्वतंत्रता संग्राम के चलते ३ दिसंबर, १९७१ से दिनांक १६ दिसम्बर, १९७१ को हुआ था एवं ढाका समर्पण के साथ समापन हुआ था। युद्ध का आरम्भ पाकिस्तान द्वारा भारतीय वायुसेना के ११ स्टेशनों पर रिक्तिपूर्व हवाई हमले से हुआ, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लादेशी स्वतंत्रता संग्राम में बंगाली राष्ट्रवादी गुटों के समर्थन में कूद पड़ी।[२५][२६] मात्र १३ दिन चलने वाला यह युद्ध इतिहास में दर्ज लघुतम युद्धों में से एक रहा। [२७][२८]
युद्ध के दौरान भारतीय एवं पाकिस्तानी सेनाओं का एक ही साथ पूर्वी तथा पश्चिमी दोनों फ्रंट पर सामना हुआ और ये तब तक चला जब तक कि पाकिस्तानी पूर्वी कमान ने समर्पण अभिलेख पर[२९] १६ दिसम्बर, १९७१ में ढाका में हस्ताक्षर नहीं कर दिये, जिसके साथ ही पूर्वी पाकिस्तान को एक नया राष्ट्र बांग्लादेश घोषित किया गया। लगभग ~९०,०००[३०] से ~९३,००० पाकिस्तानी सैनिकों को भारतीय सेना द्वारा युद्ध बन्दी बनाया गया था। इनमें ७९,६७६ से ९१,००० तक पाकिस्तानी सशस्त्र सेना के वर्दीधारी सैनिक थे, जिनमें कुछ बंगाली सैनिक भी थे जो पाकिस्तान के वफ़ादार थे।[३०][३१][३२] शेष १०,३२४ से १५,००० युद्धबन्दी वे नागरिक थे, जो या तो सैन्य सम्बन्धी थे या पाकिस्तान के सहयोगी (रज़ाकर) थे। [३०][३३][३४][३५] एक अनुमान के अनुसार इस युद्ध में लगभग ३०,००० से ३ लाख बांग्लादेशी नागरिक हताहत हुए थे।[३६][३७][३८][३९][४०] इस संघर्ष के कारण, ८०,००० से लगभग १ लाख लोग पड़ोसी देश भारत में शरणार्थी रूप में घुस गये। [४१]
पृष्ठभूमि
पूर्वी पाकिस्तान में स्थापित प्रभावशाली बंगाली लोगों एवं पाकिस्तान के चार प्रान्तों में बसे बहु-जाति पाकिस्तानी लोगों के बीच राज्य करने के अधिकार को लेकर चल रहे मुक्ति संघर्ष ने भारत-पाकिस्तान युद्ध में चिंगारी का काम किया।साँचा:rp[४२][१९] पाकिस्तान (पश्चिमी) एवं पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के बीच १९४७ में संयुक्त राजशाही द्वारा भारत की स्वतंत्रता के फलस्वरूप पाकिस्तान के सृजन के समय से ही राजनैतिक तनाव चल रहा था जो समय के साथ बढ़ता ही जा रहा था। इसको हवा देने वाले मुख्य कारकों में १९५० का प्रसिद्ध भाषा आन्दोलन, १९६४ के पूर्व में बड़े दंगे और अन्ततः १९६९ में भारी विरोध प्रदर्शन रहे। इनके परिणामस्वरूप पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान कोअपने पद से त्याग-पत्र देकर सेना प्रमुख जनरल याह्या ख़ान को पाकिस्तान की केन्द्रीय सरकार संभालने का न्यौता देना पड़ा।[४३][४४] पूर्वी एवं पश्चिमी पाकिस्तान की भौगोलिक दूरी भी अत्यधिक थी, लगभग ~साँचा:convert, जो बंगाली संस्कृति एवं पाकिस्तानी संस्कृति के राष्ट्रीय एकीकरण के प्रत्येक प्रयास में बाधा बनती थी।साँचा:rp[४५]साँचा:rp[४६]
बंगाली प्रभाव को दबाने एवं उन्हें इस्लामाबाद की केन्द्रीय सरकार बनाने में हिस्सेदारी देने के अधिकार से रोकने के लिये एक विवादित वन युनिट कार्यक्रम चलाया गया जिसके अन्तर्गत पूर्वी एवं पश्चिमी पाकिस्तान की स्थापना की गई, किन्तु इस प्रयास का स्थानीय पश्चिमी लोगों द्वारा घोर विरोध किया गया, एवं इसके कारण सरकार के दोनों धड़ों को साथ-साथ चलाना असंभव होता गया।साँचा:rp[४४] १९६९ में, तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या खान ने प्रथम आम चुनावों की घोषणा की १९७० में पश्चिमी पाकिस्तान की स्थिति का स्थगन कर दिया जिससे की उसे अपनी १९४७ में पाकिस्तान की स्थापना के समय बनायी गई चार प्रान्तों वाली मूल विषम स्थिति में बहाल किया जा सके।[४७] इसके साथ-साथ ही वहां बंगालियों एवं बहु-जातीय पाकिस्तानियों के बीच धार्मिक एवं जातीय विवाद भी उठने लगे, क्योंकि बंगाली लोग उन प्रभावशाली पश्चिम पाकिस्तानियों से बहुत भिन्न थे।साँचा:rp[४२]
१९७० में हुए आम चुनावों में पूर्वी-पाकिस्तान की आवामी लीग को पूर्वी पाकिस्तान विधान सभा की १६९ में से १६७ सीटें मिली जिसके परिणामस्वरूप उसे ३१३ सीटों वाली नेशनल असेम्बली में लगभग पूर्ण बहुमत मिल गया, जबकि पश्चिम पाकिस्तान का वोट-बैंक कंज़र्वेटिव पाकिस्तान मुस्लिम लीग एवं समाजवादी पाकिस्तान पीपल्स पार्टी, और तत्कालीन--साम्यवादी आवामी नेशनल पार्टी में बंट गया।साँचा:rp[४८] आवामी लीग नेता शेख मुजीबुर्रहमान ने अपनी राजनीतिक स्थिति पर जोर देते हुए इस संवैधानिक संकट को एक छः सूत्री कार्यक्रम के द्वारा समाधान दिया साथ ही राज्य करने के बंगालियों के अधिकार का पुरजोर समर्थन किया।साँचा:rp[४४] आवामी लीग की चुनावी जीत के चलते बहुत से पाकिस्तानियों को यह भय लगा कि कहीं इस तरह बंगालीे संविधान को भी उन छः-सूत्री कार्यक्रम की ओर घुमा न लें।साँचा:rp[४९]
इस संकट से उबरने हेतु सिफ़ारिशों एवं समाधान के लिये अहसान-याकूब मिशन बनायी गई एवं उसकी सिफ़ारिशों एवं रिपोर्ट को आवामी लीग, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी तथा पाकिस्तान मुस्लिम लीग और साथ ही राष्ट्रपति याहया खान से समस्थन मिला।साँचा:rp[५०]
