भारतीयकरण
'भारतीयकरण' का अर्थ है- जीवन के विविध क्षेत्रों में भारतीयता का पुनःप्रतिष्ठा। ‘भारतीयता’ शब्द ‘भारतीय’ विशेषण में ‘ता’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है जो संज्ञा (भाववाचक संज्ञा) रूप में परिणत हो जाता है। भारतीय का अर्थ है - भारत से सम्बन्धित। भारतीयता से तात्पर्य उस विचार या भाव से है जिसमें भारत से जुड़ने का बोध होता हो या भारतीय तत्वों की झलक हो या जो भारतीय संस्कृति से संबंधित हो। भारतीयता का प्रयोग राष्ट्रीयता को व्यक्त करने के लिए भी होता है। भारतीयता के अनिवार्य तत्त्व हैं - भारतीय भूमि, जन, संप्रभुता, भाषा एवं संस्कृति। इसके अतिरिक्त अंतःकरण की शुचिता (आन्तरिक व बाह्य शुचिता) तथा सतत सात्विकता पूर्ण आनन्दमयता भी भारतीयता के अनिवार्य तत्त्व हैं। भारतीय जीवन मूल्यों से निष्ठापूर्वक जीना तथा उनकी सतत रक्षा ही सच्ची भारतीयता की कसौटी है। संयम, अनाक्रमण, सहिष्णुता, त्याग, औदार्य (उदारता), रचनात्मकता, सह-अस्तित्व, बन्धुत्व आदि प्रमुख भारतीय जीवन मूल्य हैं।
भारतीयकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत महान प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता की रक्षा की जाती है । भारतीयकरण एक पुनःजगरण आन्दोलन है । यह आन्दोलन आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक शिक्षा आदि क्षेत्रों में स्वदेशी पर अत्यधिक बल देता है। यह आन्दोलन भारतीय संस्कृति को पुनः जीवित करने में कार्यरत है । यह आंदोलन मानवतावाद तथा भारतीय राष्ट्रीयतावाद पर बल देता है । यह आन्दोलन हिन्दी, संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं की रक्षा करता है ।
भारतीयता से संबंधित सुभाषित व सूक्तियाँ
‘‘भारत जब तक जग में होगा, भारतीयता तब तक होगी।’’
‘‘भारतीयता आध्यात्मिकता की तरंगों से ओत प्रोत है।’’ - स्वामी विवेकानन्द
‘‘भारतीयता का प्राण धर्म है, इसकी आस्था धर्म है और इसका भाव धर्म है।’’ - महर्षि अरविंद
‘‘भारतीयता होगी जब तक, जग होगा निरोगी तब तक।’’ - बलदेव प्रसाद मिश्र
‘‘सामाजिक, नैतिक तथा कलात्मक क्षेत्रों को भारतीयता तत्त्व दर्शनपरक सत्य और मूल्य प्रदान करती है।’’ राधा कमल मुखर्जी
भारतवर्ष के प्रत्येक व्यक्ति में मन में ‘भारतीय’ होने का भाव जितना अधिक होगा वे अपना भला बुरा भारत की उन्नति में देखेंगे। उनकी किसी गतिविधि से भारत का अहित होगा तो वे नहीं करेंगे। भारत की शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो कि प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति अपने आप को भारत का एक अंश, भारत माता का पुत्र माने। ऐसी स्थिति आने पर कोई भी राजनेता जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर देश को नहीं बांट सकेगा।
भारतीयता की प्रकृति
भारतीयता की प्रकृति से तात्पर्य उन मान बिंदुओं से है जिनकी उपस्थिति में भारतीयता का आभास होता है। भारतीयता निम्नांकित बिंदुओं/अवधारणाओं से प्रकट होती है-
- (१) वसुधैव कटुम्बकम् की अवधारणा : संपूर्ण विश्व को परिवार मानने की विशाल भावना भारतीयता में समाविष्ट हैं।
- अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
- उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
(यह मेरा है, यह पराया है, ऐसे विचार तुच्छ या निम्न कोटि के व्यक्ति करते हैं। उच्च चरित्र वाले व्यक्ति समस्त संसार को ही कुटुम्ब मानते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम का मन विश्वबंधुत्व की शिक्षा देता है।)
(२) विश्व कल्याण की अवधारणा :
- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
- सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाग्भवेत॥
