कर्म बन्ध
नेविगेशन पर जाएँ
खोज पर जाएँ
कर्म-बन्ध का अर्थ है आत्मा के साथ कर्म पुद्गल का जुड़ना।[१] कर्म बन्ध कर्मों के आस्रव के बाद होता हैं।[२] यह जैन दर्शन के अनुसार सात तत्त्वों में से एक हैं।
कर्म-बन्ध के कारण
जैन ग्रन्थ, तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार निम्नलिखित गतिविधियों के कारण कर्म बन्ध होता हैं-[३]
- मिथ्यादर्शन
- अविरति
- प्रमाद
- कषाय
- योग
सम्यक दृष्टि जीव कर्म-बन्ध की प्रक्रिया से मुक्त होता हैं।.[४]
भेद
कर्म-बन्ध के चार भेद हैं-[५]
- प्रकृतिबन्ध
- स्तिथि बन्ध
- अनुभाग बन्ध
- प्रदेश बन्ध
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ S.A. Jain 1992, पृ॰ 7.
- ↑ S. A. Jain 1992, पृ॰ 215.
- ↑ Jain 2011, पृ॰ 113.
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- ↑ Jain 2011, पृ॰ 114.
सन्दर्भ ग्रन्थ
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।