हालांकि इस मिशन को राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के कई घटकों का समर्थन नहीं मिल पाया था, और परिणामस्वरूप इसे वीटो कर दिया गया।साँचा:rp[५०] पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के वीटो को समर्थन देने और पाकिस्तान की प्रीमियरशिप को शेख मुजीबुर्रहमान को देने से मना कर देने पर आवामी लीग ने राष्ट्रव्यापी सामान्य हड़ताल कि घोषणा कर दी।साँचा:rp[५०] राष्ट्रपति याह्या खान ने नेशनल असेम्बली के संयोजन को स्थगित कर दिया जिससे आवामी लीग एवं उसके पूर्वी पाकिस्तान के ढ़ेरों समर्थकों का मोहभंग हो गया।[५१] इसकी प्रतिक्रियास्वरूप शेख मुजीबुर्रहमान ने सामान्य हड़ताल की घोषणा की जिससे सरकार बंदी के हालात हो गये साथ ही उधर पूर्व में असंतुष्टों के समूह ने बिहारी जातीय समूहों पर अपनी अहिंसक प्रतिक्रिया करनी आरम्भ कर दी, जिन समूहों ने पाकिस्तान का समर्थन किया था। [५२] मार्च १९७१ के आरम्भ में अकेले चिट्टागॉन्ग में ही लगभग ३०० बिहारियों को बंगालियों की हिंसक भीड़ ने काट डाला।[५३] पाकिस्तान सरकार ने इस "बिहारी हत्याकाण्ड'" के बहाने पूर्वी पाकिस्तान में कुछ दिन बाद २५ मार्च को ऑपरेशन सर्चलाइट के तहत सेना तैनात कर दी।[५४] राष्ट्रपति याह्या खान ने तब पूर्वी पाक-सेनाध्यक्ष लेफ़्टि.जन.साहबज़ादा याकूब खां से त्यागपत्र मांगने के बाद पूर्व के असन्तुष्टों को दबाने के लिये और सेना बढ़ा दी जिसमें पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों की बहुतायत थी। [५५][५६]
वहां असन्तुष्टों की भीड़ की भीड़ गिरफ़्तार की जाने लगीं और कई दिनों की हड़ताल एवं असहयोग आन्दोलन के बाद, टिक्का खान के नेतृत्त्व में पाकिस्तानी सेना ने २५ मार्च १९७१ की रात्रि में ढाका पर अधिकार कर लिया। आवामी लीग को सरकार ने अवैध घोषित कर दिया। इसके बहुत से सदस्यों तथा सहानुभूतिज्ञों को पूर्वी भारत के भागों में शरण लेनी पड़ी। मुजीब को २५/२६ मार्च १९७१ की अर्धरात्रि के ०१:३० प्रातः बजे (२९ मार्च १९७१ की रेडियो पाकिस्तान के समाचार के अनुसार) गिरफ़्तार करके पाकिस्तान लेजाया गया। इसके बाद ऑपरेशन सर्चलाइट कार्रवाई की गयी और उसके तुरन्त बाद ही ऑपरेशन बरीसल की कार्रवाई की गई जिसके अन्तर्गत्त पूर्व के बौद्धिक अभिजात वर्ग को निपटाने की मंशा थी।[५७]
२६ मार्च १९७१ को पाकिस्तानी सेना के मेजर ज़ियाउर रहमान ने शेख मुजीबुर्रहमान की ओर से बांग्लादेश की स्वतंत्रता का एलान कर दिया।[५८][५९][६०]
उसी वर्ष अप्रैल में विस्थापित आवामी लीग के नेताओं ने मेहरपुर के बैद्यनाथताला में बांग्लादेश की प्रावधानिक सरकार का गठन किया। तब ईस्ट पाकिस्तान राईफ़ल्स, थल सेना, वायु एवं नौसेना तथा पाकिस्तान मैरीन्स के बंगाली अधिकारियों ने भी अपने दलबदल कर लिये साथ ही भारत के विभिन्न भागों में डर के मारे शरण ले ली। बांग्लादेश की सेना जिसे मुक्ति बाहिनी कहते हैं एवं जिसमें नियमितो बाहिनी तथा गॉनो बाहिनी दो प्रमुख अंग थे, की स्थापना सेवानिवृत्त कर्नल मुहम्मद अताउल गनी उस्मानी [६१] के नेतृत्त्व में की गई।
बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष में भारत की भूमिका
एड्मिरल सैयद मुहम्मद एहसान और लेफ़्टि.जनरल साहबज़ादा याकूब खान के त्यागपत्र दे देने के बाद, मीडिया के समाचारों में पाकिस्तानी सेना के बंगाली नागरिकों के व्यापक नरसंहार को,[६२], जिसमें विशेष तौर पर निशाना बने अल्पसंख्य्क हिन्दू समुदाय थे[६३][६४][२७]; को बड़ा स्थान मिला। इसके परिणामस्वरूप इस समुदाय को पड़ोसी देश पूर्वी भारत में शरण लेने हेतु भागना पड़ा।[६३][६२][६५] इस शरणार्थियों के लिये पूर्वी भारत की सीमाओं को भारत सरकार द्वारा खोल दिया गया। इन्हें शरण देने हेतु निकटवर्ती भारतीय राज्य सरकारों, जैसे पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, असम, मेघालय एवं त्रिपुरा सरकारों द्वारा बड़े स्तर पर सीमावर्त्ती क्षेत्रों में शरणार्थी कैम्प भी लगाये गए। साँचा:rp[६६] इस तेजी से भागते पूर्वी पाकिस्तानी शरणार्थी जनसमूह द्वारा भारत में घुस जाने के कारण भारत की पहले ही बोझिल अर्थ०व्यवस्था पर असहनीय भार पड़ा।[६४]
युद्ध के बाद, पूर्व के पाकिस्तानी सेना जनरलों में एक दूसरे पर पिछले दिनों किये गए प्रतिबद्ध अत्याचारों के लिये एक दूसरे पर दोषारोपण का काम शुरु हो गया, किन्तु अधिकतर दोष लेफ़्टि.जनरल टिक्का खान के सिर मढ़े गए, जिसे पूर्वी पाकिस्तान के गवर्नर होने के कारण अधिकतम उत्तरदायित्व उठाना था। उसे बंगाल का कसाई, आदि संज्ञाएं दी गयीं, क्योंकि अधिकतर अत्याचार के कार्य उसके नेतृत्त्व में हुए थे। [२५] अपने समकालीन साहबज़ादा याकूब खान, जो अपेक्षाकृत शांतिप्रिय था एवं बल प्रयोग में कम विश्वास रखता था, उससे भिन्न टिक्का खान को विवादों के निपटारे हेतु बल प्रयोग करने को आतुर कहा जाता था।साँचा:rp[६७][६८][६९][७०]
युद्ध जांच आयोग की सुनवाईयों में अपने अपराध-स्वीकारोक्ति में, लेफ़्टि.जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाज़ी ने उसके कार्यकलापों पर टिप्पणी करते हुए लिखा: "२५/२६ मार्च १९७१ के बीच की रात को जन.टिक्का खान ने आक्रमण किया। तब वह शांतिपूर्ण रात्रि एक विलाप, चित्कार और आगज़नी भरी रात में बदल गयी। जन.टिक्का ने अपनी ओर से किसी हमले की तरह कोई कसर नहीं छोड़ी थी, जैसे वे किसी शत्रु पर हमला कर रहे हों, न कि अपने ही दिशाभ्रमित एवं गुमराह लोगों पर। यह सैन्य कार्रवाई पूर्ण क्रूरता एवं नृशंसता भरी थी, जो निर्दयता में चंगेज़ खान एवं हलाकू खान द्वारा बुखारा और बग़दाद में किये गए भयंकर नरसंहार से कहीं अधिक थे...जनरल टिक्का ने नागरिकों की हत्या करवायी और तप्त भूमि नीति अपनायी। अपनी टुकड़ियों के लिये उनके आदेश थे: मुझे भूमि चाहिये न कि आदमी..."।साँचा:rp[७१] मेजर जनरल राव फ़रमान अली ने अपनी दैनिक डायरी में लिखा है: "पूर्वी पाकिस्तान की हरित भूमि को रक्त कर देंगे। इसे बंगाली रक्त से लाल कर दिया।"[७२] हालाम्कि राव फ़रमान ने इस टिप्पणी का जोरदार विरोध करते हुए १९७४ की युद्ध जांच समिति के आगे स्वीकारोक्ति में सारा उत्तरदायित्त्व टिक्का खान पर डाल दिया। [७३]