भारतीय वाङ्मय में सदा सबके कल्याण की कामना की गई है। उसे ही सार्वभौम मानवधर्म माना गया है। मार्कण्डेय पुराण में सभी प्राणियों के कल्याण की बात की गई है। सभी प्राणी प्रसन्न रहें। किसी भी प्राणी को कोई व्याधि या मानसिक व्यथा न हो। सभी कर्मों से सिद्ध हों। सभी प्राणियों को अपना तथा अपने पुत्रों के हित के समान वर्ताव करें।
(३) विश्व को श्रेष्ठ बनाने का संकल्प : ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ (सारी दुनिया को श्रेष्ठ, सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाएंगे।) यह संकल्प भारतीयता के श्रेष्ठ उद्देश्य को व्यक्त करता है।
(४) त्याग की भावना : ईशावास्योपनिषद के प्रथम श्लोक में ही भारतीयता में त्याग की भावना स्पष्ट है।
- ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
- तेन त्यकतेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम ॥
अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ जड़ चेतन स्वरूप जगत है। यह समस्तम ईश्वर में व्याप्त है। उस ईश्वर को साथ रखते हुए त्याग पूर्वक भोगते रहो। उसमें आसक्त नहीं हों क्योंकि धन भोग्य किसका है अर्थात् किसी का भी नहीं। यह राजा से लेकर रंक तक त्यागपूर्वक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा देती है। भारत में राजा जनक से राजा हर्ष तक यही प्रेरणा मिलती है।
(५) वितरण के प्रति दृष्टि :
- शत् हस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर।
- कृतस्य कार्यऽस्य चेह स्फार्ति समावह ॥ - अथर्ववेद
हे मनुष्य। तू सौ हाथों से धन प्राप्त कर तथा हजार हाथों वाला बनकर उस धन को दान कर। इस उदार भावना से मनुष्य की अधिक से अधिक उन्नति हो सकती है। इस भावना से समाज में धन व संपत्ति का अधिक समान वितरण हो सकता है।
(६) सहिष्णुता : सहिष्णुता से तात्पर्य सहनशक्ति व क्षमाशीलता से है। धैर्य, विनम्रता, मौन भाव, शालीनता आदि इसके अनिवार्य तत्त्व हैं। भारतीयता का यह तत्त्व भारतीय संस्कृति को अन्य संस्कृतियों से अलग करता है। यही कारण है कि भारत की कभी भी अपने राज्य विस्तार की इच्छा नहीं रही तथा सभी धर्मां को अपने यहां फलते-फूलने की जगह दी।
(७) अहिंसात्मक प्रवृत्ति : अहिंसा से तात्पर्य हिंसा न करने से है। कहा गया है कि ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान मानो। भगवान महावीर, बुद्ध तथा महात्मा गांधी ने विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। महाभारत में भी कहा गया है कि मनसा, वाचा तथा कर्मणा किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। हमारे ऋषियों ने अहिंसा को धर्म का द्वार बताया है। जैन धर्म में अहिंसा को परम धर्म बताया गया है।
(८) आध्यत्मिकता : आध्यात्मिकता भारतीयता को अन्य संस्कृतियों के गुणों से अलग करती है। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव ही आध्यात्मिकता है। भक्ति, ज्ञान व कर्म मार्ग से आध्यात्मिकता प्राप्त की जा सकती है। यह आत्मा के संपूर्ण विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। पुरूषार्थ चतुष्टय आध्यात्म में संचालित, प्रेरित व अनुशासित होता है। आध्यात्म के क्षेत्र में भारत को गुरु मानता है।
(९) एकेश्वरवाद की अवधारणा :
- एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। (ईश्वर एक है। विद्वान उसे अनेकों नाम से पुकारते हैं)
इस्लाम ने भी ईश्वर के एक होने की बात की है परन्तु उसी सांस में यह भी कह दिया कि उसका पैगम्बर मौहम्मद है तथा उसके ग्रंथ कुरान में भी आस्था रखने की बात कही। यही बात ईसाइयत में है। भारत में ईश्वर को किसी पैगम्बर व ग्रंथ से नहीं बांधा है।
(१०) सर्वधर्म समभाव : भारत में सभी धर्म राज्य की दृष्टि में समान हैं। पूजा की सभी पद्धतियों का आदर करो तथा सभी धर्मां के प्रति सहिष्णुता बरतो। धर्म, मजहब, पंथ एक नहीं हैं। इस्लाम व ईसाइयत को पंथ/मजहब कह सकते हैं जबकि हिंदु धर्म 'जीवन पद्धति' है। कहा भी गया है कि-
