चारण (जाति)

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चारण एक जाति है जो सिंध, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के निवासी हैं । चारण को देव जाती माना जाता है , चारणो में कई देवीयों ने अवतार लिया है, चारणों की काव्य रचना सराहनीय होती है।

                                                                               धार्मिक संस्कृति  चारण अपने पूर्वजों की भी पूजा करते हैं। चारण प्रारम्भ से ईश्वर के उपासक एवं प्रकृति पूजक 'वैदिक' सनातन धर्मी रहे है। चारण जाति की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न मत हैं परन्तु स्वीकृत सिद्धांत के अनुसार चारण मूलतः भारतीय है।

चारणों का अपना एक लम्बा इतिहास रहा है।चारणों का साहित्य-लेखन में विशेष योगदान रहा है, कुछ इतिहासकारों ने चारणों को आर्यों से पहले का भारतीय निवासी माना तो कुछ ने चारणों को आर्य ही माना है।

चारणों में करणी माता,आई आवड़, स्वांगिया माता,खोडियार मां आदि प्रसिद्ध देवियां हुई है,जिन्हे राजपूत अपनी कुलदेवी मानते है।

सामाजिक संरचना

समाज के एक बड़े वर्ग द्वारा जाति के सदस्यों को दिव्य माना जाता है , राजपूतों सहित इस क्षेत्र के अन्य प्रमुख समुदायों द्वारा चारण जाति की महिलाओं को देवी के रूप में माना जाता है। [१] सदियों से चारण एक वादे को तोड़ने के बजाय मरने के लिए अपनी प्रतिष्ठा के लिए जाने जाते है ।

एक चारण पर विचार करेंगे सभी अन्य चारण बराबर के रूप में यहां तक कि अगर वे एक दूसरे को जानते नहीं है और मौलिक अलग आर्थिक या भौगोलिक स्थिति.


अनिल चन्द्र बनर्जी, एक इतिहास के प्रोफेसर, ने कहा कि

In them we have a combination of the traditional characteristics of the Brahmin and the Kshatriyas. Like the Brahmins, they adopted literary pursuits and accepted gifts.Like the Rajput, they worshipped Shakti, drank liquor, took meat and engaged in military activities. They stood at the chief portal on occasions of marriage to demand gifts from the bridegrooms, they also stood at the gate to receive the first blow of the sword."[१]

खाद्य और पेय

उनके खाने-पीने की आदतें राजपूतों से मिलती जुलती हैं। चारण अफीम की खपत और शराब पीने का आनंद लेते थे, जो इस क्षेत्र के राजपूतों में भी प्रचलित हैं। [६] चारण गायों का मांस नहीं खाते हैं, और जो लोग ऐसा करते हैं, उनकी अवहेलना करते हैं। गायों को माता की तरह सम्मान दिया जाता है । इससे पहले 1947 में भारतीय स्वतंत्रता, एक बलिदान के एक पुरुष भैंस के गठन का एक प्रमुख हिस्सा का उत्सव नवरात्रिहै। इस तरह के समारोहों में अक्सर इस्तेमाल किया जा करने के लिए की अध्यक्षता Charan औरत है।

भारतीय साहित्य में योगदान

चारण साहित्य, साहित्य की एक विधा के रूप में सुस्थापित है। डिंगल भाषा और साहित्य का अस्तित्व मुख्यतः चारणों के कारण है। झवेरचन्द मेघाणी ने चारण साहित्य को १३ उपविधाओं में विभाजित किया है।