भारत सरकार द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से बारम्बार अपील की गयी, किन्तु भारतीय विदेश मन्त्री स्वरण सिंह के विभिन्न देशों के विदेश मंत्रियों से भेंट करने के बावजूद भी कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं प्राप्त हुई।[७४] तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री इन्दिरा गाँधी ने २७ मार्च १९७१ को पूर्वी पाकिस्तान के मुक्ति संघर्ष के लिये अपनी सरकार के पूर्ण समर्थन देते हुए कहा कि लाखों शरणार्थियों को भारत में शरण देने से कहीं बेहतर है कि पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध कर इस संघर्ष को विराम दिया जाए।ल[६५] २८ अप्रैल १९७१ को इन्दिरा गांधी मंत्रिमण्डल ने भारतीय तत्कालीन सेनाध्यक्ष सैम मानेकशॉ को पूर्वी पाकिस्तान को कूच करने का आदेश दिया।[७५][७६][७७][७८] पूर्वी पाकिस्तानी सेना से विलग हुए अधिकारियों एवं भारतीय रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के घटकों द्वारा तुरन्त ही भारतीय शरणार्थी शिविरों से मुक्तिबाहिनी के गुरिल्लाओं हेतु पाकिस्तान के विरुद्ध प्रशिक्षण देने के लिये एवं भर्ती का काम आरम्भ कर दिया गया।[७९] १९७१ में, पूर्व में भारत समर्थित बांग्लादेशी राष्ट्रवाद की सशक्त लहर फैल गयी थी। इसके बाद ही स्थिति अहिन्सात्मक होती गयी और व्यवस्थित रूप से पूर्व में रह रहे बहु-जातीय पाकिस्तानियों की लक्ष्य बना कर हत्याएं करनी आरम्भ हो गयीं।साँचा:rp[८०] पाकिस्तान के राष्ट्रभक्त बंगाली राजनीतिज्ञों की वाहन में बम लगाकर हत्याएं तथा सरकारी सचिवालयों में उच्च पदासीनों को लक्ष्य बनाने व हत्या करने के कार्य तेजी से दिखाई देने लगे थे।साँचा:rp[८०] फीनिश आतंकवाद रिपोर्टर जुस्सी हान्हीमाकी के अनुसार पूर्व का बंगाली उग्रवाद कुछ-कुछ "एक भुला दिये गए आतंकवाद के इतिहास" की भांति था।साँचा:rp[८०] हमुदूर रहमान आयोग ने बंगाली उग्रवाद के दावों का समर्थन करते हुए लिखा कि बहु-जातीय पाकिस्तानियों से हुए दुर्व्यहवार ने पाकिस्तानी सैनिकों को अहिन्सा की ओर उक्साया ज्जिससे कि वे अपने लोगों का बदला लेकर सरकार के आदेशों का पालन करने में सहायक हो सकें।[८१]
पाकिस्तानी मीडिया का मनोभाव भी तेजी से बदलते हुए युद्ध-प्रिय एवं पूर्व पाकिस्तान तथा भारत के विरुद्ध सैन्यवादी होता जा रहा था। हालांकि कुछ पाकिस्तानी मीडिया विद्वानों की भाषा इन पूर्व की गतिविधियों की रिओपिर्ट देते हुए, मिली-जुली भी दिखाई देती थी।[८२][८३] सितम्बर १९७१ के अंत तक संभवतः पाकिस्तान सरकार के अंदरूनी घटकों के समर्थन से एक संगठित प्रचार अभियान चालू हो चुका था, जिसके परिणामस्वरूप क्रश इण्डिया आदि सन्देश वाले स्टीकरों को वाहनों के पीछे लगाया जाने लगा। ये अभियान रावलपिण्डी, इस्लामाबाद एवं लाहौर से आरम्भ होते हुए शीघ्र ही पूरे पश्चिमी पाकिस्तान में फ़ैलता चला गया।[८४] अक्र्तूबर माह तक अन्य स्टीकरों में हैंग द ट्रेटर (देशद्रोही को फ़ांसी दो) भी दिखाई देने लगा जो शेख मुजीबुर्रहमान के सन्दर्भ में था।[८५] दिसम्बर के अंत तक कुछ रूढ़िवादी प्रिंट मीडिया ने "जिहाद" संबंधी पाठ्य सामग्री को छापना भि आरम्भ कर दिया जिससे सेना में भर्ती प्रक्रिया को बढ़ावा मिले।[८४]
भारत की पाकिस्तान के साथ आधिकारिक भिड़न्त
उद्देश्य
अप्रैल १९७१ के अंत आते तक भारतीय प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी ने भारतीय सेनाध्यक्ष सैम मानेकशॉ से भारत के पाकिस्तान से युद्ध करने की तैयारी के बारे में चर्चा कर ली थी।[८६][८७] सैम मानेकशॉ के निजी अभिलेखों के अनुसार उन्होंने अभी इस युद्ध के लिये दो कारणॊं से असमर्थता जतायी थी: एक तो पूर्वी पाकिस्तान क्षेत्र में मॉनसून के आने का समय था, दूसरे सेना के टैंकों का पुनरोद्धार कार्य प्रगति पर था।[८८] उन्होंने इस असमर्थता के कारण अपना त्यागपत्र भी प्रस्तुत किया, जिसे गांधी ने अस्वीकार कर दिया।[८८] हां उन्होंने गांधी से ऐसे युद्ध में जीत का आश्वासन दिया कि यदि उन्हें आक्रमण उनके तरीके व शर्तों पर करने दिया जाए व एक तिथि सुनिश्चित की जाये,; जिसे गांधी ने मान लिया।[८९][९०] असल में इन्दिरा गांधी जल्दबाजी में की गई सैन्य कार्यवाही के दिष्परिणाम से अवगत थीं, किन्तु वे अपनी सेना के विचार भी जानना चाहती थीं, जिससे वे अपने मंत्रिमण्डल के कई तीखे सहकर्मियों के उत्तर दे सकें, तथा जन समुदाय को भी शांत कर सकें जो भारत के उस समय के संयम रखने के निर्णय के समर्थन के लिए अति महत्त्वपूर्ण थे।[७८]
नवम्बर १९७१ तक की परिस्थितियों को देखते हुए युद्ध अपरिहार्य सा प्रतीत हो रहा था, जिसके बारे में सोवियत संघ ने पाकिस्तान को चेतावनी भी दी थी। इस चेतावनी को उस समय पाकिस्तान की एकता और अखण्डता के लिये आत्मघाती मार्ग (suicidal course for Pakistan's unity)साँचा:rp[९१] कहा गया था। नवंबर १९७१ के माह भर पाकिस्तानी रूढिवादी व अपरिवर्तनवादी राजनीतिज्ञों द्वारा उकसाये हुए हजारों लोगों ने लाहौर और अन्य पाकिस्तानी शहरों में क्रश इण्डिया (भारत को कुचल दो) मार्च निकालीं।[९२][९३] इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भारत ने अपनी पश्चिमी सीमाओं पर वृहत स्तर पर भारतीय सेना के जमावड़े बनाने आरम्भ कर दिये, किन्तु उन्होंने दिसम्बर तक शांतिपूर्ण प्रतीक्षा की, जिससे की मॉनसून के वर्षाकाल उपरान्त की भूमि शुष्क होकर अभियान हेतु सहायक जाये तथा हिमालय के दर्रों में हिमपात से आवाजाही अवरोधित हो जाये तथा चीन को बीच में घुसने को मार्ग ही न सुलभ हो।साँचा:rp[९४] २३ नवम्बर को पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान ने पूरे पाकिस्तान में आपातकाल कि घोषणा कर दी तथा अपने लोगों को युद्ध हेतु तैयार रहने का आह्वान किया।[९५]