- ‘‘धारयते इति धर्मः’’
अर्थात् जो धारण करता है, वहीं धर्म है। इसका अर्थ है पवित्र आचरण व मानव कर्तव्यों की एक आचार सहिंता। मनु ने धर्म के 10 लक्षण (तत्व) बताए हैं-
- १. धृति - धैर्य / संतोष
- २. क्षमा - क्षमा कर देना
- ३. दम - मानसिक अनुशासन
- ४. अस्तेय - चोरी नहीं करना
- ५. शौच - विचार व कर्म की पवित्रता
- ६. इंद्रिय निग्रह - इंद्रियों को वश में करना
- ७. धी - बुद्धि एवं विवेका का विकास
- ८. विद्या - ज्ञान की प्राप्ति
- ९. सत्य - सच्चाई
- १०. अक्रोध - क्रोध न करना
धर्म की इस परिभाषा में कुछ भी सांप्रदायिक नहीं है। भारतीय दृष्टि से लोग अलग पंथ/मजहब/पूजा पद्धति में विश्वास करते हुए इस धर्म का अनुसरण कर सकते हैं। जीवन के प्रति संश्लिष्ट दृष्टि - चार पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मानव जीवन के प्रेरक तत्व।
(११) धर्म राज्य / राम राज्य की अवधारणा : राजा या शासन लोकहित को व्यक्तिगत रूचि या अरूचि के उपर समझे। महाभारत में निर्देश हैं कि जो राजा प्रजा के संरक्षण का आश्वासन देकर विफल रहता है तो उसके साथ पागल कुत्ते का सा व्यवहार करना चाहिए।
(१२) अनेकता में एकता : भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि यहां अनेक जातियां, खान-पान, वेश-भूषा, भाषा, प्रांत होने के बावजूद भी राष्ट्र के नाम पर एकता है।
(१३) राष्ट्रीयता : भारतीयता राष्ट्रीयता की सशक्त भावना पैदा करने का ही दूसरा नाम है। राष्ट्रीयता में केवल राजनीतिक निष्ठा ही शामिल नहीं होती बल्कि देश की विरासत और उसकी संस्कृति के प्रति अनुशक्ति की भावना, आत्मगर्व की अनुभूति आदि भी शामिल है। राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय वीरों, महापुरूषों, राष्ट्रीय नैतिकता तथा मूल्यों के प्रति सम्मान की भावना भी राष्ट्रीयता का एक अंग है। इसलिए भारतीयता सभी भारतीयों में राष्ट्रीयता की सशक्त भावना पैदा करने के सिवाय कुछ भी नहीं है।
शिक्षा में भारतीयता
मानव जीवन की गुणवत्ता के संवर्द्धन तथा सामाजिक व आर्थिक प्रगति के लिए शिक्षा एक मूलभूत तत्त्व है। अधिकांश अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि पूंजीगत एवं प्राकृतिक संसाधनों की तुलना में मानवीय संसाधन प्रत्येक राष्ट्र के आर्थिक व सामाजिक विकास के चरित्र तथा गति को अधिक प्रभावित करते हैं क्योंकि पूंजी तथा प्राकृतिक संसाधन आर्थिक विकास के निष्क्रिय तत्त्व हैं जबकि मानवीय संसाधन एक सक्रिय तत्त्व है। मानवीय संसाधन ही पूंजी का संचय करते हैं, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते हैं, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संगठनों का निर्माण करते हैं तथा राष्ट्रीय विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस तरह से जो राष्ट्र अपने नागरिकों में निपुणताओं तथा ज्ञान की अभिवृद्धि करने तथा उपयोग करने में असमर्थ रहते हैं वे कुछ भी विकास करने में सफल नहीं हो सकते।
विश्व बैंक रिपोर्ट 2007 में कहा गया है कि जो विकासशील देश अपनी युवा शक्ति (12-24 वर्ष) की अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण आदि पर विनियोग करते हैं, वहां अच्छी विकास की दर तथा घटती निर्धनता प्राप्त की जा सकती है।
शिक्षा आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण घटक है। उत्पादकता एवं औद्योगिक किस्म को बढ़ाने, सूचना तंत्र तथा जैविक तकनीक क्षेत्र को गति देने, विनिर्मित एवं सेवा निर्यात क्षेत्र के उत्तेजित विस्तार करने, स्वास्थ्य एवं पोषण में सुधार लाने, घरेलू स्थिरता तथा शासन की गुणवत्ता के लिए सभी स्तरों पर शिक्षा की पहुंच तथा गुणवत्त पूर्ण शिक्षा की पूर्व एवं आवश्यक शर्त है।