  • (१) स्तवन - देवी-देवताओं की स्तुतियाँ
  • (२) बीरदवालो - नायकों, सन्तों और संरक्षकों की प्रसंशा
  • (३) वरन्नो - युद्ध का वर्णन
  • (४) उपलम्भो - उन राजाओं की आलोचना/निन्दा जो अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके कोई गलत कार्य करते हैं।
  • (५) थेकड़ी - किसी महनायक के साथ किए गए विश्वासघात का मजाक उड़ाना
  • (६) मरस्या या विलाप-काव्य -- योद्धाओं, संरक्षको, मित्रों या राजा के मृत्योपरान्त शोक व्यक्त करने के लिए रचित काव्य, जिसमें उस व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के अलावा अन्य क्रिया-कलापों का वर्णन किया जाता है।
  • (७) प्रेमकथाएँ
  • (८) प्राकृतिक सुन्दरता का वर्णन, ऋतु वर्णन, उत्सव वर्णन
  • (९) अस्त्र-शस्त्र का वर्णन
  • (१०) सिंह (शेर), घोड़े, ऊँट और भैंसों की प्रसंसा
  • (११) शिक्षाप्रद एवं व्यावहारिक चतुराई से सम्बन्धित कहावतें
  • (१२) प्राचीन महाकाव्य
  • (१३) अकाल और दुर्दिन के समय प्रजा की पीड़ा का वर्णन

चारणी साहित्य का एक अन्य वर्गीकरण यह है-

  • ख्यात : राजस्थानी साहित्य के इतिहासपरक ग्रन्थ जिनको रचना तत्कालीन शासकों ने अपनी मान-मर्यादा एवं वंशावली के चित्रण हेतु करवाई। उदाहरण - मुहणोत नैणसी री ख्यात, दयालदास को बीकानेर रां राठौड़ा री ख्यात आदि।
  • वंशावली : इस श्रेणी की रचनाओं में राजवंशों की वंशावलियाँ विस्तृत विवरण सहित लिखी गई हैं, जैसे राठौड़ा री वंशावली, राजपूतों री वंशावली आदि।
  • दवावैत – यह उर्दू-फारसी की शब्दावली से युक्त राजस्थानी कलात्मक लेखन शैली है, किसी की प्रशंसा दोहों के रूप में की जाती है।
  • वार्ता या वात : वात का अर्थ कथा या कहानी से है । राजस्थान मे ऐतिहासिक, पौराणिक, प्रेमपरक एवं काल्पनिक कथानकों पर अपार वात साहित्य है।
  • रासो (सैन्य महाकाव्य) -- राजाओं की प्रशंसों में लिखे गए काव्य ग्रन्थ जिनमें उनके युद्ध अभियानों व वीरतापूर्ण कृत्यों के विवरण के साथ उनके राजवंश का विवरण भी मिलता है। बीसलदेव रासी, पृथ्वीराज रासो आदि मुख्य रासो ग्रन्थ हैं।
  • वेलि -- राजस्थानी वेलि साहित्य में यहाँ के शासकों एवं सामन्तों की वीरता, इतिहास, विद्वता, उदरता, प्रेम-भावना, स्वामिभक्ति, वंशावली आदि घटनाओं का उल्लेख होता है। पृथ्वीराज राठौड़ द्वारा रचित 'वेलि किसन रुकमणी री' प्रसिद्ध वेलि ग्रन्थ है।
  • विगत : यह भी इतिहासपरक ग्रन्थ लेखन की शैली है। 'मारवाड़ रा परगना री विगत' इस शैली की प्रमुख रचना है।
  • प्रकास : किसी वंश अथवा व्यक्ति विषेष की उपलब्धियाँ या घटना विशेष पर प्रकाश डालने वाली कृतियाॅं ‘प्रकास‘ कहलाती है। राजप्रकास, पाबू प्रकास, उदय प्रकास आदि इनके मुख्य उदाहरण है।
  • वचनिका : यह एक गद्य-पद्य तुकान्त रचना होती है, जिससे अन्त्यानुप्रास मिलता है। राजस्थानी साहित्य में "अचलदास खाँची री वचनिका" एवं "राठौड़ रतनसिंह जी महेस दासोत से वचनिका" प्रमुख हैं। वचनिका मुख्यतः अपभ्रंश मिश्रित राजस्थानी मे लिखी हुई हैं।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