जोरावरसिंह बारहठ

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जोरावरसिंह बारहठ (१२ सितम्बर १८८३ - १७ अक्टूबर १९३९) एक भारत के एक स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रान्तिकारी थे। उनके भाई केसरी सिंह बारहठ और उनके पुत्र प्रतापसिंह बारहठ भी महान क्रांतिकारी थे। उन्होंने महलों का वैभव त्यागकर स्वाधीनता के लिए सशस्त्र आंदोलन को चुना।[१][२][३]

जोरावर सिंह बारहठ का जन्म 12 सितम्बर 1883 को उदयपुर में हुआ। इनका पैतृक गांव भीलवाड़ा की शाहपुरा तहसील का देवखेड़ा है। उनके पिता कृष्ण सिंह बारहठ इतिहासकार साहित्यकार थे। उनके बड़े भाई केसरी सिंह बारहठ देशभक्त, क्रांतिकारी विचारक थे। इतिहास-वेत्ता किशोर सिंह भी उनके भाई थे।

जोरावर सिंह की प्रारंभिक शिक्षा उदयपुर और उच्च शिक्षा जोधपुर में हुई। उनका विवाह कोटा रियासत के ठिकाने अतरालिया के चारण ठाकुर तख्तसिंह की बेटी अनोप कंवर से हुआ। उनका मन वैवाहिक जीवन में नहीं रमा। उन्होंने क्रांति पथ चुना और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।

जोधपुर में उनका सम्पर्क प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई बालमुकुन्द से हुआ जो राजकुमारों के शिक्षक थे और जिन्हें दिल्ली षड्यन्त्र के अभियोग में फांसी हुई थी। देश की स्वतंत्रता के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से की गयी आरा (बिहार) के निमाज के महन्त की हत्या और लूट में जोरावर भी सम्मिलित थे। रासबिहारी बोस ने लार्ड हार्डिंग्ज बम कांड की योजना को मूर्तरूप देने के लिए जोरावरसिंह और प्रतापसिंह को बम फेंकने की जिम्मेदारी सौंपी। 23 दिसंबर, 1912 को वायसराय लार्ड हार्डिंग्ज का जुलूस दिल्ली के चांदनी चौक से गुजर रहा था। भारी सुरक्षा के बीच वायसराय हाथी पर सवार था। चांदनी चौक स्थित पंजाब नेशनल बैंक भवन की छत पर भीड़ में जोरावर सिंह और प्रतापसिंह और बसन्त कुमार विश्वास (बंगाल) थे। जैसे ही जुलूस सामने से गुजरा, जोरावरसिंह ने हार्डिंग्ज पर बम फेंका, लेकिन पास खड़ी महिला के हाथ से टकरा जाने से निशाना चूक गया और हार्डिंग्ज बच गया। छत्ररक्षक महावीर सिंह मारा गया।

आजादी के आंदोलन की इस महत्वपूर्ण घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दी थी। जोरावर सिंह प्रतापसिंह वहां से सुरक्षित निकल कर कोटा-बूंदी के बीहड़ जंगलो में आ गए। इसके बाद जोरावरसिंह मध्य प्रदेश के करंडिया एकलगढ़ (मन्दसौर) में साधु अमरदास बैरागी के नाम से रहे। वे कभी-कभार गुप्त रूप से अपने परिजनों से मिलते थे। उनके कोई सन्तान नहीं थी। जोरावर सिंह को वर्ष 1903 से 1939 तक 36 वर्ष की अवधि में अंग्रेज सरकार गिरफ्तार नहीं कर सकी। 17 अक्टूबर, 1939 में उनका देहावसान हुआ। एकल-गढ़ (मप्र) में उनका स्मारक है। [४]

सन्दर्भ

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  4. स्वाधीनता के पुरोधा थे जोरावर सिंह बारहठ

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