३ दिसम्बर की शाम लगभग ०५:४० बजे,[९६] पाकिस्तान वायुसेना (पीएएफ़) ने भारत-पाक सीमा से साँचा:convert दूर बसे आगरा सहित उत्तर-पश्चिमी भारत के ११ वायुसेना बेसेज़ पर अप्रत्याशित रिक्ति-पूर्व हमले कर दिये।साँचा:rp[९७] इस हमले के समय विश्व-प्रसिद्ध ताजमहल को घास-फूस व पत्तियों, बेलों व लताओं से ढंक कर गन्दे कपड़ों से घेर दिया गया था, क्योंकि उसका श्वेत संगमर्मर रात्रि की चांदनी में श्वेत मार्गदर्शक कि भांति चमकता था।[९८]
इन रिक्ति-पूर्व हमलों, जिन्हें ऑपरेशन चंगेज़ खान भी कहा गया था, की प्रेरणा इज़्रायल के अरब-इज़्रायली छः दिवसीय युद्ध में आपरेशन फ़ोकस की विजय से ली गई थी, किन्तु १९६७ के उस युद्ध में अरब वायुसेना बेसेज़ पर बड़ी संख्या में इज़्रायली लड़ाकू वायुयान भेजे गये थे, जबकि पाकिस्तान ने लगभग ५० से भी कम वायुयानों को भेजा था।साँचा:rp[९७][९९]
उसी शाम, राष्ट्र के नाम एक सन्देश में प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी ने कहा कि ये हवाई हमले पाकिस्तान की ओर से भारत पर युद्ध कि घोषणा हैं [१००][१०१] और उसी रात को भारतीय वायुसेना ने पहली पहल जवाबी हवाई कार्रवाई भी कर दी। [४] अगले दिन ही इन जवाबी हमलों को वृहत स्तर के हवाई आक्रमण में बदल दिया गया।[४]
इसके साथ ही १९७१ के भारत-पाक युद्ध का आधिकारिक आरम्भ हुआ एवं इन्दिरा गांधी ने सेना कि टुकड़ियों को सीमा की ओर कूच करने के आदेश दिये तथा पूरे स्तर पर पाकिस्तान पर आक्रमण आरम्भ कर दिया।साँचा:rp[१०२] इस अभियान में समन्वय बनाकर वायु, सागर एवं भूमि से पाकिस्तान पर सभी मोर्चों पर हमले बोल दिये गए।साँचा:rp[१०२] भारत के इस अभियान का मुख्य उद्देश्य पूर्वी मोर्चे पर ढाका पर अधिकार करना एवं पश्चिमी मोर्चे पर पाकिस्तान को भारतीय भूमि में घुसने से रोकना था।[९६] There was no Indian intention of conducting any major offensive into Pakistan to dismember it into different states.[९६]
नौसैनिक युद्ध स्थिति
पिछले १९६५ के युद्ध से अलग, इस बार पाकिस्तान भारत के संग नौसैनिक मुठभेड़ के लिये तैयार नहीं था। इस तथ्य से पाकिस्तानी नौसेना मुख्यालय के उच्च पदासीन अधिकारीगण भली-भांति अवगत थे कि उनकी नौसेना बिल्कुल तैयार नहीं है तथा उन्हें इस बार बुरी तरह मुंह की खानी पड़ेगी।साँचा:rp[१०३] पाकिस्तानी नौसेना भारतीय नौसेना के विरुद्ध गहरे सागर में आक्रामक युद्ध के लिये किसी भी स्थिति में सज्ज नहीं थी, न ही भारतीय नौसेना के सागरीय अतिक्रमण के सामने पर्याप्त सुरक्षा ही दे पाने में समर्थ थी।साँचा:rp[१०४]
युद्ध के पश्चिमी मोर्चे पर, भारतीय नौसेना की पश्चिमी नवल कमान से वाइस एड्मिरल सुरेन्द्र नाथ कोहली के नेतृत्त्व में ४/५ दिसम्बर १९७१ की रात्रि में कूटनाम: त्रिशूल नाम से कराची बंदरगाह पर अचानक हमला बोल दिया।[१९] इन नौसैनिक हमलों में सोवियत-निर्मित ओसा मिसाइल नावों के द्वारा पाकिस्तानी नौसेना के ध्वंसक साँचा:ship एवं माइनस्वीपर साँचा:ship को तो जलमग्न ही कर दिया जबकि साँचा:ship भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया गया।[१९] इसके बदले में पाकिस्तानी नौसैनिक पनडुब्बियों, साँचा:ship, मॅन्ग्रो, एवं शुशुक, ने भारतीय युद्धपोतों की खोज का अभियान शुरु कर दिया।साँचा:rp[१०४][१०५] पाकिस्तानी नौसैनिक स्रोतों के अनुसार लगभग ७२० नौसैनिक या तो हताहत हुए या लापता थे, पाकिस्तान का ईंधन भण्डार एवं बहुत से व्यापारिक पोत भी नष्ट हो गये, जिससे पाकिस्तानी नौसेना का युद्ध करना या युद्ध में बने रहना अब और कठिन हो गया।साँचा:rp[१०४] ९ दिसम्बर १९७१ को हैंगर ने साँचा:ship को जलमग्न कर दिया, जिसमें १९४ भारतीय हताहत हुए; एवं यह घटना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद प्रथम पनडुब्बी हमला थी।साँचा:rp[१०६][१०७]
आईएनएस खुकरी के हमले के तुरन्त बाद ही ८/९ दिसम्बर की रात को ही कराची बंदरगाह पर एक और बड़ा हमला हुआ जो कूटनाम: पायथन के नाम से था।[१९] भारतीय नौसेना की ओसा मिसाइल नावों ने कराची बंदरगाह पहुंचकर सोवियत से ली हुई स्टाइक्स प्रक्षेपास्त्र से मार की किसके परिणामस्वरूप कई बड़े ईंधन टैंक द्ज्वस्त हुए एवं तीन पाकिस्तानी व्यापारी बेड़े तथा एक वहां खड़े विदेशी जहाज को भी क्षतिग्रस्त कर दिया।[१०८] पाकिस्तानी वायु सेना ने किसी भी भारतीय नौसैनिक युद्धपोत पर हमला नहीं किया एवं अगले दिन तक भी उन्हें संदेह बना रहा, जिसके चलते पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस के टोही युद्ध विमानचालक की तरह कार्यरत एक नागरिक विमान चालक ने अपने ही साँचा:ship को भारतीय पोत के भ्रम में हमला कर दिया, जिससे उस पोत को भयंकर क्षति पहुंची व साथ ही कई कार्यरत नौसैनिक अधिकारीगण भी हताहत हुए।[१०९]
