भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम

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भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। वर्तमान प्रारूप में इस कार्यक्रम की कमान भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के हाथों में है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान का इतिहास

भारत का अंतरिक्षीय अनुभव बहुत पुराना है, जब रॉकेट को आतिशबाजी के रूप में पहली बार प्रयोग में लाया गया, जो की पडौसी देश चीन का तकनीकी आविष्कार था और तब दोनों देशों में सिल्क की सड़क से विचारों एवं वस्तुओं का आदान प्रदान हुआ करता था। जब टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध में अंग्रेज़ों को खधेडने में रॉकेट के प्रयोग को देखकर विलियम कंग्रीव प्रभावित हुआ, तो उसने १८०४ में कंग्रीव रॉकेट का आविष्कार किया, जो की आज के आधुनिक तोपखानों की देन माना जाता है। १९४७ में अंग्रेज़ों की बेडियों से मुक्त होने के बाद, भारतीय वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भारत की रॉकेट तकनीक के सुरक्षा क्षेत्र में उपयोग, एवं अनुसंधान एवं विकास की संभाव्यता की वजह से विख्यात हुए। भारत जनसांख्यिकीय दृष्टि से विशाल होने की वजह से, दूरसंचार के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की प्रार्थमिक संभाव्यता को देखते हुए, भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की गई।

१९६०-१९७०

१९५७ में स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद, उन्होंने कृत्रिम उपग्रहों की उपयोगितो को भांपा। भारत के प्रथम प्रधान मन्त्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को अहम् भाग माना, १९६१ में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु उर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु उर्जा विभाग के निदेशक होमी भाभा, जो कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं, १९६२ में अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ॰ साराभाई को सभापति के रूप में नियुक्त किया

जापान और यूरोप को छोड़कर, हर मुख्य अंतरिक्ष कार्यक्रम कि तरह, भारत ने अपने विदित सैनिक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को सक्षम कराने में लगाने के बजाय, कृत्रिम उपग्रहों को प्रक्षेपण में समर्थ बनाने के उद्धेश्य हेतु किया। १९६२ में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही, इसने अनुसंधित रॉकेट का प्रक्षेपण शुरू कर दिया, जिसमें भूमध्य रेखा की समीपता वरदान साबित हुई। ये सभी नव-स्थापित थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से प्रक्षेपित किए गए, जो कि दक्षिण केरल में तिरुवंतपुरम के समीप स्थित है। शुरुआत में, अमेरिका एवं के अनुसंधित रॉकेट क्रमश: नाइक अपाचे एवं केंटोर की तरह, उपरी दबाव का अध्ययन करने के लिए प्रक्षेपित किए गए, जब तक कि प्रशांत महासागर में पोत-आधारित अनुसंधित रॉकेट से अध्ययन शुरू न हुआ। ये इंग्लैंड और रूस की तर्ज पर बनाये गये। फिर भी पहले दिन से ही, अंतरिक्ष कार्यक्रम की विकासशील देशी तकनीक की उच्च महत्त्वाकांक्षा थी और इसके चलते भारत ने ठोस इंधन का प्रयोग करके अपने अनुसंधित रॉकेट का निर्माण शुरू कर दिया, जिसे रोहिणी की संज्ञा दी गई।

भारत अंतरिक्ष कार्यक्रम ने देशी तकनीक की आवश्यकता, एवं कच्चे माल एवं तकनीक आपूर्ति में भावी अस्थिरता की संभावना को भांपते हुए, प्रत्येक माल आपूर्ति मार्ग, प्रक्रिया एवं तकनीक को अपने अधिकार में लाने का प्रयत्न किया। जैसे जैसे भारतीय रोहिणी कार्यक्रम ने और अधिक संकुल एवं वृहताकार रोकेट का प्रक्षेपण जारी रखा, अंतरिक्ष कार्यक्रम बढ़ता चला गया और इसे परमाणु उर्जा विभाग से विभाजित कर, अपना अलग ही सरकारी विभाग दे दिया गया। परमाणु उर्जा विभाग के अंतर्गत इन्कोस्पार कार्यक्रम से १९६९ में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का गठन किया गया, जो कि प्रारम्भ में अंतरिक्ष मिशन के अंतर्गत कार्यरत था और परिणामस्वरूप जून, १९७२ में, अंतरिक्ष विभाग की स्थापना की गई।

