१८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

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1857/58 का भारत का स्वाधीनता संग्राम
Indian Rebellion of 1857.jpg
1857-59 के दौरान हुये भारतीय विद्रोह के प्रमुख केन्द्रों: मेरठ, दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झाँसी, वर्तमान हरियाणा(पंजाब), राजपूताना के कुछ हिस्से राजस्थान से और ग्वालियर को दर्शाता सन 1912 का नक्शा।
तिथि 10 मई 1857
स्थान भारत (cf. 1857)[१]
परिणाम विद्रोह का दमन,
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत,
नियंत्रण ब्रिटिश ताज के हाथ में।
क्षेत्रीय
बदलाव
पूर्व ईस्ट इंडिया कंपनी के क्षेत्रों को मिलाकर बना भारतीय साम्राज्य, इन क्षेत्रों मे से कुछ तो स्थानीय राजाओं को लौटा दिये गये जबकि कईयों को ब्रिटिश ताज द्वारा जब्त कर लिया गया।
योद्धा
साँचा:flag
Flag of the British East India Company (1801).svg ईस्ट इंडिया कंपनी सिपाही
मंगल पाण्डेय दुगवा नरेश फैजाबाद

7 भारतीय रियासतें

  • Gwalior flag.svg ग्वालियर धड़े
  • अवध ध्वज.gif अवध के अपदस्थ राजा के बेटे बिरजिस कद्र के अनुयाई
  • स्वतंत्र राज्य झांसी की अपदस्थ रानी, रानी लक्ष्मीबाई की सेना
  • कुछ भारतीय नागरिक; मुख्यत: अवध के ताल्लुकेदारों (सामंती जमींदार) और ग़ाज़ियों (धर्मयोद्धा) के अनुचर।
  • कुछ भारतीय नागरिक; मुख्यत: वर्तमान हरियाणा (तत्कालीन पंजाब) के कुछ योद्धा, उत्तर भारत और मध्य भारत के राजपूताना से कुछ धर्मयोद्धा।
साँचा:flagicon ब्रिटिश सेना

Flag of the British East India Company (1801).svg ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाही
देशी उपद्रवी
और ईस्ट इंडिया कंपनी के ब्रिटिश सैनिक साँचा:flagicon बंगाल प्रेसीडेंसी के ब्रिटिश नागरिक स्वयंसेवक
21 रियासतें

Pre 1962 Flag of Nepal.png नेपाल की राजशाही
क्षेत्र के अन्य छोटे राज्य

सेनानायक
दुगवा नरेश मंगल पाण्डेय
       साँचा:flagicon बहादुर शाह द्वितीय
नाना साहेब
साँचा:flagicon मिर्ज़ा मुग़ल
Flag of the British East India Company (1801).svg बख़्त खान
रानी लक्ष्मीबाई
Flag of the British East India Company (1801).svg तात्या टोपे
अवध ध्वज.gif बेगम हजरत महल
प्रधान सेनापति, भारत:
साँचा:flagicon जॉर्ज एनसोन (मई 1857 से)
साँचा:flagicon सर पैट्रिक ग्रांट
साँचा:flagicon कॉलिन कैंपबैल (अगस्त 1857 से)
Pre 1962 Flag of Nepal.png जंग बहादुर[२]
चित्र:1857Swatantrata sangram.jpg
१८५७ के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को समर्पित भारत का डाकटिकट।

१८५७ का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रूप ले लिया। विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले ९० वर्षों तक चला।[३]

परिभाषा

अरबाज खान माहोली ( iamarbaj_7 ) के अनुसार " यह विद्रोह ब्रिटिश शासन के विरूद्ध प्रथम स्वाधीनता संग्राम था " जिसने ब्रिटिश शासन कि नींव हिला कर रख दी ||

