खरवार
साँचा:ethnic group खरवार एक प्राचीन जाति है जो भारतीय राज्यों असम, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसग़़ढ, मध्य प्रदेश, उड़ीसा आदि कई राज्यों में पाई जाती है। यह सूर्यवंशी होते हैं और यह "सूर्यवंशी क्षत्रिय खरवार" कहे जाते हैं। यह खड़गवंशी भी कहलाते हैं। खरवारों का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है जिसका सबूत बिहार के रोहताश्व किला है जो खरवार राजाओं की एक प्राचीन धरोहर है जिसका निर्माण त्रेतायुग में किया गया था जो आज खरवार राजाओं का प्रतीक है।
इतिहास
खारवार खेरवार जाति में कुछ लोग पलामू जिले में पाए जाते हैं, जो कि झारखंड में है, जबकि अन्य सोन घाटी में रहते हैं। उत्तर प्रदेश के लोग रोहतास से आने और पौराणिक सूर्यवंश वंश के होने का दावा करते हैं, खुद को "खड़गवंशी" कहते और असम के खेरवार अपने आप को आदिवासी मानते हैं ।[१]
खरवार वंश राजा साहस धवल देव का ताम्रपत्र अभिलेख
खैयरवालवंश यानी खरवार राजाओं का शासन रहा है। वैसे यह राजवंश मूलत: वर्तमान झारखंड के जपला का थे। इनका शासन वाराणसी की सीमा से लेकर गया तक था। 11 वीं सदी से लेकर 16वीं सदी तक इस वंश के राजाओं ने यहां शासन किया। इसी वंश के 12वीं सदी में राजा साहस धवल देव हुए। ये सर्वप्रसिद्ध राजा प्रताप धवल देव के तीसरे पुत्र थे। उनका लिखवाया हुआ 12 वीं सदी का ताम्रपत्र लेख रोहतास जिले के अदमापुर से एक मकान की नींव खोदते समय प्राप्त हुआ है।
यह ताम्रपत्र महानृपति साहस धवल देव का है। इसकी भाषा संस्कृत तथा लिपि प्रारंभिक नागरी है। अभिलेख 34 पंक्तियों का है जो ताम्र पत्र के दोनों और लिखा गया है। ऊपर हत्थे पर साहस धवल देव का नाम है। इससे स्पष्ट है कि इसे स्वयं राजा के द्वारा लिखवाया गया है। साहस धवल का कोई भी अभिलेख पहली बार प्राप्त हुआ है। इसमें भी प्रताप धवल देव के बाद राज वंशावली में साहस धवल देव का नाम है। यह ताम्रपत्र एक दान पत्र है जो एक मंदिर को दिया गया है। मंदिर अम्बडा ग्राम में था जिसका वर्तमान नाम अदमापुर हो गया है।
ताम्रपत्र लेख विक्रमी संवत 1241 का है। लेख के अनुसार अम्बड़ा ग्राम में महाराज की जो भूमि पड़ी है उसे वे निबेश्व महादेव को दान दे रहे हैं। इस तामपत्र से सात सौ वर्ष पहले यहां की बसावटें व खरवारों की सांस्कृतिक तथा आर्थिक समझने में भी मदद मिलेगी।
रोहतास के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व पर शोध कार्य कर चुके इतिहासकार डॉ. श्याम सुंदर तिवारी का कहना है कि प्रताप धवल देव के पहले और दूसरे शिलालेखों-तुतला और फुलवरिया से भी पता चलता है कि उनके प्रथम पुत्र शत्रुघ्न और द्वितीय पुत्र विरधन के बाद साहस धवल थे। बाद के शिलालेखों और ताम्रपत्र लेखों में साहस धवल देव का ही उल्लेख मिलता है। साहस धवल देव के दूसरे पुत्र इंद्र धवल देव का ताम्रपत्र नवनेर (औरंगाबाद जिले) से प्राप्त हुआ था। उनके पहले पुत्र विक्रम धवल देव ने बांदू में एक शिलालेख लिखवाया था। इन दोनों में साहस धवल देव का जिक्र है। वर्तमान ताम्रपत्र लेख रोहतास जिले के अदमापुर से एक मकान की नींव खोदते समय प्राप्त हुआ है। बड़ी मशक्कत के बाद इसे पढ़ने में सफलता पाई गई है। यह ताम्रपत्र महानृपति साहस धवल देव का है। इसकी भाषा संस्कृत तथा लिपि प्रारंभिक नागरी है।
