महाद्वीपीय विस्थापन

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पिछले १५ करोड़ वर्षों में हुआ महाद्विपीय विस्थापन
करोड़ों वर्षों तक चल रहे महाद्वीपीय प्रवाह से अंध महासागर खुलकर विस्तृत हो गया

महाद्वीपीय विस्थापन (Continental drift) पृथ्वी के महाद्वीपों के एक-दूसरे के सम्बन्ध में हिलने को कहते हैं। यदि करोड़ों वर्षों के भौगोलिक युगों में देखा जाए तो प्रतीत होता है कि महाद्वीप और उनके अंश समुद्र के फ़र्श पर टिके हुए हैं और किसी-न-किसी दिशा में बह रहे हैं।[१] महाद्वीपों के बहने की अवधारणा सबसे पहले १५९६ में डच वैज्ञानिक अब्राहम ओरटेलियस​ ने प्रकट की थी लेकिन १९१२ में जर्मन भूवैज्ञानिक ऐल्फ़्रेड वेगेनर​ ने स्वतन्त्र अध्ययन से इसका विकसित रूप प्रस्तुत किया। आगे चलकर प्लेट विवर्तनिकी का सिद्धांत विकसित हुआ जो महाद्वीपों की चाल को महाद्वीपीय प्रवाह से अधिक अच्छी तरह समझा पाया।[२]

इतिहास

प्रारंभिक इतिहास

अब्राहम ओर्टेलियस (Ortelius 1596),[३] थियोडोर क्रिस्टोफ लिलिएंथल (1756),[४] अलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट (1801 व 1845)[४], एंटोनियो स्नाइडर-पेलेग्रिनी (Snider-Pellegrini 1858) तथा अन्य ने पहले ही यह ध्यान दिया था कि अटलांटिक महासागर के दोनों विपरीत छोर के महाद्वीपों के आकार एक दूसरे में ठीक-ठीक बैठते हैं (विशेष रूप से अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका).[५] डब्ल्यू. जे. कियस ने ओर्टेलियस के विचार को इस प्रकार वर्णित किया:[६] साँचा:quote

वेगेनर तथा उनके पूर्ववर्ती

अल्फ्रेड वेगेनर ने 1912 में यह परिकल्पना प्रस्तुत की कि महाद्वीपों के टूट कर प्रवाहित होने से पहले वे एकीकृत भूमिखंड के रूप में थे।[७] वेगेनर का सिद्धांत स्वतन्त्र रूप से बना था व अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट था, बाद में वेगेनर ने कुछ पुराने लेखकों को मिलते जुलते विचारों का श्रेय दिया:[८][९] फ्रेंकलिन कॉक्सवर्दी (1848 तथा 1890 के बीच),[१०] रॉबर्टो मन्टोवानी (1889 तथा 1909 के बीच), विलियम हेनरी पिकरिंग (1907)[११] और फ्रैंक बर्सले टेलर (1908).

उदाहरण के लिए: दक्षिणी महाद्वीपों की भूगर्भीय समानताओं से रॉबर्टो मन्टोवानी ने 1889 व 1909 में यह अनुमान लगाया कि सारे महाद्वीप पहले एक बहुत बड़े महाद्वीप के रूप में एकत्रित थे (इसे अब पेंजिया के नाम से जाना जाता है); वेगेनर ने अपने तथा मन्टोवानी के दक्षिणी महाद्वीपों के मानचित्रों में समानतायें पायीं. ज्वालामुखीय गतिविधियों के कारण होने वाले ऊष्मीय विस्तार की वजह से यह महाद्वीप टूट गया तथा नए महाद्वीप एक दूसरे से दूर प्रवाहित होने लगे, कयोंकि दरार-क्षेत्र (रिप ज़ोन), जहां अब महासागर हैं, भी बढ़ते चले गए। इसी वजह से मन्टोवानी ने विस्तारशील पृथ्वी का सिद्धांत (एक्स्पेन्डिंग अर्थ थ्योरी) का प्रतिपादन किया, जो तब से गलत दिखायी पड़ता है।[१२][१३][१४]