१९७०-१९८०

१९६० के दशक में डॉ॰ साराभाई ने टेलीविजन के सीधे प्रसारण के जैसे बहुल अनुप्रयोगों के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले कृत्रिम उपग्रहों की सम्भव्यता के सन्दर्भ में नासा के साथ प्रारम्भिक अध्ययन में हिस्सा लिया और अध्ययन से यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि, प्रसारण के लिए यही सबसे सस्ता और सरल साधन है। शुरुआत से ही, उपग्रहों को भारत में लाने के फायदों को ध्यान में रखकर, साराभाई और इसरो ने मिलकर एक स्वतंत्र प्रक्षेपण वाहन का निर्माण किया, जो कि कृत्रिम उपग्रहों को कक्ष में स्थापित करने, एवं भविष्य में वृहत प्रक्षेपण वाहनों में निर्माण के लिए आवश्यक अभ्यास उपलब्ध कराने में सक्षम था। रोहिणी श्रेणी के साथ ठोस मोटर बनाने में भारत की क्षमता को परखते हुए, अन्य देशों ने भी समांतर कार्यक्रमों के लिए ठोस रॉकेट का उपयोग बेहतर समझा और इसरो ने कृत्रिम उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (एस.एल.वी.) की आधारभूत संरचना एवं तकनीक का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। अमेरिका के स्काउट रॉकेट से प्रभावित होकर, वाहन को चतुर्स्तरीय ठोस वाहन का रूप दिया गया।

इस दौरान, भारत ने भविष्य में संचार की आवश्यकता एवं दूरसंचार का पूर्वानुमान लगते हुए, उपग्रह के लिए तकनीक का विकास प्रारम्भ कर दिया। भारत की अंतरिक्ष में प्रथम यात्रा १९७५ में रूस के सहयोग से इसके कृत्रिम उपग्रह आर्यभट्ट के प्रक्षेपण से शुरू हुयी। १९७९ तक, नव-स्थापित द्वितीय प्रक्षेपण स्थल सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से एस.एल.वी. प्रक्षेपण के लिए तैयार हो चुका था। द्वितीय स्तरीय असफलता की वजह से इसका १९७९ में प्रथम प्रक्षेपण सफल नहीं हो पाया था। १९८० तक इस समस्या का निवारण कर लिया गया। भारत का देश में प्रथम निर्मित कृत्रिम उपग्रह रोहिणी-प्रथम प्रक्षेपित किया गया।

बजट

2012-17

12वी पंचवर्षीय योजना, 2012-17 के दौरान इसरो ने 58 अंतरिक्ष मिशनों के संचालन की योजना बनाई हैं, जिसके लिए अनंतिम रूप से 39,750 करोड़ रुपये के योजना परिव्‍यय की व्‍यवस्‍था की गई है। 2012-13 के दौरान 5,615 करोड़ रुपये की राशि आबंटित की गई।[१] हिन्दुस्तान से जुड़ी कुछ अनसुनी और रोचक बातें एक भारतीय होने के नाते आपको भारत से जुड़ी यह बातें जरूर जान लेनी चाहिए