युद्ध के पूर्वी मोर्चे पर, भारतीय पूर्वी नवल कमान ने वाइस एड्मिरल नीलकांत कृष्णन के नेतृत्त्व में पूर्वी पाकिस्तान को बंगाल की खाड़ी में एक नौसैनिक अवरोध बनाकर पश्चिमी पाकिस्तान से एकदम अलग-थलग कर दिया। इससे पूर्वी पाकिस्तानी नौसेना एवं आठ विदेशी व्यापारिक जहाज भी वहीं फंस गये। साँचा:rp[१०४] ४ दिसम्बर से विमानवाहक पोत साँचा:ship को तैनात किया गया और उसके सी-हॉक लड़ाकू बमवर्षकों ने चटगांव एवं कॉक्स बाज़ार सहित पूर्वी पाक के कई तटवर्त्ती नगरों व कस्बों पर हमला बोल दिया।[११०] पाकिस्तान ने बदले की कार्रवाई में साँचा:ship को भेजा, को संदेहजनक परिस्थितियों में रास्ते में ही, विशाखापट्टनम के निकट डूब गयी।[१११][११२] सेना के भी कई भाग हो जाने के कारण पाक नौसेना ने रियर एड्मिरल लेज़्ली मुंगाविन पर भरोसा किया, एवं पाकिस्तान मैरीन्स के द्वारा भारतीय सेना के विरुद्ध जलीय युद्ध (रिवराइन वारफ़ेयर) आरम्भ किया, किन्तु उसमें उन्हें आश्चर्यजनक भीषण हानि हुई। जिसका मुख्य कारण उन्हें बांग्लादेश की आर्द्र भूमि के अनुभव की कमी तथा अभियान युद्ध की बारे में अज्ञानता ही थे।[११३]
पाक नौसेना को हुई हानि में ७ तोपनावें, १ माइनस्वीपर, १ पनडुब्बी, २ ध्वंसक, ३ गश्तीदल वाहक नावें, तटरक्षकों के ३ गश्ती जहाज, १८ मालवाहक, आपूर्ति एवं संचार पोत, कराची बंदरगाह पर नौसैनिक बेसेज़ पर तथा डॉक्स पर हुए वृहत-स्तर की हानियां थीं। तटीय नगर कराची को भी काफ़ी हानि हुई। तीन मर्चेण्ट नेवी के जहाज – अनवर बख़्श, पास्नी एवं मधुमति –[११४] aएवं दस छोटे जहाज पकड़े भी गये थे।[११५] लगभग १९०० नौसैनिक लापता हुए, जबकि १४१३ सेवारत लोगों को भारतीय सेना ने ढाका में पकड़ा।[११६] एक पाकिस्तानी विज्ञ, तारिक क्ली के अनुसार, पाकिस्तान को अपनी पाकिस्तान मैरीन्स की पूर्ण हानि हुई एवं लगभग आधी से अधिक नौसेना युद्ध में काम आ गयी।[११७]
वायु हमले
अब तक के चोरी-छिपे हमलों में मुँह की खाने के बाद एवं उसके परिणामस्वरूप भारतीय हमलों में हानि के बाद अब पाकिस्तान ने रक्षात्मक रुख अपना लिया जिसके चलते युद्ध क्जैसे जैसे बढ़ता गया भारतीय वायु सेना ने प्रत्येक मोर्चों पर पाकिस्तानी वायु सेना को कड़ी टक्कर दी और अब पाकिस्तान के द्वारा हमले दिन-प्रतिदिन घटते जा रहे थे। [११८][११९] भारतीय वायुसेना ने लगभग ४००० से अधिक उड़ानें भरीं जबकि पाक वायुसेना ने उसकी जवाबी कार्रवाई नामलेवा ही की, जिसका आंशिक कारण गैर-बंगाली तकनीकी लोगों की अति-न्यून उपलब्धि भी रही[१९]
इस तरह युद्ध में पीछे हटने का उत्तरदायी, पाक वायु मुख्यालय के अपने नुकसान को कम करने के निर्णय को भी टहराया जाता है; क्योंकि बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष के दौरान भी भारी हानि उठायी थीं।[१२०] पाक वायु सेना ने भारतीय वायुसेना के द्वारा कराची बंदरगाह को दो बार भारी नुक्सान पहुंचाये जाने के बाद भारतीय नौसेना से सम्पर्क लगभग बंद ही कर दिये, किन्तु पाक वायुसेना ने इसके बदले में ओखा बंदरगाह पर हमला बोला एवं उन ईंधन भण्डारों को नष्ट किया जिसने पाक पर हमला करने वाली नावें आदि आपूर्ति लेती थीं।[१४][१२१]
इधर पूर्व में नं.१४ स्वाड्रन टेल चॉपर्स जो स्क्वाड्रन लीडर परवेज़ मेहन्दी कुरैशी, जिन्हें युद्ध बंदी बना लिया गया था, के नेतृत्त्व में थी, उसको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। इसके बाद ढाका की पाक वायु सुरक्षा समाप्त होने से पूर्व में भारत का अधिकार सिद्ध हो गया।[१९]
युद्ध के अंत तक, पाक वायुसेना के विमानचालक पूर्वी पाकिस्तान से पड़ोसी देश बर्मा में बच निकले, एवं बहुत से पाक वायुसेना के लोग पूर्व से बर्मा के लिये ढाका के भारतीय अधिकृत होने से पूर्व ही पलायन कर चुके थे।[१२२]
पाकिस्तान पर भारतीय हमले
पूर्वी पाकिस्तान पर पकड़ मजबूत होने के बाद भी भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान पर अपने हमले जारी रखे}। अब ये अभियान दिन में विमान-भेदी तोपों, रडार-भेदी विमानों एवं लड़ाकू जेट विमानों के पास-पास से निकलने वाले आक्रमणों की श्रेणी तथा रात्रि में विमानक्षेत्रों, हवाईपट्टियों, एयरबेसेज़ पर हमलों तथा पाकिस्तानी बी-५७ व सी-१३० और भारतीय कॅनबरा व एएन-१२ के बीच भिड़तों की शृंखला में बदलता जा रहा था।साँचा:rp[१२३]
पाक वायुसेना ने अपने वायु बेसेज़ की आंतरिक सुरक्षा एवं रक्षात्मक गश्ती दल हेतु एफ़-६ तैनात करे शुरु किये, किन्तु अधिमान्य वायु श्रेष्ठता के अभाव में वह प्रभावी आक्रामक अभियान नहीं चला पा रहा था, अतः उसके आक्रमण अधिकतर प्रभावहीन ही रहे थे।साँचा:rp[१२३] भारतीय वायुसेना ने एक संयुक्त राज्य वायुसेना एवं एक संयुक्त राष्ट्र विमान को डाका में नष्ट कर दिया एवं इस्लामाबाद में कनाडा के रॉयल कनाडा वायुसेना के डीएचसी-४ कॅरिबोउ के साथ खड़े हुए सं.राज्य मिलिट्री के सम्पर्क प्रमुख ब्रिगेडियर-जनरल चुक यीगर के निजी सं.राज्य वायुसेना से लिये हुए बीच यू-८ सहित दोनों को उड़ा डाला। साँचा:rp[१२३][१२४] इसके बाद भी भारतीय वायुसेना द्वारा पाक वायुसेना पर पाकिस्तान में उनके हवाई-अड्डों पर छिटपुट छापे जैसे हमले युद्ध के अंत तक जारी रहे। इनमें सेना का पूरा हस्तक्षेप तथा सहयोगबना रहा।साँचा:rp[१२३]