भारत में ब्रितानी विस्तार का संक्षिप्त इतिहास

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सन 1757 में प्लासी का युद्ध जीता। युद्ध के बाद हुई संधि में अंग्रेजों को बंगाल में कर मुक्त व्यापार का अधिकार मिल गया। सन 1764 में बक्सर का युद्ध जीतने के बाद अंग्रेजों का बंगाल पर पूरी तरह से अधिकार हो गया। इन दो युद्धों में हुई जीत ने अंग्रेजों की ताकत को बहुत बढ़ा दिया और उनकी सैन्य क्षमता को परम्परागत भारतीय सैन्य क्षमता से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। कंपनी ने इसके बाद सारे भारत पर अपना प्रभाव फैलाना आरंभ कर दिया।

1857 की क्रांति के समय के भारतीय राज्य।

सन 1843 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सिन्ध क्षेत्र पर रक्तरंजित लडाई के बाद अधिकार कर लिया। सन १८३९ में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद कमजोर हुए पंजाब पर अंग्रेजों ने अपना हाथ बढा़या और सन 1848 में दूसरा अंग्रेज-सिख युद्ध हुआ। सन 1849 में कंपनी का पंजाब पर भी अधिकार हो गया। सन 1853 में आखरी मराठा पेशवा बाजी राव के दत्तक पुत्र नाना साहेब की पदवी छीन ली गयी और उनका वार्षिक खर्चा बंद कर दिया गया। सन 1854 में बरार और सन 1856 में अवध को कंपनी के राज्य में मिला लिया गया।

विद्रोह के कारण

सन 1857 के विद्रोह के विभिन्न राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सैनिक तथा सामाजिक कारण बताये जाते है

वैचारिक मतभेद

कई इतिहासकारों का मानना है कि उस समय के जनमानस में यह धारणा थी कि, अंग्रेज उन्हें जबर्दस्ती या धोखे से ईसाई बनाना चाहते हैं। यह पूरी तरह से गलत भी नहीं था, कुछ कंपनी अधिकारी धर्म परिवर्तन के कार्य में जुटे थे। हालांकि कंपनी ने धर्म परिवर्तन को स्वीकृति कभी नहीं दी। कंपनी इस बात से अवगत थी कि धर्म, पारम्परिक भारतीय समाज में विद्रोह का एक कारण बन सकता है। इससे पहले सोलहवीं सदी में भारत तथा जापान से पुर्तगालियों के पतन का एक कारण यह भी था कि उन्होंने जनता पर ईसाई धर्म बलात लादने का प्रयास किया था।

लॉर्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नाति (डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स) के अन्तर्गत अनेक राज्य जैसे झाँसी, अवध, सतारा, नागपुर और संबलपुर को अंग्रेजी़ राज्य में मिला लिया गया और इनके उत्तराधिकारी राजा से अंग्रेजी़ राज्य से पेंशन पाने वाले कर्मचारी बन गये। शाही घराने, जमींदार और सेनाओं ने अपने आप को बेरोजगार और अधिकारहीन पाया। ये लोग अंग्रेजों के हाथों अपनी शर्मिंदगी और हार का बदला लेने के लिये तैयार थे। लॉर्ड डलहौजी के शासन के आठ वर्षों में दस लाख वर्गमील क्षेत्र को कंपनी के अधिकार में ले लिया गया। इसके अतिरिक्त ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल सेना में बहुत से सिपाही अवध से भर्ती होते थे, वे अवध में होने वाली घटनाओं से अछूते नहीं रह सके। नागपुर के शाही घराने के आभूषणों की कलकत्ता में बोली लगायी गयी इस घटना को शाही परिवार के प्रति अनादर के रूप में देखा गया।