महत्वपूर्ण तिथियाँ

2019 : चंद्रयान -2 का जुलाई माह में सफल स्थापन

अमरीकी प्रतिबंध

सोवियत संघ के साथ भारत के बूस्टर तकनीक के क्षेत्र में सहयोग का अमरीका द्वारा परमाणु अप्रसार नीति की आड़ में काफी प्रतिरोध किया गया। 1992 में भारतीय संस्था इसरो और सोवियत संस्था ग्लावकास्मोस पर प्रतिबंध की धमकी दी गयी। इन धमकियों की वजह से सोवियत संघ ने इस सहयोग से अपना हाथ पीछे खींच लिया साँचा:fixसोवियत संघ क्रायोजेनिक लिक्वीड राकेट इंजन तो भारत को देने के लिये तैयार था लेकिन इसके निर्माण से जुड़ी तकनीक देने को तैयार नहीं हुआ जो भारत सोवियत संघ से खरीदना चाहता था।

इस असहयोग का परिणाम यह हुआ कि भारत अमरीकी प्रतिबंधों का सामना करते हुये भी सोवियत संघ से बेहतर स्वदेशी तकनीक दो सालो के अथक शोध के बाद विकसित कर ली। हलाकि इसरो में अभी भी रूसी इंजनो का प्रयोग जारी है किन्तु इसे चरणबद्ध तरीके से स्वदेशी तकनीक से चरणों में बदला जा रहा है।

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2013 के दौरान अंतरिक्ष विभाग की उपलब्धियां

भारत सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति[१] के अनुसार 2013 के दौरान अंतरिक्ष विभाग की उपलब्धियां इस प्रकार हैं ई

इसरो नौवहन केन्‍द्र का उद्घाटन

इसरो नौवहन केन्‍द्र की बयालालू में भारतीय गहन अंतरिक्ष नेटवर्क (आईडीएसएन) के परिसर में स्‍थापना की गई है। यह बेंगलुरू से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर है। इसरो नौवहन केन्‍द्र का उद्घाटन 28 मई को प्रधानमन्त्री कार्यालय में राज्‍यमन्त्री श्री वी.नारायणसामी ने किया। यह केन्‍द्र भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली (आईआरएनएसएस) का महत्‍वपूर्ण हिस्सा है। यह एक स्‍वतंत्र नौवहन उपग्रह प्रणाली है, जिसे भारत द्वारा विकसित किया जा रहा है।

जीसैट-15 तथा जीसैट-16 संचार उपग्रह और प्रक्षेपण सुविधाएं

केन्द्रीय मन्त्रिमंडल ने 28 जून 2013 को प्रक्षेपण सेवाओं तथा बीमा सहित जीसैट-15 तथा जीसैट-16 संचार उपग्रह परियोजना के एवं प्रक्षेपण सेवाओं तथा बीमा के प्रस्‍ताव को मंजूरी दी। आकस्मिक स्थितियों का सामना करने तथा वर्तमान उपयोगकर्ताओं की सेवाओं की रक्षा करने के लिए अंतरिक्ष कक्षा में अतिरिक्‍त सुविधा उपलब्‍ध कराने की दृष्टि से जीसैट-15 का निर्माण इसरो के प्रयासों का एक भाग रहा है। उपग्रह से अपेक्षित क्षमता प्राप्‍त होगी, क्‍यू बैण्‍ड क्षमता में बढ़ोतरी होगी और कक्षा में जीवन गतिविधियों को सुरक्षा मिलेगी। इससे देश में नागरिक उड्डयन सेवाओं को भी लाभ मिलेगा। 9 परिचालित इनसैट\जीसैट उपग्रह इस समय करीब 195 ट्रांसपोंडरों को विभिन्‍न फ्रिक्‍वेंसी बैण्‍ड उपलब्ध‍ करा रहे हैं। जीसैट-15 उपग्रह समस्‍त भारतीय मुख्‍य भूमि को कवर करेगा। सभी हे‍रिटेज सिद्ध बस प्रणालियों का उपयोग 18 माह में उपग्रह का निर्माण करने में किया जायेगा। जीसैट-15 उपग्रह जीसैट-8 जैसा और जीसैट-16 उपग्रह जीसैट-10 जैसा होगा। प्रक्षेपण सेवाओं समेत परियोजना की कुल लागत 859.5 करोड़(जीसैट-15) और 865.50 करोड़ (जीसैट-16) है।