पाकिस्तानी वायुसेना ने इस अभियान में अत्यधिक सीमित भाग लिया, इनके सहयोग में जॉर्डन से एफ़-१०४, मध्य-पूर्व के एक अज्ञात सहयोगी (अभी तक) द्वारा मिराज विमानों तथा साउदी अरब से एफ़-८६ विमान आते रहे।साँचा:rp[१२३] इनके आगमन से पाकिस्तानी वायुसेना की क्षमता एवं हानि पर से पूर्ण रूप से पर्दा नहीं हट सका। लीबियाई एफ़-५ विमानों को संभवतः एक संभावित प्रशिक्षण इकाई के रूप में सरगोधा बेस पर तैनात किया गया जो पाकिस्तानी विमानचालकों को साऊदी अरब से और एफ़-५ विमानों की आवक हेतु प्रशिक्षित कर सकें।साँचा:rp[१२३] भा.वा.सेना कई प्रकार के कार्य सफ़लतापूर्वक करती रही, जैसे – सैनिकों को सहायता पहुंचाना; हवाई मुकाबले, गहरी पैठ वाले हमले, शत्रु ठिकानों के निकट पैरा-ड्रॉपिंग; वास्तविक लक्ष्य से शत्रु सेनानियों को दूर रखने, बमबारी और टोह लेने के कार्य।साँचा:rp[१२३] इसके मुकाबले पाक वायुसेना जो मात्र हवाई हमलों में केन्द्रित रही, युद्ध के प्रथम सप्ताह तक महाद्वीपीय आकाश से विलुप्त हो चली थी।साँचा:rp[१२३] जो कोई पाक सेना विमान बचे भी थे, उन्होंने या तो ईरानी वायुबेस में शरण ली या कंक्रीट के बंकरों में जा छिपे व आगे किसी हमले से हाथ ही खींच लिया।[१२५]
युद्ध के आक्रमण आधिकारिक रूप से १५ दिसम्बर को ढाका पर अधिकार एवं भारत के पाकिस्तान की भूमि पर बड़े स्तर पर अधिकार के दावे के उपरान्त (हालांकि युद्धोपरान्त पुनः युद्ध-पूर्व सीमाएं स्थापित कर दी गईं) १७ दिसम्बर १९७१ को १४:३० (यूटीसी) बजे पाकिस्तान के पूर्वी भाग को बांग्लादेश के रूप में स्वतंत्रता की घोषणा के बाद बंद किये गए।साँचा:rp[१२३] भारत ने पूर्व में १,९७८ उड़ानें भरीं और पश्चिम में पाकिस्तान पर ४,०००; जबकि पाकिस्तान ने लगभग पूर्व में ३० तथा पश्चिमी मोर्चे पर २,८४०।साँचा:rp[१२३] ८०% से अधिक भारतीय वायुसेना की उड़ानें पुरी सहायता सहित एवं चौकी के नियंत्रण में रहीं, और लगभग ४५ विमान लापता हो गये।[८]
पाक ने ४५ विमान खोये[८] जिनमें उन एफ़-६, मिराज ३, या ६ जॉर्डनियाई एफ़-१०४ की गिनती नहीं हैं जो अपने दानदाताओं के पास कभी नहीं पहुंच पाये।[८] उड़ानों की हानि में इतने बड़े स्तर के असन्तुलन का कारण भा.वा.सेना के उल्लेखनीय स्तर की बड़ी उड़ान दर तथा उनके भूमि मार पर जोर देने के कारण कहा जा सकता है। [८] भूमि के मोर्चों पर पाक के ८,००० सैनिक मृत एवं २५,००० घायल हुए जबकि भारत के ३,००० सैनिक मृत तथा १२,००० घायल हुए। [१८] सशस्त्र वाहनों की क्षति भी इसी प्रकार असन्तुलित ही थी और इसी से अन्त में पाकिस्तान की भारी हार को आंका जाता है।[१८]
भूमि आक्रमण
युद्ध पूर्व भारतीय सेनाएं दोनों मोर्चों पर अति सुव्यवस्थित तरीके से आयोजित थीं और पाक सेना की तुलना में इनकी मात्रा भी कहीं अधिक थी।साँचा:rp[१२६] भारतीय सेना के युद्ध में असाधारण युद्ध प्रदर्शन ने उसकी चीन के संग युद्ध के समय खोई प्रतिष्ठा, आत्मविश्वास, और गरिमा वापस लौटा दी थी।[१२७]
इनकी आपसी मुठभेड़ के आरम्भ होने के कुछ ही समय में भारत एवं उनके बंगाली विद्रोही साथियों के पक्ष में निर्णायक करवट ले ली थी। साँचा:rp[१२६] दोनों ही मोर्चों पर पाकिस्तान ने कई बार भूमि के हमले किये, किन्तु भारतीय सेना के दोनों ही मोर्चों पर सुसमन्वित भूमि संचालन के आगे उनकी हिम्मत एवं भूमि दोनों ही भारतीयों के आगे हारे गये।साँचा:rp[१२६] पाकिस्तान द्वारा बड़े स्तर के भूमि हमले पश्चिमी मोर्चों पर पाकिस्तान मरीन्स (दक्षिणी सीमा पर) के संग किये गए किन्तु भारतीय सेनाएं पाक भूमि पर घुसने व अधिकार जमाने में बड़े स्तर पर सफ़ल हुई तथा शीघ्र ही और आरम्भ में ही लगभग साँचा:convert [५][६] पाक भूमि अधीन पर ली जिनमें आजाद कश्मीर, पंजाब एवं सिंध के क्षेत्र आते हैं, किन्तु बाद में १९७२ के शिमला समझौते के अन्तर्गत्त सद्भावना के रूप में वापस कर दिये गए।[७] पाक सेना के प्रथम कॉर्प एवं द्वितीय कॉर्प में हताहतों की संख्या काफ़ी बड़ी थी। इसमें बहुत से सैनिकों की हानि का कारण भारतीय सेना की दक्षिणी एवं पश्चिमी कमान के विरुद्ध हमलों में मात्र सेना की आंतरिक संरचना के परिचालन योजना और समन्वय की कमी थे। साँचा:rp[१२८] युद्ध के अंत आते आते पश्चिमी मोर्चे पर पाक सेना के सैनिकों तथा मरीन्स भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत ही हतोत्साहित हो चुकी थी और अब उनमें आगे बढ़ती भारतीय सेना का सामना करने को कोई भी उत्साह न हिम्मत शेष थी। साँचा:rp[१२९]साँचा:rp[१३०] युद्ध जाँच समिति ने बाद में यह तथ्य भी उजागर किया कि पाकिस्तान की सेनाओं के लिये प्रत्येक स्तर एवं प्रत्येक कमान स्तर पर सैनिकों हेतु पर्याप्त शस्त्रों एवं प्रशिक्षण की गहन आवश्यकता थी।[१३१]
२३ नवंबर १९७१ को भारतीय सेनाओं ने पूर्ण रूप से पूर्वी मोर्चे पर प्रवेश किया एवं पूर्वी पाकिस्तान की सीमाओं में घुस कर बंगाली राष्ट्रावादी संघर्षकर्ता साथियों का साथ दिया।साँचा:rp[१३२] १९६५ के युद्ध से अलग, जिसमें धीमी गति से आगे बढ़त ली थी, इस बार अपनायी गई रणानीति में तेजी थी, नौ पैदल सेना टुकड़ियों के साथ संलग्न बख्तरबंद इकाइयों एवं इनके सहायक वायु हमलों के साथ भारतीय सेनाओं ने शीघ्र ही पूर्वी पाकिस्तान की तत्कालीन राजधानी ढाका तक पहुंच बनायी।साँचा:rp[१३२] भारतीय सेना की पूर्वी कमान के जनरल ऑफ़िसर मुख्य कमान अध्यक्ष लेफ़्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने पूर्वी पाकिस्तान पर पूरा जोर लगाकर आक्रमण किया और इनकी सहायता में वायुसेना ने त्वरित गति से पाकिस्तानी पूर्वी कमान के उपस्थित छोटे-छोटे हवाई दलों को नष्ट कर डाला जिससे ढाका वायुक्षेत्र का प्रचालन एकदम स्तंभित हो गया।साँचा:rp[१३२] इस बीच भारतीय नौसेना ने पूर्वी पाकिस्तान को समुद्री मार्ग पर प्रभावी रूफ से बाधित कर दिया।साँचा:rp[१३२]