भारतीय, कंपनी के कठोर शासन से भी नाराज थे जो कि तेजी से फैल रहा था और पश्चिमी सभ्य्ता का प्रसार कर रहा था। अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मु्सलमानों के उस समय माने जाने वाले बहुत से रिवाजों को गैरकानूनी घोषित कर दिया जो कि अंग्रेजों द्वारा असमाजिक माने जाते थे। इसमें सती प्रथा पर रोक लगाना शामिल था। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि सिखों ने यह बहुत पहले ही बंद कर दिया था और बंगाल के प्रसिद्ध समाज सुधारक राजा राममोहन राय इस प्रथा को बंद करने के पक्ष में प्रचार कर रहे थे। इन कानूनों ने समाज के कुछ पक्षों मुख्यतः बंगाल में क्रोध उत्पन्न कर दिया। अंग्रेजों ने बाल विवाह प्रथा को समाप्त किया तथा कन्या भ्रूण हत्या पर भी रोक लगायी। अंग्रेजों द्वारा ठगी की समाप्ति भी की गई परन्तु यह सन्देह अभी भी बना हुआ है कि ठग एक धार्मिक समुदाय था या केवल साधारण डकैतों का समुदाय।

ब्रितानी न्याय व्यवस्था भारतीयों के लिये अन्यायपूर्ण मानी जाती थी। सन १८५३ में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लौर्ड अब्रेडीन ने प्रशासनिक सेवा को भारतीयों के लिये खोल दिया परन्तु कुछ प्रबुद्ध भारतीयों के हिसाब से यह सुधार पर्याप्त नहीं था। कंपनी के अधिकारियों को भारतीयों के विरुद्ध न्यायालयों में अनेक अपीलों का अधिकार प्राप्त था। कंपनी भारतीयों पर भारी कर भी लगाती थी जिसे न चुकाने की स्थिति में उनकी संपत्ति अधिग्रहित कर ली जाती थी। कंपनी के आधुनिकीकरण के प्रयासों को पारम्परिक भारतीय समाज में सन्देह की दृष्टि से देखा गया। लोगो ने माना कि रेलवे जो बाम्बे से सर्वप्रथम चला एक दानव है और लोगो पर विपत्ति लायेगा।

परन्तु बहुत से इतिहासकारों का यह भी मानना है कि इन सुधारों को बढ़ा चढ़ा कर बताया गया है क्योंकि कंपनी के पास इन सुधारों को लागू करने के साधन नहीं थे और कलकत्ता से दूर उनका प्रभाव नगण्य था[४]


आर्थिक कारण

१८५७ के विद्रोह का एक प्रमुख कारण कंपनी द्वारा भारतीयों का आर्थिक शोषण भी था। कंपनी की नीतियों ने भारत की पारम्परिक अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था। इन नीतियों के कारण बहुत से किसान, कारीगर, श्रमिक और कलाकार कंगाल हो गये। इनके साथ साथ जमींदारों और बड़े किसानों की स्थिति भी बदतर हो गयी। सन १८१३ में कंपनी ने एक तरफा मुक्त व्यापार की नीति अपना ली इसके अन्तर्गत ब्रितानी व्यापारियों को आयात करने की पूरी छूट मिल गयी, परम्परागत तकनीक से बनी हुई भारतीय वस्तुएं इसके सामने टिक नहीं सकी और भारतीय शहरी हस्तशिल्प व्यापार को अकल्पनीय क्षति हुई।

रेल सेवा के आने के साथ ग्रामीण क्षेत्र के लघु उद्यम भी नष्ट हो गये। रेल सेवा ने ब्रितानी व्यापारियों को दूर दराज के गावों तक पहुँच दे दी। सबसे अधिक क्षति कपड़ा उद्योग (कपास और रेशम) को हुई। इसके साथ लोहा व्यापार, बर्तन, कांच, कागज, धातु, बन्दूक, जहाज और रंगरेजी के उद्योगों को भी बहुत क्षति हुई। १८ वीं और १९ वीं शताब्दी में ब्रिटेन और यूरोप में आयात कर और अनेक रोकों के चलते भारतीय निर्यात समाप्त हो गया। पारम्परिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की कारण यह स्थिति और भी विषम हो गयी। साधारण जनता के पास खेती के अलावा कोई और साधन नहीं बचा।

