संवर

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संवर जैन दर्शन के अनुसार एक तत्त्व हैं। इसका अर्थ होता है कर्मों के आस्रव को रोकना। जैन सिद्धांत सात तत्त्वों पर आधारित हैं।[१] इनमें से चार तत्त्व- आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा कर्म सिद्धांत के स्तम्भ हैं।[१]

दर्शन

संवर कर्म शय करने की ओर पहला कदम हैं। संसार सागर समान हैं और जीव आत्मा नाव के समान हैं जो इस सागर को पार करना चाहती हैं। इस नाव में छेद के कारण कर्म रूपी पानी का अस्राव होता रहता हैं। उस छेद को बंद करना संवर हैं।[२] संवर के पश्चात् कर्मों की निर्जरा होती हैं।

संवर के माध्यम

संवर या कर्म बन्ध रोकने के निम्नलिखित तरीकें हैं-

  1. तीन गुप्ती: मन, वचन, और काय पर संयम[३]
  2. पांच समिति[४]
  3. दस धर्म का पालन[५]: उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य
  4. अनुप्रेक्षा यानि की तत्वों का चिंतन[५]
  5. परिषह सहना[५]
  6. चरित्र[६]

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. इस तक ऊपर जायें: Soni, Jayandra (1998). "Jain Philosophy". Routledge Encyclopedia of Philosophy. London: Routledge. Retrieved 2008-03-05. {{cite journal}}: Unknown parameter |coauthors= ignored (|author= suggested) (help)
  2. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। p.320
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  4. Dr. Bhattacharya, H. S. (1976) pp.45–46
  5. इस तक ऊपर जायें: Dr. Bhattacharya, H. S. (1976) p. 46
  6. Dr. Bhattacharya, H. S. (1976) p. 47