भारतीय अभियानों में "ब्लिट्ज़क्रीग" तकनीकें अपनायी, जिसके अन्तर्गत्त शत्रु के स्थानों में कमजोरी व्याप्त कर, उनके विरोध से बचते हुए शीघ्रता से विजय प्राप्त की गयीं। साँचा:rp[१३३] असहनीय एवं अत्यंत हानि झेलने के बाद पाकिस्तानी सेनाओं ने एक पखवाड़े के अन्दर ही समर्पण कर दिया एवं पूर्वी कमान के सैन्य अधिकारियों के मन में एक डर एवं आतंक बैठ गया।साँचा:rp[१३३] पूर्व में भारतीय सेना की बढ़त से पाकिस्तानोयों में एक मनोवैज्ञानिक डर उपजा जिससे उन पाकिस्तानी सैनिकों में हतोत्साह का संचार हुआ।साँचा:rp[१३४] इसके बाद १६ दिसम्बर १९७१ को भारतीय सेनाओं ने ढाका को घेर लिया और अन्ततः मात्र ३०-मिनट में समर्पण कर देने अन्तिमेत्थम जारी किया।[१३५] इस अन्तिमेथम कि घोषणा को सुनने के बाद, पूर्वी पाकिस्तान में तैनात अपने लेफ़्टि-जनरल आमिर अब्दुल्लाह खान नियाज़ी के नेतृत्व में पाकिस्तानी पूर्वी कमान ने बिना किसी विरोध के समर्पण कर दिया।[१३२] १६ दिसम्बर १९७१ को पाकिस्तान ने अन्ततः एकतरफ़ा युद्ध-विराम की घोषणा कर दी एवं इसके साथ ही अपनी संयुक्त थल सेना को भारतीय सेना को सौंप दिया जिसके साथ ही १९७१ का भारत-पाक युद्ध आधिकारिक रूप से समाप्त हो गया।[१३२]
पाक पूर्वी कमान का पूर्वी पाकिस्तान में समर्पण
आधिकारिक रूप से पूर्वी पाकिस्तान स्थित पूर्वी कमान द्वारा भारतीय पूर्वी कमान के जन.आफ़िसर कमाण्ड-इन चीफ़ लेफ़्टि-जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा एवं पाक पूर्वी कमान के कमाण्डर, लेफ़्टि.जन ए ए के नियाज़ी के बीच रमणा रेसकोर्स, ढाका में १६:३१ बजे (भामास) समर्पण अभिलेख पर हस्ताक्षर हुए।साँचा:rp[१३६] भारतीय लेफ़्टि.जन.अरोड़ा द्वारा समर्पण अभिलेख पर बिना कुछ बोले हस्ताक्षर कर दिये गए, रेसकोर्स में व उसे घेरे हुए खड़ी बड़ी भीड़ में पाकिस्तान विरोधी नारे लगने लगे तथा प्राप्त रिपोर्ट्स के अनुसार पाकिस्तानी मिलिट्री के समर्पण करते कमाण्डरों के विरुद्ध अपशब्द भी ऊंचे स्वरों में बोले गये।साँचा:rp[१३६][१३७]
समर्पण होने पर भारतीय सेना ने लगभग ९०,००० से अधिक पाक सैनिक एवं उनके बंगाली सहायकों को युद्धबंदी बना लिया। यह द्वितीय विश्व युद्ध से अब तक का विश्व का सबसे बड़ा समर्पण था। साँचा:rp[१३६] आरम्भिक णनाओं के अनुसारलगग ~७९,६७६ व्दीधार सैनिक, जिनें से५५,६९२ पाकिस्तान सेनाके सैनिक थे, १६,३५४ अर्द्धसैनिक बल, ५,२९६ पुलिस, १,००० नौसैनिक एवं ८०० पाक वायु सैनिक थे।[१३८]
इनके अलावा शेष बंदी सामान्य नागरिक थे जो या तो इन सैनिकों के निकट सम्बन्धी थे या उनके सहायक (रज़ाकर) थे। हमुदूर रहमान आयोग एवं युद्धबन्दी जाँच आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान द्वारा सौंपी गयी युद्धबन्दियों की सूचियों में: सैनिकों के अलावा १५,००० बंगाली नागरिकों को भी युद्धबन्दी बना लिया गया था।[१३९]
अन्तर-सेवा शाखा | पाकिस्तानी युद्धबन्दियों की संख्या | कमान अधिकारी |
---|---|---|
साँचा:army | 54,154 | लेफ़्टि-जन. आमिर अब्दुल्लाह खान नियाज़ी |
पाकिस्तानी नौसेना/पाकिस्तान मरीन्स | १,३८१ | रियर-एडमिरल मुहम्मद शरीफ़ |
साँचा:air force | ८३३ | एयर वाइस मार्शल पैट्रिक डेस्मंड कैलाघन |
अर्धसैनिक/ईस्ट पाकिस्तान राइफल्स/पुलिस | २२,००० | मेजर-जन. राव फ़रमान अली |
सरकारी अधिकारी | १२,००० | गवर्नर अब्दुल मुतलिब मलिक |
कुल: | ९०,३६८ | ~ |
प्रभाव
2 जुलाई 1 9 72 को, भारत-पाकिस्तानी शिखर शिमला, हिमाचल प्रदेश में शिमला में आयोजित किया गया था, भारत में शिमला समझौता पर हस्ताक्षर किए गए थे और राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो और प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के बीच हर राज्य की एक सरकार एक डिपॉजिटरी भूमिका निभाते थे। इस संधि ने बांग्लादेश को बीमा प्रदान किया था कि पाकिस्तान ने पाकिस्तानी सैनिकों की वापसी के बदले बांग्लादेश की संप्रभुता को मान्यता दी थी क्योंकि भारत 1 9 25 में जेनेवा कन्वेंशन के अनुसार युद्ध कैदियों के साथ व्यवहार कर रहा था। केवल पांच महीनों में, भारत ने लेफ्टिनेंट-जनरल एए.के. के साथ व्यवस्थित रूप से 9 0,000 से अधिक युद्ध कैदियों को जारी किया। नियाज़ी पाकिस्तान को सौंपे जाने वाले अंतिम युद्ध कैदी हैं।
इस संधि ने 13,000 वर्ग किमी से भी ज़्यादा जमीन वापस कर दी जो युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान में जब्त की थी, हालांकि भारत ने कुछ रणनीतिक क्षेत्र (तुरतुक, थांग , त्याक्षी (पूर्वी तियाक़ी) और चोरबत घाटी के चुलुंका सहित) को बरकरार रखा है,[१४०][१४१] जो कि 804 वर्ग किमी से अधिक था।[१४२][१४३][१४४] भारतीय राष्ट्रवादियों ने हालांकि महसूस किया कि यह संधि राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के लिए बहुत ही उदार थी, जिन्होंने उदारता के लिए अनुरोध किया था, उनका तर्क था कि अगर पाकिस्तान में नाजुक स्थिरता कम हो जाती तो समझौता पाकिस्तानियों द्वारा अत्यधिक कठोर होने के रूप में माना जाता था और वह आरोपी होगा पूर्वी पाकिस्तान के नुकसान के अलावा कश्मीर को खोने का। जिसके परिणामस्वरूप प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की भूटो की 'मीठी बात और झूठी शपथ' के विश्वास के लिए भारत के एक सेक्शन की आलोचना की गई, जबकि अन्य खंड ने दावा किया कि इसे "वर्साइल सिंड्रोम" जाल में गिरने के लिए सफल नहीं होने के कारण।