खेती करने वाले किसानो की हालत भी खराब थी। ब्रितानी शासन के प्रारम्भ में किसानों को जमीदारों की दया पर छोड़ दिया गया, जिन्होने लगान को बहुत बढा़ दिया और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानो का शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। कंपनी ने खेती के सुधार पर बहुत कम खर्च किया और अधिकतर लगान कंपनी के खर्चों को पूरा करने में प्रयोग होता था। फसल के खराब होने की दशा में किसानो को साहूकार अधिक ब्याज पर कर्जा देते थे और अनपढ़ किसानो को कई तरीकों से ठगते थे। ब्रितानी कानून व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानों को अपनी भूमि से भी हाथ धोना पड़ता था। इन समस्याओं के कारण समाज के हर वर्ग में असंतोष व्याप्त था।

राजनैतिक कारण

सन 1848 और 1856 के बीच लार्ड डलहोजी ने डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स के कानून के अन्तर्गत अनेक राज्यों पर अधिकार कर लिया। इस सिद्धांत अनुसार कोई राज्य, क्षेत्र या ब्रितानी प्रभाव का क्षेत्र कंपनी के अधीन हो जायेगा, यदि क्षेत्र का राजा निसन्तान मर जाता है या शासक कंपनी की दृष्टि में अयोग्य साबित होता है। इस सिद्धांत पर कार्य करते हुए लार्ड डलहोजी और उसके उत्तराधिकारी लार्ड कैन्निग ने सतारा,नागपुर,झाँसी,अवध को कंपनी के शासन में मिला लिया। कंपनी द्वारा तोडी गय़ी सन्धियों और वादों के कारण कंपनी की राजनैतिक विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिन्ह लग चुका था। सन १८४९ में लार्ड डलहोजी की घोषणा के अनुसार बहादुर शाह के उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक लाल किला छोड़ना पडेगा और शहर के बाहर जाना होगा और सन १८५६ में लार्ड कैन्निग की घोषणा कि बहादुर शाह के उत्तराधिकारी राजा नहीं कहलायेंगे ने मुगलों को कंपनी के विद्रोह में खडा कर दिया।

सिपाहियों की आशंका

सिपाही मूलत: कंपनी की बंगाल सेना में काम करने वाले भारतीय मूल के सैनिक थे। बम्बई, मद्रास और बंगाल प्रेसीडेन्सी की अपनी अलग सेना और सेनाप्रमुख होता था। इस सेना में ब्रितानी सेना से अधिक सिपाही थे। सन १८५७ में इस सेना में २,५७,००० सिपाही थे। बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सी की सेना में अलग अलग क्षेत्रों के लोग होने की कारण ये सेनाएं विभिन्नता से पूर्ण थी और इनमे किसी एक क्षेत्र के लोगो का प्रभुत्व नहीं था। परन्तु बंगाल प्रेसीडेन्सी की सेना में भर्ती होने वाले सैनिक मुख्यत: अवध और गन्गा के मैदानी इलाको के अधिकांश गुर्जर थे। जबकि ब्राह्मणों और राजपूत ने अंग्रेजों का साथ दिया था। मन कंपनी के प्रारम्भिक वर्षों में बंगाल सेना में जातिगत विशेषाधिकारों और रीतिरिवाजों को महत्व दिया जाता था। परन्तु सन १८४० के बाद कलकत्ता में आधुनिकता पसन्द सरकार आने के बाद सिपाहियों में अपनी जाति खोने की आशंका व्याप्त हो गयी। [५] सेना में सिपाहियों को जाति और धर्म से सम्बन्धित चिन्ह पहनने से मना कर दिया गया। सन १८५६ में एक आदेश के अन्तर्गत सभी नये भर्ती सिपाहियों को विदेश में कुछ समय के लिये काम करना अनिवार्य कर दिया गया। सिपाही धीरे-धीरे सेना के जीवन के विभिन्न पहलुओं से असन्तुष्ट हो चुके थे। सेना का वेतन कम था। भारतीय सैनिकों का वेतन महज सात रूपये प्रतिमाह था। और अवध और पंजाब जीतने के बाद सिपाहियों का भत्ता भी समाप्त कर दिया गया था। एनफ़ील्ड बंदूक के बारे में फ़ैली अफवाहों ने सिपाहियों की आशन्का को और बढा़ दिया कि कंपनी उनकी धर्म और जाति परिवर्तन करना चाहती है।