अभिलेख 34 पंक्तियों का है जो ताम्र पत्र के दोनों और लिखा गया है। ऊपर हत्थे पर साहस धवल देव का नाम है। इससे स्पष्ट है कि इसे स्वयं राजा के द्वारा लिखवाया गया है। साहस धवल का कोई भी अभिलेख पहली बार प्राप्त हुआ है। इसमें भी प्रताप धवल देव के बाद राज वंशावली में साहस धवल देव का नाम है। यह ताम्रपत्र एक दान पत्र है जो एक मंदिर को दिया गया है। मंदिर अम्बडा ग्राम में था जिसका वर्तमान नाम अदमापुर हो गया है। ताम्रपत्र लेख विक्रमी संवत 1241 का है। लेख के अनुसार अम्बड़ा ग्राम में महाराज की जो भूमि पड़ी है उसे वे निबेश्व महादेव को दान दे रहे हैं। इससे मंदिर का धूप दीप और नैवैद्य के लिए भंडार भरा रहेगा। दान मंत्र अनुष्ठान के साथ दिया गया है। उस अवसर पर राजा के परिवार के सदस्यों और उनके अधिकारियों सहित सैकड़ों लोग मौजूद थे। इस ताम्रपत्र से स्पष्ट होता है कि इस वंश के सबसे प्रथम राजा खादिर पाल हुए। उनके बाद उनके पुत्र साधव हुए। साधव के पुत्र रण धवल और उनके पुत्र प्रताप धवल देव हुए। उनके बाद साहस धवल देव इस वंश के प्रतापी राजा हुए जिनके शासन काल में ही रोहतासगढ़ को उरांव राजाओं से हस्तगत किया जा सका था। इस ताम्रपत्र में भी साहस धवल देव ने अपने को जपला का रहने वाला बताया है। इस ताम्रपत्र में अक्षपटलिक यानी न्यायाधीश पंडित महानिधि द्वारा जारी किया गया है। डॉक्टर तिवारी कहते हैं कि यह ताम्रपत्र लेख 1181 ईस्वी का है और बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें साहस धवल और उनके पूर्व राजाओं की पूरी वंशावली पहली बार आधिकारिक साक्ष्य के साथ मिली है।
वर्तमान परिस्थितियाँ
खरवार की प्राथमिक पारंपरिक आर्थिक गतिविधि कृषि रही है। एक ही वार्षिक फसल और उपयुक्त मौसम पर उनकी निर्भरता के कारण वे खुद को बनाए रखने के लिए वन गतिविधियों, पशुधन, मछली पकड़ने, शिकार और जाल के आधार पर काम में संलग्न होते हैं।
खरवार नागपुरी भाषा बोलते हैं और अन्य के साथ हिंदी। खरवार के सात उपजाति हैं जो सूरजबंशी,रघुवंशी, बेनवंशी , द्वालबन्दी, पटबन्दी, खैरी, भोगता और चेरू मंझिया हैं। रिसले (1891) ने बनिया, बा बहेरा, बेल, बैर, बमरिया, बंदिया और छोटानागपुर के खरवार के बीच कुछ और रिकॉर्ड बनाए। वे आगे बताते हैं कि पलामू खरवार में पट बंध, दुलबंध और खैरी उप जनजातियाँ हैं जहाँ दक्षिणी लोहरदगा में समुदाय के पास देसवारी, भोगता, राउत उप जनजातियाँ हैं। वे खुद को अठ्ठारह हजारी मानते हैं ।[२]
जन्म का सूतक छह दिनों तक देखा गया। वे मृतकों का दाह संस्कार करते हैं या दफन करते हैं और दस दिनों के लिए मृत्यु का सूतक मनाते हैं।साँचा:cn
उत्तर प्रदेश सरकार ने खरवार को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया था, लेकिन समुदाय के सदस्यों ने इसे नापसंद किया। खुद को जनजाति के रूप में सोचना पसंद करते हैं।[१] 2007 तक, वे कई समूहों में से एक थे जिन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने अनुसूचित जनजाति के रूप में फिर से तैयार किया था।[३] 2017 तक, यह पदनाम केवल राज्य के कुछ जिलों में लागू था।[४]
संस्कृति एवं कला
खरवार शासन परंपरागत आदर्शों पर आधारित था। खरवारो को उनकी कला और वास्तुकला के लिए जाना जाता है। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर कई मंदिरों, जल निकायों, महलों और किलों की स्थापना की है।
खरवार वास्तुकला
कुदरगढ़ी माता

इन्हें भी देखे
सन्दर्भ
- ↑ इस तक ऊपर जायें: अ आ साँचा:cite book
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- ↑ साँचा:cite web
- ↑ साँचा:cite web