इनसैट-3डी का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण

26 जुलाई 2013 को भारत के उन्नत मौसम उपग्रह इनसैट-3डी का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया गया। इसे एरियाने-5 (वीए214) प्रक्षेपण यान द्वारा कोउरू, फ्रैंच गुयाना से प्रक्षेपण किया गया। इसमें उत्‍कृष्‍ट मौसम निगरानी प्रणाली का समावेश है। कार्यक्रम के अनुसार इसे सही समय पर सफलतापूर्वक प्रक्षेपण व भू-समकक्ष कक्षा में सफल स्‍थापन किया गया।

भारत के पहले नौवहन उपग्रह आईआरएनएसएस-1ए का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण

आईआरएनएसएस-1ए को 02 जुलाई 2013 की सुबह सतीश धवन अंतरिक्ष केन्‍द्र, श्रीहरिकोटा से प्रक्षेपण किया गया।[२][३] यह भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली (आईआरएनएसएस) है। यह पीएसएलवी का 23वां लगातार सफल मिशन रहा। इस मिशन के लिए 'XL' समाकृति के पीएसएलवी यान का उपयोग किया गया। इससे पहले इसी आकृति के प्रक्षेपण यान का उपयोग चन्‍द्रयान-1, जीसैट-12 और रीसैट-1 उपग्रहों के प्रक्षेपण में किया गया था।

जीसैट-7 का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण

भारत के उन्‍नत मल्‍टीबैंड संचार उपग्रह जीसैट-7 को 30 अगस्‍त, 2013 को सुबह कोउरू, फ्रैंच गुयाना से एरियाने स्‍पेस के प्रक्षेपण यान एरियने-5 से प्रक्षेपण किया गया। तीन बार ऊँचाई बढ़ाने की प्रक्रिया के बाद यह 03 सितम्‍बर, 2013 की सुबह को भूतल से करीब 36,000 किलोमीटर की ऊँचाई पर भू-समकक्ष कक्षा में स्‍थापित हो गया। भारत के उन्‍नत मल्‍टीबैंड संचार उपगह जीसैट-7 के सभी 11 संचार ट्रांसपोडरों को (यूएचएफ, एस, सी एवं क्‍यू-बैंड में परिचालित) सफलतापूर्वक संचालित किया गया और इन्‍होंने सामान्‍य तौर पर कार्य किया।

सतीश धवन अंतरिक्ष केन्‍द्र, श्रीहरिकोटा में प्रक्षेपण यान की असेम्‍बली के लिए दूसरा भवन

केन्‍द्रीय मन्त्रिमंडल ने 12 सितम्‍बर, 2013 को सतीश धवन अंतरिक्ष केन्‍द्र, श्रीहरिकोटा में प्रक्षेपण यान की असेम्‍बली के लिए दूसरे भवन के निर्माण की मंजूरी दी। इस पर 363.95 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत आएगी, जिसमें सात करोड़ रुपये का खर्च विदेशी मुद्रा में होगा। इस दूसरी बिल्डिंग के उपलब्‍ध हो जाने से पीएसएलवी और जीएसएलवी की प्रक्षेपण फ्रीक्वेंसी बढ़ेगी। यह जीएसएलवी एमके-III के एकीकरण के लिए वर्तमान व्‍हीकल असेम्‍बली बिल्डिंग को अतिरिक्‍त सुविधा मुहैया करायेगी। तीसरे प्रक्षेपण पैड तथा भविष्‍य में सामान्‍य यान प्रक्षेपण के लिए भी इससे काफी सुविधा मिलेगी।

मंगलग्रह मिशन का सफलतापूर्वक संचालन

इसरो ने 5 नवम्‍बर 2013 को सतीश धवन अंतरिक्ष केन्‍द्र, श्री हरि‍कोटा से मंगलग्रह मिशन को सफलतापूर्वक संचालित किया।

सन्दर्भ

4. भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम सम्पूर्ण जानकारीसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]