फ्रैंक बर्स्ले टेलर ने बिना विस्तार के महाद्वीपीय प्रवाह को प्रस्तावित किया, उन्होंने 1908 में सुझाव दिया (1910 में प्रकाशित हुआ) कि महाद्वीप खटीमय (क्रेटेशियस) के दौरान चन्द्रमा के गुरुत्व बल से भूमध्य रेखा की ओर खिंच गए, इसी कारण हिमालय तथा आल्प्स दक्षिण की ओर निर्मित हुए. वेगेनर ने कहा कि ये सभी सिद्धांत उनके अपने सिद्धांत से काफी मिलते-जुलते हैं, हालांकि टेलर का सिद्धांत पूरी तरह से विकसित नहीं है।[१५]

वेगेनर "महाद्वीपीय प्रवाह" शब्द का प्रयोग करने वाले प्रथम व्यक्ति थे (1912, 1915 and 1920)[७][८] (जर्मन में "die Verschiebung der Kontinente" का 1922 में अंग्रेजी अनुवाद हुआ) एवं यह परिकल्पना औपचारिक रूप से प्रकाशित हुई कि महाद्वीप किसी प्रकार से "प्रवाहित" होकर दूर चले गए। हालांकि उन्होंने महाद्वीपीय प्रवाह के लिए पर्याप्त साक्ष्य दिए, परन्तु वे उस भौतिक प्रक्रिया की विश्वसनीय व्याख्या नहीं दे पाए जिसकी वजह से यह प्रवाह उत्पन्न हुआ। उनका यह सुझाव, कि महाद्वीप उस अपकेन्द्रीय छद्म-बल (पॉलफ्लूक्त) के कारण खिंच गए जो कि पृथ्वी के घूर्णन अथवा खगोलिक अयनांश के कारण उत्पन्न हुआ, अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि गणनाओं से यह सिद्ध हुआ कि यह बल इसके लिए पर्याप्त नहीं था।[१६] पॉलफ्लूक्त परिकल्पना का पॉल सोफस एप्सटीन द्वारा 1920 में अध्ययन किया गया और इसे अविश्वसनीय पाया गया।

महाद्वीपों के 'प्रवाह' के साक्ष्य

महाद्वीपों भर में जीवाश्म आकार.
मेसोसौरस स्केलिटन, मैकग्रेगर, 1908.
इस विषय पर अधिक जानकारी हेतु, प्लेट विवर्तनिकी पर जाएँ

महाद्वीपीय प्रवाह के अब व्यापक साक्ष्य हैं। विभिन्न महाद्वीपों के तटों पर मिलते-जुलते पौधे और पशुओं के जीवाश्म पाए जाने से ऐसा लगता है कि वे कभी जुड़े हुए थे। मेसोसौरस, ताजे पानी का एक सरीसृप जो कि एक छोटे घड़ियाल जैसा था, के जीवाश्म का ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका में पाया जाना इसका एक उदाहरण है; एक और उदाहरण लिस्ट्रोसौरस नामक एक जमीनी सरीसृप के जीवाश्म का समसामयिक चट्टानों से दक्षिणी अमरीका, अफ्रीका तथा अन्टार्क्टिका के विभिन्न स्थानों से प्राप्त होना है।[१७] कुछ जीवित साक्ष्य भी हैं - इस दोनों महाद्वीपों पर एक जैसे कुछ पशु पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए कुछ केंचुओं के कुछ परिवार/प्रजातियां (जैसे: ओक्नेरोड्रिलिडे, एकेंथोड्रिलिडे, ओक्टोकेतिडे) अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में पाए जाते हैं।

दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के सामने के भागों की पूरक व्यवस्था स्पष्ट है, लेकिन यह एक अस्थायी संयोग है। लाखों वर्षों में स्लैब खिंचाव व रिज दबाव तथा टेक्टोनोफ़िज़िक्स की अन्य शक्तियां इन महाद्वीपों को एक दुसरे से और अधिक दूर ले जायेंगी तथा घुमायेंगी. इन अस्थायी विशेषताओं ने वेगेनर को इसका अध्ययन करने को प्रेरित किया जिसे उन्होंने महाद्वीपीय प्रवाह नाम से पारिभाषित किया, यद्यपि वे अपनी परिकल्पना को लोगों द्वारा स्वीकार किये जाने तक जीवित नहीं रहे.

दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, मैडागास्कर, अरब, भारत, अन्टार्क्टिका, तथा ऑस्ट्रेलिया में पेर्मो-कार्बोनीफेरस हिमनद तलछट का वृहद वितरण महाद्वीपों के प्रवाह का एक बड़ा प्रमाण है। ओरीएंटेड हिमनद श्रृंखला तथा टाईलाइट्स नमक जमाव से बने सतत हिमनद एक बहुत बड़े महाद्वीप गोंडवाना के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं जिसे महाद्वीपीय प्रवाह के सिद्धांत का केन्द्रीय तत्त्व माना जाता है। ये श्रृंखलाएं आधुनिक निर्देशांकों में भूमध्य रेखा से दूर होती हुई तथा ध्रुवों की ओर जाती हुई हिमनदीय बहाव को दर्शाती हैं, साथ ही यह भी प्रदर्शित करती हैं दक्षिणी महाद्वीप भूतकाल में नाटकीय रूप से अलग स्थानों पर थे तथा एक दूसरे से जुड़े भी हुए थे।[८]

वेगेनर के सिद्धांत की अस्वीकृति

हालांकि अब यह माना जाने लगा है कि पृथ्वी की सतह पर महाद्वीप गतिशील रहते हैं - यद्यपि उनकी गति दिशा निर्देशित होती है ना कि वे दिशाहीन रूप से चलन करते हैं - फिर भी सैद्धांतिक रूप से इस प्रवाह को कई वर्षों तक स्वीकार नहीं किया गया। एक समस्या यह थी कि कोई विश्वसनीय लगने वाली चालन शक्ति नहीं दिख रही थी। साथ ही वेगेनर का भूगर्भ वैज्ञानिक नहीं होना भी एक समस्या थी।

1953 में कैरे[१८] द्वारा प्लेट टेकट्रोनिक सिद्धांत का परिचय दिए जाने से पांच वर्ष पूर्व - महाद्वीपीय प्रवाह के सिद्धांत को भौतिकशास्त्री शीडिगर (Scheiddiger) द्वारा निम्नलिखित आधारों पर ख़ारिज कर दिया गया था।[१९]

  • सबसे पहले, यह देखा गया कि एक घूमते हुए जिओइड पर तैरते हुए द्रव्यमान भूमध्य पर एकत्रित हो जाते हैं तथा वहीं बने रहते हैं। यह सिर्फ एक बात की व्याख्या कर सकता है और वह है किसी महाद्वीपीय जोड़े के बीच पर्वतों के बनने की घटना; यह अन्य ओरोजेनिक घटनाओं की व्याख्या करने में अक्षम है।
  • दूसरे, किसी तरल में अधःस्तर पर मुक्त रूप से तैरते पिंडों, जैसे महासागर में बर्फ का पहाड़, को आइसोस्टेटिक साम्य (ऐसी स्थिति जहां उत्प्लवन तथा गुरुत्व के बल संतुलन में रहते हैं) में होना चाहिए. गुरुत्वाकर्षण माप दिखाते हैं कि कई क्षेत्रों में आइसोस्टेटिक संतुलन नहीं है।
  • तीसरे, एक समस्या यह थी कि पृथ्वी की सतह (क्रस्ट) का कुछ भाग ठोस है तथा अन्य भाग द्रव क्यों है। इसकी व्याख्या करने के कई प्रयासों ने कई अन्य कठिनाइयों को बढ़ा दिया.

यह अब ज्ञात है कि पृथ्वी पर दो प्रकार की क्रस्ट होती हैं, महाद्वीपीय क्रस्ट व महासागरीय क्रस्ट, जहां पहली वाली एक भिन्न संरचना वाली तथा मूलरूप से हल्की होती है, दोनों ही प्रकार की क्रस्ट एक कहीं गहरे द्रवीकृत आवरण पर स्थित होती हैं। इसके अलावा, महासागरीय क्रस्ट अब भी फैलते हुए केन्द्रों पर बन रही हैं, तथा यह सब्डक्शन के साथ, प्लेटों की प्रणाली को अव्यवस्थित रूप से चलाता है जिसके परिणामस्वरूप सतत ओरोजेनी तथा आइसोस्टेटिक असंतुलन उत्पन्न होता है। प्लेट टेक्टोनिक्स के द्वारा इन सब तथा महाद्वीपों की गति को कहीं बेहतर रूप से स्पष्ट किया जा सकता है।


सन्दर्भ

  1. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  2. Earth Systems: Processes and Issues, Wallace Gary Ernst, pp. 82, Cambridge University Press, 2000, ISBN 978-0-521-47895-3, ... The idea of continental drift was proposed seriously approximately eighty years ago by Alfred Wegener; however, the concept was almost universally rejected by scientists and was ignored for nearly half a century ...
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ग्रंथ सूची

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