विदेशी प्रतिक्रिया और अन्तर्भावितता
संयुक्त राज्य एवं सोवियत संघ
सोवियत संघ ने पूर्वी पाकिस्तान से सहानुभूति दिखाते हुए भारतीय सेना एवं मुक्ति बाहिनी द्वारा पाकिस्तान के विरुद्ध हमले का समर्थन किया क्योंकि व्यापक रूप से उसे लगा कि पूर्व पाकिस्तान की बांग्लादेश के रूप में पहचान संघ के प्रतिद्वंदियों—संयुक्त राज्य एवं चीन की स्थिति को कमजोर कर देगी। सोवियत संघ ने भारत को युद्ध पूर्व कड़ा आश्वासन दिया था कि भविष्य में यदि इस युद्ध के कारण सं.राज्य या चीन से टकराव की स्थिति बनी तो वह भारत के समर्थन में उससे निबटने के उपाय करेगा। ये आश्वासन अगस्त १९७१ में की गयी भारत-सोवियत मैत्री एवं सहयोग संधि के रूप में सुरक्षित एवं सुनिश्चित किये गए थे।[१४५]
हालांकि भारत-सोवियत संधि के तहत भारत की प्रत्येक स्थिति के लिये सोवियत संघ की कोई प्रतिबद्धता नहीं थी, जबकि लेखक रॉबर्ट जैकसन के अनुसार संघ ने संघर्ष के दौरान भारती की स्थिति को स्वीकार कर लिया था। साँचा:rp[१४६] सोवियत संघ ने पाकिस्तान के प्रति मध्य-अक्तूबर तक अपना सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार ही बनाये रखा था। अक्तूबर के मध्य में संघ ने पाकिस्तान को राजनीतिक समझौते कर मामले को सुलझाने पर जोर दिया, जिसके उपरान्त ही वह पाकिस्तान को अपनी औद्योगिक सहायता जारी रखने की पुष्टि करेगा।साँचा:rp[१४६] नवम्बर १९७१ में पाकिस्तान में सोवियत राजदूत ने एक गुप्त सन्देश (रोदियोनोव सन्देश) के द्वारा पाकिस्ताण को सूचित चेतावनी दी कि "यदि उपमहाद्वीप में तनाव और बढ़ता है तो वह पाकिस्तान के लिये एक आत्मघाती कार्यकलाप सिद्ध होगा।साँचा:rp[९१]
संयुक्त राज्य पाकिस्तान के प्रति नैतिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं, भौतिक रूप से समर्थन में रहा एवं तत्कालीन यू.एस राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन एवं उनके राज्य सचिव हेनरी किसिन्जर ने इस वृहत स्तर के सिविल युद्ध को रोकने हेतु हस्तक्षेप करने के लिये एक आशापूर्ण प्रयास से एकदम मना कर दिया। सं.राज्य इस भुलावे में रहा कि उन्हें दक्षिण एशिया में भारत के साथ सोवियत प्रभाव एवं अनौपचारिक मैत्री को इस प्रकार रोकने में पाकिस्तान की आवश्यकता होगी।साँचा:rp[१४७] शीत युद्ध के समय पाकिस्तान संयुक्त राह्य का एक औपचारिक साथी रहा था उसके चीन के संग भी घनिष्ठ सम्बन्ध रहे थे, जिनके द्वारा सं.राज्य चीनी-अमरीकी मेल-मिलाप को बढ़ावा देने हेतु निक्सन फरवरी १९७२ में यहां की यात्रा करने को भी उत्सुक था।[१४८] निक्सन को यह भय था कि पाक पर भारतीय आक्रमण इस क्षेत्र में सोवियत वर्चस्व को बढ़ावा देगा, जिससे सं.राज्य की वैश्विक सत्ता स्थिति पर एवं साथ ही अमेरिका की यहां क्षेत्रीय स्थिति पर और उनके नये साथी चीन के संग उनके सम्बन्ध पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।साँचा:rp[१४७] निक्सन ने जॉर्डन एवं ईरान को पाकिस्तान की सहायता के लिये सैन्य सहायता भेजने पर जोर दिया तथा चीन को भी पाकिस्तान के लिये हथियार भेजने पर जोर दिया, हालांकि ये सभी आपूर्तियां बहुत सीमित रहीं।साँचा:rp[१४९][१५०] निक्सन प्रशासन द्वारा पाक सेना द्वारा पूर्वी पाकिस्तान में किये जा रहे नरसंहार की रिपोर्ट्स की भी अवहेलना की गयी, जिसकी यूनाइटेड स्टेट्स कॉंग्रेस तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रेस द्वारा कड़ी निन्दा की गयी।[६२][१५१][१५२]
संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत]] जॉर्ज बुश, सीनियर ने संयुक्र्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत-पाक के बीच युद्ध-बन्दी करने और दोनों को अपनी-अपनी सेनाएं हटाने के लिये एक प्रस्ताव रखा।साँचा:rp[१४६]
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
- Video of General Niazi Surrendering
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- साभार: Indo-Pakistani War of 1971- (अंग्रेज़ी) लेख- अंग्रेज़ी विकिपीडिया पर।
- An Atlas of the 1971 India - Pakistan War: The Creation of Bangladesh by John H. Gill
- Actual conversation from the then US President Nixon and Henry Kissinger during the 1971 War - US Department of State's Official archive.
- Indian Army: Major Operations
- Pakistan: Partition and Military Succession USA Archives
- Pakistan intensifies air raid on India BBC
- A day by day account of the war as seen in a virtual newspaper.
- The Tilt: The U.S. and the South Asian Crisis of 1971.
- 16 दिसम्बर 1971: any lessons learned? By Ayaz Amir - Pakistan's Dawn (newspaper)
- India-Pakistan 1971 War as covered by TIME
- Indian Air Force Combat Kills in the 1971 war (unofficial), Centre for Indian Military History
- Op Cactus Lilly: 19 Infantry Division in 1971, a personal recall by Lt Col Balwant Singh Sahore
- All for a bottle of Scotch, a personal recall of Major (later Major General) C K Karumbaya, SM, the battle for Magura
- TIME Magazine article from 20 दिसम्बर 1971 describing the War स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- TIME Magazine article from 20 दिसम्बर 1971 critical of the US policy during this war स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।