एनफ़ील्ड बंदूक

सन १८५३ की ३-बैण्ड इनफिल्ड बन्दूक

विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ। सिपाहियों को पैटऱ्न १८५३ एनफ़ील्ड बंदूक दी गयीं जो कि ०.५७७ कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता था। कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी।

अफ़वाहें

एक और अफ़वाह जो कि उस समय फ़ैली हुई थी, कंपनी का राज्य सन १७५७ में प्लासी का युद्ध से प्रारम्भ हुआ था और सन १८५७ में १०० वर्षों बाद समाप्त हो जायेगा। चपातियां और कमल के फ़ूल भारत के अनेक भागों में वितरित होने लगे। ये आने वाले विद्रोह के लक्ष्ण थे।

युद्ध का प्रारम्भ

विद्रोह प्रारम्भ होने के कई महीनो पहले से तनाव का वातावरण बन गया था और कई विद्रोहजनक घटनायें घटीं। २४ जनवरी १८५७ को कलकत्ता के निकट आगजनी की कई घटनायें हुई। २६ फ़रवरी १८५७ को १९ वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री ने नये कारतूसों को प्रयोग करने से मना कर दिया। रेजीमेण्ट् के अफ़सरों ने तोपखाने और घुडसवार दस्ते के साथ इसका विरोध किया पर बाद में सिपाहियों की मांग मान ली।

मंगल पाण्डेय

मंगल पाण्डेय ३४ वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री में एक सिपाही थे। २९ मार्च १८५७ को बैरकपुर परेड मैदान कलकत्ता के निकट मंगल पाण्डेय जो दुगवा रहीमपुर(फैजाबाद) के रहने वाले थे रेजीमेण्ट के अफ़सर लेफ़्टीनेण्ट बाग पर हमला कर के उसे घायल कर दिया। जनरल जान हेएरसेये के अनुसार मंगल पाण्डेय किसी प्रकार के धार्मिक पागलपन में थे जनरल ने जमींदार ईश्वरी प्रसाद को मंगल पांडेय को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया पर ज़मीदार ने मना कर दिया। सिवाय एक सिपाही शेख पलटु को छोड़ कर सारी रेजीमेण्ट ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार करने से मना कर दिया। मंगल पाण्डेय ने अपने साथियों को खुलेआम विद्रोह करने के लिये कहा पर किसी के ना मानने पर उन्होने अपनी बंदूक से अपनी प्राण लेने का प्रयास किया। परन्तु वे इस प्रयास में केवल घायल हुये। ६ अप्रैल १८५७ को मंगल पाण्डेय का कोर्ट मार्शल कर दिया गया और ८ अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी।

चित्रदीर्घा

सन्दर्भ

टीका-टिप्पणी

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बाहरी कड़ियाँ

1824 के विद्रोह की बाहरी कड़ियाँ

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  1. File:Indian revolt of 1857 states map.svg
  2. The Gurkhas by W. Brook Northey, John Morris. ISBN 81-206-1577-8. Page 58
  3. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  4. Eric Stokes “The First Century of British Colonial Rule in India: Social Revolution or Social Stagnation?” Past and Present №.58 (Feb. 1973) pp136-160
  5. Seema Alavi The Sepoys and the Company (Delhi: Oxford University Press) 1998 p5